ब्रह्मकेतु नामक एक चोर मिथिला नरेश जनक के दरबार में हाजिर किया गया। राजा जनक ने कहा ब्रह्मकेतु, तुमने चोरी की है। उचित दण्ड तो यह था कि तुम्हारा हाथ कटवा दिया जाता, परन्तु तुम विद्वान हो, इसलिए इतना ही दण्ड देता हूँ कि तुम मेरे राज्य से बाहर निकल जाओ।
ब्रह्मकेतु ने पूछा- यह राज्य आपका है…?
जनक बोले- हाँ, यह राज्य मुझे अपने पिता से प्राप्त हुआ है।
ब्रह्मकेतु ने प्रश्न किया- आपके पहले यह राज्य आपके पिता का था…?
जनक ने का- मेरे दादा का था।
ब्रह्मकेतु ने पूछा- और जब आप नहीं रहेंगे तब यह राज्य किसका होगा…?
जनक ने उत्तर दिया- तब यह मेरे पुत्र का होगा।
ब्रह्मकेतु ने कहा- यह राज्य पहले आपके पिता का था। उससे पहले आपके दादा का था। दादा नहीं रहे, तो राज्य उनके साथ समाप्त हो जाना चाहिये था। पर ऐसा नहीं हुआ। फिर आपके पिता ने यह मान लिया कि यह राज्य उनका है, पर यह राज्य उनके साथ समाप्त नहीं हुआ। आप नहीं रहेंगे, तो क्या यह राज्य फिर भी आपका रहेगा…?
यह सुनकर जनक ने सोचा- मेरा मिथिला राज्य से क्या संबंध है? मैं इस राज्य को अपना कैसे कह सकता हूँ…? फिर उन्होंने अपने शरीर को निहारा। सोचने लगे- ये हाथ-पाँव, मुँह, आँख, नाक, कान क्या मेरे अपने हैं? मैं कौन हूँ…? क्या संसार की कोई वस्तु मेरी है? जब शरीर ही अपना नहीं है, तो यह राज्य मेरा कैसे हो सकता है..? यह सोचकर जनक सिंहासन से नीचे उतर गये और विनम्र भाव से बोले ब्राह्मण! आपने मेरी आँखें खोल दी। यह राज्य तो क्या, यह शरीर भी मेरा नहीं है। यह राज्य आप सबका है। आप लोग कहीं भी विचरण कीजिये।
अचानक ब्रह्मकेतु का रूप बदल गया। उसने कहा- राजन, मैंने आपको सांसारिक बंधनों से मुक्त करने के लिये ही चोरी का स्वांग भरा था। मेरा लक्ष्य पूरा हो गया। मैं धर्म हूँ। इतना कहकर धर्म वहाँ से चला गया।
मैं और मेरा-सब मिथ्या साभार