मानव शरीर एक देवालय (मंदिर) है।


ईश्वर ने अपनी माया से चौरासी लाख योनियों की रचना की लेकिन जब उन्हें संतोष न हुआ तो उन्होंने मनुष्य शरीर की रचना की। मनुष्य शरीर की रचना करके ईश्वर बहुत ही प्रसन्न हुए क्योंकि मनुष्य ऐसी बुद्धि से युक्त है जिससे वह ईश्वर के साथ साक्षात्कार कर सकता है। हमारे ज्ञानवान पाठक जानते हैं कि मानव शरीर एक देवालय है। ईश्वर ने पंचभूतों (आकाश, वायु, अग्नि भूमि और जल) से मानव शरीर का निर्माण कर उसमें भूख प्यास भर दी। आकाश की सूक्ष्म शरीर से, भूमि की हड्डियों, से और अग्नि की ह्रदय के साथ तुलना की गयी है।

देवताओं ने ईश्वर से कहा कि हमारे रहने योग्य कोई स्थान बताएं जिसमें रह कर हम अपने भोज्य पदार्थ का भक्षण कर सकें। देवताओं के आग्रह पर जल से गौ और अश्व बाहर आए पर देवताओं ने यह कह कर उन्हें ठुकरा दिया कि यह हमारे रहने के योग्य नहीं हैं।

जब मानव शरीर प्रकट हुआ तब सभी देवता प्रसन्न हो गए।

तब ईश्वर ने कहा, अपने रहने योग्य स्थानों में तुम प्रवेश करो।

तब सूर्य नेत्रों में ज्योति (प्रकाश) बन कर, वायु छाती और नासिका छिद्रों में प्राण बन कर, अग्नि मुख में वाणी और उदर में जठराग्नि बन कर, दिशाएं श्रोत्रेन्द्रिय (सुनना) बन कर कानों में, औषधियां और वनस्पति लोम (रोम) बन कर त्वचा में, चन्द्रमा मन होकर हृदय में, मृत्यु (मलद्वार) होकर नाभि में और जल देवता वीर्य होकर पुरुषेन्द्रिय में प्रविष्ट हो गए।

तैंतीस देवता अंश रूप में आकर मानव शरीर में निवास करते हैं।

उपनिषद् का निम्नलिखित कथानक मानव शरीर के देवालय होने की पुष्टि करता है:

हमारा शरीर भगवान का मंदिर है। यही वह मंदिर है, जिसके बाहर के सब दरवाजे बंद हो जाने पर जब भक्ति का भीतरी पट खुलता है, तब यहां ईश्वर ज्योति रूप में प्रकट होते हैं और मनुष्य को भगवान के दर्शन होते हैं।

आइये देखें मानव शरीर में कौन कौन से देवताओं का वास है और उनके कार्य क्या हैं:

संसार में जितने देवता हैं, उतने ही देवता मानव शरीर में “अप्रकट” रूप से स्थित हैं, किन्तु दस इन्द्रियों (पांच ज्ञानेन्द्रिय और पांच कर्मेन्द्रियां) के और चार अंतकरण (भीतरी इन्द्रियां बुद्धि, अहंकार, मन और चित्त) के अधिष्ठाता देवता प्रकट रूप में हैं। इस सभी इन्द्रियों का टोटल किया जाये तो 14 बनता है।

आइए इन देवताओं के बारे में संक्षेप में जानकारी प्राप्त करें, इतनी संक्षेप में कि साधारण मनुष्य को भी समझ आ जाये। सभी कठिन शब्दों को सरल करने का प्रयास तो किया है लेकिन जिनका सरलीकरण नहीं किया गया है वह केवल इस लिए कि सरलीकरण के बाद और अधिक कठिनता देखी गयी थी।

१. नेत्रेन्द्रिय (चक्षुरिन्द्रिय) के देवता: भगवान सूर्य नेत्रों में निवास करते हैं और उनके अधिष्ठाता देवता हैं; इसीलिए नेत्रों के द्वारा किसी के रूप का दर्शन सम्भव हो पाता है। नेत्र विकार में चाक्षुषोपनिषद्, सूर्योपनिषद् की साधना और सूर्य की उपासना से लाभ होता है।

२. घ्राणेन्द्रिय (नासिका) के देवता: नासिका के अधिष्ठाता देवता अश्विनीकुमार हैं । इनसे गन्ध का ज्ञान होता है।

३. श्रोत्रेन्द्रिय (कान) के देवता: श्रोत कान के अधिष्ठाता देवता दिक् देवता (दिशाएं) हैं। इनसे शब्द सुनाई पड़ता है।

४. जिह्वा के देवता: जिह्वा में वरुण देवता का निवास है, इससे रस का ज्ञान होता है।

५. त्वगिन्द्रिय (त्वचा) के देवता: त्वगिन्द्रिय के अधिष्ठाता वायु देवता हैं। इससे जीव स्पर्श का अनुभव करता है।

६. हस्तेन्द्रिय (हाथों) के देवता: मनुष्य के अधिकांश कर्म हाथों से ही संपन्न होते हैं। हाथों में इन्द्रदेव का निवास है।

७. चरणों के देवता: चरणों के देवता उपेन्द्र (वामन, श्रीविष्णु) हैं। चरणों में विष्णु का निवास है।

८. वाणी के देवता: जिह्वा में दो इन्द्रियां हैं, एक रसना जिससे स्वाद का ज्ञान होता है और दूसरी वाणी जिससे सब शब्दों का उच्चारण होता है। वाणी में सरस्वती का निवास है और वे ही उसकी अधिष्ठाता देवता हैं।

९. उपस्थ (मेढ़ू) के देवता: इस गुह्येन्द्रिय के देवता प्रजापति हैं। इससे प्रजा की सृष्टि (संतानोत्पत्ति) होती है।

१०. गुदा के देवता: इस इन्द्रिय में मित्र, मृत्यु देवता का निवास है। यह मल निस्तारण कर शरीर को शुद्ध करती है।

११. बुद्धि इन्द्रिय के देवता: बुद्धि इन्द्रिय के देवता ब्रह्मा हैं। गायत्री मंत्र में सद्बुद्धि की कामना की गई है इसीलिए यह ‘ब्रह्म-गायत्री’ कहलाती है। जैसे जैसे बुद्धि निर्मल होती जाती है, वैसे वैसे सूक्ष्म ज्ञान होने लगता है, जो परमात्मा का साक्षात्कार भी करा सकता है।

१२. अहंकार के देवता: अहं के अधिष्ठाता देवता रुद्र हैं। अहं से ‘मैं’ का बोध होता है।

१३. मन के देवता: मन के अधिष्ठाता देवता चन्द्रमा हैं। मन ही मनुष्य में संकल्प विकल्प को जन्म देता है। मन का निग्रह परमात्मा की प्राप्ति करा देता है और मन के हारने पर मनुष्य निराशा के गर्त में डूब जाता है।

१४. चित्त के देवता: प्रकृति शक्ति, चिच्छत्ति ही चित्त के देवता हैं। चित्त ही चैतन्य या चेतना है। शरीर में जो कुछ भी स्पन्दन (चलन, चेतना) होती है, सब उसी चित्त के द्वारा होती है।

भगवान ने ब्रह्माण्ड बनाया और समस्त देवता आकर इसमें स्थित हो गए, किन्तु तब भी ब्रह्माण्ड में चेतना नहीं आई और वह विराट् मनुष्य उठा नहीं। जब चित्त के अधिष्ठाता देवता ने चित्त में प्रवेश किया तो विराट् पुरुष उसी समय उठ कर खड़ा हो गया। इस प्रकार भगवान संसार में सभी क्रियाओं का संचालन करने वाले देवताओं के साथ इस शरीर में विराजमान हैं।

अब मनुष्य का कर्तव्य है कि वह भगवान द्वारा बनाए गए इस देवालय को कैसे साफ सुथरा रखे? इसके लिए निम्न कार्य किए जाने चाहिए:

१. नकारात्मक विचारों और मनोविकारों; काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, अहंकार से दूर रहे।

२. योग साधना, व्यायाम व सूर्य नमस्कार करके अधिक से अधिक पसीना बहाकर शरीर की आंतरिक गंदगी दूर करें।

३. अनुलोम विलोम व सूक्ष्म क्रियाएं करके ज्यादा से ज्यादा शुद्ध हवा का सेवन करे।

४. शुद्ध सात्विक भोजन सही समय पर व सही मात्रा में करके पेट को साफ रखें।

नीचे दिए गए विवरण को पढ़ते समय आप सोच रहे होंगें कि ऊपर दी गयी जानकारी रिपीट हो रही है। हाँ कुछ तथ्य रिपीट अवश्य हो रहे हैं लेकिन इनका अध्ययन करना लाभदायक ही होगा।

हम जानते हैं कि मनुष्य का शरीर एक देवालय है। इस देवालय के आठ चक्र और नौ द्वार हैं। अर्थववेद में कहा गया है:

“अष्टचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या, तस्यां हिरण्ययः कोशः स्वर्गो ज्योतिषावृतः”

जिसका अर्थ है कि आठ चक्र और नौ द्वारों वाली अयोध्या देवों की पुरी है, उसमें प्रकाश वाला कोष है जो आनन्द और प्रकाश से युक्त है अर्थात आठ चक्रों और नौ द्वारों से युक्त यह देवों की अयोध्या नामक नगरी है।

विज्ञान के अनुसार मनुष्य का जन्म माता पिता के संयोग से संभव हो पाता है।

लेकिन क्या केवल संयोग से ही मनुष्य की रचना हो जाती हैं, बिलकुल नहीं ! इसके लिए देवी देवताओं का सहयोग भी होता है। 33 कोटी के देवी देवता जैसे कि सूर्य, पृथ्वी, वायु, जल, आकाश, चन्द्र आदि हमारे जीवन के लिए अत्यंत आवश्यक है।

हमारी माता के गर्भ में ये देव अपने एक एक अंश से बच्चा पैदा करने और उसका पालन पोषण करने में सहयोग करते हैं।

ज़रा कल्पना करें कि अगर वायुदेव माँ के गर्भ में न पहुंच पाए तो क्या गर्भ में जीवन संभव हो सकता है। यही बात जल की है, यही बात अग्नि आदि देवों के बारे में भी लागू होती है। इन सभी देवों को एक एक करके समझने के लिए तो विज्ञान और अध्यात्म की बैकग्राउंड होनी चाहिए, अग्निदेव का अर्थ यह कदापि न लिया जाए कि माँ के गर्भ में कोई स्टोव या भट्टी स्थापित है और वह बच्चे के लिए खाना पका रही है। बेसिक साइंस का ज्ञान बताता है कि भोजन का पचना (digestion), उससे रक्त का बनना, एनर्जी का पैदा होना एक प्रकार का combustion/ burning/ignition process है।

अथर्ववेद के 5वें कांड में लिखा है:

सूर्य मेरी आँखें हैं, वायु मेरे प्राण हैं,अन्तरिक्ष मेरी आत्मा है और पृथ्वी मेरा शरीर है। इस तरह दिव्यलोक का सूर्य, अंतरिक्ष लोक की वायु और पृथ्वी लोक के पदार्थ क्रमशः मेरी आँखें और प्राण स्थूल शरीर में आकर रह रहे है और हाथ जो तीनों लोकों के सूक्ष्म अंश हैं, हमारे शरीर में अवतरित हुए हैं। इसीलिए ज्ञानी मनुष्य मानव शरीर को ब्रह्म मानता है क्योंकि सभी देवता इसमें वैसे ही रहते हैं जैसे गोशाला में गायें रहती हैं। माँ के गर्भ में 33 देवता अपने अपने सूक्ष्म अंशों से रहते हैं परन्तु यह गर्भ तभी स्थिर (ठोस) होने लगता है जब परमात्मा अपने अंश से गर्भ में जीवात्मा को अवतरित करते हैं। उस समय सभी देवता गर्भ में उस परमात्मा की स्तुति करते हैं और उसकी रक्षा व् वृद्धि करते है। सभी देवता प्रार्थना करते हैं कि, हे जीव! आप अपने साथ अन्य जीवों का भी कल्याण करना, परन्तु जन्म के समय के कठिन कष्ट के कारण मनुष्य इन बातों को भूल जाता है।

वेद का मंत्र हमें यह स्मरण दिलाता है मैं अमर अथवा अदम्य शक्ति से युक्त हूँ। हमारा शरीर ऐसा दिव्य और मनोहारी मनुष्य शरीर होता है। तभी तो उपनिषदों में ऋषियों का अमर संदेश गूंजता है: अहं ब्रह्मास्मि तत्वमसि। इसी तरह सभी जीवों की उत्पत्ति होती है। अतः देवता यह घोषणा करते हैं कि सृष्टि का हर प्राणी परमात्मा का ही अंश है इसलिए हम सभी को इसी भगवानमय दृष्टि से एक दूसरे को देखना चाहिए। इस वाक्य को पढ़कर आज के मानव पर घृणा तो आती है कि हमारे वेद, पुराण, उपनिषद, देवता क्या शिक्षा देते हैं, कैसे इतने परिश्रम से सृष्टि की स्थापना करते हैं, लेकिन मानव महामानव और

देवमानव बनने के बजाय दैत्यमानव बनने में कोई कसर नहीं छोड़ता। शायद उस मानव को यह नहीं मालूम की सृष्टि के नियम, विधाता की अदालत में एक एक प्राणी के एक एक कर्म का लेखा लिखा जा रहा है। कर्म अपने कर्ता को ढूंढ ही निकालता है, सज़ा या इनाम मिल कर ही रहते हैं। कर्म की थ्योरी इतनी मजबूत है कि इससे तो देवता क्या भगवान तक भी बच नहीं पाए। साभार निरंजन सिंह जी



God created eighty-four lakh species through his illusion but when he was not satisfied, he created the human body. God was very pleased by creating the human body because man is equipped with such intelligence that he can have an encounter with God. Our knowledgeable readers know that the human body is a temple. God created the human body from the five elements (sky, air, fire, land and water) and filled it with hunger and thirst. The sky has been compared to the subtle body, the earth to the bones, and the fire to the heart.

The gods asked God to show us a place where we could live and eat our food. On the request of the gods, cows and horses came out of the water but the gods rejected them saying that they were not fit for us to live.

When the human body appeared all the gods were pleased.

Then God said, enter your habitable places.

Then the Sun became light in the eyes, air became life in the chest and nostrils, fire became speech in the mouth and gastric fire in the stomach, directions became the sense organs (hearing) in the ears, medicines and plants became hair. Kar entered the skin, the moon became the mind and entered the heart, death (anus) entered the navel and the water god became semen and entered the male organ.

Thirty-three gods come in partial form and reside in the human body.

The following passage from the Upanishad confirms the existence of the human body as a temple:

Our body is the temple of God. This is the temple in which when all the doors outside are closed and the inner door of devotion opens, then God appears here in the form of light and man gets to see God.

Let us see which gods reside in the human body and what are their functions:

As many gods as there are in the world, the same number of gods are present in the human body in an “unmanifested” form, but the presiding deities of the ten senses (five sense organs and five action senses) and four antakarana (inner senses intellect, ego, mind and chitta) are manifest. Are in. If all these senses are totaled then it becomes 14.

Let us get brief information about these gods, so briefly that even a common man can understand. An attempt has been made to simplify all the difficult words but those which have not been simplified are only because more difficulty was observed after simplification.

1. God of eye organs (Chakshurindriya): Lord Surya resides in the eyes and is their presiding deity; That is why it is possible to see someone’s form through the eyes. In case of eye disorders, meditation of Chakshushopanishad, Suryopanishad and worship of Sun is beneficial.

2. Deity of the sense of smell (nose): The deity presiding over the nose is Ashvinikumara. They give the sense of smell.

3. Deity of Shrotendriya (ear): The presiding deity of Shrotendriya (ear) is Dik Devta (directions). Words are heard through them.

4. God of the tongue: The tongue is the abode of the god Varuna, which gives knowledge of taste.

5. The God of the Skin: The god of the skin is the air god. This makes the being experience touch.

6. God of Hastendriya (Hands): Most of the human actions are performed by hands only. Indradev resides in his hands.

7. Lord of the feet: Lord of the feet is Upendra (Vaman, Sri Vishnu). Vishnu resides at his feet.

8. God of speech: There are two senses in the tongue, one is Rasana which gives knowledge of taste and the other is speech which is used to pronounce all the words. Saraswati resides in speech and she is its presiding deity.

9. The god of the Upastha (Medhu): The god of this secret sense is Prajapati. This leads to the creation of the people (progeny).

10. God of the Anus: Mitra, the God of Death, resides in this Indriya. It purifies the body by eliminating waste.

11. The god of the senses of intelligence: The god of the senses of intelligence is Brahma. The Gayatri Mantra wishes for good intelligence hence it is called ‘Brahma-Gayatri’. As the intellect becomes pure, there begins to be subtle knowledge, which can also lead to the realization of God.

12. God of Ego: The presiding deity of ego is Rudra. Ego gives the sense of ‘I’.

13. God of the mind: The presiding deity of the mind is the Moon. It is the mind that gives birth to resolution and choice in a human being. Controlling the mind leads to attaining God and when the mind is defeated, man sinks into despair.

14. God of mind: Prakriti Shakti, Chichchatti is the god of mind. Chitta itself is consciousness or consciousness. Whatever vibrations (movement, consciousness) happen in the body, all happen through the same mind.

God created the universe and all the gods came and settled in it, but even then consciousness did not come in the universe and that great man did not arise. When the presiding deity of the mind entered the mind, the great man stood up at that very moment. Thus the Lord resides in this body along with the deities who conduct all activities in the world.

Now it is man’s duty to keep this temple built by God clean and neat. For this the following work should be done:

1. Negative thoughts and psychosis; Stay away from lust, anger, greed, attachment, jealousy and ego.

2. Remove internal dirt from the body by sweating as much as possible by doing yoga, exercise and Surya Namaskar.

3. Consume as much pure air as possible by doing Anulom Vilom and subtle activities.

4. Keep your stomach clean by eating pure Satvik food at the right time and in the right quantity.

While reading the description given below, you might be thinking that the information given above is being repeated. Yes, some facts are definitely being repeated but it will be beneficial to study them.

We know that the human body is a temple. This temple has eight chakras and nine gates. The Arthvaveda states:

“The eight-wheeled, nine-gate filled Ayodhya of the gods, in which the golden treasury of heaven is covered with light”

Which means that Ayodhya with eight chakras and nine gates is the city of Gods, it has a treasury of light which is full of joy and light, that is, it is the city of Gods called Ayodhya with eight chakras and nine gates.

According to science, the birth of a human being becomes possible due to the combination of parents.

But are humans created only by chance? Not at all! For this, Gods and Goddesses also help. 33 crore Gods and Goddesses like Sun, Earth, Air, Water, Sky, Moon etc. are very essential for our life.

In the womb of our mother, these gods help in giving birth to the child and nurturing it with each and every part of themselves.

Just imagine that if Vayudev could not reach the mother’s womb then would life be possible in the womb. The same is true of water, the same applies to gods like fire etc. To understand all these gods one by one, one should have a background in science and spirituality. Agnidev should never be taken to mean that there is a stove or furnace installed in the mother’s womb and she is cooking food for the child. Knowledge of basic science tells us that digestion of food, formation of blood and generation of energy is a type of combustion/burning/ignition process.

It is written in the 5th Kanda of Atharvaveda:

The sun is my eyes, the air is my life, the space is my soul and the earth is my body. In this way, the sun of the divine world, the air of the space world and the substances of the earth world respectively, my eyes and life have come and reside in the physical body and the hands which are the subtle parts of the three worlds, have incarnated in our body. That is why a wise man considers the human body as Brahma because all the gods live in it just like cows live in a cowshed. 33 gods reside in the mother’s womb with their own subtle parts, but this womb becomes stable (solid) only when God incarnates the soul in the womb from his part. At that time all the gods praise the God in the womb and protect and increase it. All the gods pray that, O living being! You should do good to other living beings along with yourself, but due to the hardships at the time of birth, man forgets these things.

The mantra of Veda reminds us that I am immortal or possessing indomitable power. Our body is such a divine and beautiful human body. That is why the immortal message of the sages echoes in the Upanishads: Aham Brahmasmi Tatvamasi. This is how all living beings originate. Therefore, the Gods declare that every living being in the universe is a part of the Supreme Soul, hence we all should look at each other from this Godly perspective. After reading this sentence, today’s humans feel disgusted that what our Vedas, Puranas, Upanishads, Gods teach, how they establish the universe with so much hard work, but humans are great humans and

Instead of becoming a god, no one leaves any stone unturned to become a demon. Perhaps that human being does not know that the rules of creation, the account of every action of every living being is being written in the court of the Creator. Karma always finds its doer and there always comes a punishment or a reward. The theory of karma is so strong that even the gods, let alone God, could not escape from it. Courtesy Niranjan Singh ji

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