प्रेम किया है पण्डित , संग कैसे छोड़ दूँगी ?
जितनी बार भी पढ़ो ,, वही आनंद मिलता है।
“पण्डितराज”
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सत्रहवीं शताब्दी का पूर्वार्ध था,
दूर दक्षिण में गोदावरी तट के एक छोटे राज्य की राज्यसभा में एक विद्वान ब्राह्मण सम्मान पाता था,
नाम था जगन्नाथ शास्त्री।
साहित्य के प्रकांड विद्वान, दर्शन के अद्भुत ज्ञाता।
इस छोटे से राज्य के महाराज चन्द्रदेव के लिए जगन्नाथ शास्त्री सबसे बड़े गर्व थे।
कारण यह, कि
जगन्नाथ शास्त्री कभी किसी से शास्त्रार्थ में पराजित नहीं होते थे।
दूर दूर के विद्वान आये और पराजित हो कर जगन्नाथ शास्त्री की विद्वत्ता का ध्वज लिए चले गए।
पण्डित जगन्नाथ शास्त्री की चर्चा धीरे-धीरे सम्पूर्ण भारत में होने लगी थी।
उस समय दिल्ली पर मुगल शासक शाहजहाँ का शासन था।
शाहजहाँ मुगल था, सो भारत की प्रत्येक सुन्दर वस्तु पर अपना अधिकार समझना उसे जन्म से सिखाया गया था।
पण्डित जगन्नाथ की चर्चा जब शाहजहाँ के कानों तक पहुँची तो जैसे उसके घमण्ड को चोट लगी।
“मुगलों के युग में एक तुच्छ ब्राह्मण अपराजेय हो, यह कैसे सम्भव है?”
शाह ने अपने दरबार के सबसे बड़े मौलवियों को बुलवाया
और जगन्नाथ शास्त्री तैलंग को शास्त्रार्थ में पराजित करने के आदेश के साथ
महाराज चन्द्रदेव के राज्य में भेजा।
” जगन्नाथ को पराजित कर उसकी शिखा काट कर मेरे कदमों में डालो….”
शाहजहाँ का यह आदेश उन चालीस मौलवियों के कानों में स्थायी रूप से बस गया था।
सप्ताह भर पश्चात
मौलवियों का दल महाराज चन्द्रदेव की राजसभा में पण्डित जगन्नाथ को शास्त्रार्थ की चुनौती दे रहा था।
गोदावरी तट का ब्राह्मण और अरबी मौलवियों के साथ शास्त्रार्थ,
पण्डित जगन्नाथ नें मुस्कुरा कर सहमति दे दी।
मौलवी दल ने अब अपनी शर्त रखी,
“पराजित होने पर शिखा देनी होगी…”।
पण्डित की मुस्कराहट और बढ़ गयी,
“स्वीकार है, पर अब मेरी भी शर्त है। आप सब पराजित हुए तो मैं आपकी दाढ़ी उतरवा लूंगा।”
मुगल दरबार में
“जहाँ पेंड़ न खूंट वहाँ रेंड़ परधान”
की भांति विद्वान कहलाने वाले मौलवी विजय निश्चित समझ रहे थे,
सो उन्हें इस शर्त पर कोई आपत्ति नहीं हुई।
शास्त्रार्थ क्या था; खेल था।
अरबों के पास इतनी
आध्यात्मिक पूँजी कहाँ जो वे भारत के समक्ष खड़े भी हो सकें।
पण्डित जगन्नाथ विजयी हुए,
मौलवी दल अपनी दाढ़ी दे कर दिल्ली वापस चला गया…✔️
दो माह बाद
महाराज चन्द्रदेव की राजसभा में दिल्ली दरबार का प्रतिनिधिमंडल याचक बन कर खड़ा था,
“महाराज से निवेदन है कि हम उनकी राज्य सभा के सबसे अनमोल रत्न पण्डित जगन्नाथ शास्त्री तैलंग को दिल्ली की राजसभा में सम्मानित करना चाहते हैं,
यदि वे दिल्ली पर यह कृपा करते हैं तो हम सदैव आभारी रहेंगे”।
मुगल सल्तनत ने प्रथम बार किसी से याचना की थी।
महाराज चन्द्रदेव अस्वीकार न कर सके।
पण्डित जगन्नाथ शास्त्री दिल्ली के हुए,
शाहजहाँ नें उन्हें नया नाम दिया “पण्डितराज”।
दिल्ली में शाहजहाँ उनकी अद्भुत काव्यकला का दीवाना था,
तो युवराज दारा शिकोह उनके दर्शन ज्ञान का भक्त।
दारा शिकोह के जीवन पर सबसे अधिक प्रभाव पण्डितराज का ही रहा,
और यही कारण था … कि मुगल वंश का होने के बाद भी दारा मनुष्य बन गया।
मुगल दरबार में अब पण्डितराज के अलंकृत संस्कृत छंद गूंजने लगे थे।
उनकी काव्यशक्ति विरोधियों के मुह से भी वाह-वाह की ध्वनि निकलवा लेती।
यूँ ही एक दिन पण्डितराज के एक छंद से प्रभावित हो कर शाहजहाँ ने कहा
– अहा! आज तो कुछ मांग ही लीजिये पंडितजी, आज आपको कुछ भी दे सकता हूँ।
पण्डितराज ने आँख उठा कर देखा,
दरबार के कोने में एक हाथ माथे पर और दूसरा हाथ कमर पर रखे खड़ी एक अद्भुत सुंदरी पण्डितराज को एकटक निहार रही थी।
अद्भुत सौंदर्य, जैसे कालिदास की समस्त उपमाएं स्त्री रूप में खड़ी हो गयी हों।
पण्डितराज ने एक क्षण को उस रूपसी की आँखों मे देखा,
मस्तक पर त्रिपुंड लगाए
शिव की तरह विशाल काया वाला पण्डितराज
उसकी आँख की पुतलियों में झलक रहा था।
पण्डित ने मौन के स्वरों से ही पूछा- चलोगी?
लवंगी की पुतलियों ने उत्तर दिया
– अविश्वास न करो पण्डित! प्रेम किया है….
पण्डितराज जानते थे …
यह एक नर्तकी के गर्भ से जन्मी शाहजहाँ की पुत्री ‘लवंगी’ थी।
एक क्षण को पण्डित ने कुछ सोचा,
फिर ठसक के साथ मुस्कुरा कर कहा-
न याचे गजालीम् न वा वजीराजम्
न वित्तेषु चित्तम् मदीयम् कदाचित्।
इयं सुस्तनी मस्तकन्यस्तकुम्भा,
लवंगी कुरंगी दृगंगी करोतु।।
शाहजहाँ मुस्कुरा उठा!
कहा
– लवंगी तुम्हारी हुई पण्डितराज।
यह भारतीय इतिहास की विरल घटना है …. जब किसी मुगल ने किसी हिन्दू को बेटी दी थी।
लवंगी अब पण्डित राज की पत्नी थी।
युग बीत रहा था।
पण्डितराज दारा शिकोह के गुरु और परम् मित्र के रूप में ख्यात थे।
समय की अपनी गति है।
शाहजहाँ के पराभव, औरंगजेब के उदय और दारा शिकोह की निर्मम हत्या के पश्चात पण्डितराज के लिए दिल्ली में कोई स्थान नहीं रहा।
पण्डित राज दिल्ली से बनारस आ गए,
साथ थी उनकी प्रेयसी लवंगी।
बनारस तो बनारस है,
वह अपने ही ताव के साथ जीता है।
बनारस किसी को इतनी सहजता से स्वीकार नहीं कर लेता।
और यही कारण है कि बनारस आज भी बनारस है,
नहीं तो अरब की तलवार जहाँ भी पहुँची वहाँ की सभ्यता-संस्कृति को खा गई।
यूनान, मिश्र, फारस, इन्हें सौ वर्ष भी नहीं लगे समाप्त होने में, बनारस हजार वर्षों तक प्रहार सहने के बाद भी
“ॐ शं नो मित्रः शं वरुणः। शं नो भवत्वर्यमा….”
गा रहा है।
बनारस ने एक स्वर से पण्डितराज को अस्वीकार कर दिया।
कहा- लवंगी आपके विद्वता को खा चुकी, आप सम्मान के योग्य नहीं।
तब बनारस के विद्वानों में पण्डित अप्पय दीक्षित और पण्डित भट्टोजि दीक्षित का नाम सबसे प्रमुख था,
पण्डितराज का विद्वत समाज से बहिष्कार इन्होंने ही कराया।
पर पण्डितराज भी पण्डितराज थे,
और लवंगी उनकी प्रेयसी।
जब कोई कवि प्रेम करता है तो कमाल करता है।
पण्डितराज ने कहा
“- लवंगी के साथ रह कर ही बनारस की मेधा को अपनी सामर्थ्य दिखाऊंगा।”
पण्डितराज ने अपनी विद्वता दिखाई भी,
पंडित भट्टोजि दीक्षित द्वारा रचित काव्य “प्रौढ़ मनोरमा” का खंडन करते हुए उन्होंने ” प्रौढ़ मनोरमा कुचमर्दनम” नामक ग्रन्थ लिखा।
बनारस में धूम मच गई,
पर पण्डितराज को बनारस ने स्वीकार नहीं किया।
पण्डितराज नें पुनः लेखनी चलाई,
पण्डित अप्पय दीक्षित द्वारा रचित “चित्रमीमांसा” का खंडन करते हुए ” चित्रमीमांसाखंडन” नामक ग्रन्थ रच डाला।
बनारस अब भी नहीं पिघला,
बनारस के पंडितों ने अब भी स्वीकार नहीं किया पण्डितराज को।
पण्डितराज दुखी थे, बनारस का तिरस्कार उन्हें तोड़ रहा था।
असाढ़ की सन्ध्या थी।
गंगा तट पर बैठे उदास पण्डितराज ने अनायास ही लवंगी से कहा
“- गोदावरी चलोगी लवंगी ?? वह मेरी मिट्टी है, वह हमारा तिरस्कार नहीं करेगी।”
लवंगी ने कुछ सोच कर कहा- गोदावरी ही क्यों, बनारस क्यों नहीं?
स्वीकार तो बनारस से ही करवाइए पंडीजी।
पण्डितराज ने थके स्वर में कहा
- अब किससे कहूँ, सब कर के तो हार गया…
लवंगी मुस्कुरा उठी,
“जिससे कहना चाहिए उससे तो कहा ही नहीं। गंगा से कहो, वह किसी का तिरस्कार नहीं करती। गंगा ने स्वीकार किया तो समझो शिव ने स्वीकार किया।”
पण्डितराज की आँखे चमक उठीं।
उन्होंने एकबार पुनः झाँका लवंगी की आँखों में, उसमें अब भी वही बीस वर्ष पुराना उत्तर था-
“प्रेम किया है पण्डित! संग कैसे छोड़ दूंगी?”
पण्डितराज उसी क्षण चले, और काशी के विद्वत समाज को चुनौती दी-
” आओ कल गंगा के तट पर, तल में बह रही गंगा को सबसे ऊँचे स्थान पर बुला कर न दिखाया,,,
तो पण्डित जगन्नाथ शास्त्री तैलंग अपनी शिखा काट कर उसी गंगा में प्रवाहित कर देगा……”
पल भर को हिल गया बनारस,
पण्डितराज पर अविश्वास करना किसी के लिए सम्भव नहीं था।
जिन्होंने पण्डितराज का तिरस्कार किया था, वे भी उनकी सामर्थ्य जानते थे।
अगले दिन बनारस का समस्त विद्वत समाज दशाश्वमेघ घाट पर एकत्र था।
पण्डितराज घाट की सबसे ऊपर की सीढ़ी पर बैठ गए, और
गंगलहरी का पाठ प्रारम्भ किया।
लवंगी उनके निकट बैठी थी।
गंगा बावन सीढ़ी नीचे बह रही थी।
पण्डितराज ज्यों ज्यों श्लोक पढ़ते, गंगा एक एक सीढ़ी ऊपर आती।
बनारस की विद्वता आँख फाड़े निहार रही थी।
गंगलहरी के इक्यावन श्लोक पूरे हुए, गंगा इक्यावन सीढ़ी चढ़ कर पण्डितराज के निकट आ गयी थी।
पण्डितराज ने पुनः देखा लवंगी की आँखों में, अबकी लवंगी बोल पड़ी
“- क्यों अविश्वास करते हो पण्डित? प्रेम किया है तुमसे…”
पण्डितराज ने मुस्कुरा कर बावनवाँ श्लोक पढ़ा।
गंगा ऊपरी सीढ़ी पर चढ़ी और पण्डितराज-लवंगी को गोद में लिए उतर गई।
बनारस स्तब्ध खड़ा था,
पर गंगा ने पण्डितराज को स्वीकार कर लिया था।
तट पर खड़े पण्डित अप्पाजी दीक्षित ने मुह में ही बुदबुदा कर कहा
- क्षमा करना मित्र, तुम्हें हृदय से लगा पाता तो स्वयं को सौभाग्यशाली समझता, पर धर्म के लिए तुम्हारा बलिदान आवश्यक था।
बनारस झुकने लगे तो सनातन नहीं बचेगा।
युगों बीत गए।
बनारस है, सनातन है, गंगा है,,,
तो उसकी लहरों में पण्डितराज भी हैं।
I have loved Pandit, how will I leave the company?
Every time you read, you get pleasure.
“Panditraj” , The first half of the seventeenth century was In the Rajya Sabha of a small kingdom on the banks of the Godavari in the far south, a learned Brahmin was respected, His name was Jagannath Shastri. A great scholar of literature, a wonderful scholar of philosophy. Jagannath Shastri was the biggest pride for Maharaj Chandradev of this small kingdom. The reason is that Jagannath Shastri was never defeated in debate with anyone.
Scholars from far and wide came and defeated Jagannath Shastri went away with the flag of scholarship.
The discussion of Pandit Jagannath Shastri gradually started happening all over India. At that time Delhi was ruled by the Mughal ruler Shah Jahan. Shah Jahan was a Mughal, so he was taught from birth to understand his authority over every beautiful thing in India.
When the discussion of Pandit Jagannath reached the ears of Shah Jahan, his pride was hurt. “In the era of the Mughals, how is it possible that an insignificant brahmin is invincible?”
Shah summoned the biggest clerics of his court And with orders to defeat Jagannath Shastri Tailang in a debate Maharaj was sent to the kingdom of Chandradev. “Defeat Jagannath, cut off his crest and put it at my feet.”
This order of Shah Jahan was permanently settled in the ears of those forty clerics.
after a week The group of clerics was challenging Pandit Jagannath to debate in the court of Maharaja Chandradev.
Arguments on the banks of Godavari with Brahmins and Arab clerics, Pandit Jagannath smiled and agreed.
The Maulvi party has now placed its condition, “If you are defeated, you will have to give crest…”.
Pandit’s smile increased. “Accept, but now I also have a condition. If you all are defeated, I will get your beard off.”
in the Mughal court “Where the tree is not a peg, there is a sand cloth” Like Maulvi Vijay, who was called a scholar, was sure to understand, So he did not object to this condition.
what was the debate; The game was
so close to the Arabs Where is the spiritual capital that they can even stand before India.
Pandit Jagannath was victorious. Maulvi Dal gave his beard and went back to Delhi…✔️
two months later In the court of Maharaj Chandradev, the delegation of Delhi Durbar stood as a petitioner. “It is a request to the Maharaja that we would like to honor Pandit Jagannath Shastri Tailang, the most precious gem of his Rajya Sabha, in the Rajya Sabha of Delhi, We will be eternally grateful if he bestows this grace on Delhi.
The Mughal Sultanate had appealed to someone for the first time. Maharaj Chandra Dev could not refuse. Pandit Jagannath Shastri was born in Delhi. Shah Jahan gave him a new name “Panditraj”.
Shah Jahan in Delhi was crazy about his wonderful poetry, So Yuvraj Dara Shikoh is a devotee of his philosophy of knowledge.
Panditraj had the biggest influence on the life of Dara Shikoh. And this was the reason… that Dara became a human even after being of Mughal dynasty.
The ornate Sanskrit verses of Pandit Raj were now resonating in the Mughal court.
His poetic power could get the sound of wah-wah out of the mouth of the opponents too.
Just one day, Shah Jahan, being impressed by a verse of Panditraj, said – Aha! Ask for something today, Panditji, today I can give you anything.
Panditraj raised his eyes and saw, In the corner of the court, a wonderful beauty standing with one hand on the forehead and the other hand on the waist was gazing at the priest.
Wonderful beauty, as if all the analogies of Kalidas have stood in the form of a woman. Panditraj saw for a moment in the eyes of that Rupasi, put a tripod on the head Pandit Raj with huge physique like Shiva It was visible in the pupils of his eyes.
The Pandit asked with the voices of silence – will you go? Lavangi’s pupils answered Do not disbelieve, Pandit! have loved….
Panditraj knew… It was ‘Lavangi’, the daughter of Shah Jahan, born from the womb of a dancer.
For a moment the pundit thought something, Then he smiled with a smile and said-
I do not ask for Gazali or Wazirajam I never have my mind on finances. This is a well-breasted head-placed pot, Lavangi Kurangi Drigangi Karotu.
Shah Jahan smiled. Told – Lavangi has become your Pandit Raj.
This is a rare event in Indian history. When a Mughal gave a daughter to a Hindu.
Lavangi was now the wife of Pandit Raj. The era was passing.
Pandit Raj was known as Dara Shikoh’s guru and best friend. Time has its own pace. After the defeat of Shah Jahan, the rise of Aurangzeb and the brutal murder of Dara Shikoh, there was no place for Pandit Raj in Delhi.
Pandit Raj came from Delhi to Banaras, With him was his beloved Lavangi.
Banaras is Banaras He lives with his own spirit. Banaras does not accept anyone so easily. And this is the reason why Banaras is still Banaras today. Otherwise, wherever the sword of Arabia reached, the civilization and culture devoured it.
Greece, Egypt, Persia, it didn’t take them even a hundred years to finish, Benaras even after suffering the blows for a thousand years.
“Om Sham No Mitra Sham Varuna. Sham No Bhavat Aryama. is singing.
Banaras rejected Panditraj with one voice.
Said- Lavangi has eaten your scholarship, you are not worthy of respect.
Then the names of Pandit Appaya Dixit and Pandit Bhattoji Dixit were the most prominent among the scholars of Banaras. He got Pandit Raj boycotted from the learned society.
But Pandit Raj was also a Pandit Raj. and Lavangi his beloved. When a poet loves, he does wonders. Pandit Raj said “I will show my power to the intellect of Banaras only by staying with Lavangi.”
Pandit Raj also showed his wisdom, Refuting the poem “Adult Manorama” composed by Pandit Bhattoji Dixit, he wrote a book called “Adult Manorama Kuchmardanam”.
There was a ruckus in Banaras, But Banaras did not accept Panditraj.
Panditraj wrote again, He wrote a book called ” Chitramimansakhandan” refuting the “Chitramimansa” written by Pandit Appaya Dixit.
Banaras still hasn’t melted, The Pandits of Banaras still did not accept Panditraj.
Panditraj was sad, the contempt of Banaras was breaking him.
It was eighteenth evening. Sitting on the banks of the Ganges, a sad panditraj unintentionally told Lavangi “- Godavari Chalogi Lavangi? She is my soil, she will not despise us.”
Lavangi thought after thinking something and said – why only Godavari, why not Banaras? Get it accepted, Pandiji, from Banaras only.
Panditraj said in a tired voice Now whom should I tell, after doing everything, I have lost… Lavani smiled. “I have not told the one to whom I should say it. Tell Ganga, she does not despise anyone. If Ganga accepted, then Shiva accepted.”
Panditraj’s eyes brightened.
He peeped once again into Lavangi’s eyes, still the same twenty years old answer was in her- “I have loved you, Pandit! How will I leave the company?”
Pandit Raj walked at that very moment, and challenged the learned society of Kashi- “Come tomorrow, on the banks of the Ganges, don’t show the Ganges flowing at the bottom by calling it on the highest place, So Pandit Jagannath Shastri Tailang will cut off his crest and flow it into the same Ganges……”
Banaras shook for a moment, It was not possible for anyone to disbelieve Panditraj.
Those who had despised Panditraj also knew his power.
The next day the entire learned society of Banaras was gathered at Dashashwamedh Ghat.
Panditraj sat down on the top step of the ghat, and Started the recitation of Gangahari.
Lavangi was sitting next to him.
Ganga was flowing down the fifty-two steps. As Panditraj read the verses, Ganga would come up one step at a time.
The scholarship of Banaras was staring with tears in his eyes.
Gangahari’s fifty-one verses were completed, Ganga had climbed fifty-one steps and came near Panditraj.
Pandit Raj again saw in Lavangi’s eyes, now Lavangi spoke “Why do you disbelieve, Pandit? Have loved you…”
Panditraj smiled and read the fifty-two verse.
Ganga climbed the upper ladder and descended taking Panditraj-Lavangi in her lap.
Banaras stood stunned, But Ganga had accepted Panditraj.
Pandit Appaji Dixit, standing on the shore, mumbled in his mouth and said Sorry friend, I would have considered myself fortunate if I could have touched you in my heart, but your sacrifice was necessary for the sake of religion.
If Banaras starts bowing down, then Sanatan will not survive. The ages have passed.
There is Banaras, there is Sanatan, there is Ganges, So there is also a Pandit Raj in his waves.