महावीर कहते हैं, किससे प्रार्थना करते हो? किसकी प्रार्थना करते हो? प्रार्थना से कुछ न होगा, ध्यान में उतरो। चुप होओ, मौन बनो, भीतर जाओ। ये हाथ किसके लिए जोड़े हुए हैं? वहां कोई भी नहीं है, जिसके लिए तुम हाथ जोड़ रहे हो।
अत्यंत एकांत! अत्यंत शांत! इसलिए महावीर ने अपनी परम-ज्ञान की अवस्था को कैवल्य कहा है, जहां केवल तुम रह गए; जहां बस तुम्हारी चेतना बची। वह समाधि की आखिरी अवस्था है।
लेकिन मीरा है, चैतन्य है, वे भी पहुंच जाते हैं। वे नाचते हुए पहुंचते हैं, गीत गाते हुए पहुंचते हैं, परमात्मा के रंग में डूबे हुए पहुंचते हैं। इनका पहुंचने का ढंग दूसरा है। ये प्रेम से पहुंचते हैं, ध्यान से नहीं।
ये इतनी प्रार्थना करते हैं–इसे थोड़ा समझना; बारीक है। ये इतनी प्रार्थना करते हैं, इतनी प्रार्थना करते हैं कि प्रार्थना करने वाला मिट जाता है। बस, प्रार्थना सुनने वाला ही रह जाता है। ध्यानी में परमात्मा मिट जाता है, आत्मा रह जाती है। प्रेमी में आत्मा मिट जाती है, परमात्मा रह जाता है। दोनों में एक बचता है। “एक” उपलब्धि है। अद्वैत बचता है।
लेकिन ध्यानी “तू” को काट देता है। प्रेमी “मैं” को काट देता है। ध्यानी की सारी चेष्टा है, कि “मैं” अलग, पृथक, भिन्न कैसे हो जाउं। इसलिए महावीर के शास्त्र का एक नाम है भेद-विज्ञान कि कैसे तुम भिन्न हो जाओ। वही तो सारा धर्म है : अलग हो जाओ सब से। बस, तुम ही बचो; वहां कोई भी न बचे। तुम्हारे उस परम एकांत में ही खिलेगा फूल चैतन्य का। तुम मुक्त हो जाओगे।
भक्त कहते हैं, ऐसी घड़ी, जहां हम न बचे, तू ही बचे। जहां हम बिलकुल पुछ जाएं। हमारा कोई होना न हो, खोज खबर न मिले। हमारा कोई पता ही न चले। हम ऐसे हो जाएं, जैसे कभी थे ही न–शून्यवत! बस, तू ही हो।
जहां मैं कट जाता है पूरा, और परमात्मा ही शेष रह जाता है, वहां भी मोक्ष हो जाता है। मोक्ष होता है एक के बचने से। न तो मैं का सवाल है, न तू का सवाल है। ये तो दो ढंग हैं। मोक्ष मिलता है अद्वैत के बचने से। कौन बचता है, उसको तुम मैं का नाम देते हो या तू का, यह तो सिर्फ भाषा की बात है। तुम उसे आत्मा कहते हो या परमात्मा, यह तो सिर्फ भाषा की बात है। तुम उसे बाहर देखते हो कि भीतर, यह तो सिर्फ देखने की बात है। क्योंकि भीतर भी वही है, बाहर भी वही है।
प्रार्थना है भावदशा, ध्यान है चित्तदशा। समाधि में दोनों एक हो जाते हैं।
ओशो
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