प्रेम तत्व

sunrise 1950873 6403065071002404186261

कितना सुंदर भाव है प्रेम ॥संसार में प्रेम को सर्वाधिक मधुर भावना माना जाता है ॥ जबकी संसार जिस प्रेम को जानता मानता अनुभव करता वह वास्तविक प्रेम है ही नहीं , वह केवल और केवल काम है ॥ संभवतः कुछ लोगो को यह अनुचित लगे परंतु जब तक वास्तविक प्रेम की प्राप्ति नहीं होती यह काम ही परम प्रेम प्रतीत होता है इसमें किसी का कोई दोष नहीं ॥ क्योंकि वास्तविक प्रेम तो जिनकी वस्तु है बिना उनके अनुग्रह के प्राप्त नहीं होती ॥।सोचिये जब निज स्वार्थ स्वरूप काम संसार में इतना मधुर अनुभव होता है कि उसमें डूबे व्यक्ति को संसार की चिन्ता नहीं रहती तो वास्तविक सार स्वरूप दिव्य प्रेम कैसा होता होगा ॥ संसार में किसी के रूप गुण कला या किसी भी अन्य हेतु से आकर्षित होकर उसे प्राप्त करने तथा निज सुखार्थ सदैव समीप रखने की इच्छा को प्रेम जाना जाता है । संसार में प्रेम (काम) की परिणिति भोग है ॥काम की अर्थात् निज सुख भोग की बडी तुच्छ सी सीमा है अतः तनिक से भोग से ही जीव संतुष्ट हो जाता है । उस भोग में भी  प्राप्त होने वाला आनन्द उसी परम आनन्द सिंधु के आनन्द के सीकर का अणु मात्र ही होता है । खैर यह दूसरा विषय है ॥ वास्तविक प्रेम या दिव्य प्रेम तो सर्वथा भिन्न वस्तु है । यहाँ प्रेमास्पद  को पाने भोगने सदा समीप रख सुख पाने की इच्छा की गंध भी नहीं होती । यहाँ तो केवल प्रेमास्पद को सुखी करने का चाव होता है ॥ वास्तविक प्रेम किससे होता है हमारा वास्तविक प्रेमास्पद है कौन । वह है हमारी अपनी आत्मा । हम केवल स्वयं  से ही प्रेम करते हैं कर सकते हैं ॥ यह बडी गूढ़ बात है पर गहराई से मनन करने पर प्रकाशित हो सकती है ॥हमारी आत्मा है कौन ॥ हम कह सकते हैं कि हमारी आत्मा तो हमारे भीतर है परंतु नहीं जो आपके भीतर वह आपकी आत्मा नहीं वरन स्वयं आप ही हैं  ॥ तो यह भेद कैसा ॥  क्योंकि आप स्वयं को देह मानते हैं अर्थात् देह हुये आप और भीतर हुयी आपकी आत्मा जबकी यह सत्य नहीं  । माया के कारण देहाध्यास के कारण ही यह भेद प्रतीत होता केवल । आप केवल  आत्म स्वरूप ही हैं और इसी कारण स्वयं को सुख देने हेतु समस्त जीवन विलास आपका ॥ परंतु यह भी परम सत्य नहीं है ॥आत्मा अर्थात् मैं तो मेरी आत्मा कौन ??हां बस यही जानना है यही समझना है । सारा ज्ञान सारा प्रेम इसी पर निर्भर है ॥ हमारी आत्मा वहीं हैं जिन्होंने गीता में स्वयं इसका उदघोषक किया है ” अहं सर्वभूतात्मा “॥ हां वहीं हमारे एकमात्र परम प्रेमास्पद श्रीकृष्ण ॥। ज्ञानी को ज्ञान से यह तत्व बोध होता है कि श्री भगवान् ही उसकी परम आत्मा अर्थात् आत्मस्वरूप हैं और वह उस निज आत्म स्वरूप में लीन हो कैवल्य लाभ करता है ॥ यही तत्व प्रेमी भी अनुभव करता है कि श्रीकृष्ण ही उसकी आत्मा हैं परंतु यह अनुभूति ज्ञानजनित नहीं वरन गहन प्रेम के कारण होती है ॥सत्य एक ही है केवल जानने के मार्ग दो हैं । न केवल मार्ग दो हैं वरन जानने के पश्चात होने वाली उपलब्धि भी भिन्न हैं । प्रेम का स्वरूप निज आत्म को सुख देना लेकिन आत्म वह स्वयं नहीं वरन श्यामसुन्दर हैं तो अब सारी क्रियाओं से केवल उन्हे ही सुख देना । यही स्वभाव होता प्रेमी का ॥उस परम प्रियतम को नित्य निरन्तर सुखदान की लालसा ही प्राणों का स्वरूप हो जाती है ॥और उनके सुख से स्वतः ही प्रेमी की परम सुख प्राप्त होता जाता ॥ काम में स्वयं को सुख देना जबकी प्रेम में अपने परम आत्म श्रीश्यामसुन्दर को सुख देना ॥ संसार में हम विभिन्न संबधों के माध्यम से स्वयं को ही सुखी करने हेतु तत्पर वही स्वभाव हमारा जो मायाजनित है परंतु दिव्य प्रेम राज्य में विभिन्न संबधों से केवल श्यामसुन्दर के सुख का ही विधान होता ॥ यही दिव्य प्रेम राज्य श्री ब्रज मंडल है जोदिव्य  प्रेम की अधिष्ठात्री श्री राधिका जू को निज स्थान है ॥ श्रीब्रज के अतरिक्त यह दिव्य प्रेम कहीं अन्यत्र नहीं है और जिस हृदय में यह प्रेम जागृत है उसे ब्रज मंडल का ही अंश तथा उस परम सौभाग्यशाली को ब्रजवासी ही जानिये ॥ वह स्थूल देह से कहाँ  वास करता इससे  कोई प्रयोजन नहीं प्रेम का ॥



कितना सुंदर भाव है प्रेम ॥संसार में प्रेम को सर्वाधिक मधुर भावना माना जाता है ॥ जबकी संसार जिस प्रेम को जानता मानता अनुभव करता वह वास्तविक प्रेम है ही नहीं , वह केवल और केवल काम है ॥ संभवतः कुछ लोगो को यह अनुचित लगे परंतु जब तक वास्तविक प्रेम की प्राप्ति नहीं होती यह काम ही परम प्रेम प्रतीत होता है इसमें किसी का कोई दोष नहीं ॥ क्योंकि वास्तविक प्रेम तो जिनकी वस्तु है बिना उनके अनुग्रह के प्राप्त नहीं होती ॥।सोचिये जब निज स्वार्थ स्वरूप काम संसार में इतना मधुर अनुभव होता है कि उसमें डूबे व्यक्ति को संसार की चिन्ता नहीं रहती तो वास्तविक सार स्वरूप दिव्य प्रेम कैसा होता होगा ॥ संसार में किसी के रूप गुण कला या किसी भी अन्य हेतु से आकर्षित होकर उसे प्राप्त करने तथा निज सुखार्थ सदैव समीप रखने की इच्छा को प्रेम जाना जाता है । संसार में प्रेम (काम) की परिणिति भोग है ॥काम की अर्थात् निज सुख भोग की बडी तुच्छ सी सीमा है अतः तनिक से भोग से ही जीव संतुष्ट हो जाता है । उस भोग में भी प्राप्त होने वाला आनन्द उसी परम आनन्द सिंधु के आनन्द के सीकर का अणु मात्र ही होता है । खैर यह दूसरा विषय है ॥ वास्तविक प्रेम या दिव्य प्रेम तो सर्वथा भिन्न वस्तु है । यहाँ प्रेमास्पद को पाने भोगने सदा समीप रख सुख पाने की इच्छा की गंध भी नहीं होती । यहाँ तो केवल प्रेमास्पद को सुखी करने का चाव होता है ॥ वास्तविक प्रेम किससे होता है हमारा वास्तविक प्रेमास्पद है कौन । वह है हमारी अपनी आत्मा । हम केवल स्वयं से ही प्रेम करते हैं कर सकते हैं ॥ यह बडी गूढ़ बात है पर गहराई से मनन करने पर प्रकाशित हो सकती है ॥हमारी आत्मा है कौन ॥ हम कह सकते हैं कि हमारी आत्मा तो हमारे भीतर है परंतु नहीं जो आपके भीतर वह आपकी आत्मा नहीं वरन स्वयं आप ही हैं ॥ तो यह भेद कैसा ॥ क्योंकि आप स्वयं को देह मानते हैं अर्थात् देह हुये आप और भीतर हुयी आपकी आत्मा जबकी यह सत्य नहीं । माया के कारण देहाध्यास के कारण ही यह भेद प्रतीत होता केवल । आप केवल आत्म स्वरूप ही हैं और इसी कारण स्वयं को सुख देने हेतु समस्त जीवन विलास आपका ॥ परंतु यह भी परम सत्य नहीं है ॥आत्मा अर्थात् मैं तो मेरी आत्मा कौन ??हां बस यही जानना है यही समझना है । सारा ज्ञान सारा प्रेम इसी पर निर्भर है ॥ हमारी आत्मा वहीं हैं जिन्होंने गीता में स्वयं इसका उदघोषक किया है ” अहं सर्वभूतात्मा “॥ हां वहीं हमारे एकमात्र परम प्रेमास्पद श्रीकृष्ण ॥। ज्ञानी को ज्ञान से यह तत्व बोध होता है कि श्री भगवान् ही उसकी परम आत्मा अर्थात् आत्मस्वरूप हैं और वह उस निज आत्म स्वरूप में लीन हो कैवल्य लाभ करता है ॥ यही तत्व प्रेमी भी अनुभव करता है कि श्रीकृष्ण ही उसकी आत्मा हैं परंतु यह अनुभूति ज्ञानजनित नहीं वरन गहन प्रेम के कारण होती है ॥सत्य एक ही है केवल जानने के मार्ग दो हैं । न केवल मार्ग दो हैं वरन जानने के पश्चात होने वाली उपलब्धि भी भिन्न हैं । प्रेम का स्वरूप निज आत्म को सुख देना लेकिन आत्म वह स्वयं नहीं वरन श्यामसुन्दर हैं तो अब सारी क्रियाओं से केवल उन्हे ही सुख देना । यही स्वभाव होता प्रेमी का ॥उस परम प्रियतम को नित्य निरन्तर सुखदान की लालसा ही प्राणों का स्वरूप हो जाती है ॥और उनके सुख से स्वतः ही प्रेमी की परम सुख प्राप्त होता जाता ॥ काम में स्वयं को सुख देना जबकी प्रेम में अपने परम आत्म श्रीश्यामसुन्दर को सुख देना ॥ संसार में हम विभिन्न संबधों के माध्यम से स्वयं को ही सुखी करने हेतु तत्पर वही स्वभाव हमारा जो मायाजनित है परंतु दिव्य प्रेम राज्य में विभिन्न संबधों से केवल श्यामसुन्दर के सुख का ही विधान होता ॥ यही दिव्य प्रेम राज्य श्री ब्रज मंडल है जोदिव्य प्रेम की अधिष्ठात्री श्री राधिका जू को निज स्थान है ॥ श्रीब्रज के अतरिक्त यह दिव्य प्रेम कहीं अन्यत्र नहीं है और जिस हृदय में यह प्रेम जागृत है उसे ब्रज मंडल का ही अंश तथा उस परम सौभाग्यशाली को ब्रजवासी ही जानिये ॥ वह स्थूल देह से कहाँ वास करता इससे कोई प्रयोजन नहीं प्रेम का ॥

Share on whatsapp
Share on facebook
Share on twitter
Share on pinterest
Share on telegram
Share on email

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *