साधक का प्रेम 1

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साधक का प्रेम संसार के सम्बन्ध बनाने से संबंधित नहीं है। साधक का प्रेम भगवान नाथ श्री हरी से सम्बन्ध बनाता है। साधक अपने भगवान को प्राणों में समा लेता है साधक की भगवान से मिलन की आतुरता प्रेम है। साधक भगवान से कुछ भी नहीं चाहता बस समर्पित भाव होता है।
प्रेम में लेन देन नहीं  विश्वास होता है। प्रेम का समर्पण भाव सत्यता की कसौटी पर परखा जाता है। हम संसार में रिश्ते बनाते हैं। रिश्तो में प्रेम कुछ समय तक दिखाई देता है। रिश्ते विश्वास की कैसोटि पर खरे उतरते नहीं। क्योंकि जब हम रिश्ते बनाते हैं तब दोनों तरफ के विचार में ये निर्धारित होता है कि अमुक सम्बन्ध से हम कितना सुख प्राप्त कर लेगे। सुख पर अधारित सम्बन्धो में प्रेम नहीं मोह होता है । प्रेम को विरले ही समझ पाते हैं। प्रेम प्रेम कहने मात्र से प्रेम को निभाया नहीं जा सकता। पति पत्नी के सम्बन्ध को प्रेम की परिभाषा नहीं दी जा सकती। प्रेम देना जानता है। प्रेम परमात्मा से किया जाता है।साधक कहता है कि हे मेरे परमात्मा जी मै तुम्हे भी नहीं बता सकता कि तुम मेरे क्या हो।परमात्मा से जो विनती करता है वह हर परिस्थिति में हर क्षण अपने स्वामी भगवान् नाथ से अन्तर्मन से दिल जुड़ा रहता है। आन्नद सागर में डुब कर नयनों में नीर समा जाता है। ऐसे में भक्त भगवान का बन जाता है।



Sadhak’s love is not related to making relationships with the world. Sadhak’s love makes relationship with Lord Nath Shri Hari. Sadhak absorbs his God in his life, the desire of the seeker to meet God is love. Sadhak does not want anything from God, just a devotional attitude. Trust is not a transaction in love. The devotion of love is tested on the test of truthfulness. We build relationships in the world. In relationships, love is visible for some time. Relationships do not live up to the criterion of trust. Because when we make a relationship, then it is determined in the thoughts of both the parties that how much happiness we will get from such a relationship. In a relationship based on happiness, there is no love but attachment. Rarely do you understand love. Love cannot be fulfilled just by saying love love. The relationship between husband and wife cannot be defined as love. He knows how to give love. Love is done with God. The seeker says that O my God, I can’t even tell you what you are in my heart . By drowning in the ocean of joy, the neer gets absorbed in the eyes. In this way the devotee becomes of God.

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