[100]”श्रीचैतन्य–चरितावली”

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।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
दक्षिण यात्रा का विचार

कति न विहितं स्‍तोत्रं काकु: कतीह न कल्पिता
कति न रचितं प्राणत्‍यागादिकं भयदर्शनम्।
कति न रुदितं धृत्‍वा पादौ तथापि स जग्मिवान्।
प्रकृतिमहतां तुल्‍यौ स्‍यातामनुग्रहनिग्रहौ।।

सचमुच महापुरुषों का स्‍वभाव बड़ा ही विलक्षण होता है। इनके अभी काम, सभी चेष्‍टाएँ, सभी व्‍यवहार लोकोत्तर ही होते हैं। इनमें सभी वैषम्‍य गुणों का समावेश पाया जाता है। इनका हृदय अत्‍यन्‍त ही प्रेममय होता है। एक बार जिसके ऊपर इनकी कृपा हो गयी, जिसने एक क्षण को भी इनकी प्रसन्‍नता प्राप्‍त कर ली, बस, समझो कि सम्‍पूर्ण जीवनपर्यन्‍त उसके लिये इन महापुरुषों के हृदय में स्‍थान हो गया। इनका प्रणय स्‍थायी होता है और कभी किसी पर दैववशात इन्‍हें क्रोध भी आ गया तो वह पानी की लकीर के समान होता है, जिस समय आया उसी समय नष्‍ट हो गया। इतने पर भी ये अपने जीवन को संग से रहित बनाये रहते हैं और त्‍याग की मात्रा इनमें इतनी अधिक होती है प्‍यारे-से-प्‍यारे को भी क्षणभर में शरीर से परित्‍याग कर सकते हैं।[2]

इन्‍हीं सब बातों को तो देखकर महा‍कवि भवभूति ने कहा है- ‘वज्रादपि कठोराणि मृदूनि कुसुमादपि’ अर्थात ये पुष्‍प से भी अधिक मुलायम होते हैं, भक्‍तों की तनिक-सी प्रार्थना पर पिघल जाते हैं और समय पड़ने पर कठोर भी इनते हो जाते हैं कि वज्र भी इनके सामने अपनी कठोरता में कम ठहरता है। ऐसे महापुरुषों का जो अनुकरण करना चाहते हैं, उनकी पीछे दौड़ना चाहते हैं, उनके व्‍यवहारों की नकल करना चाहते हैं, वे पुरुष धन्‍यवाद के पात्र तो अवश्‍य हैं, किन्‍तु ऐसे विरले ही होते हैं। इन स्‍वेच्‍छाचारी स्‍वच्‍छन्‍दगति महानुभावों का अनुकरण या अनुसरण करना हंसी-खेल नहीं है। ये अपने निश्‍चय के सामने किसी के आग्रह की, किसी की अनुनय-विनय की; किसी की प्रार्थना की परवा ही नहीं करते। जो निश्‍चय हो चुका सो चुका। साधारण लोगों के स्‍वभाव में और महापुरुषों के स्‍वभाव में यही तो अन्‍तर है, ये ही तो उनकी महानता है। इसी से तो वे जगत-वन्‍द्य बन सकते हैं।

महाप्रभु का हृदय जितना ही कोमलातिकोमल और प्रेमपूर्ण था उनका निश्‍चय उतना ही अधिक दृढ़, अटल और असन्दिग्‍ध होता था। वे अपने सत्‍यसंकल्‍प के सामने किसी की परवा नहीं करते थे। माघ मास के शुक्‍लपक्ष में कटवा से संन्‍यास-दीक्षा लेकर महाप्रभु श्रीअद्वैताचार्य के घर शान्तिपुर में आये थे। वहाँ आठ या दस दिन रहकर फिर आपने पुरी के लिये प्रस्‍थान किया और मार्ग के सभी पुण्‍य-तीर्थों को पावन बनाते हुए फाल्‍गुन मास में श्रीनीलाचल में पहुँचे।

वहाँ पर फाल्‍गुन और चैत्र मास में सार्वभौम भट्टाचार्य की मौसी के घर में भक्‍तों के सहित प्रभु ने निवास किया। उस समय तक पुरी में प्रभु की इतनी अधिक ख्‍याति कैसे नहीं हुई थी। नीलाचल बड़ा तीर्थक्षेत्र है, नित्‍यप्रति सैकड़ों साधु महात्‍मा वहाँ आते जाते रहते हैं, वहाँ कौन किसकी परवाह करता है। जब सार्वभौम भट्टाचार्य जैसे प्रकाण्‍ड पण्डित प्रभु के पादपद्मों के शरणापन्‍न हुए तब तो लोगों का झुकाव कुछ कुछ प्रभु की ओर हुआ। वे परस्‍पर एक दूसरे से प्रभु के सम्‍बन्‍ध में आलोचना प्रत्‍यालोचना करते लगे। संसारी लोगों का स्‍वभाव होता है कि वे जहाँ तक हो सकता है किसी को बढ़ने नहीं देते, उसकी निन्‍दा करके, उसे चिढ़ा के अथवा संसारी प्रलोभन देकर शक्तिभर नीचे ही गिराने का प्रयत्‍न करते हैं। वे जब तक पूर्णरीत्‍या विवश नहीं हो जाते तब तक किसी की मान प्रतिष्‍ठा अथवा पूजा अर्चा नहीं करते।

जब उसके असह्य तेज को सहने करने में असमर्थ हो जाते हैं तो अन्‍त में उन्‍हें उसकी प्रतिष्‍ठा करने के लिये विवश हो जाना पड़ता है और फिर वे उसकी पूजा-प्रतिष्‍ठा और प्रशंसा किये बिना रह ही नहीं सकते। महाप्रभु जनसंसद से पृथक एकान्‍त में, बिना किसी प्रदर्शन के गोप्‍य भाव से भक्‍तों के सहित रहते थे। किन्‍तु कूड़े के अंदर छिपी हुई अग्नि कब तक प्रकट रह सकती है? धीरे धीरे लोग महाप्रभु के दर्शनों के लिये आने लगे। तभी महाप्रभु ने दक्षिण देश के तीर्थों में परिभ्रमण करने का विचार किया। उनकी इच्‍छा थी कि संन्‍यासी के धर्म के अनुसार हमें कुछ काल तक देश विदेशों में भ्रमण करना चाहिये। यही प्राचीन ऋषि महर्षियों का सनातन आचार है। यह सोचकर प्रभु ने अपनी इच्‍छा भक्‍तों पर प्रकट की। सभी प्रभु के इस निश्‍चय को सुनकर अवाक रह गये। उनमें से नित्‍यानन्‍द जी बोल उठे- ‘प्रभो ! आप तो निश्‍चय करके आये थे कि हम नीलाचल में ही रहेंगे।

सभी भक्‍तों को भी आप इसी प्रकार का आश्‍वासन दे आये थे, किन्‍तु अब आप यह कैसी बातें कर रहे हैं? आपके सभी कार्य अलौकिक होते हैं। आप क्‍या करना चाहते हैं, इसे कोई नहीं जान सकता। आपके मनोगत भावों को समझ लेना मानवीय बुद्धि के परे की बात है। आप सर्वसमर्थ हैं, जो चाहें सो करें, किन्‍तु पुरी जैसे परम पावन क्षेत्र को परित्‍याग करके आप दक्षिण की ओर क्‍यों जाना चाहते हैं?’

महाप्रभु ने कुछ सोचकर कहा- ‘हमारे ज्‍येष्‍ठ बन्‍धु महामहिम विश्‍वरूप जी दक्षिण देश की ही ओर गये थे, मैं उधर जाकर उनकी खोज करूँगा। संन्‍यास लेकर उनकी खोज करना मेरा सर्वप्रधान कर्तव्‍य है।’

कुछ दु:ख की सूखी हंसी हंसते हुए दमोदर पण्डित ने कहा- ‘भाई को खोजने के लिये जा रहे हैं, इसे तो हम खूब जानते हैं, यह तो आपका बहानामात्र है। यथार्थ बात तो कुछ और ही हैं। मालूम होता है, दक्षिण देश को पावन करने की इच्‍छा है सो हम मना थोड़े ही करते हैं और मना करें भी तो आप स्‍वतन्‍त्र ईश्‍वर हैं, किसी की मानेंगे थोड़े ही।’

दामोदर पण्डित की बात ठीक ही थी। महाप्रभु के अग्रज विश्‍वरूप ने संन्‍यास ग्रहण करने के दो वर्ष बाद पूना के पास पण्‍ढरपुर में इस शरीर को त्‍याग दिया था, यह बात भक्‍तों को विदित थी। प्रसिद्ध पदकर्ता वासुदेव घोष उस समय वहीं पण्‍ढरपुर में ही उपस्थित थे। उन्‍होंने भक्‍तों को आकर यह समाचार सुनाया भी था। महाप्रभु ने आज तक यह समाचार न सुना हो, यह सम्‍भव नहीं। कुछ भी हो विश्‍वरूप के ढूंढ़ने को उपलक्ष्‍य बनाकर वे दक्षिण देश को अपनी पदधूलि से पावन करना चाहते थे, इसीलिये उन्‍होंने ऐसा निश्‍चय किया।

नित्‍यानन्‍द जी ने कुछ रुंधे हुए कण्‍ठ से कहा- ‘प्रभो। हम आपकी इच्‍छा के विरुद्ध कोई भी कार्य नहीं कर सकते। किन्‍तु हमारी यही प्रार्थना है कि हम लोगों को अपने साथ ही ले चलें। हमारा परित्‍याग न करें।’ प्रभु ने गम्‍भीरतापूर्वक कहा- ‘मेरे साथ कोई नहीं चल सकता। मैं भीड़ भाड़ के साथ यात्रा में न जा सकूँगा। अकेले ही तीर्थ भ्रमण करूँगा।’

अत्‍यन्‍त ही दीनभाव से नित्‍यानन्‍द जी ने कहा- ‘प्रभो ! हम आपके किसी कार्य में हस्‍तक्षेप नहीं करते। हमारे साथ रहने से आपको क्‍या असुविधा हो सकती है? यदि सबको साथ ले चलना आप उचित न समझते हों। तो मुझे तो साथ लेते ही चलिये। मैंने दक्षिण के सभी तीर्थों की यात्रा की है। सभी स्‍थान, सभी रास्‍ते, सभी तीर्थ और देवालय मेरे दिखे हुए हैं। मेरे साथ रहने से किसी भी प्रकार का विक्षेप न होगा।’

महाप्रभु ने कुछ बनावटी उदासीनता-सी प्रकट करते हुए व्‍यंग क साथ कहा- ‘श्रीपाद ! आप मेरे ऊपर वैसे ही कृपा बनाये रखें। आपको साथ लेकर तो मैं यात्रा कर चुका। आपका प्रगाढ़ स्‍नेह मुझे आगे बढ़ने ही न देगा। आप मुझे जो समझते हैं, वास्‍तव में वह मैं हूँ नहीं। इसीलिये मेरे और आपके बीच में यह बड़ा भारी मतभेद है। शान्तिपुर से यहाँ आने में ही आपने मुझे तंग कर दिया। मेरे दण्‍ड को आपने तोड़कर फेंक दिया, मुझे धर्म-भ्रष्‍ट करने में ही आपको मजा मिलता है, इसलिये आपको साथ ले जाना मेरी शक्ति से बाहर की बात है।’ इतने में दामोदर पण्डित बोल उठे- ‘अच्‍छा, प्रभो! मैं तो कुछ नहीं कहता! मुझे ही साथ ले चलिये। शेष इन तीनों को लौटा दीजिये।’

प्रभु ने हंसते हुए कहा- ‘गुरु महाराज ! आपकी तो दूर से ही चरणवन्‍दना करनी चाहिये। अभी तक मैं आपके कठोर नियम वाले स्‍वभाव से एकदम अपरिचित था। वैसे कहने के लिये तो मैंने संन्‍यास धारण कर लिया है; किन्‍तु भगवत-भक्‍त-प्रेमियों की उपेक्षा मुझसे अब भी नहीं की जाती। उनके प्रेम के पीछे मैं नियम-उपनियमों को अपने-आप ही भूल-सा जाता हूँ। आप इससे समझते हैं कि धर्म-विरुद्ध काम करता हूँ। आप कठोर नियमों के बन्‍धन में ही मुझे जकड़े रहने का उपदेश किया करते हैं। मुझे शरीर का भी तो होश नहीं रहता’ फि‍र आपके कर्कश और कठोर नियमों का पालन मैं किस प्रकार कर सकूँगा। इसलिये आप मेरे स्‍वतन्‍त्र व्‍यवहार को देखकर सदा मुझे टोकते रहेंगे- यह मेरे लिये असह्य होगा। इसलिये मैं अकेला ही जाऊँगा।’

धीरे से डरते-डरते जगदानन्‍द जी ने पूछा- ‘प्रभो! यह तो हम आपकी बातों के ढंग से ही समझ गये कि आप किसी को भी साथ न ले जायँगे। किन्‍तु जब प्रसंग छिड़ ही गया है तो मैं भी जानना चाहता हूँ कि मेरा परित्‍याग किस दोष के कारण किया जा रहा है?’

प्रभु ने जोरों से हंसते हुए कहा- ‘और किसी का तो ले भी जा सकता हूँ, किन्‍तु जगदानन्‍द जी को साथ ले आना तो मैं कभी भी पसंद न करूँगा। जब तक इनकी इच्‍छा के अनुसार मैं व्‍यवहार करता रहूँ, तब तक तो ये प्रसन्‍न रहते हैं, जहाँ इनके मनोभावों में तनिक-सी भी ठेस लगी कि ये फूलकर कुप्‍पा हो जाते हैं। इनकी मनोवांछा को पूर्ण करना मेरी शक्ति के बाहर की बात है। इनके मनोऽनुकूल बर्ताव करने से तो मैं सन्‍यास-धर्म का पालन कर ही नहीं सकता। ये मुझे खूब ब‍ढ़िया पदार्थ खाते देखकर सुखी होते हैं, मुझे अच्‍छे वस्‍त्रों में देखना चाहते हैं। मैं खूब सुन्‍दर शय्‍या पर शयन करूँ तब ये प्रसन्‍न होते हैं। मैं सन्‍यास-धर्म के विरुद्ध संसारी विषयों का उपभोग कभी कर नहीं सकता। इसलिये इनके साथ से तो अकेला ही अच्‍छा हूँ।’

इतना कहकर प्रभु मुकुन्‍द के मुख की ओर देखने लगे।मुकुन्‍द चुपचाप बैठे थे, उनकी आँखों में लबालब जल भरा हुआ था; किन्‍तु वह बाहर नहीं निकलता था। प्रभु की ममताभरी चितवन से वह जल अपने-आप ही आँखों की कोरों द्वारा बहने लगा।

प्रभु ने ममत्‍व प्रदर्शित करते हुए कहा– ‘कहो, तुम भी अपना दोष सुनना चाहते हो ?’

महाप्रभु के पूछने पर मुकुन्‍द चुपचाप ही अश्रु बहाते रहे, उन्‍होंने प्रभु की बात का कुछ भी उत्तर नहीं दिया। तब नित्‍यानन्‍द जी की ओर देखते हुए प्रभु कहने लगे- ‘मुकुन्‍द का स्‍वभाव बड़ा ही कोमल है, स्‍वयं तो ये भारी कष्‍टसहिष्‍णु हैं; किन्‍तु दूसरों के कष्‍ट को नहीं देख सकते। विशेषकर मेरे शरीर के कष्‍ट से तो ये क्षुभित हो उठते हैं। इन्‍हें मेरे संन्‍यास के नियमों की कठोरता असह्य मालूम पड़ती है। ये मेरे पैदल भ्रमण, कम वस्‍त्रों में निर्वाह, त्रिकाल स्‍नान, भिक्षान्‍न से उदरपूर्ति और जहाँ स्‍थान मिल गया वहीं पड़ रहने वाले नियमों से मन-ही-मन दु:खी रहते हैं। यद्यपि ये मुख से कुछ भी नहीं कहते, किन्‍तु इनके मनोगत भाव मुझसे छिपे नहीं रहते। इनके मानसिक दु:ख से मुझे भी क्‍लेश होता है। मैं अपने नियमों को छोड़ न सकूँगा, ये अपने कोमल स्‍वभाव को कठोर बना न सकेंगे, इसलिये इन्‍हें साथ ले जाना मेरे लिये असम्‍भव है।’

इन सब बातों को सुनकर नित्‍यानन्‍द जी ने कुछ खिन्‍न मन से कहा- ‘प्रभो ! आपकी इच्‍छा के विरुद्ध करने की सामर्थ्‍य ही किसमें है; किन्‍तु मेरी एक अन्तिम प्रार्थना है, इसके लिये मैं बार-बार चरणों में प्रार्थना करता हूँ कि इसे आप अवश्‍य स्‍वीकार करेंगे।’

प्रभु ने अत्‍यन्‍त ही ममता प्रदर्शित करते हुए कहा- ‘श्रीपाद ! आप यह कैसी बात कर रहे हैं। आप तो मेरे पूज्‍यमान और गुरुतुल्‍य हैं। आपकी आज्ञा का मैं कभी उल्‍लंघन कर सकता हूँ? आप सूत्रधार हैं, मैं तो आपका नृत्‍य करने वाला पात्र हूँ, जैसे नाचना चाहेंगे, वैसे ही नाचूँगा। बताइये, क्‍या कहते हैं?’

नित्‍यानन्‍द जी ने अत्‍यन्‍त ही करुण स्‍वर में कहा- ‘आप अकेले ही यात्रा में जायँगे, इससे हमें असह्य दु:ख होगा। हममें से किसी को साथ ले जाना न चाहें तो ये कृष्‍णदास नामके ब्राह्मण हैं, कटवा के समीप ही इनका जन्‍मस्‍थान है। ये स्‍वभाव के बड़े ही सरल हैं। सेवा करने में बड़े ही प्रवीण हैं। प्रभु के पादपपद्मों में इनका दृढ़ अनुराग हैं। ये साथ में रहकर प्रभु की सब प्रकार सेवा करेंगे। आप जब भावावेश में आकर नृत्‍य करने लगेंगे तो वस्‍त्रों को कौन संभालेगा। दोनों हाथों से ताली बजा-बजाकर तो आप रास्‍ते में कीर्तन करते हुए चलेंगे, फिर जलपात्र, कथरी और लँगोटियों को कौन सँभालेगा? अत: हमारी यही प्रार्थना है कि कृष्‍णदास को साथ चलने की अवश्‍य अनुमति प्रदान कर दीजिये।’

नित्‍यानन्‍द जी के इस अन्तिम आग्रह को प्रभु टाल न सकें। उन्‍होंने कृष्‍णदास को साथ चलने की अनु‍मति दे दी। इस कारण भक्‍तों को कुछ-कुछ संतोष हुआ। सभी की इच्‍छा थी कि प्रभु कुछ काल पुरी में और निवास करें। किन्‍तु उनसे आग्रह करने की किसी में हिम्‍मत नहीं थी। सभी ने सोचा- ‘यदि सार्वभौम प्रभु के पैर पकड़कर प्रार्थना करेंगे तो अवश्‍य ही कुछ दिन और रह जायँगे। इसलिये प्रभु को सार्वभौम के समीप ले चलना चाहिये।’ यही सोचकर नित्‍यानन्‍द जी ने कहा- ‘प्रभो ! भट्टाचार्य सार्वभौम से भी तो इस सम्‍बन्‍ध में परामर्श कर लेनी चाहिये, देखें वे क्‍या कहते हैं।’ यह सुनकर प्रसन्‍नता प्रकट करते हुए प्रभु ने कहा- ‘अच्‍छी बात है, चलिये, सार्वभौम से भी इस सम्‍बन्‍ध में पूछ लें।’ इतना कहकर प्रभु भक्‍तों के सहित सार्वभौम के घर की ओर चले।

क्रमशः अगला पोस्ट [101]
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]



, Shri Hari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram south travel idea

How many hymns have not been prescribed by the crow and how many have not been imagined here How many have not created the sight of fear, such as the sacrifice of life? How many times did he not cry and yet he carried his feet Grace and restraint should be equal to the great nature.

Really the nature of great men is very unique. Right now their work, all their efforts, all their behavior are extraterrestrial. The inclusion of all contrasting qualities is found in these. His heart is very loving. The one who was blessed by him once, who got his happiness even for a moment, just understand that he got a place in the hearts of these great men for the whole life. Their love is permanent and sometimes even if they get angry on someone, then it is like a streak of water, it gets destroyed at the same time it came. Despite this, they keep their life free from company and the amount of renunciation is so high in them that even the dearest can leave the body in a moment.[2]

Seeing all these things, the great poet Bhavabhuti has said- ‘Vajradapi Kadharani Mriduni Kusumadapi’ means they are more soft than flowers, they melt at the slightest prayer of the devotees and when the time comes, they become hard like thunderbolts. Even in front of them, it remains less in its harshness. Those who want to emulate such great men, want to run after them, want to copy their behavior, those men definitely deserve thanks, but such men are rare. It is not a laughing game to follow or follow these self-willed free-spirited great men. This is someone’s request in front of his decision, someone’s persuasion; He doesn’t care about anyone’s prayer. Whatever has been decided has already happened. This is the difference between the nature of ordinary people and the nature of great men, this is their greatness. This is why they can become Jagat-Vandya.

The more tender and loving the heart of Mahaprabhu was, the more firm, firm and unquestionable his determination was. He didn’t care about anyone in front of his true resolution. In the bright fortnight of the month of Magh, Mahaprabhu had come to Shantipur at Shri Advaitacharya’s house after taking sannyas-diksha from Katwa. After staying there for eight or ten days, you then left for Puri and after purifying all the holy places along the way, reached Sri Nilachal in the month of Phalgun.

There, in the months of Phalgun and Chaitra, the Lord along with the devotees resided in the house of Sarvabhaum Bhattacharya’s aunt. Till that time, how could the Lord not have gained so much fame in Puri. Neelachal is a big pilgrimage area, hundreds of saints and Mahatmas keep coming there everyday, who cares for whom there. When eminent scholars like Sarvabhaum Bhattacharya took refuge in the lotus feet of the Lord, then people were somewhat inclined towards the Lord. They started criticizing each other about the Lord. It is the nature of worldly people that they do not allow anyone to grow as far as possible, by criticizing, teasing or giving worldly temptations, they try to bring him down as much as possible. They do not respect or worship anyone until they are completely compelled.

When they are unable to tolerate his unbearable glory, then in the end they are forced to worship him and then they cannot live without worshiping him and praising him. Mahaprabhu used to live in seclusion apart from the public assembly, with the devotees in secret without any demonstration. But how long can the fire hidden inside the garbage remain visible? Slowly people started coming to have darshan of Mahaprabhu. That’s why Mahaprabhu thought of traveling in the pilgrimages of the South country. His wish was that according to the dharma of a monk, we should tour the country and abroad for some time. This is the eternal conduct of the ancient sages and sages. Thinking this, the Lord revealed his will to the devotees. Everyone was speechless after hearing this decision of the Lord. Among them, Nityanand ji said – ‘ Lord! You had come with the determination that we will stay in Neelachal only.

You had given similar assurance to all the devotees as well, but now what kind of things are you talking about? All your works are supernatural. No one can know what you want to do. Understanding your occult feelings is beyond human intelligence. You are omnipotent, do whatever you want, but why do you want to leave the most holy area like Puri and go to the south?’

Mahaprabhu thought something and said- ‘Our elder brother His Highness Vishwaroop ji had gone towards the southern country, I will go there and search for him. It is my foremost duty to find them after taking sannyas.

Damodar Pandit said, laughing a dry laugh of some sorrow – ‘ We are going to find brother, we know it very well, this is just your excuse. The reality is something else. It seems that there is a desire to purify the southern country, so we hardly refuse and even if we refuse, you are an independent God, very few will obey anyone.’

Damodar Pandit was right. It was known to the devotees that Vishwarup, Mahaprabhu’s forefather, had left this body at Pandharpur near Poona two years after taking sannyasa. Famous Padkarta Vasudev Ghosh was present in Pandharpur at that time. He also came and told this news to the devotees. It is not possible that Mahaprabhu has not heard this news till today. Whatever it may be, he wanted to purify the southern country with the dust of his feet, making it an occasion to find the form of the world, that is why he decided to do so.

Nityanand ji said with a choked voice – ‘ Lord. We cannot do anything against your will. But it is our request that we take the people with us. Don’t abandon us.’ The Lord said seriously – ‘No one can walk with me. I will not be able to travel with the crowd. I will go on pilgrimage alone.’

With great humility, Nityanand ji said – ‘Lord! We do not interfere in any of your work. What inconvenience can you face by staying with us? If you don’t think it appropriate to take everyone along. So at least take me with you. I have visited all the pilgrimages of the South. All places, all roads, all pilgrimages and temples are visible to me. Being with me will not cause any distraction.’

Expressing some artificial indifference, Mahaprabhu said with sarcasm – ‘Shripad! You keep showering me with the same kindness. I have traveled with you. Your intense affection will not let me move forward. What you think I am, in reality I am not. That’s why there is this big difference of opinion between me and you. You troubled me just by coming here from Shantipur. You broke my punishment and threw it away, you get pleasure only in corrupting me, so it is beyond my power to take you with me. I don’t say anything! Take me with you Return the rest to these three.

The Lord laughed and said – ‘ Guru Maharaj! Your feet should be worshiped from a distance. Till now I was completely unfamiliar with your strict rule nature. To say the same, I have taken sannyas; But Bhagwat-devotees-lovers are not neglected by me even now. Behind his love, I automatically forget the rules and regulations. You understand from this that I work against religion. You only preach me to be bound by strict rules. I am not even conscious of my body. Then how can I follow your harsh and harsh rules. That’s why you will always interrupt me seeing my independent behavior – it will be unbearable for me. That’s why I will go alone.’

Fearing slowly, Jagadanand ji asked – ‘ Lord! We have understood from the way you talk that you will not take anyone with you. But when the matter has already started, I also want to know for what fault I am being abandoned?’

The Lord laughed out loud and said – ‘I can take someone else too, but I would never like to take Jagadanand ji with me. As long as I keep on behaving according to their wish, till then they remain happy, where their sentiments get hurt even a little bit, they swell up and become angry. It is beyond my power to fulfill their wishes. Due to their behaving according to their wishes, I cannot follow the sannyas-religion. They are happy to see me eating good food, want to see me in nice clothes. They are happy when I sleep on a very beautiful bed. I can never enjoy worldly subjects against Sanyas-Dharma. That’s why I am better off alone than with them.’

Saying this, the Lord started looking at Mukund’s face. Mukund was sitting silently, his eyes were full of water; But he would not come out. That water automatically started flowing through the corners of the eyes due to the loving chitwan of the Lord.

Prabhu showing affection said- ‘Say, do you also want to hear your fault?’

When asked by Mahaprabhu, Mukund kept shedding tears silently, he did not answer anything to the words of the Lord. Then looking at Nityanand ji, the Lord said – ‘ Mukund’s nature is very soft, he himself is very suffering; But cannot see the suffering of others. Especially they get angry due to the pain of my body. They find the harshness of my sannyas rules unbearable. They are deeply saddened by my rules of traveling on foot, living in scanty clothes, taking trikal bath, filling their stomach with alms and staying wherever they get a place. Although they do not say anything through their mouth, but their hidden feelings do not remain hidden from me. I am also troubled by their mental sorrow. I will not be able to give up my rules, they will not be able to harden their soft nature, so it is impossible for me to take them along.’

After listening to all these things, Nityanand ji said with some sadness – ‘ Lord! Who has the power to do against your will; But I have one last request, for this I repeatedly pray at your feet that you will surely accept it.

The Lord, showing utmost affection, said – ‘Shripad! How are you talking about this? You are my worshiper and guru. Can I ever disobey your command? You are the facilitator, I am your dance character, I will dance as you want to dance. Tell me, what do you say?’

Nityanand ji said in a very compassionate voice – ‘ You will go on the journey alone, it will cause us unbearable sorrow. If you don’t want to take any of us with you, then this is a Brahmin named Krishnadas, his birthplace is near Katwa. They are very simple in nature. Very proficient in doing service. He has strong affection for the lotus feet of the Lord. Staying together, they will serve the Lord in every way. Who will take care of the clothes when you start dancing in the spirit? Clapping with both hands, you will walk on the road singing kirtan, then who will handle the water pot, kathri and langotis? Therefore, it is our request that you must allow Krishnadas to accompany you.

God could not avoid this last request of Nityanand ji. He allowed Krishnadas to accompany him. Due to this the devotees were somewhat satisfied. Everyone wished that the Lord should reside in Kaal Puri for some more time. But no one had the courage to request him. Everyone thought- ‘If we pray by holding the feet of the Universal Lord, then surely a few more days will remain. That’s why the Lord should be taken closer to the universal.’ Thinking this, Nityanand ji said – ‘Lord! Bhattacharya Sarvabhaum should also be consulted in this regard, let’s see what he says.’ Expressing happiness on hearing this, Prabhu said – ‘Good thing, let’s ask Sarvabhaum also in this regard.’ Walked towards the house of the universal along with the devotees.

respectively next post [101] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]

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