[103]”श्रीचैतन्य–चरितावली”

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।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
राजा रामानन्‍द राय

वाञ्छा सज्‍जनसंगमे परतुणे प्रीतिर्गुरौ नम्रता
विद्यायां व्‍यसनं स्‍वयोषिति रतिर्लोकापवादाद्भयम्।
भक्ति: शूलिनि शक्तिरात्‍मदमने संसर्गमुक्ति: खले-
ष्‍वेते येषु वसन्ति निर्मलगुणास्‍तेभ्‍यो नरेभ्‍यो नम।।

यौवन, धन, सम्‍पत्ति और प्रभुत्‍व-इन चारों का नीतिकारों ने अविवेक के संसर्ग से नाश का हेतु बताया है। सचमुच इन चारों का पाकर मनुष्‍य पागल-सा हो जाता है। धन-मद, जन-मद, तप-मद, विद्या-मद, अधिकार-मद और यौवन-मद आदि अनेक प्रकार के मदों में अधिकार-मद और धन-मद ये ही दो सर्वश्रेष्‍ठ मद माने गये हैं। जो अधिकार पाकर प्रमाद नहीं करता और धन पाकर जिसे अभिमान नहीं होता, वह साधारण मनुष्‍य नहीं है। वह तो कोई अलौकिक महापुरुष ही है। ऐसे महापुरुष की चरणवन्‍दना करने से अक्षय सुख की प्राप्ति हो सकती है। महाभागवत राय रामानन्‍द जी ऐसे ही वन्‍दनीय महानुभावों में से थे। राय रामानन्‍द जी के पिता का नाम राजा भवानन्‍द जी था।

राजा भवानन्‍द जी जगन्‍नाथपुरी से तीन कोस दूर अलालनाथ के समीप रहते थे। वे जाति के करणवंशी कायस्‍थ थे। इनके राय रामानन्‍द, गोपीनाथ पट्टनायक, कलानिधि, सुधानिधि और वाणीनाथ नामक-ये पाँच पुत्र थे। ये उड़ीसा के महाराज प्रताप रुद्र के राजदरबार में एक प्रधान कर्मचारी थे। इनके तीन लड़के भी महाराज के दरबार में ही ऊंचे-ऊंचे अधिकारों पर आसीन होकर राज-काज करते थे। गोपीनाथ कटक-दरबार की ओर से मालजेठा-प्रदेश के शासक थे। वाणीनाथ दरबार में ही किसी उच्‍च पद पर प्रतिष्ठित थे और राय रामानन्‍द उत्‍कल देश के अन्‍तगर्त विद्यानगर राज्‍य के शासक थे।

इस बात को हम पहले ही बता चुके हैं कि उस समय भारतवर्ष में छोटे-छोटे सैकड़ों स्‍वतन्‍त्र राज्‍य थे। उस अपने छोटे-से प्रदेश के शासक नृपतिगण सनातन-परिपाटी के अनुसार धर्म को प्रधान मानकर प्रजा का पालन करते थे और क्षत्रिय-धर्म के अनुसार युद्ध भी करते थे।

तैलंग देश में भी बहुत से छोटे छोटे राज्‍य थे। उनमें से ‘कोटदेश’ नामका एक छोटा-सा राज्‍य था, जिसकी राजधानी विद्यानगर थी। वर्तमान समय में गोदावरी के उत्तर तटपर स्थित राजमहेन्‍द्री को ही उस प्रदेश की प्रधान नगरी समझना चाहिये, किन्‍तु पुराना विद्यानगर तो गोदावरी के दक्षिण तीर पर अवस्थित था और वह वर्तमान राजमहेन्‍द्री से दस-बारह कोस की दूरी पर था। बहुत-से लोग विजयनगर को ही विद्यानगर समझते हैं, किन्‍तु नामके साम्‍य होने के केवल भ्रम ही है। इसे तो पाठक पहले ही पढ़ चुके हैं कि उत्‍कल-देश के तत्‍कालीन महाराज पुरुषोत्तमदेव ने विद्यानगर के राजा को युद्ध में परास्‍त करके उसने देश को अपने राज्‍य में मिला लिया था। रामानन्‍द राय उत्‍कल-राज्‍य की ही ओर से उस राज्‍य के शासक होकर वहाँ रहते थे। महाराज की ही ओर से उन्‍हें ’राजा’ और ‘राय’ की उपाधियाँ मिली हुई थीं।

राय महाशय राज-काल में प्रवीण, देश-काल के जानने वाले, विनयी शूर तथा सदाचारी पुरुष थे। फारसी के पण्डित होने के साथ-ही-साथ उन्‍हें संस्‍कृत का भी भलीभाँति ज्ञान था। संस्‍कृत-साहित्‍य का उन्‍होंने खूब अनुशीलन किया था, सभी शास्‍त्रों में उनकी प्रगती थी। विद्या-व्‍यासंगी होने के कारण उनका सार्वभौम भट्टाचार्य से अत्‍यधिक स्‍नेह था। ये जब भी राज-काल से उड़ीसा जाते तभी पुरी में जाकर सार्वभौम से मिलते और उनके साथ शास्‍त्रालोचना किया करते। सार्वभौम भी इन्‍हें हृदय से चाहते थे, दोनों का हृदय कविताप्रिय था। दोनों ही सरस, सरल, विद्वान और शास्‍त्रा‍भ्‍यासी थे, इसीलिये इन दोनों की परस्‍पर खूब पीटती थी। महाराज प्रतापरुद्र भी काव्‍य-रसिक थे, इसीलिये वे भी सार्वभौम भट्टाचार्य तथा रामानन्‍द राय-इन दोनों ही का बहुत अधिक सादर करते थे। राय महाशय ने अपने ‘जगन्‍नाथवल्‍लभ’ नामक नाटक में महाराज प्रतापरुद्र की बहुत अधिक प्रशंसा की है। राय रामानन्‍द करणवंशी कायस्‍थ थे, फिर भी उनका आचार-विचार बड़ा ही शुद्ध तथा पवित्र था। वे देवता और ब्राह्मणों के चरणों में अत्‍यधिक श्रद्धा रखते थे। वैदिक श्रौत-स्‍मार्त आदि कर्मों का वे विधिवत अनुष्‍ठान करते थे और धर्मपूर्वक शासन का कार्य करते हुए सदा श्रीकृष्‍ण के चरणाविन्‍दों में अपने मन को लगाये रहते थे।

एक दिन प्रात: काल बहुत-से वैदिक ब्राह्मणों के सहित नित्‍य की भाँति पतितपावनी पुण्‍यतोया गोदावरी-में स्‍नान करने के निमित्त आये। बहुत-से वेदज्ञ ब्राह्मण उनके साथ-साथ स्‍तोत्रपाठ करते हुए आ रहे थे। आगे-आगे बहुत-से वाद्य बजाने वाले पुरुष भाँति-भाँति के वाद्यों को बजाते हुए चल रहे थे। इस प्रकार बहुत-से आदमियों से घिरे हुए वे गोदावरी के तट पर पहुँचे। तट पर पहुँचते ही वाद्य वालों ने अपने-अपने वाद्य बंद कर दिये। ब्राह्मणगण वस्‍त्र उतार-उतारकर गोदावरी के स्‍वच्‍छ, शीतल जल में स्‍नान करने लगे। बहुत-से स्‍नान के समय पढ़े जाने वाले स्‍तोत्रों को पढ़कर राय रामानन्‍द जी ने स्‍नान किया और फिर देवता, ऋषि तथा पितरों को जल से सन्‍तुष्‍ट करके उन्‍होंने ब्राह्मणों को यथेष्‍ट दक्षिणा दी और फिर वे अपनी राजधानी की ओर चलने लगे।

उसी समय दूर ही से उन्‍होंने अकेले वृक्ष के नीचे बैठ हुए एक नवीन अवस्‍था वाले काषाय वस्‍त्रधारी परमरुप-लावण्‍य युक्‍त युवक संन्‍यासी को देखा। पता नहीं, उस युवक संन्‍यासी की चितवन में क्‍या जादू भरा हुआ था, उसे देखते ही राय रामानन्‍द मन्‍त्रमुग्‍ध-से बन गये। उन्‍होंने देखा, संन्‍यासी के अंग-प्रत्‍यंग से मधुरिमा निकल-निकलकर उस निर्जन प्रदेश को मधुमय, आनन्‍दमय और उल्‍लासमय बन रही है। गोदावरी का वह शांत एकांत स्थान उस नवीन संयासी की प्रभा से प्रकाशित सा हो रहा है, संन्यासी अपने एक पैर के ऊपर दूसरे पैर को रखे हुए एकटक-भाव से रामान्द राय की ओर ही निहार रहा है, उसके चेहरे पर प्रसन्नता है, उत्सुक्ता है, उन्मत्तता है और है किसी से तन्मयता प्राप्त करने की उत्कट इच्छा। संन्यासी कुछ मुसकता रहा है और उसके बिम्बाफल के समान दोनों अरुण ओष्ठ अपने आप ही हिल जाते हैं। पता नहीं, वह अपने आप ही क्या कहने लग जाता है। राय महाशय अपने को संभाल नहीं सके। उस संन्‍यासी ने दूर से ही ऐसा कोई मोहिनी मन्‍त्र पढ़ दिया कि उसके प्रभाव से वे राजापन के अभिमान को छोड़कर पालकी की ओर जाते-जाते ही सीधे उस संन्‍यासी की ओर जाने लगे। अपने प्रभु को संन्‍यासी की ओर आते देखकर सेवक भी उनके पीछे-पीछे हो लिये।

पाठक समझ ही गये होंगे कि ये नवीन संन्‍यासी हमारे प्रेम पारसमणि श्रीचैतन्‍य महाप्रभु ही हैं। महाप्रभु गोदावरी के किनारे एकान्‍त में स्‍नानादि से निवृत्त होकर यही सोच रहे थे कि राय रामानन्‍द से किस प्रकार भेंट हो, उसी समय उन्‍हें बजते हुए बाजों की ध्‍‍वनि सुनायी दी। महाप्रभु उन बाजे वालों की ओर देखने लगे। उन्‍होंने देखा कि बाजे वालों के पीछे एक सुन्‍दरी-सी पालकी में एक परम तेजस्‍वी पुरुष बैठा हुआ आ रहा है। उसके चारों ओर बहुत-से आदमियों की भीड़ चल रही है। बस, उसे देखते ही महाप्रभु समझ गये कि हो-न-हो, ये ही राजा रामानन्‍द राय हैं। जब उन्‍होंने देखा वह ऐश्‍वर्यवान महापुरुष पालकी पर न चढ़कर मेरी ही ओर आ रहा है, तब तो उनके हृदयसागर में प्रेम की हिलोरें मारने लगीं, उन्‍हें निश्‍चय हो गया क राय रामानन्‍द ये ही हैं। उनका हृदय राय महाशय को आलिंगन-दान देने के लिये तड़फने लगा। उनकी बार-बार इच्‍छा होती थी कि जल्‍दी से दौड़कर इस महापुरुष को गले से लगा लूं, किन्‍तु कई कारणों से उन्‍होंने अपने इस भाव को संवरण किया। इतने में ही उस समृद्धशाली पुरुष ने भूमिष्‍ठ होकर महाप्रभु के चरणों में प्रणाम किया। उस पुरुष को प्रणाम करते देखकर प्रभु ने अत्‍यन्‍त ही स्‍नेह से एक अपरिचित पुरुष की भाँति पूछा- ‘क्‍या आपका ही नाम राजा रामानन्‍द राय है?’

दोनों हाथों की अंजलि बांधे हुए अत्‍यन्‍त ही विनीत भाव से राय महाशय ने उत्तर दिया- ‘भगवन! इस दीन-हीन, भक्ति-हीन शूद्राधम को रामानन्‍द कहते हैं?’

इतना सुनते ही प्रभु ने उठकर रामानन्‍द राय का आलिंगन किया और बड़े ही स्‍नेह के साथ कहने लगे- ‘राय महाशय! मुझे सार्वभौम भट्टाचार्य ने आपका परिचय दिया था; उन्‍हीं की आज्ञा शिरोधार्य करके केवल आपके ही दर्शनों की इच्‍छा से मैं विद्यानगर आया हूँ। मैं सोच रहा था कि आपसे भेंट किस प्रकार हो सकेगी, सो कृपासागर प्रभु का अनुग्रह तो देखिये, अकस्‍मात ही आपके दर्शन हो गये। आज आपके दर्शनों से मैं कृतार्थ हो गया। मेरी सम्‍पूर्ण यात्रा सफल हो गयी। मेरा संन्‍यास लेना सार्थक हो गया, जो आप-जैसे परम भागवत भक्‍त के मुझे स्‍वत: ही दर्शन हो गये।’

हाथ जोड़े हुए दीनतापूर्वक रामानन्‍द जी ने कहा- ‘भगवन ! मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि आज मेरे अनन्‍त जन्‍मों का पुण्‍योदय हुआ है, जो साक्षात नारायण स्‍वरुप आप संन्‍यासी का वेष धारण करके मुझे जीवन बनाने के लिये यहाँ पधारे हैं। भट्टाचार्य सार्वभौम की मेरे ऊपर सदा से अहैतु की कृपा रही है, वे पुत्र की तरह, शिष्‍य की तरह, सेवक और सम्‍बन्‍धी की तरह सदा मेरे ऊपर अनुग्रह बनाये रखते हैं। प्रतीत होता है, उनके ऊपर आपकी असीम कृपा है, तभी तो उनके आग्रह को स्‍वीकार करके आपने मुझे अपने दर्शनों से कृतार्थ किया। वे एकान्‍त में भी मेरे कल्‍याण की ही बातें सोचा करते हैं, उसी के फलस्‍वरुप आपके अपूर्व दर्शनों का सौभाग्‍य मुझ-जैसे अधम को भी हो सका। मेरा जन्‍म छोटी जाति में हुआ है, मैं दिन-रात्रि लोकनिन्दित राज-काज में लगा रहता हूँ, विषयों के सेवन में ही मेरा समय व्‍यतीत होता है, ऐसे विषयी और परमार्थ-पथ से विमुख अधम को भी आपने आलिंगन प्रदान किया है, यह आपकी दीनवत्‍सलता ही हैं, इसमें मेरा अपना कुछ भी पुरुषार्थ नहीं है। मुझसे बढ़कर भाग्‍यवान आज संसार में कौन होगा, अब मैं अपने भाग्‍य की क्‍या प्रशंसा करूँ। प्रभु ने इस अधम को इतनी स्‍मृति रखी, इसे मैं किन पुण्‍यों का फल समझूँ।’

महाप्रभु ने कहा- ‘राय महाशय ! मैं आपके मुख से श्रीकृष्‍ण-कथा सुनने के निमित्त ही यहाँ आया हूँ, कृपा करके मुझे श्रीकृष्‍ण –कथा सुनाकर कृता‍र्थ कीजिये।’

रामानन्‍द जी ने कहा- ‘भगवन ! संसारी कीचड़ में फँसा हुआ मैं मायाबद्ध जीवन भला श्रीकृष्‍ण-कथा का आपके सम्‍मुख कथन ही क्‍या कर सकता हूँ? आप तो साक्षात श्रीहरि के स्‍वरुप हैं।’

प्रभु ने कहा- ‘संन्‍यासी समझकर आप मेरी प्रवंचना मत करें। सार्वभौम महाशय ने मेरे शुष्‍क हृदय को सरल बनाने के निमित्त ही यहाँ भेजा है। आप मुझे भक्तितत्त्व बताकर मेरे मलिन मन को विशुद्ध बनाइये।’ महाप्रभु और रामानन्‍द के बीच में इस प्रकार की बातें हो ही रही थीं कि उसी समय एक वैदिक ब्राह्मण ने आकर प्रभु को भोजन के लिये निमन्त्रित किया। राय महाशय ने भी समझा कि यहाँ इतनी भीड़-भाड़ में इन महापुरुष से आन्‍तरिक बातें करना ठीक नहीं है। अत: ‘फिर आकर दर्शन करूँगा’ ऐसा कहकर रामानन्‍द जी ने प्रभु से अपने स्‍थान में जाने की आज्ञा मांगी। प्रभु ने अत्‍यन्‍त ही स्‍नेह से कहा ‘भूलियेगा नहीं। अवश्‍य पधारियेगा। आपसे मिलकर मुझे बड़ी प्रसन्‍नता हुई है। आपके मुख से श्रीकृष्‍ण-कथा सुनने की बड़ी उत्‍कटा इच्‍छा हो रही है। क्‍यों आयेंगे न?’

रामानन्‍द जी ने सिर नीचा करके धीरे से कहा- ‘अवश्‍य आऊँगा, शीघ्र ही श्रीचरणों के दर्शन करके अपने को कृतार्थ बनाऊँगा। प्रभो! जब आपने इस अधमपर इतना अपार अनुग्रह किया है, तब कुछ काल तक तो यहाँ निवास करके मुझे संगतिमुख दीजिये ही। मैं इतना अधिक पापी हूँ कि आपके केवल दर्शनों से ही मेरा उद्धार न हो सकेगा।’ इतना कहकर राय महाशय ने प्रभु के पादपद्मों में प्रणाम किया और वे अपने सेवकों के सहित राजधानी की ओर चले गये। इधर महाप्रभु भी उस ब्राह्मण के साथ उसके घर भिक्षा करने के लिये गये।

क्रमशः अगला पोस्ट [104]
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]



, Shri Hari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram Raja Ramanand Rai

Desire is love for the other in the company of the righteous and humility in the teacher Addiction to learning, passion for one’s own wife, fear of reproach from the world. Bhakti: Shulini Shaktirat Madamane Sansargamukti: Khale- I offer my obeisances to those men in whom these pure qualities dwell.

Youth, wealth, wealth and dominance – these four have been told by the moralists to be destroyed by the contact of indiscretion. Really a man becomes mad after getting these four. Among many types of items like Dhan-mad, Jan-mad, Tapa-mad, Vidya-mad, Adhikar-mad and Yuvan-mad, these two best items are considered to be the two best items. The one who does not become careless after getting the rights and the one who does not feel proud after getting the money, he is not an ordinary person. He is an alokik great man. By worshiping the feet of such a great man, one can get eternal happiness. Mahabhagwat Rai Ramanand ji was one of such respectable personalities. Rai Ramanand’s father’s name was Raja Bhavanand.

Raja Bhavanand ji lived near Alalnath, three kos away from Jagannathpuri. He was a Karanvanshi Kayastha by caste. He had five sons named Rai Ramanand, Gopinath Pattanaik, Kalanidhi, Sudhanidhi and Vaninath. He was a chief employee in the court of King Pratap Rudra of Odisha. His three sons also used to rule in the Maharaj’s court sitting on high rights. Gopinath was the ruler of Maljetha-Pradesh on behalf of Cuttack-court. Vaninath held a high position in the court itself and Rai Ramanand was the ruler of Vidyanagara state under Utkal Desh.

We have already told this that at that time there were hundreds of small independent states in India. The Nripatigans, the rulers of that small region, followed the people according to the eternal tradition, considering religion as the main and also fought wars according to the Kshatriya-dharma.

There were many small states in the country of Tailang. Among them there was a small kingdom named ‘Kotdesh’, whose capital was Vidyanagar. At present, Rajamahendri situated on the north bank of Godavari should be considered as the main city of that region, but the old Vidyanagar was situated on the south bank of Godavari and it was at a distance of ten-twelve kos from the present Rajamahendri. Many people consider Vijayanagara to be Vidyanagara, but the similarity of names is only an illusion. Readers have already read that Purushottamdev, the then king of Utkal-desh, defeated the king of Vidyanagara in a war and annexed the country to his kingdom. Ramanand Rai used to live there on behalf of Utkal-Rajya as the ruler of that state. He had received the titles of ‘Raja’ and ‘Rai’ from the Maharaj himself.

Rai Mahasaya was an expert in governance, a knower of the country’s time, modesty, brave and a virtuous man. Along with being a scholar of Persian, he also had good knowledge of Sanskrit. He had studied Sanskrit literature a lot, he had progress in all the scriptures. Being a lover of learning, he had great affection for Sarvabhaum Bhattacharya. Whenever he used to go to Orissa during the reign, he would go to Puri and meet Sarvabhaum and discuss scriptures with him. The sovereign also loved him from the heart, both of them had poetry-loving hearts. Both were luscious, simple, learned and well versed in the scriptures, that’s why they used to fight each other a lot. Maharaj Prataparudra was also a lover of poetry, that is why he respected both Sarvabhaum Bhattacharya and Ramanand Rai a lot. Rai Mahasaya has praised Maharaj Prataparudra a lot in his play ‘Jagannathvallabh’. Rai Ramanand Karanvanshi was a Kayastha, yet his ethics were very pure and pious. He had great faith in the feet of deities and Brahmins. He used to perform rituals of Vedic Shrout-Smart etc. deeds and while doing the work of ruling religiously, he always kept his mind engaged in the feet of Shri Krishna.

One day early in the morning, along with many Vedic Brahmins, as usual Patitpavani Punyatoya Godavari came to bathe. Many Vedagya Brahmins were coming along with them reciting hymns. Many musical instruments were walking in front, playing different instruments. Thus surrounded by many men, he reached the banks of the Godavari. As soon as they reached the shore, the instrumentalists stopped their instruments. The Brahmins took off their clothes and started bathing in the clean, cool water of the Godavari. Rai Ramanand ji took bath after reciting many hymns recited at the time of bath and then after satisfying the gods, sages and ancestors with water, he gave sufficient dakshina to the Brahmins and then he started walking towards his capital.

At the same time, from a distance, he saw a young sannyasin in a new stage sitting alone under a tree, dressed in purple clothes, with supreme beauty. Don’t know, what magic was filled in the Chitwan of that young monk, Rai Ramanand became mesmerized on seeing him. He saw that Madhurima emanating from the body and parts of the monk was making that deserted region sweet, blissful and ecstatic. That quiet secluded place of Godavari seems to be illuminated by the light of that new monk, the monk is looking at Ramand Rai with one leg above the other, his face is happy, eager. , there is frenzy and there is a strong desire to get affection from someone. The sannyasin has been smiling a bit and like his bimbafal, both the arun lips move on their own. Don’t know, what he starts saying on his own. Mr. Rai could not control himself. That monk recited such a Mohini mantra from a distance that due to its influence, leaving the pride of kingship, he went straight towards that monk as soon as he went towards the palanquin. Seeing their Lord coming towards the hermit, the servants also followed him.

Readers must have understood that this new sannyasin is our loving Parsmani Sri Chaitanya Mahaprabhu. Mahaprabhu retired from bathing in solitude on the banks of the Godavari and was thinking how to meet Rai Ramanand, at the same time he heard the sound of playing instruments. Mahaprabhu started looking at those players. He saw that behind the players was coming an extremely brilliant man sitting in a beautiful palanquin. There is a crowd of many men running around him. Just seeing him, Mahaprabhu understood that whether or not, this is Raja Ramanand Rai. When he saw that opulent great man coming towards me instead of riding on a palanquin, then love started beating in his heart, he was sure that this is Rai Ramanand. His heart yearned to give a hug to Rai Mahashay. He used to wish again and again to run quickly and hug this great man, but for many reasons he covered up this feeling of his. Meanwhile, that prosperous man bowed down at the feet of Mahaprabhu. Seeing that man bowing down, the Lord very affectionately asked like a stranger – ‘Is your name Raja Ramanand Rai?’

With both hands tied, Rai Mahasaya replied very humbly, ‘Lord! This poor, devotionless Shudradham is called Ramanand?’

On hearing this, the Lord got up and hugged Ramanand Rai and said with great affection – ‘ Rai sir! I was introduced to you by Sarvabhaum Bhattacharya; I have come to Vidyanagar only with the desire to see you only by obeying his command. I was thinking that how would I be able to meet you, so at least see the grace of Kripasagar Prabhu, suddenly I saw you. Today I am grateful for your darshan. My entire journey was successful. My taking sannyas became meaningful, which I automatically got the darshan of a supreme Bhagwat devotee like you.

Humbly Ramanand ji said with folded hands – ‘ God! It seems to me that today my eternal births have been blessed, that in the form of Narayan you have come here in the guise of a sannyasin to make me live. Bhattacharya Sarvabhaum has always been kind to me without reason, he always keeps his grace on me like a son, like a disciple, like a servant and a relative. It seems that you have immense grace on him, that’s why by accepting his request, you blessed me with your darshan. He thinks only of my welfare even in solitude, as a result of which even a lowly person like me could have the good fortune of your wonderful darshans. I am born in a low caste, I am engaged day and night in public-disgraceful politics, my time is spent only in the enjoyment of subjects, you have also given such a subject and an abominable person who is away from the path of God, this It is only your humility, there is no effort of my own in this. Who will be luckier than me today in the world, now how can I praise my luck. The Lord has kept so much memory of this Adham, what kind of virtue should I consider it to be.’

Mahaprabhu said – ‘ Rai sir! I have come here only to hear the story of Shri Krishna from your mouth, please do me a favor by telling me the story of Shri Krishna.’

Ramanand ji said – ‘ God! Trapped in the mire of worldly life, what can I do to narrate the story of Shri Krishna in front of you? You are the form of Shri Hari.

The Lord said- ‘Don’t trick me by thinking of me as a monk. The universal gentleman has sent me here only to make my dry heart simple. You make my dirty mind pure by telling me the principle of devotion.’ Such things were happening between Mahaprabhu and Ramanand when at the same time a Vedic Brahmin came and invited the Lord for food. Rai Mahashay also understood that it is not right to have internal talks with this great man here in such a crowd. Therefore, by saying ‘I will come again for darshan’, Ramanand ji sought permission from the Lord to go to his place. The Lord very lovingly said, ‘Don’t forget. Will definitely come. I am very happy to meet you. There is a great eager desire to hear the story of Shri Krishna from your mouth. Why won’t you come?’

Ramanand ji lowered his head and said softly – ‘I will definitely come, soon I will make myself successful by having darshan of the holy feet. Lord! Since you have shown such immense grace to this ignoramus, then at least stay here for some time and give me company. I am so much sinful that I will not be able to be saved by your darshan only. ‘ Saying this, Rai Mahasaya bowed down at the lotus feet of the Lord and went towards the capital with his servants. Here Mahaprabhu also went with that Brahmin to his house to beg.

respectively next post [104] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]

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