[104]”श्रीचैतन्य–चरितावली”

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।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
राय रामानन्‍द द्वारा साध्‍य तत्‍व प्रकाश

उदयन्‍नेव सविता पद्मेष्‍वर्पयति श्रियम्।
विभावयन् समृद्धीनां फलं सुह्रदनुग्रहम्।।

सन्‍ध्‍या का सुहावना समय है, सूर्यदेव अपनी समस्‍त रश्मियों के सहित अस्‍ताचल की लाल गुहा में घुस गये हैं। भगवान अंशुमाली का अनुसरण करते हुए पक्षिवृन्‍द भी अपने-अपने कोटरों में घुसकर चुपचाप शयन कर रहे हैं। मधुर रति के उपासक अपनी प्रिय वस्‍तु के मिलन के लिये उत्‍कण्ठित होकर भगवती निशा देवी के साथ अराधना में लगे हुए हैं। संसारी लोग सो रहे हैं, विषयीलोग विषय-चिन्‍तन में निमग्‍न हैं और संयमी जागरण करके उस अखण्‍ड ज्‍योति का ध्‍यान कर रहे हैं, महाप्रभु भी एकान्‍त में बैठे हुए राय महाशय की प्रतीक्षा कर रहे हैं।

प्रेम में इतना अधिक आकर्षण है। वह प्रेमपात्र के दूर रहने पर भी उसे समीप में ले आता हैं, बाहर रहने पर भी भीतर खींच लाता है और बीच में आये हुए अन्‍तरायों को तोड़-फोड़ करके रास्‍ते को साफ भी कर देता हैं।

राय महाशय शरीर से तो चले आये थे, किन्‍तु उनका मन प्रभु के पादपद्मों में ही फंसा रह गया। वे शरीर से यन्‍त्र की भाँति बे-मन राज-काज करते रहे। सायंकाल होते ही उनका शरीर अपने मन की खोज में अपने-आप ही उधर की ओर चलने लगा। वे राज-पाट, पद-प्रतिष्‍ठा तथा मान-सम्‍मान किसी की भी परवा न करके एक साधारण सेवक को साथ लेकर दीनभाव से प्रभु के निवास स्‍थान की ओर चले। दूर से ही देखकर उन्‍होंने प्रभु के युगल चरणों में प्रणाम किया, प्रभु ने भी उन्‍हें उठाकर गले से लगा लिया। इसके अनन्‍तर थोड़ी देर तक दोनों ही मौन बने रहे। कुछ काल के पश्‍चात प्रभु ने कहा- ‘राय महाशय ! मैं आपके मुख से कुछ श्रीकृष्‍ण-कथा सुनना चाहता हूँ। आप मुझे बताइये कि इस संसार में मनुष्‍य को मुख्‍य कर्तव्‍य क्‍या है? आप ज्ञानी हैं, भगवदभक्‍त हैं, इसलिये मुझे साध्‍य-साधन का तत्त्व समझाइये।’

रामानन्‍द जी ने विनीतभाव से कहा- ‘आप मेरे द्वारा अपने मनोगत भावों को प्रकट कराना चाहते हैं। अच्‍छी बात है, जो मेरे अन्‍त:करण में प्रेरणा हो रही है, उसे मैं आपकी ही कृपा से आपके सामने प्रकट करता हूँ। पहले क्‍या कहूँ, सो बताइये?’ प्रभु ने कहा- ‘मनुष्‍य का जो कर्तव्‍य है उसका कथन करिये।’ राय महाशय ने कहा- ‘प्रभो ! मैं समझता हूँ-

स्‍वे स्‍वे कर्मण्‍यभिरत: संसिद्धिं लभते नर:।

अर्थात अपने-अपने वर्णाश्रम धर्म के अनुकूल कर्म करते रहने से मनुष्‍य परम सिद्धि को प्राप्‍त हो सकते हैं, अत: जो जिस वर्ण में हो उसके कर्मों को करता हुआ उन्‍हीं के द्वारा विष्‍णु भगवान की आराधना कर सकता है। वर्णाश्रम को छोड़कर भगवान के प्रसन्‍न करने का और तो कुछ कोई सरल, सुगम और सुकर उपाय सूझता नहीं।[3] शास्‍त्रों में भी स्‍थान-स्‍थान पर वर्णाश्रम पर ही अत्‍यधिक जोर दिया गया है। श्रीमभगवदगीता में तो स्‍थान-स्‍थान पर जोरों के साथ वर्णाश्रम धर्म के अनुसार कर्म करने के लिये आग्रह किया गया है और उसी के द्वारा सिद्धि मानी गयी है।

महाप्रभु राय महाशय के मुख से वर्णाश्रमधर्म की बात सुनकर बड़े प्रसन्‍न हुए। उन्‍होंने मुसकराते हुए कहा-‘राय महाशय ! यह आपने बहुत सुन्‍दर बात कही। सचमुच संसार में सभी मनुष्‍यों के लिये वर्णाश्रमधर्म का पालन करना अत्‍यन्‍त ही श्रेयस्‍कर है। इसीलिये सभी शास्‍त्र जोरों से चिल्‍ला-चिल्‍लाकर वर्णाश्रमधर्म की दुहाई दे रहे हैं। जीव पाप-पुण्‍य दोनों के मिश्रण से मनुष्‍य-शरीर पाता है, इसलिये जिनकी वासनाएँ विषय-भोगों में फंसी हुई हैं उनके निमित्त धर्म, अर्थ और कामरूपी त्रिपुरुषार्थयुक्‍त धर्म का विधान है। यदि मनुष्‍य स्‍वेच्‍छा से विषय-भोगों में प्रवृत्त हो जाय तो पतित हो जायगा, इसीलिये धर्म की आड़ की आवश्‍यकता है। धर्मपूर्वक बर्ताव करने से मनुष्‍य को स्‍वर्ग सुख की प्राप्ति होती है। किन्‍तु स्‍वर्ग सुख अस्‍थायी होने से पुण्‍य क्षीण होने पर फिर उसे गिरना पड़ता है, इसलिये कोई ऐसा उपाय बताइये कि कभी गिरना न पड़े।’

प्रभु की ऐसी बात सुनकर रामानन्‍द जी ने कहा- ‘प्रभो ! इसका तो यही उपाय है कि कर्मों में आसक्ति न रखी जाय। निष्‍कामभाव से कर्म किये जायँ। सकाम कर्म करने से तो वे फल को देने वाले होते हैं, किन्‍तु भगवत्‍प्रीत्‍यर्थ कर्म करने से वे किसी प्रकार के भी फल को उत्‍पन्‍न नही करते।’ महाप्रभु ने कहा- ‘यह आपने बड़ी ही सुन्‍दर बात बतायी। सचमुच यदि निष्‍कामभाव से कर्म किया जायँ तो वे त्रिलोकी के सुख से ऊंचे की ओर की ले जाते हैं, किन्‍तु उनके द्वारा तो आत्‍मशुद्धि ही होती है, वे मुक्ति में प्रधान हेतु न होकर गौण हेतु हैं, उनका फल ज्ञान न होकर आत्‍मशुद्धि है। इससे भी बढ़कर कुछ और बताइये?’

रामानन्‍द जी ने कहा- ‘प्रभो ! जब आप निष्‍कामकर्म को भी श्रेष्‍ठ नहीं समझते, तो सभी प्रकार के कर्मों का स्‍वरूपत: परित्‍याग करके निरन्‍तर श्रीभगवान का भजन ही करते रहना चाहिये। सचमुच कर्म कैसे भी किये जायँ, उनसे त्रितापों की निवृत्ति नहीं होती, इसलिये तापों से सन्‍तप्‍त प्राणियों के लिये सर्व धर्मों का परित्‍याग करके प्रभु के पादपद्मों की शरण जाना ही मैं मनुष्‍य का मुख्‍य कर्तव्‍य समझता हूँ। भगवान ने भी गीता में अर्जुन को यही उपदेश दिया है कि ‘हे अर्जुन’ ! तू सब धर्मों का परित्‍याग करके मेरी ही शरण में आ जा। मैं तुझे सब पापों से मुक्‍त कर दूँगा, तू सोच मत कर।’

प्रभु ने हंसते हुए कहा- ‘राय महाशय ! मालूम पड़ता है, आपसे कोई भी शास्‍त्र छूटा नहीं है। आपने शास्‍त्रों का विधिवत अध्‍ययन किया है। यह शरणापत्ति-धर्म जो अपने बताया है सर्वश्रेष्‍ठ धर्म है, किन्‍तु यह तो संसारी तापों से तपे हुए साधकों के लिये हैं, जो तापों का अत्‍यन्‍ताभाव ही करने के इच्‍छुक हैं। जो साधक इससे भी उच्‍च कोटिका है और उसे संसारी तापों का भान ही नहीं होता, उसके लिये कोई और उपाय बताइये।’

तब तो रामानन्‍द जी कुछ सोचने लगे और थोड़ी देर के पश्‍चात कहने लगे- ‘प्रभो ! मैं समझता हूँ समभाव में अवस्थित रहकर और सत-असत का विचार करते हुए भगवान की निरन्‍तर भक्ति करते रहना ही मनुष्‍य का मुख्‍य कर्तव्‍य है।’ प्रभु ने कहा- ‘यह तो बहुत सुन्‍दर है, किन्‍तु जिसे असली आनन्‍द की इच्‍छा है, उससे दो चीजों का विचार कैसे हो सकता है? द्वैधीभाव ही तो भय का कारण है। सत-असत का विचार बहुत उत्‍तम है, किन्‍तु इसमें मुझे सरसता नहीं दीखती। कोई सरस-सा उपाय बताइये।’

तब भक्‍ताग्रगण्‍य रामानन्‍द जी ने गर्जकर कहा- ‘प्रभो ! भगवान की विशुद्ध भक्ति ही सर्वश्रेष्‍ठ और मनुष्‍य का मुख्‍य कर्तव्‍य है। जैसा कि ब्रह्मा जी ने श्रीमदभागवत में भगवान की स्‍तुति करते हुए कहा-

ज्ञाने प्रयासमुदपास्‍य नमन्‍त एव
जीवन्ति सन्‍मुखरितां भवदीयवार्ताम।
स्‍थाने स्थिता: श्रुतिगतां तनुवाड़्मनोभि
र्ये प्रायशोऽजित जितोअप्‍यसि तैस्त्रिलोक्‍याम्।।

अर्थात ‘हे अजित! जो मनुष्‍य ज्ञान में कुछ भी प्रयत्‍न न करके केवल साधु-संतों के स्‍थान पर अवस्थित रहकर उनके मुख से आपके गुणानुवादों को ही श्रवण करते रहते हैं और मन, वचन तथा कर्म से आपको नमस्‍कार करते हुए जीवन व्‍यतीत करते हैं, वे ही त्रिलोकी में आपको प्राप्‍त हो सकते हैं।’

रामानन्‍द जी के मुख से इस श्‍लोक को सुनकर प्रभु अत्‍यन्‍त ही प्रसन्‍न हुए। उन्‍होंने प्रसन्‍नता प्रकट करते हुए कहा- ‘सचमुच भट्टाचार्य सार्वभौम ने आपके शास्‍त्र ज्ञान की मुझसे जैसी प्रशंसा की थी, यहाँ आकर मैंने आपको वैसा ही पाया। मनुष्‍य का परम पुरुषार्थ और सर्वश्रेष्‍ठ धर्म भगवान मधुसूदन की अहैतु की भक्ति करना ही है। इसलिये यह तो मैं स्‍वीकार करता हूँ किन्‍तु भक्ति किस प्रकार से की जाय, यह और बताइये ?’

रामानन्‍द जी ने कहा- ‘प्रभो ! मैं समझता हूँ, प्रेमपूर्वक भक्ति करने से ही इष्‍टसिद्धि हो सकती है। भगवान प्रेममय हैं, प्रेम ही उनका स्‍वरूप है, वे रसराज हैं, इसलिये जैसे भी हो सके उस रसार्णव में घुसकर खूब गोते लगाना चाहिये क्‍योंकि-

कृष्‍णभक्तिरसभाविता: मति:
क्रीयतां यदि कुतोऽपि लभ्‍यते।
तत्र लौल्‍यमपि मूल्‍यकेवलं
जन्‍मकोटिसुकृतैर्न लभ्‍यते।।

अर्थात ‘मनुष्‍य को श्रीकृष्‍ण-भक्ति रस से भावित मति जैसे भी प्राप्‍त हो सके ही प्राप्‍त करनी चाहिये। उसे प्राप्‍त करने का मूल्‍य क्‍या है? उसके प्रति लोलुपता, लोभी भाव, सदा हृदय में उसी की इच्‍छा बनी रहना, उसे मनुष्‍य कोटि जन्‍म के सुकृत से भी प्राप्‍त नहीं कर सकता।’

महाप्रभु ने कहा- ‘धन्‍य हैं, सच्‍ची बात तो यह है कि ‘रसो वै स:। रसं ह्येवायं लब्‍ध्‍वानन्‍दी भवति’ (तेत्ति. उ.) अर्थात वे भगवान स्‍वयं रसस्‍वरुप हैं। उस रस को प्राप्‍त करके जीव आनन्‍दमय हो जाता है। किन्‍तु एक बात अभी शेष रह गयी। उस रस का आस्‍वादन किसी न किसी प्रकार के सम्‍बन्‍ध से ही किया जा सकता है, इसलिये भगवान के साथ किस सम्‍बन्‍ध से उस रस का आस्‍वादन किया जाय, इसे जानने की मेरी बड़ी इच्‍छा है, कृपा करके इसे और बताइये? यह सुनकर राय महाशय कहने लगे- ‘प्रभो ! मैं समझता हूँ भगवान के प्रति दास्‍यभाव रखना ही सर्वश्रेष्‍ठ सम्‍बन्‍ध है, क्‍योंकि बिना दास्‍यभाव अवश्‍य रहता है। वह अत्‍यन्‍त पीड़ा के समय में व्‍यक्‍त भी हो जाता है।

नन्‍द जी का भगवान के प्रति वात्‍सल्‍य-स्‍नेह था; किन्‍तु मथुरा से जाकर जब भगवान का सन्‍देश उद्धव जी ने नन्‍दबाबा आदि गोपों को सुनाया और कुछ दिन वज्र में रहकर जब वे लौटने लगे, तब अत्‍यन्‍त ही कातर-भाव से दु:खी होकर नन्‍दबाबा ने कहा था- ‘मनसो वृत्तयो न: स्‍यु: कृष्‍णपादाम्‍बुजाश्रया:’ अर्थात हे उद्धव ! हमारे मन की वृत्ति सदा श्रीकृष्‍ण के चरणों का आश्रय करने वाली हो। पुत्र की तरह स्‍नेह करने वाले पिता का दास्‍यभाव घोर दु:ख के समय अपने-आप ही उमड़ पड़ा। इसी प्रकार जब ब्रह्मा जी गौओं के बछड़ों को चुरा ले गये और भगवान ने वैसे ही बछड़े बनाकर वज्र में रख दिये और सालभर के पश्‍चात जब उन बछड़ों को ब्रह्मा जी ने छोड़ा तब बलराम जी को पता चला और छोटे भाई के प्रति विस्‍मय के कारण उनका दास्‍यभाव व्‍यक्‍त हो उठा। वे भगवान की महिमा को स्‍मरण करके कहने लगे-

प्रायो मायास्‍तु मे भर्तुर्नान्‍या मेऽपि विमोहिनी।

अर्थात यह सब मेरे प्रभु की लीला है।

राधिका जी का भगवान के प्रति कान्‍ताभाव था। वे स्‍वाधीनपति का थीं, किन्‍तु जब रास में सहसा भगवान अन्‍तर्धान हो गये तो उनका दास्‍यभाव प्रस्‍फुटित हो उठा और वे रोती हुई कहने लगीं- ‘दास्‍यास्‍ते कृपणाया मे सखे! दर्शय सन्निधिम्’ अर्थात ‘हे सखे ! तुम हमें अपने दर्शन दो। हम तुम्‍हारी दासी हैं।’ भला जो दिन-रात्रि प्‍यारे से मान ही करती रहें, उनके मुख से ऐसे दास्‍यभाव के वचन शोभा देते हैं? किन्‍तु करें क्‍या, दास्‍यभाव तो स्‍नेह का स्‍वामी है। इसलिये प्रभो ! दास्‍यभाव को मैं सर्वश्रेष्‍ठ समझता हूँ।

प्रभु ने हँसकर कहा- ‘हाँ, ठीक है, होगा, मैं इसी अस्‍वीकार नहीं करता, किन्‍तु फिर भी दास्‍यभाव में कुछ संकोच अवश्‍य रहता है। सेवक को अपने स्‍वामी के ऐश्‍वर्य, बड़प्‍पन और मान-सम्‍मान का सदा ध्‍यान रहता है। इसलिये निर्भय होकर आनन्‍द-रस का पान करने में संकोच होता है, ऐसा कोई सम्‍बन्‍ध बताइये जिसमें संकोच का लेश भी न हो।’

तब तो अत्‍यन्‍त ही उल्‍लास के साथ रामानन्‍द राय ने कहा- ‘तब तो प्रभो ! मैं सख्‍य-सम्‍बन्‍ध को सर्वश्रेष्‍ठ समझता हूँ। सख्‍य-प्रेम में ऐश्‍वर्य, धन, मान, सम्‍मान किसी की भी परवा नहीं रहती। ग्‍वाल-बाल भगवान से नाराज होते थे, उनसे गौओं को घिरवाकर लाते थे। उनके कंधे पर चढ़कर चड्डी लेते थे। उन्‍हें अखिल विश्‍व के एकमात्र आधार भगवान वासुदेव से किसी प्रकार का संकोच नहीं था। यथार्थ रसास्‍वाद तो सख्‍यप्रेम में ही होता है।’

महाप्रभु ने कहा- ‘सख्‍य प्रेम का क्‍या कहना है? सख्‍य प्रेम ही तो यथार्थ में प्रेम है। किन्‍तु सख्‍य प्रेम सबको प्राप्‍त नहीं होता। उसमें दूसरे के प्रेम की अपेक्षा रहती है, यदि अज्ञानवश भ्रम हो जाय कि हमारा प्रेमी हमसे उतना प्रेम नहीं करता, जितना हम उससे करते हैं तब स्‍वाभाविक ही हमारे प्रेम में कुछ न्‍यूनता आ जायगी। इसलिये प्रेम का ऐसा कोई सम्‍बन्‍ध बतलाइये जो निरपेक्ष और हर हालत में एकरस बना रहे।’

इस पर जल्‍दी से रामानन्‍द जी ने कहा- ‘प्रभो ! यह बात तो वात्‍सल्‍य-प्रेम में नहीं है। ‘कुपुत्रो जायेत क्‍वचिदपि कुमाता न भवति’ सन्‍तान चाहे प्रेम करे या न करे, माता-पिता का प्रेम उस पर वैसा ही बना रहता है। इसीलिये तो भगवान व्‍यासदेवजी ने कहा है-

नेमं विरिञ्चो न भवो न श्रीरप्‍यगंसंश्रया।
प्रसादं लेभिरे गोपी यत्तत् प्राप विमुक्तिदात।।

अर्थात ‘प्रेमदाता श्रीहरि की जैसी कृपा यशोदा जी पर हुई थी, वैसी कृपा ब्रह्मा, शिव की तो बात ही क्‍या, भगवान के सदा हृदय में निवास करने वाली लक्ष्‍मी पर भी नहीं हुई।’ इसलिये वात्‍सल्‍यभाव ही सर्वोत्तम ठहरता है।

प्रभु ने अत्‍यन्‍त ही प्रसन्‍नता प्रकट करते हुए कहा- ‘राय महाशय ! आप तो रसराज हैं, आपसे कोई बात अविदित नहीं है, वात्‍सल्‍य-रस की तो भगवान व्‍यास देव ने भूरि-भूरि प्रशंसा की है। फिर भी वात्‍सल्‍य-रस में मुझे पूर्ण निर्भयता प्रतीत नहीं होती। उसमें छोटे और बड़ेपन का कुछ अंशों में तो भाव रहता ही है। इससे आगे भी आप कोई ऐसा भाव बता सकें जिसमें इन विचारों का अत्‍यन्‍ताभाव हो, तो उसे मुझसे कहिये?’

राय महाशय ने कहा- ‘प्रभो ! इससे आगे और क्‍या कहूँ, वह तो कहने का विषय नहीं। सचमुच में एक ही भाव अवशेष है और उसे ही अन्तिम कहा जा सकता है- वह है ‘कान्‍ताभाव’। बस, इसी में जाकर सभी रसों की, सभी भावों का और सभी सम्‍बन्‍धों की परिसमाप्ति हो जाती।’

राय रामानन्‍द के मुख से इस बात को सुनकर प्रभु ने उनका गाढ़ालिंगन किया और प्रेम में विह्रल होकर गदगद कण्‍ठ से कहने लगे- ‘राय महाशय ! आप धन्‍य हैं, आपका कुल धन्‍य है, आपकी ही जननी वास्‍तव में जननी कही जा सकती हैं, आपका शास्‍त्रीय ज्ञान सार्थक है। इतने बड़े रहस्‍य-ज्ञान को मुझे बताकर आपने मेरा उद्धार कर दिया, किन्‍तु इससे भी ऊँचा कोई भाव जानते हो तो कहिये?’

महाप्रभु के इससे भी आगे पूछने पर राय चकित होकर प्रभु की ओर देखने लगे और बहुत देर के अनन्‍तर धीरे-धीरे कहने लगे- ‘प्रभो ! इससे आगे मैं और कुछ नहीं जानता।’

प्रभु ने मधुर स्‍वर में कहा- ‘राय महाशय ! आपसे कोई बात छिपी नहीं है। आप मुझे शुष्‍कहृदय, गृहत्‍यागी वनवासी संन्‍यासी समझकर भुलावा देना चाहते हैं। अन्तिम साध्‍यतत्त्व का अनधिकारी समझकर आप मेरी उपेक्षा कर रहे हैं। आप तो सब कुछ जानते हैं। कान्‍ता-स्‍नेह से भी बढ़कर जो कुछ हो उसे कृपया बता दीजिये।’ राय ने प्रभु के पादपद्मों को पकड़े हुए कहा-

अनयाऽऽराधितो नूनं भगवान हरिरीश्‍वर: ।
यन्‍नो विहाय गोविन्‍द: प्रीतो यामनयदरह:।।

‘बस, प्रभो ! इससे आगे स्‍पष्‍ट नहीं कह सकता। क्‍योंकि यह विषय अत्‍यन्‍त ही गोप्‍य है। भगवान व्‍यासदेव ने भी इसे परम गुह्य समझकर अप्रकट ही रखा है। केवल संकेत से बहुत ही थोड़ा-सा लक्ष्‍य किया है- बस, इससे आगे मैं और कुछ न कह सकूँगा।’

इतना सुनते ही प्रभु एकदम उठकर खडे़ हो गये और राय महाशय का गाढ़-आलिंगन करते हुए कहा- ‘धन्‍य है, धन्‍य है। आपने तो प्रेम की पराकाष्‍ठा ही कर डाली। आपने तो साध्‍यतत्त्व को परिसीमा पर पहुँचा दिया। भला, श्रीराधिका जी के प्रेम की प्रशंसा कर ही कौन सकता है? उनका ही प्रेम तो सर्वश्रेष्‍ठ है। अब आप मुझे उन दोनों के विलास की पूर्ण महिमा सुनाइये।’

इतना सुनते ही राय महाशय ने अपने कोकिलकूजित कमनीय कण्‍ठ से इस श्‍लोक को बड़े ही लय के साथ पढ़ने लगे-

वाचा सूचितशर्वरीरतिकलाप्रागल्‍भया राधिकां
व्रीडाकुञ्चितलोचनां विरचयन्‍नग्रे सखीनामसौ।
तदवक्षोरुहचित्रकेलिमकरीपाण्डित्‍यपारगंत:
कैशोरं सफलीकरोति कलयन कुञ्जे विहारं हरि:।।

बस, यही रास-विलास पराकाष्‍ठा है। प्रभु इसको सुनकर बड़े ही प्रसन्‍न हुए। प्रभु ने राय महाशय का जोर से आलिंगन किया और दोनों प्रेम में प्रमत्त होकर पृथ्वी पर गिर पड़े।

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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]



, Shri Hari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram Sathya Tatva Prakash by Rai Ramanand

As soon as the sun rises it showers its beauty on the lotuses Contemplating the fruits of prosperity and the favor of friends

It is a pleasant time of evening, the Sun God has entered the red cave of Astachal with all his rays. Following Lord Anshumali, the flock of birds are also sleeping quietly by entering their nests. The worshipers of Madhur Rati are engaged in worship with Bhagwati Nisha Devi, eager to meet their beloved object. The worldly people are sleeping, the sensual people are engrossed in subject-thinking and the self-controlled are meditating on that unbroken light, Mahaprabhu is also sitting in solitude waiting for Rai Mahasaya.

There is so much attraction in love. He brings the beloved near even when he is far away, pulls him inside even when he is outside and clears the way by breaking the obstacles that come in between.

Rai Mahasaya had left his body, but his mind remained engrossed in the lotus feet of the Lord. They kept on ruling the kingdom mindlessly like a machine with the body. As soon as it was evening, his body automatically started moving towards the other side in search of his mind. Taking a simple servant along with him, he walked towards the abode of the Lord in a humble manner, regardless of the royalty, status and honor. Seeing from a distance, he bowed down at the couple’s feet of the Lord, the Lord also lifted him up and hugged him. After this both remained silent for a while. After some time the Lord said – ‘ Rai sir! I want to hear some Shri Krishna story from your mouth. You tell me what is the main duty of man in this world? You are knowledgeable, a devotee of God, so explain to me the principle of Sadhya-Sadhan.’

Ramanand ji humbly said – ‘ You want to reveal your occult feelings through me. It is a good thing, whatever is being inspired in my heart, I reveal it in front of you by your grace. What should I say first?’ Prabhu said – ‘Speak about the duty of a man.’ Rai Mahasaya said – ‘Lord! I understand-

A man who is engaged in his own actions attains perfection.

That is, by performing actions according to one’s Varnashram religion, a person can attain the ultimate achievement, therefore, one can worship Lord Vishnu by performing the actions of the Varna in which he is. Apart from Varnashram, there is no other easy, easy and convenient way to please God.[3] Even in the scriptures, there has been a lot of emphasis on Varnashram at various places. In Srim Bhagavadgita, it has been strongly urged to do work according to Varnashram Dharma at many places and through that it has been considered as Siddhi.

Mahaprabhu Rai was very pleased to hear about Varnashramadharma from the mouth of Mahasaya. He said with a smile – ‘ Rai sir! You have said this very beautifully. Indeed, it is very creditable for all human beings in the world to follow Varnashramadharma. That’s why all the scriptures are crying out loudly for Varnashramadharma. The soul gets the human body by the mixture of both sin and virtue, therefore, for those whose lusts are entangled in sensual pleasures, there is a law of religion, meaning and sex in the form of three men. If a man voluntarily indulges in sensual pleasures, he will fall, that is why the guise of religion is needed. By behaving righteously, a man gets the happiness of heaven. But because the happiness of heaven is temporary, when the virtues decrease, then it has to fall, so tell me such a solution that it never has to fall.

Hearing such words of the Lord, Ramanand ji said – ‘Lord! The only solution for this is not to be attached to actions. Karma should be done without any desire. By doing fruitful work, they are the givers of the fruit, but by doing work for the love of God, they do not generate any kind of fruit.’ Mahaprabhu said-‘ You have told this very beautiful thing. Indeed, if actions are performed without any desire, they lead to the higher side of the happiness of the three worlds, but through them only self-purification takes place, they are not the main cause of liberation, they are secondary, their fruit is not knowledge, but self-purification. Tell me something more than this?

Ramanand ji said – ‘ Lord! When you don’t consider even selfless work as the best, then you should keep on worshiping the Lord continuously by abandoning all kinds of actions. In fact, no matter how one does one’s actions, one does not get rid of the three forms of heat, that’s why I consider it the main duty of a human being to take refuge in the lotus feet of the Lord by renouncing all the religions for the sake of the living beings suffering from the heat. God has also given the same advice to Arjuna in the Gita that ‘O Arjuna’! Abandoning all religions, come to my refuge. I will absolve you of all sins, don’t think.’

The Lord laughed and said – ‘ Mr. Rai! It seems that you have not missed any scripture. You have studied the scriptures properly. This Sharanapatti-Dharma, which he has told is the best religion, but it is only for the sadhaks who are suffering from worldly heat, who are willing to do the heat of heat. The seeker who is of a higher class than this and does not have any sense of worldly heat, tell some other remedy for him.’

Then Ramanand ji started thinking something and after some time started saying – ‘Lord! I understand that the main duty of a man is to constantly worship God by being situated in equanimity and considering the truth and the false.’ The Lord said- ‘This is very beautiful, but the one who has the desire for real happiness, give it to him. How can there be an idea of ​​things? Duplicity is the reason for fear. The idea of ​​truth-falsehood is very good, but I do not see the rustiness in it. Tell me some simple solution.

Then devotee Ramanand ji roared and said – ‘Lord! Pure devotion to the Lord is the best and the main duty of man. As Brahma ji said while praising God in Shrimad Bhagwat-

They bow down to the effort in knowledge Your news spoken while they are alive Standing in place: with their body and mind in their ears Rye almost invincible even if you are conquered by them in the three worlds.

Means ‘O Ajit! Those people who do not make any effort in knowledge, stay at the place of sages and saints and listen only to your praises from their mouths and spend their life saluting you with mind, words and deeds, they only find you in Triloki. Can be received.

The Lord was extremely pleased to hear this verse from the mouth of Ramanand ji. Expressing his happiness, he said- ‘Truly Bhattacharya Sarvabhaum had praised me for your knowledge of scriptures, I found you the same after coming here. Man’s ultimate effort and the best religion is to worship Lord Madhusudan without reason. That’s why I accept this, but how to do devotion, tell me more.’

Ramanand ji said – ‘ Lord! I understand, Ishtasiddhi can be achieved only by doing devotion with love. God is loving, love is His form, He is Rasaraj, therefore, as far as possible, one should enter that Rasarnava and dive a lot because-

Krishnabhaktirasabhavita: mati: Buy it if it is available anywhere. There, even greed is only value It is not obtained by the good deeds of millions of births.

That is, ‘a man should get as much as he can get a mind inspired by the juice of devotion to Shri Krishna. What is the cost of getting it? Greed, greedy feelings towards him, always having a desire for him in the heart, a man cannot get him even with the good deeds of crores of births.

The Lord said, ‘Blessed are you, the truth is that ‘raso vai sa:. Rasam hyevayam labdhvanandi bhavati’ (Tetti. U.) meaning that He is the Lord Himself the form of taste. By attaining that juice, the soul becomes blissful. But one thing remains. That juice can only be enjoyed by some kind of relationship, so I would like to know how to enjoy that juice with God. Please tell me more. Hearing this, Rai Mahasaya began to say, ‘Lord! I think that having a sense of servitude to God is the best relationship, because without servitude there must be. He also appears in times of great pain.

Nand ji had affection for God; But after going from Mathura, when Uddhav ji narrated God’s message to Nandbaba etc. Gopas and after staying in Vajra for a few days, when they started returning, Nandbaba was extremely sad and said – ‘Manso vrittayo na: syu:’ Krishnapadambujasraya: That means O Uddhava! The attitude of our mind should always be to take shelter at the feet of Shri Krishna. The servitude of a father who was affectionate like a son arose on its own at the time of great sorrow. Similarly, when Brahma ji stole the calves of the cows and God made the same calves and kept them in the thunderbolt and after a year when Brahma ji released those calves, then Balram ji came to know and due to his amazement towards the younger brother, he Slavery manifested itself. Remembering the glory of God, he started saying-

My husband’s illusion is almost bewildering to me

That is, all this is the pastime of my Lord.

Radhika ji had a keen interest in God. She belonged to Swadhinpati, but when God suddenly disappeared in the raas, her servitude blossomed and she started crying saying – ‘ Dasyaaste Kripanaya me sakhe! Darshay Sannidhim’ means ‘O friend! You give us your darshan. We are your maidservant.’ Do such servile words suit the mouth of those who keep on respecting you day and night? But what to do, servitude is the master of affection. That’s why Lord! I consider servitude the best.

The Lord smiled and said- ‘Yes, okay, it will happen, I do not deny this, but still there is some hesitation in servitude. The servant is always mindful of the opulence, nobility and honor of his master. That’s why there is hesitation to drink Anand-Ras fearlessly, tell me such a relationship in which there is not even a trace of hesitation.’

Then Ramanand Rai said with great enthusiasm – ‘ Then Lord! I consider friendship as the best. In true love, no one cares about wealth, wealth, honor and respect. Cowherds used to get angry with God, they used to bring the cows from him. Used to take the trunks by climbing on his shoulder. He had no hesitation to approach Lord Vasudev, the only support of the entire universe. Real rasaswad is only in Sakhyaprem.

Mahaprabhu said – ‘ What to say about true love? True love is the real love. But not everyone gets true love. There is an expectation of other’s love in it, if due to ignorance there is confusion that our lover does not love us as much as we love him, then naturally there will be some deficiency in our love. That’s why tell me such a relation of love which remains absolute and consistent in every situation.’

At this, Ramananda Ji quickly said, ‘Lord! This is not the case in affectionate love. ‘Kuputro jayet kvachidapi kumata na bhavati’ Whether the child loves or not, the love of the parents remains the same on him. That is why Lord Vyasadevaji has said:

Neither Brahma nor Bhava nor Sri is the shelter of the elephant. The gopis obtained the grace which they obtained from the giver of liberation.

That is, ‘The kind of grace that was showered on Yashoda ji by the Bestower of Love, Sri Hari, what to talk about Brahma, Shiva, even Lakshmi, who always resides in God’s heart, was not showered with such grace.’ That’s why affection is the best.

Expressing immense happiness, the Lord said – ‘ Opinion sir! You are Rasraj, nothing is unknown to you, Lord Vyas Dev has praised Vatsalya-Ras. Still, I do not feel complete fearlessness in Vatsalya-rasa. There is a sense of smallness and bigness in some parts of it. Even further than this, if you can tell any such feeling in which these thoughts are very important, then tell it to me?

Rai sir said – ‘ Lord! What more can I say beyond this, that is not the subject of saying. Really only one feeling remains and that can be called the last – that is ‘Kantabhaav’. Just by going into this, all the juices, all the emotions and all the relations would have ended.

Hearing this from the mouth of Rai Ramanand, the Lord hugged him deeply and being overwhelmed with love, he said in a gleeful voice – ‘Rai Sir! You are blessed, your family is blessed, only your mother can really be called a mother, your classical knowledge is meaningful. You saved me by telling me such a great secret, but if you know any higher feeling than this, then tell me?

When Mahaprabhu asked even further than this, Rai started looking at the Lord in astonishment and after a long time slowly started saying – ‘Lord! Beyond this I do not know anything.

The Lord said in a sweet voice – ‘ Rai sir! Nothing is hidden from you. You want to mislead me by thinking of me as a dry-hearted, grihatyagi forest-dwelling monk. You are neglecting me thinking that you are not entitled to the ultimate reality. You know everything. Please tell me whatever is more than Kanta-affection.’ Rai said holding the lotus feet of the Lord-

She must have worshiped the Supreme Personality of Godhead, Hari. That Govinda was pleased to leave us and take us to Yama.

‘Enough, Lord! Can’t say more clearly than this. Because this topic is very confidential. Lord Vyasdev has also kept it unmanifest considering it as the most secret. Very little has been aimed only by indication – that’s all, beyond that I cannot say anything more.’

On hearing this, Prabhu immediately stood up and hugging Rai Mahasaya tightly said – ‘Blessed, blessed. You have done the height of love. You have taken truth to its limit. Well, who can praise Shriradhika ji’s love? His love is the best. Now you tell me the full glory of the luxury of both of them.

On hearing this, Rai Mahasaya started reciting this verse with great rhythm in his kokilkujit meek voice.

Radhika with the proud fear of the nightly passionate art indicated by her words They looked at their friends in front of them with their eyes narrowed in shyness Tadavakshoruhachitrakelimakaripandityaparaganta: The Supreme Personality of Godhead makes the youth successful by enjoying Himself in the garden of Kalaya

Simply, this is the culmination of luxury. The Lord was very pleased to hear this. Prabhu embraced Rai Mahasaya strongly and both of them fell down on the earth in ecstasy of love.

respectively next post [105] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]

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