।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
महाराज प्रतापरुद्र को प्रभु दर्शन के लिये आतुरता
हेलोद्धूलितखेदया विशदया प्रोन्मीलदामोदया।
शाम्यच्छास्त्रविवादया रसदया चित्तार्पितोन्मादया।
शश्वद्भक्तिविनोदया शमदया माधुर्यमर्यादया।
श्रीचैतन्य दयानिधे तव दया भूयादमन्दोदया।।
हम पहले ही बात चुके हैं कि सार्वभौम भट्टाचार्य द्वारा महाप्रभु का परिचय पाकर कटकाधिपति महाराज प्रतापरुद्र जी के हृदय में प्रभु के प्रति प्रगाढ़ भक्ति उत्पन्न हो गयी थी। महाराज वैसे धर्मात्मा थे, विद्याव्यासंगी थे और साधु ब्राह्मणों के प्रति श्रद्धा-भक्ति भी रखते थे; किन्तु कैसे भी सही, थे तो राजा ही। संसारी विषय भोगों में फंसे रहना तो उनके लिये एक साधारण सी बात थी। किन्तु ज्यों ज्यों उनका महाप्रभु के चरणों में भक्ति बढ़ने लगी, त्यों-ही-त्यों उनकी संसारी विषय-भोगों की लालसा कम होती गयी। हृदय की कोठरी में बहुत ही छोटी हैं; जहाँ विषयों की भक्ति हैं, वहाँ साधु महात्माओं के प्रति भक्ति रह ही नहीं सकती और जिनके हृदय में साधु-महात्मा तथा भगवद्भक्तों के लिये श्रद्धा है, वहाँ काम रह ही नहीं सकता। तभी तो तुलसीदास जी ने कहा है-
जहाँ राम तहँ काम नहिं, जहाँ काम नहिं राम।
तुलसी कैसे रहि सकैं, रबि-रजनी इक ठाम।।
साधु-चरणों में ज्यों-ज्यों प्रीति बढ़ती जायगी, त्यों ही त्यों अभिमान, बड़प्पन और अपने को सर्वश्रेष्ठ समझने के भाव को होते जायँगे। महाराज के पास बहुत से साधु, पण्डित तथा विद्वान स्वयं ही दर्शन देने और उन्हें आशीवार्द प्रदान करने के लिये उनके दरबार में आते थे, इसीलिये उनकी इच्छा थी कि महाप्रभु भी आकर उन्हें दर्शन दे जायँ; किन्तु महाप्रभु को न तो स्वादिष्ट पदार्थ खाने की इच्दा थी, न वे अपना सम्मान ही चाहते थे और न उन्हें रुपये पैसे की अभिलाषा थी। फिर वे राजदरबार में क्यों जाते। प्राय: लोग इन्हीं तीन कामों से राजा के यहाँ जाते हैं। महाप्रभु इन तीन विषयों को त्यागकर वीतरागी संन्यासी बन चुके थे। संन्यासी के लिये शास्त्रों में राजदर्शनतक निषेध बताया गया है। हाँ, कोई राजा भक्तिभाव से संन्यासियों के दर्शन कर ले यह दूसरी बात है, उस समय उसकी स्थिति राजा की न होकर श्रद्धालु भक्त की ही होगी। स्वयं त्यागी-संयासी राजा से उसकी राजापने की स्थिति में मिलने न जायगा। महाराज को इस बात का क्या पता था। अभी तक उन्हें ऐसा सच्चा संन्यासी कभी मिला ही नहीं था। इसीलिये प्रभु के पुरी में पधारने का समाचार पाकर महाराज ने सार्वभौम भट्टाचार्य के समीप पत्र भिजवाया और उसमें उन्होंने महाप्रभु के दर्शन की इच्छा प्रकट की।
महाराज के आदेशानुसार भट्टाचार्य महाप्रभु के समीप गये और कुछ डरते हुए से कहने लगे- ‘प्रभो ! मैं एक निवदेन करना चाहता हूँ, आज्ञा हो तो कहूँ? आप अभय-दान देंगे तभी कह सकूँगा।’
प्रभु ने हंसते हुए कहा- ‘ऐसी कौन सी बात हैं, कहिये, आप कोई मेरे अहित की बात थोड़े ही कह सकते हैं? जिसमें मेरा लाभ होगा उसे ही आप कहेंगे।’ भट्टाचार्य ने कुछ प्रेमपूर्वक आग्रह के साथ कहा- ‘आपको मेरी प्रार्थना स्वीकार करना पड़ेगी।’
प्रभु ने हंसते हुए कहा- ‘वाह, यह खूब रही, अभी से वचनबद्ध कराये लेते हैं, माननेयोग्य होगी तो मानूँगा, नहीं तो ‘ना’ कर दूँगा और फिर आप ‘ना’ करने योग्य बात कहेंगे ही क्यों?’
प्रभु के इस प्रकार के चातुर्ययुक्त उत्तर को सुनकर कुछ सहमत हुए भट्टाचार्य महाशय कहने लगे- प्रभो ! महाराज प्रतापरुद्र आपके दर्शन के लिये बड़े ही उत्कण्ठित हैं, उन्हें दर्शन देकर अवश्य कृतार्थ कीजिये।’ प्रभु ने कानों पर हाथ रखते हुए कहा- ‘श्रीविष्णु, श्रीविष्णु, आप शास्त्रज्ञ पण्डित होकर भी ऐसी धर्मविहीन बात कैसे कह रहे हैं? राजा के दर्शन करना तो संन्यासी के लिये पाप बताया है। जब आप अपने होकर भी मुझे इस प्रकार धर्मच्युत होने के लिये सम्मति देंगे, तब मैं यहाँ अपने धर्म की रक्षा कैसे कर सकूँगा? तब तो मुझे पुरी का परित्याग ही करना पड़ेगा। भला, संसारी विषयों में फँसे हुए राजा के दर्शन? कैसी दु:ख की बात है? सुनिये-
निष्किञ्चनस्य भगवद्भजनोन्मुखस्य
पारं परं जिगमिषोभवसागरस्य।
संदर्शनं विषयिणामथ योषिताञ्च
हा हन्त हन्त विषभक्षणतोऽप्यसाधु:।।
अर्थात ‘जो भगवद्भजन के लिये उत्सुक और अकिंचन होकर इस अपार भवसागर को सम्पूर्ण रूप पार करना चाहते हैं ऐसे भगवान की ओर बढ़ने वाले भक्तों के लिये विषय भोगों में फँसे हुए लोगों का और स्त्रियों का दर्शन, हाय! हाय! विषभक्षण से भी अधिक असाधु है।’ विषभक्षण करने पर तो मनुष्य का इहलोक ही नष्ट होता है, किन्तु इन दोनों के संसर्ग से तो लोक परलोक दोनों ही नष्ट हो जाते हैं। इसलिये भट्टाचार्य महाशय! आप मुझे क्षमा करें।
अत्यन्त ही विनीभाव से भट्टाचार्य सार्वभौम ने कहा- ‘प्रभो ! आपका यह वचन शास्त्रानुकूल ही है। किन्तु महाराज परमभक्त हैं। जगन्नाथ जी के सेवक हैं, आपके चरणों में उनका दृढ़ अनुराग है। इन सभी कारणों से वे प्रभु के कृपापात्र बनने के योग्य हैं। आप उनसे राजापने के भाव से न मिलिये। मान लीजिये, वे विषयी ही हैं तो आपकी तो वे कुछ हानि नहीं कर सकते। उलटे उनका ही उद्धार हो जायगा। आपकी कृपा से संसारी लोगों का संसार-बन्धन छूट जाता है।’
महाप्रभु ने कहा- ‘भट्टाचार्य महाशय ! यह बात नहीं है-
आकारादपि भेतव्यं स्त्रीणां विषयिणामपि।
यथाऽहेर्मनस: क्षोभस्तथा तस्याकृतेरपि।।
(त्यागी पुरुष को) स्त्रियों की और विषयी पुरुषों की आकृति से भी डरना चाहिये; क्योंकि साँप से जिस प्रकार चित्त में क्षोभ होता है उसी प्रकार उसकी आकृति से भी होता है।’ फिर उनके साथ वार्तालाप और संसर्ग करना तो दूर रहा।
इस उत्तर को सुनकर भट्टाचार्य चुप हो गये, फिर उन्होंने प्रभु से इस सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा। वे विषण्ण मन से अपने घर लौट गये और सोचने लगे कि राजा को क्या उत्तर लिखूँ। इसी सोच-विचार में वे दो-तीन दिन पड़े रहे। उन्होंने राजा को कुछ भी उत्तर नहीं लिखा।
इसी बीच में राय रामानन्द जी विद्यानगर से कटक होते हुए पुरी में प्रभु के दर्शन के निमित्त आये। प्रभु उन्हें देखते ही एकदम खिल उठे और भूमि में पड़े हुए राय रामानन्द जी को उठाकर उनका गाढ़ालिंगन किया। बार बार छाती से लगाते हुए प्रभु कहने लगे- ‘मुझे राम ही नहीं मिले, आनन्द के सहित राम मिले हैं। अब मेरे आनन्द की सीमा नहीं रही। अब मैं निरन्तर आनन्द सागर में ही गोते लगाता रहूँगा।
रामानन्द के प्रति प्रभु के ऐसे प्रगाढ़ प्रेम को देखकर सभी भक्त विस्मित हो गये, वे रामानन्द के भाग्य की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। स्वस्थ होकर बैठ जाने पर राय महाशय ने कहा- ‘प्रभो ! आपके आज्ञानुसार राजकाज से अवकाश ग्रहण करने के निमित्त मैंने महाराज से निवदेन किया था। मैंने स्पष्ट कह दिया कि मुझे अब इस कार्य से छुट्टी मिलनी चाहिये। अब मैं पुरी में निवास करके श्रीचैतन्य-चरणों का सेवन करूँगा। मेरे मुख से आपका नाम सुनकर महाराज परम प्रसन्न हुए। उन्होंने उठकर मेरा आलिंगन किया और समीप में बैठाकर आपके सम्बन्ध में वे बहुत-सी बातें पूछते रहे। आपके चरणों में उनके ऐसे दृढ़ अनुराग को देखकर मैं विस्मित हो गया। जो पहले मुझसे सीधी तरह से बोलते भी नहीं थे, वे ही आपके सेवक होने के नाते मुझसे बराबर के मित्र की भाँति मिले और मेरा इतना अधिक सत्कार किया।
प्रभु ने कहा- ‘राय महाशय ! आपके ऊपर भगवान की कृपा है, आप श्रीकृष्ण के किंकर हैं, भगवदनुचरों का सभी लोग आदर करते हैं।’ इस प्रकार परस्पर में बहुत देर तक इसी प्रकार की प्रेमवार्ता होती रही। राय महाशय ने पुरी, भारती नित्यानन्द जी आदि उपस्थित सभी साधु महात्माओं की चरणा-वन्दना की और फिर वे प्रभु से आज्ञा लेकर भगवान के दर्शन के लिये चले गये।
उसी समय कटकाधिप महाराज प्रतापरुद्र भगवान की रथयात्रा के निमित्त से पुरी पधारे! उन्होंने सार्वभौम भट्टाचार्य को बुलवाकर उनसे पूछा- ‘भट्टाचार्य महाशय ! आपने महाप्रभु से मेरे सम्बन्ध में पूछा था?’
भट्टाचार्य ने कहा- ‘मैंने बार बार प्रार्थना की, किन्तु उन्होंने आपसे मिलना स्वीकार ही नहीं किया।’
महाराज ने कहा- ‘जब वे सर्वसमर्थ होकर मुझ जैसे पापियों से इतनी घृणा करते हैं, तो मुझ-जैसे अधमों का उद्धार कैसे होगा।?’
भट्टाचार्य ने कहा- ‘उनकी तो ऐसी प्रतिज्ञा है कि वे राजा के दर्शन नहीं करते।’
महाराज के अत्यन्त ही वेदना के स्वर में कहा- ‘यदि उनकी ऐसी प्रतिज्ञा है, तो मेरी भी यह प्रतिज्ञा है कि या तो प्रभु की पूर्ण कृपा प्राप्ति करूँगा या इस शरीर का ही परित्याग कर दूँगा।’
महाराज के ऐसे दृढ़ अनुराग को देखकर सार्वभौम भट्टाचार्य बहुत ही विस्मित हुए और महाराज को सान्त्वना देते हुए कहने लगे- ‘महाराज, आप इतने अधीर न हों। मेरा हृदय कह रहा है कि प्रभु आपके ऊपर अवश्य कृपा करेंगे। कल राय रामानन्द जी ने प्रभु के सम्मुख आपकी बहुत ही प्रशंसा की थी, उसका प्रभाव मुझे प्रत्यक्ष ही दृष्टिगोचर हुआ। प्रभु का मन आपकी ओर से बहुत ही अधिक कोमल हो गया है। अब आप एक काम कीजिये। राजवेष से तो उनसे मिलना ठीक नहीं है। रथयात्रा के समय जब प्रभु भक्तों के सहित जगन्नाथ जी के रथ के आगे आगे नृत्य करते हुए चलेंगे, तब आप साधारण वेष में जाकर उनके सामने कोई भक्तिपूर्ण श्लोक पढ़ने लगियेगा। प्रभु भक्त समझकर आपका दृढ़ आलिंगन करेंगे। तभी आपकी सभी मनोकामनाएँ पूर्ण हो जायँगी।’
सार्वभौम भट्टाचार्य का बताया हुआ यह उपाय महाराज को पसंद आया और उन्होंने भट्टाचार्य से पूछा- ‘रथयात्रा किस दिन होगी?’ भट्टाचार्य ने हिसाब करके बताया- ‘आज से तीसरे दिन रथयात्रा होगी। तभी हम सब मिलकर उद्योग करेंगे।’ यह सुनने से महाराज को संतोष हुआ और भट्टाचार्य महाराज की अनुमति लेकर अपने स्थान को चले आये।
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]
, Shri Hari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram Eagerness of Maharaja Prataparudra to see the Lord
Hello, stirred up sorrow, vivid, pron-mildamoda. The desire for peace, the dispute over weapons, the taste, the mind-devoted madness. Eternally delightful in devotion, peaceful, sweet and dignified. O Sri Chaitanya, treasure of mercy, may Your mercy be full of joy.
We have already said that after getting the introduction of Mahaprabhu by Sarvabhaum Bhattacharya, intense devotion towards the Lord developed in the heart of Katkadhipati Maharaj Prataparudra ji. Maharaj was such a religious soul, he was a scholar and also had devotion towards the sages and Brahmins; But anyway, he was a king. It was a simple thing for him to be trapped in worldly subjects and enjoyments. But as soon as his devotion at the feet of Mahaprabhu started increasing, his longing for worldly pleasures decreased. There is very little in the closet of the heart; Where there is devotion to subjects, there cannot be devotion towards sages and great souls, and there cannot be work in those who have faith in the hearts of sages and devotees of the Lord. That’s why Tulsidas ji has said-
Where there is Ram, there is no work, where there is no work, Ram. How can Tulsi live, Rabi-Rajni is one place.
As the love increases at the feet of saints, to that extent pride, greatness and the feeling of considering oneself as the best will continue to grow. Many sages, pundits and scholars used to come to Maharaj’s court to give him darshan himself and to bless him, so he wished that Mahaprabhu should also come and give him darshan; But Mahaprabhu neither had the desire to eat delicious things, nor did he want his respect, nor did he have any desire for money. Then why would he go to the royal court. Often people go to the king’s place for these three things. Mahaprabhu had renounced these three subjects and had become a Vitaragi monk. Even Rajdarshan has been prohibited in the scriptures for a monk. Yes, if a king visits sannyasins out of devotion, it is another matter, at that time his position will be that of a devoted devotee and not that of a king. The tyagi-sanyasi himself will not go to meet the king in his state of kingship. How did Maharaj know about this? Till now he had never met such a true sannyasin. That’s why after getting the news of Lord’s arrival in Puri, Maharaj sent a letter to Sarvabhaum Bhattacharya in which he expressed his desire to see Mahaprabhu.
As per Maharaj’s order, Bhattacharya went near Mahaprabhu and started saying with some fear – ‘Lord! I want to make a request, if you are allowed, should I say? I will be able to say only if you donate Abhay-Dan.
The Lord laughed and said- ‘What is such a thing, tell me, you can hardly say anything bad about me? You will call the one in whom I will be benefited.’ Bhattacharya said with some loving insistence- ‘You will have to accept my request.’
The Lord laughed and said- ‘Wow, it was great, let’s get you committed now, if it is agreeable, I will agree, otherwise I will say ‘no’ and then why would you say a ‘no’?’
After listening to this kind of tactful answer of the Lord, some agreed Bhattacharya sir started saying – Lord! Maharaj Prataparudra is very eager to have your darshan, please do it by giving him darshan.’ The Lord kept his hands on his ears and said – ‘Shri Vishnu, Shri Vishnu, how are you saying such irreligious things even after being a scholar? It is a sin for a sannyasin to see the king. How can I protect my religion here, when you, being yourself, give me the consent to become an apostate like this? Then I will have to give up Puri. Well, the darshan of a king engrossed in worldly matters? How sad is it? Listen
He is selfless and devoted to the worship of the Lord I want to go beyond the ocean of death Visitation of objects and women Alas alas he is unrighteous even for eating poison
That is, ‘Who wants to cross this immense Bhavsagar completely by being eager and unconcerned for Bhagavadbhajan, for such devotees moving towards God, the sight of men and women trapped in sensual pleasures, woe! Oh! It is more unholy than eating poison. By eating poison, only this world of a man is destroyed, but by the contact of these two, both the world and the hereafter are destroyed. That’s why Bhattacharya sir! You may excuse me.
Bhattacharya Sarvabhaum said with utmost humility – ‘Lord! This word of yours is according to the scriptures. But Maharaj is a supreme devotee. He is a servant of Jagannath ji, he has strong affection at your feet. For all these reasons they are eligible to be blessed by the Lord. You should not meet him with the spirit of kingship. Suppose they are subjects only, so they cannot harm you. On the contrary, they will be saved. By your grace the worldly people are freed from their worldly bondage.’
Mahaprabhu said – ‘ Mr. Bhattacharya! This is not the matter-
Even women who are sensual should be afraid of their size Just as the mind of a snake is agitated so is its form
(A renunciate man) should also be afraid of the shape of women and sensual men; Because the way the mind is disturbed by a snake, in the same way it is also caused by its shape.’ Then it was far to talk and have intercourse with them.
Bhattacharya became silent after hearing this answer, then he did not say anything to the Lord in this regard. They returned to their home with a broken heart and started thinking what answer should I write to the king. He kept lying in this thinking for two-three days. He did not write any reply to the king.
Meanwhile, Rai Ramanand ji came to Puri from Vidyanagar via Cuttack for the darshan of the Lord. Prabhu blossomed on seeing him and picked up Rai Ramanand ji who was lying on the ground and hugged him tightly. While hugging his chest again and again, the Lord started saying – ‘ I have not got Ram only, I have got Ram along with Anand. Now there is no limit to my joy. Now I will continue to dive in the ocean of bliss.
All the devotees were amazed to see such intense love of the Lord towards Ramanand, they started praising Ramanand’s fortune. On sitting down after recovering, Mr. Rai said – ‘Lord! As per your orders, I had requested Maharaj to take retirement from the Rajkaj. I clearly said that I should be relieved from this job now. Now I will live in Puri and enjoy the feet of Sri Chaitanya. Maharaj was extremely pleased to hear your name from my mouth. He got up and hugged me and made me sit near him and kept asking many things about you. I was amazed to see such steadfast devotion of his at your feet. Those who earlier did not even speak directly to me, being your servants, they met me as equal friends and treated me so highly.
The Lord said – ‘ Mr. Rai! God’s grace is on you, you are the kinker of Shri Krishna, everyone respects the devotees of God.’ In this way, this type of love conversation continued for a long time. Rai Mahasaya worshiped the feet of all the sages present in Puri, Bharti Nityanand ji etc. and then after taking permission from the Lord, went to see God.
At the same time Katkadhip Maharaj Prataparudra came to Puri on the occasion of Lord’s Rath Yatra! He called Sarvabhaum Bhattacharya and asked him – ‘ Mr. Bhattacharya! You asked Mahaprabhu about me?’
Bhattacharya said- ‘I prayed again and again, but he did not accept to meet you.’
Maharaj said- ‘When He, being omnipotent, hates sinners like me so much, then how will the wretched like me be saved?’
Bhattacharya said- ‘He has such a vow that he does not see the king.’
Maharaj said in a voice of extreme anguish- ‘If he has such a promise, then I also have this promise that either I will get the full grace of the Lord or I will leave this body.’
Sarvabhaum Bhattacharya was very surprised to see such a strong affection of Maharaj and consoled Maharaj and said – ‘ Maharaj, you should not be so impatient. My heart is saying that GOD will definitely bless you. Yesterday Rai Ramanand ji had praised you a lot in front of the Lord, I could see its effect directly. The heart of the Lord has become very soft towards you. Now do one thing. It is not right to meet him in Rajvesh. At the time of Rath Yatra, when Lord Jagannath along with the devotees will dance in front of Jagannath ji’s chariot, then you will go in ordinary dress and start reciting some devotional verses in front of him. The Lord will hug you firmly thinking that he is a devotee. Only then all your wishes will be fulfilled.
Maharaj liked this solution told by Sarvabhaum Bhattacharya and he asked Bhattacharya – ‘On which day will the Rath Yatra be held?’ Only then we all together will do industry. Maharaj was satisfied after hearing this and Bhattacharya returned to his place after taking Maharaj’s permission.
respectively next post [114] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]