[118]”श्रीचैतन्य–चरितावली”

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।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
श्री जगन्‍नाथ जी की रथ यात्रा

स जीयात कृष्‍णचैतन्‍य: श्रीरथाग्रे ननर्त य:।
येनासीज्‍जगतां चित्रं जगन्‍नाथोऽपि विस्मित:।।

गुण्टिचा (उद्यान मन्दिर) के मार्जन के दूसरे दिन नेत्रोत्‍सव था। महाप्रभु अपने सभी भक्‍तों को साथ लेकर जगन्‍नाथ जी के दर्शन के लिये गये। पंद्रह दिनों के अनवसर के अनन्‍तर आज भगवान के दर्शन हुए हैं, इससे महाप्रभु को बड़ा ही हर्ष हुआ। वे एकटक लगाये श्रीजगन्‍नाथ जी के मुखारविन्‍द की ओर निहार रहे थे। उनकी दोनों आखों में से अश्रुओं की दो धाराएँ बह रही थीं। उनके दोनों अरुण ओष्‍ठ नवपल्‍लवों की भाँति हिल रहे थे और वे धीरे-धीरे जगन्नाथ जी से कुछ कह रहे थे, मानो इतने दिन के वियोग के लिए प्रेमपूर्वक उलाहना दे रहे हों। दोपहर तक महाप्रभु अनिमेष भाव से भगवान के दर्शन करते रहे। फिर भक्‍तों के सहित आप अपने स्‍थान पर आये और महाप्रसाद पाकर फिर कथा-कीर्तन में लग गये।

दूसरे दिन जगन्‍नाथ जी की रथ यात्रा का दिवस था। प्रभु के आनन्‍द की सीमा नहीं थी। वे प्रात:काल होने के लिये बड़े ही आकुल बने हुए थे। मारे हर्ष के उन्‍हें रात्रिभर नींद ही नहीं आयी।

रात भर वे प्रेम में बेसुध हुए जागरण ही करते रहे। दो घड़ी रात्रि रहते ही आप उठकर बैठ गये और सभी भक्‍तों को भी जगा दिया। शौच स्‍नानादि से निवृत्त होकर सबके साथ महाप्रभु ‘पाण्‍डुविजय’ के दर्शन के लिये चले।

ज्‍येष्‍ठ की पूर्णिमा से लेकर आषाढ़ की अमावस्‍या तक भगवान महालक्ष्‍मी के साथ एकान्‍त में वास करते हैं। प्रतिपदा के दिन नेत्रोत्‍सव होता है तभी जगन्‍नाथ जी के दर्शन होते हैं। द्वि‍तीया या तृतीया को रथ पर चढ़कर भगवान श्रीराधिका जी के साथ एक सप्‍ताह से अधिक निवास करने के लिये सुन्‍दराचल को प्रस्‍थान करते हैं। वही रथ यात्रा कहलाती है! जिस समय रथ जाता है उसे ‘रथ यात्रा’ कहते हैं और विश्राम के पश्‍चात जब रथ लौटकर मन्दिर की ओर आता है उसे ‘उलटी रथ-यात्रा’ कहते हैं।

रथ-यात्रा के समय तीन रथ होते हैं। सबसे आगे जगन्‍नाथ जी का रथ होता है, उनके पीछे बलराम जी तथा सुभद्रा जी के रथ होते हैं। भगवान का रथ बहुत विशाल होता है, मानो छोटा-मोटा पर्वत ही हो। सम्‍पूर्ण रथ सुवर्णमण्डित होती है। उसमें हजारों घण्टा, टाल, किंकिणी तथा घागर बँधे रहते हैं। उसकी छतरी बहुत ऊँची और विशाल होती है। उसमें भाँति-भाँति की ध्‍वजा-पताकाएँ फहराती रहती हैं। वह एक छोटे मोटे नगर के ही समान होता है। सैकड़ों आदमी उसमें खड़े हो सकते हैं। चारों ओर बड़े बड़े शीशे लटकते रहते हैं। सैकड़ों मनुष्‍य स्‍वच्‍छ सफेद चंवरों को डुलाते रहते हैं। उसके चंदवें मूल्‍यवान रेशमी वस्‍त्रों के होते हैं तथा सम्‍पूर्ण रथ विविध प्रकार के चित्रपटों से बहुत ही अच्‍छी तरह से सजाया जाता है। उसमें आगे बहुत ही लम्‍बे और मजबूत रस्‍से बँधे होते हैं, जिन्‍हें मनुष्‍य ही खींचते हैं। भगवान के रथ को गुण्टिचा भवन तक मनुष्‍य ही खींचकर ले जाते हैं। उस समय का दृश्‍य बड़ा ही अपूर्व होता है।

प्रात:काल रथ सिंह द्वार पर खड़ा होता है, उसमें ‘दयितागण’ भगवान को लाकर पधारते हैं, जिस समय सिंहासन से उठाकर भगवान रथ में पधराये जाते हैं, उसे ही ‘पाण्‍डु विजय’ कहते हैं। ‘दयिता’ जगन्‍नाथ जी के सेवक होते हैं। ‘दयिता’ वैसे तो एक निम्‍न श्रेणी की जाति है, किन्‍तु भगवान की सेवा के अधिकारी होने के कारण सभी लोग उनका विशेष सम्‍मान करते हैं। उनमें दो श्रेणी हैं, साधारण दयिता तो शूद्रतुल्‍य ही होते हैं, किन्‍तु उनमें जो ब्राह्मण होते हैं, वे ‘दयितापति’ कहलाते हैं। अनवसर के दिनों में वे ही भगवान को बाल भोग में मिष्‍टान्‍न अर्पण करते हैं और भगवान की तबीयत खराब बताकर ओषधि भी अर्पण करते हैं। स्‍नान आदि से लेकर रथ के लौटने के दिन तक उनका श्रीजगन्‍नाथ जी की सेवा में विशेष अधिकार होता है। वे ही किसी प्रकार रस्सियों द्वारा भगवान को सिंहासन पर रथ पर पधराते हैं। उस समय कटक के महाराजा वहाँ स्‍वयं उपस्थित रहते हैं।

महाप्रभु अपने भक्‍तों के सहित ‘पाण्‍डुविजय’ के दर्शन के लिये पहुँचे। महाराज प्रभु के दर्शन की अच्‍छी व्‍यवस्‍था कर दी थी, इसीलिये प्रभु ने भलीभाँति सुविधापूर्वक भगवान के दर्शन किये। दर्शन के अनन्‍तर अब रथ चलने के लिये तैयार हुआ। भारत वर्ष के विभिन्‍न प्रान्‍तों के लाखों नर नारी रथ यात्रा देखने के लिये उपस्थित थे। चारों ओर गगनभेदी जय ध्‍वनि ही सुनायी देती थी।

भगवान के रथ पर विराजमान होने के अनन्‍तर महाराज प्रतापरुद्र जी ने सुवर्ण की बुहारी से पथ को परिष्‍कृत किया और अपने हाथ से चन्‍दन मिश्रित जल छिड़का। असंख्‍यों इन्‍द्र, मनु, प्रजापति तथा ब्रह्मा जिनकी सेवा में सदा उपस्थित रहते हैं, उनकी यदि नीच सेवा को करके महाराज अपने यश और प्रताप को बढ़ाते हैं, तो इसमें कौन सी आश्‍चर्य की बात है? उनके सामने राजा महाराजाओं की तो बात ही क्‍या है, ब्रह्मा जी भी एक साधारण जीव हैं। मान सम्‍मान के सहित उनकी सेवा कोई कर ही क्‍या सकता है, क्‍योंकि संसार भर की सभी प्रतिष्‍ठा उनके सामने तुच्‍छ से भी तुच्‍छ है। मान, प्रतिष्‍ठा, कीर्ति और यश के वे ही उदगम स्‍थान हैं। ऐश्‍वर्य से, पदार्थों से तथा अन्य प्रकार की वस्तुओं से कोई उनकी पूजा कर ही कैसे सकता है? वे तो केवल भाव के भूखे हैं।

महाराज के पूजा-अर्चा तथा पथ-परिष्‍कार कर लेने पर गौड़देशीय भक्‍तों ने तथा भारतवर्ष के विभिन्‍न प्रान्‍तों से आये हुए नर नारियों ने भगवान के रथ की रज्‍जु पकड़ी। सभी ने मिलकर जोरों से ‘जगन्‍नाथ जी की जय’ बोली। जयघोष के साथ ही असंख्‍यों घण्‍टा किंकिणियों तथा टालों को एक साथ बजाता हुआ और घर घर शब्‍द करता हुआ भगवान का रथ चला। उनके पीछे बलभद्र जी तथा सुभद्रा जी के रथ चले। चारों ओर जयघोष हो रहा था। सम्‍पूर्ण पथ सुन्‍दर बालुकामय बना हुआ था। राजपथ के दोनों पार्श्‍वों में नारियल के सुन्‍दर सुन्‍दर वृक्ष बड़े ही भले मालूम पड़ते थे। सुन्‍दराचल जाते हुए भगवान के रथ की छटा उस समय अपूर्व ही थी। रथ कभी तो जोरों से चलता, कभी धीरे धीरे चलता, कभी एकदम ठहर जाता और लाख प्रयत्‍न करने पर भी फिर आगे नहीं बढ़ता। भला, जिनके पेट में करोड़-दो-करोड़ नहीं, असंख्‍यों ब्रह्माण्‍ड भरे हुए हैं, उन्‍हें ये कीट पतंग की तरह बल रखने वाले पुरुष खींच ही क्‍या सकते हैं? भगवान स्‍वयं इच्‍छामय हैं, जब उनकी मौज होती है तो चलते हैं, नहीं तो जहाँ के-तहाँ ही खड़े रहते हैं। लोग कितना भी जोर लगावें, रथ आगे को चलता ही नहीं, तब उड़िया भक्‍त भगवान को लाखों गालियाँ देते हैं। पता नहीं गालियों से भगवान क्‍यों प्रसन्‍न हो जाते हैं, गाली सुनते ही रथ चलने लगता है।

महाप्रभु रथ के आगे आगे नृत्‍य करते हुए चल रहे थे। रथ चलने से पूर्व उन्‍होंने अपने हाथों से सभी भक्‍तों को मालाएँ पहनायीं तथा उनके मस्‍तकों पर चन्‍दन लगाया। इसके अनन्‍तर प्रभु ने संकीर्तन मण्‍डलियों को सात भागों में बाँट दिया।

पहली मण्‍डली के प्रधान गायक महाप्रभु के दूसरे स्‍वरूप स्‍वनामध्‍य श्रीस्‍वरूपदामोदर जी थे, उनके दामोदर (दूसरे), नारायण, गोविन्‍ददत्‍त, राघव पण्डित और गोविन्‍दनन्‍द ये पांच सहायक प्रभु ने बनाये। उस मण्‍डली के मुख्‍य नृत्‍यकारी महामहिम श्रीअद्वैताचार्य थे। बूढ़े होने पर संकीर्तन के नृत्‍य में वे अच्‍छे अच्‍छे भक्‍तों से बहुत अधिक बढ़ जाते। उनका नृत्‍य बड़ा ही मधुर होता और वे अपने श्‍वेत बालों को हिलाते हुए मण्‍डली के आगे आगे श्रीशंकर जी का-सा ताण्‍डव-नृत्‍य करते जाते। दूसरी मण्‍डली के प्रधान गायक थे श्रीवास पण्डित। उनका शरीर स्‍थूल था, चेहरे पर से रोब टपकता था और वाणी में गम्‍भीरता तथा सरसता थी। वे हाथ में मंजीरा लिये हुए सिंह के समान खड़े थे। महाप्रभु ने उनके गंगादास, हरिदास (दूसरे), श्रीमान पण्डित शुभानन्‍द और श्रीराम पण्डित ये पांच सहायक बनाये। उस मण्‍डली के प्रधान नर्तक थे श्रीपाद नित्‍यानन्‍द जी। अवधूत नित्‍यानन्‍द जी अपने लम्‍बे इकहरे शरीर से नृत्‍य करते हुए बड़े ही भले मालूम पड़ते थे।

तीसरी मण्‍डली के प्रधान गायक थे गन्‍धर्वावतार श्रीमुकुन्‍ददत्त पण्डित। उनके सहायक थे वासुदेव, गोपीनाथ, मुरारी, गुप्‍त, श्रीकान्‍त और बल्‍लभसेन। इस मण्‍डली में महामहिम महात्‍मा हरिदास जी प्रधान नृत्‍यकारी थे। वे अपनी छोटी सी दाढ़ी को हिलाते हुए कूद कूदकर मनोहर नृत्‍य कर रहे थे। उनका गोल गोल स्‍थूल शरीर नृत्‍य में गेंद की भाँति उछल रहा था। वे सिर हिलाकर ‘हरि हरि’ कहते जाते थे। चौथी मण्‍डली के प्रधान गायक थे श्रीगोविन्‍द घोष हरिदास, विष्‍णुदास, दाघव, माधव और वासुदेव उनके सहायक थे। इस मण्‍डली को नृत्‍य से टेढ़ी बनाने वाले श्रीवक्रेश्‍वर पण्डित थे। इनका नृत्‍य तो अपूर्व ही होता था। ये नृत्‍य करते करते जमीन में लोट पोट हो जाते। इस प्रकार चार म‍ण्‍डलियों का तो महाप्रभु ने उसी समय से संगठन किया। तीन मण्‍डलियाँ पहले से ही बनी हुई थीं। एक तो कुलीन ग्राम की मण्‍डली थी, जिसके प्रधान गायक थे रामानन्‍द जी और सत्‍यराव जी के सहित नृत्‍य भी करते थे। उनके सहायक कुलीन ग्रामवासी सभी भक्‍त थे। दूसरी शान्तिपुर की एक मण्‍डली थी, जिसके प्रधान थे श्री अद्वैताचार्य के स्‍वनामधन्‍य पुत्र श्रीअच्‍युतानन्‍द जी। वे ही उसमें नृत्‍यकारी भी थे और शान्तिपुर के सभी भक्‍त उनके सहायक थे।

तीसरे सम्‍प्रदाय के प्रधान गायक और नर्तक थे श्रीनरहरि और रघुनन्‍दन। खण्‍डवासी सभी उनके अनुगत थे। इस प्रकार सात सम्‍प्रदायों का सम्मिलित संकीर्तन हो रहा था। चार मण्‍डलियां तो भगवान के रथ के आगे-आगे संकीर्तन कर रही थीं। एक दायीं ओर, एक बायीं ओर और एक रथ के पीछे पीछे अपनी तुमुल ध्‍वनि से रथ को आगे बढ़ाने में सहायक हो रही थी।

सातों सम्‍प्रदायों में साथ ही चौदह ढोल या मादल बजने लगे। असंख्‍यों मँजीरों की मीठी मीठी ध्‍वनि उन ढोल-करतालों की ध्‍वनि में मिल-मिलकर एक प्रकार का विचित्र रस पैदा करने लगी। ढोल बजाने वाले भक्‍त ढोलों को बजाते-बजाते दुहरे जो जाते थे। उनके पैर पृथ्‍वी पर टिके रहते और ढोलों को बजाते बजाते पीछे की ओर झुक जाते। नृत्‍य करने वाले भक्‍त उछल उछलकर, कूद कूदकर, भावों को दिखा-दिखाकर भाँति-भाँति से नृत्‍य करने लगे।

महाप्रभु सभी मण्‍डलियों में नृत्‍य करते। वे-बात की-बात में एक मण्‍डली से दूसरी मण्‍डली में आ जाते और वहाँ नृत्‍य करने लगते। वे किस समय दूसरी मण्‍डली में जाकर नृत्‍य करने लगे, इसका किसी को भी पता नहीं होता। सभी समझते महाप्रभु हमारी ही मण्‍डली में नृत्‍य कर रहे हैं। यात्रीगण आश्‍चर्य के सहित प्रभु के नृत्‍य को देखते। जो भी देखता वही देखता-का-देखता ही रह जाता। महाप्रभु की ओर से नेत्र हटाने को किसी का जी ही नहीं चाहता। मनुष्‍यों की तो बात ही क्‍या, साक्षात जगन्‍नाथ जी भी प्रभु के नृत्‍य को देखकर चकित हो गये और वे रथ को खड़ा करके प्रभु की नृत्‍यकारी छबि को निहारने लगे। मानो वे प्रभु के नृत्‍य से आश्‍चर्यचकित होकर चलना भूल ही गये हों।

महाराज प्रतापरुद्र भी अपने परिकर के साथ महाप्रभु के इस अदभुत नृत्‍य को देखकर मन-ही-मन प्रसन्‍न हो रहे थे। महाप्रभु का ऐसा नृत्‍य किसी ने आज तक कभी देखा नहीं था। जो लोग अब तक महाप्रभु की प्रशंसा ही सुनते थे, वे नृत्‍यकारी गौरांग को देखकर उनके ऊपर मुग्‍ध हो गये और जोरों से ‘हरि बोल, हरि बोल’, कहकर चिल्‍लाने लगे। इस प्रकार जगन्‍नाथ जी का रथ धीरे धीरे आगे बढ़ने लगा और गौर भक्‍त प्रेम में उन्‍मत होकर उसने पीछे पीछे कीर्तन करते हुए चले।

फिर महाप्रभु ने अपना एक स्‍वतन्‍त्र ही सम्‍प्रदाय बना लिया। उन सातों सम्‍प्रदायों को एकत्रित कर लिया।

श्रीवास पण्डित, रमाई पण्डित, रघुनाथ, मुकुन्‍द, हरिदास, गोविन्‍दानन्‍द माधव और गोविन्‍द ये प्रधान गायक हुए और नृत्‍यकारी स्‍वयं महाप्रभु हुए। चौदह ढोलों की गगनभेदी ध्‍वनि साथ ही भक्‍तों के हृदय-सागर को उद्वेलित करने लगी। महाप्रभु के उन्‍मादी नृत्‍य से सभी दर्शक चकित रह गये। वे चित्र के लिखे से चुपचाप एकटक होकर प्रभु के अलौकिक नृत्‍य को देख रहे थे। आकाश में कोलाहल -सा सुनायी देने लगा। मानो देवता भी अपने अपने विमानों पर चढ़कर प्रभु के नृत्‍य को देखने के लिये आकाश में खड़े हों। सभी भक्‍त महाप्रभु को घेरकर नृत्‍य करने लगे। महाप्रभु ने थोड़ी देर में नृत्‍य बंद कर दिया। सभी बाजे बंद हो गये। चारों ओर बिलकुल सन्‍नाटा छा गया। तब महाप्रभु ने अपने कोकिल कूजित कण्‍ठ से बड़ी करुणा के साथ जगन्‍नाथ जी की स्‍तुति करने लगे। भक्‍तों ने भी प्रभु के स्‍वर में स्‍वर मिलाया।

जयति जयति देवो देवकीनन्‍दनौऽसौ।
जयति जयति कृष्‍णो वृष्णिवंशप्रदीप:।
जयति जयति मेघश्‍यामल: कोमलांगो
जयति ज‍यति पृथ्‍वीभारहारो मुकुन्‍द।।[1]

नहां विप्रो न च नरपतिर्नापि वैश्‍यो न शूद्रो
नाहं वणीं न च गृहपतिर्नो वनस्‍थो यतिर्वा।
किन्‍तु प्रोद्यन्निखिलपरमानन्‍दपूर्णामृताब्‍धे-
र्गोपीभर्तु: पदकमलयोर्दासदासानुदास:।।[2]

‘दासानुदास’ यह पद समाप्‍त हुआ कि फिर झाँझ, मृदंग और खोल स्‍वत: ही बजने लगे। रथ घर-घर शब्‍द करके फिर चलने लगा। महाप्रभु फिर उसी भाँति उद्दाम नृत्‍य करने लगे। उनके सम्‍पूर्ण शरीर में स्‍तम्‍भ, स्‍वेद, पुलक, अश्रु, कम्‍प, वैवर्ण, स्‍वरविकृति आदि सभी सात्त्विक विकारों का उदय होने लगा। उनके शरीर के सम्‍पूर्ण रोम एकदम खड़े हो गये, दाँत कड़ाकड़ बजने लगे। स्‍वर भंग एकदम हो गया, चेष्‍टा करने पर ठीक ठीक शब्‍द मुख से नहीं निकलते थे। आँखों से अश्रुओं की धारा बहने लगी। पसीने का तो कुछ पूछना ही नहीं। मानो सुवर्ण के सुमेरु पर्वत से असंख्‍य नदियाँ निकल रही हों मुख में से झाग निकल रहे थे। कभी कभी लेट जाते, फिर उठ पड़ते और अलातचक्र की भाँति चारों ओर घूमने लगते।

प्रभु के उद्दण्‍ड नृत्‍य से रथ का चलना बंद हो गया। भक्‍तगण महाप्रभु की ऐसी विचित्र अवस्‍था देखकर भय के कारण काँपने लगे। दर्शनार्थी महाप्रभु के नृत्‍य को देखने के लिये टूट ही पड़ते थे। नित्‍यानन्‍द जी को बड़ी घबड़ाहट होने लगी। लोगों की भीड़ प्रभु के ऊपर को ही चली आ रही थी। तब नित्‍यानन्‍द जी ने अपने भक्‍तों की एक गोल मण्‍डली बना ली और उसके भीतर प्रभु को ले लिया। महाराज ने भी उसी समय अपने नौकरों को फौरन आज्ञा दी कि इस भक्‍त मण्‍डली के गोल को तुम लोग चारों ओर से घेर लो, जिससे और लोग इस मण्‍डली को धक्‍का न दे सकें! महाराज की आज्ञा उसी समय पालन की गयी और भक्‍त मण्‍डली की रक्षा का प्रबन्‍ध राजकर्मचारियों ने उसी समय कर दिया।

महाराज प्रतापरुद्र भी अपने मन्‍त्री श्रीहरिचन्‍दनेश्‍वर के कंधे पर हाथ रखे हुए महाप्रभु के उद्दण्‍ड नृत्‍य को देख रहे थे। महाराज के सामने ही दीर्घकाय श्रीवास पण्डित भाव में विभोर हुए खड़े थे। महाराज प्रभु के नृत्‍य को एकटक होकर देख रहे थे; किन्‍तु सामने खड़े हुए श्रीवास पण्डित बार बार झूम झूमकर महाराज के देखने में विघ्‍न डालते। राजमन्‍त्री हरिचन्‍दनेश्‍वर उन्‍हें बार बार टोंचते और वहाँ से हट जाने का संकेत करते, किन्‍तु हरिसमदिरा में मत्त हुए भक्‍त श्रीवास किसकी सुनने वाले थे। मन्‍त्री जी बड़े आदमी होंगे तो राज्‍य के होंगे, भक्‍तों के लिये तो यहाँ सभी समान ही थे। बार बार टोंचने पर भावावेश में भरे हुए श्रीवास पण्डित को एकदम क्षोभ हो उठा। उन्‍होंने आव गिना न ताव, बड़े जोरों से कसकर एक झापड़ राजमन्‍त्री चन्‍दनेश्‍वर के सुन्‍दर लाल कपोल पर जमा दिया। उस जोर के चपत के लगते ही मन्‍त्री महोदय अपना सभी मन्‍त्रीपन भूल गये, गाल एकदम और अधिक लाल पड़ गया। सम्‍पूर्ण शरीर में झनझनी फैल गयी। राजमन्‍त्री हक्‍के बक्‍के से होकर चारों ओर देखने लगे। उस समय बेहोशी मे उन्‍हें मान-अपमान का कुछ भी ध्‍यान नहीं हुआ। गहरी चोट लगने पर जैसे रक्‍त को देखकर पीछे से दु:ख होता है, उसी प्रकार झापड़ खाकर जब राजमन्‍त्री ने अपने चारों ओर देखा तब उन्‍हें अपने अपमान का भान हुआ। उसी समय उन्‍होंने अपने मन्‍त्रीपने की तेजस्विता दिखायी! श्रीवास पण्डित को उसी समय इसका मजा चखाने के लिये वे कर्मचारियों को कठोर आज्ञा देने लगे। परन्‍तु बुद्धिमान महाराज ने उन्‍हें शान्‍त करते हुए कहा- आप यह कैसी बात कर रहे हैं? देखते नहीं, ये भाव में विभोर हैं। आपका परम सौभाग्‍य हैं, जो ऐसे भगवद भक्‍त ने भगवान के भाव में आपके कपोल का स्‍पर्श किया। यह इनकी आपके ऊपर असीम कृपा ही है। यदि हमें इनके इस झापड़ का सौभाग्‍य प्राप्‍त होता तो हम आज अपने को सबसे बड़ा भाग्‍यशाली समझते। आप अपने रोष को शान्‍त कीजिये और महाप्रभु के कीर्तन रस का आस्‍वादन कीजिये।

इस प्रकार महाराज के समझाने पर हरिचन्‍दनेश्‍वर राजमन्‍त्री शान्‍त हुए, नहीं तो उसी समय रंग में भंग हो जाता। मालूम पड़ने पर श्रीवास पण्डित बहुत अधिक लज्जित हुए। महाप्रभु को इन बातों का कुछ भी पता नहीं था, वे उसी भाव में उद्दण्‍ड नृत्‍य कर रहे थे। न उन्‍हें लोगों का पता था, न राजा तथा राजमन्‍त्री का। वे जोरों से नृत्‍य करते, कभी किसी का आलिंगन कर लेते, कभी किसी का चुम्‍बन करते, कभी किसी का हाथ पकड़क रही नृत्‍य करने लगते। दर्शनार्थी प्रभु के चरणों के नीचे की धूलि उठा-उठाकर सिर पर चढ़ाते। भक्‍त वृन्‍द उस चरणरेणु को अपने अपने शरीर में मलते। इस प्रकार बड़ी देर तक महाप्रभु नृत्‍य करते रहे। नृत्‍य करते करते प्रभु थककर बैठ गये और स्‍वरूप को आज्ञा दी कि किसी पद का गायन करो। गायनाचार्य दूसरे गौरचन्‍द्र श्रीस्‍वरूपदामोदर गोस्‍वामी गाने लगे-

सेई त परान नाथ पाईनू।
याहा लागि मदन दहन झूरि गेनू।।

पद के साथ ही साथ वाद्य बजने लगे। हरि, हरि करके भक्‍त नाचने लगे। जगन्‍नाथ जी का रथ आगे बढ़ा और महाप्रभु भी नृत्‍य करते-करते उसके आगे चले। अब प्रभु राधाभाव से भावान्वित हो गये। उन्‍हें भान होने लगा मानो श्रीश्‍यामसुन्‍दर बहुत दिनों के बिछोह के बाद मिलने के लिये आये हैं। इसी भाव से वे जगन्‍नाथ जी की ओर भाँति-भाँति के प्रेम भावों को हाथों द्वारा प्रदर्शित करते हुए नृत्‍य करने लगे। अब उन्‍हें प्रतीत होने लगा मानो श्रीकृष्‍ण आकर मिल गये हैं, किन्‍तु इस मिलन में सुख नहीं है, जो वृन्‍दावन के पुलिन कुंजों में आता था। इसी भाव में विभोर होकर वे इस श्‍लोक को पढ़ने लगे-

य कौमारहर: स एव हि वरस्‍ता एव चैत्रक्षपा।
स्‍ते चोन्‍मीलितमालतीसुरभय: प्रौढा: कदम्‍बानिला:
सा चैवास्मि तथापि तत्र सुरतव्‍यापारलीलाविधौ।
रेवारोधसि वेतसीतरुतले चेत: समुत्‍कण्‍ठते।।

नायिका पुनर्मिलन के समय कह रही है, ‘जिस कौमार-काल में रेवानदी के तट पर जिन्‍होंने हमारे चित्त को हरण किया था, वे ही इस समय हमारे पति हैं। वही मधुमास की मनोहारिणी रजनी हैं, वही उन्‍मीलित मालती पुष्‍प की मन को मस्‍त कर देने वाली भीनी भीनी सुगन्‍ध आ रही है, वही कदम्‍ब-कानन से स्‍पर्श की हुई शीतल-मन्‍द-सुगन्धित वायु बह रही है, पति के साथ सुरत-व्‍यापार लीला करने वाली नायिका भी मैं वही हूँ और मन को हरण करने वाले नायक भी ये वे ही हैं, तो भी मेरा चंचरीक के समान चंचल चित्त सन्‍तुष्‍ट नहीं हो रहा है, यह तो उसी रेवा के रमणीय तट के लिये उत्‍कण्ठित हो रहा है।’ हाय रे ! विरह! बलिहारी है तेरे पुनर्मिलन की।

इस श्‍लोक को महाप्रभु किस भाव से कह रहे हैं इसे स्‍वरूपदामोदर के सिवा और कोई समझ ही न सका। सबों के समझने की बात भी नहीं थी, उनके बाहर चलने वाले प्राण श्रीस्‍वरूप दामोदर ही समझ भी सकते थे। इस भाव को एक दिन श्‍लोकबद्ध करके महाप्रभु के सम्‍मुख भी उपस्थित किया था। महाप्रभु उस श्‍लोक को सुनकर बड़े ही चकित हुए औश्र बड़े ही स्‍नेह के साथ स्‍वरूपदामोदर की पीठ पर हाथ फेरते हुए कहने लगे- ‘स्‍वरूप! श्रीजगन्‍नाथ जी के रथ के सम्‍मुख नृत्‍य करते समय के हमारे भाव को तुम कैसे जान गये? यह श्‍लोक तो तुमने मेरे मनोभावों का एकदम प्रतिबिम्‍ब ही बनाकर रख दिया है।’ कुछ लज्जित स्‍वर में धीरे से स्‍वरूप दामोदर ने कहा- ‘प्रभो ! आपकी कृपा के बिना कोई आपके मनोगत भाव को समझ ही कैसे सकता है?’ महाप्रभु उस श्‍लोक की बार बार प्रशंसा करते हुए कहने लगे- ‘अहो ! कितने सुन्‍दर भाव हैं, सचमुच कतित्‍व की, भाव-प्रदर्शन की पराकाष्‍ठा ही कर दी है।’ वाह-

प्रिय सोऽयं कृष्‍ण: सहचरि कुरुक्षेत्रमिलित
स्‍तयाहं सा राधा तदिदमुभयो: संगमसुखम।
तथाप्‍यन्‍त खेलन्‍मधुरमुरलीपञ्चमजुषे
मनो मे कालिन्‍दीपुलिनविपिनाय स्‍पृहयति।।

कुरुक्षेत्र में पुन: मिलने पर राधिका जी कह रही हैं- ‘हे सहचरि ! मेरे वे ही प्राणनाथ हृदयमण श्रीकृष्‍ण मुझे कुरुक्षेत्र में मिल हैं, मैं भी वही वृषभानुनन्दिनी कीर्तिसुता राधा हूँ और दोनों के परस्‍पर मिलने से संगमसुख भी प्राप्‍त हुआ। किन्‍तु प्‍यारी सखी ! हृदय की सच्‍ची बात कहती हूँ, जिस वन में मुरली मनोहर की पंचम स्‍वर में बजती हुई मुरली की मन मोहक तान सुनी थी उस कालिन्‍दी कूलवाले वन के लिये मेरा मनमधुप अत्‍यन्‍त ही लालायति हो रहा है।’ यह भाव प्रभु के मनोगत भाव के एकदम अनुरूप ही था। इस प्रकार श्रीराधिका जी के अनेक भावों को प्रकट करते हुए प्रभु रथ के आगे आगे नृत्‍य करते हुए चलने लगे। उनके आज के नृत्‍य में जगत को मोहित करने वाली शक्ति थी। नृत्‍य करते-करते एक बार महाप्रभु महाराज प्रतापरुद्र के बिलकुल ही समीप पहुँच गये। महाराज ने इस सुअवसर को पाकर प्रभु के चरण पकड़ लिये। उसी समय प्रभु को नाह्यज्ञान हुआ और यह कहते हुए कि ‘राजा ने मेरा स्‍पर्श कर लिया, मेरे जीवन को धिक्‍कार है।’ वे वहाँ से आगे चले गये। इससे राजा को बड़ा क्षोभ हुआ। सार्वभौम भट्टाचार्य ने कहा- ‘आप क्षोभ न करें। यह तो प्रभु की आपके ऊपर असीम कृपा ही है, प्रभु आपको कृतार्थ करने ही यहाँ तक आये थे।’ इस बात से महाराज को सन्‍तोष हो गया।

महाप्रभु अब रथ के चारों ओर परिक्रमा करने लगे। वे स्‍वयं ही अपने हाथों से रथ को ढकेलने लगे। रथ घर घर, हड़ हड़ करता हुआ जोरों से आगे बढ़ने लगा। महाप्रभु कभी बलभद्र जी के रथ के सम्‍मुख नृत्‍य करते, कभी सुभद्रा जी के रथ के सामने और कभी फिर जगन्‍नाथ जी के रथ के सम्‍मुख आ जाते। इस प्रकार रथ के साथ नृत्‍य करते बलगण्डि पहुँच गये। बलगण्डि जाकर रथ खड़ा हो गया। अब भगवान के भोग की तैयारियाँ होने लगीं।

श्रद्धावालू और अर्धासनी देवी के बीच में बालगण्डि नामक एक स्‍थान है। वहाँ पर भोग लगने का नियम है। उस स्‍थान पर जगन्‍नाथ जी करोड़ों प्रकार की वस्‍तुओं का रसास्‍वादन लेते हैं। राजा प्रजा, धनी गरीब, स्‍त्री पुरुष जो भी वहाँ होते हैं, सभी अपनी-अपनी श्रद्धा के अनुसार भगवान का भोग लगाते हैं। जैसी जिसकी इच्‍छा हो, जो जिस चीज का भी लगा सकता है, उसी चीज का लगाता है। मन्दिर की भाँति सिद्ध अन्‍न का भोग नहीं लगाता। रास्‍ते के दायें, बायें, आगे, पीछे वाटिका में जहाँ भी जिसे स्‍थान मिलता है वहीं भोग रख देता है। उस समय लोगों की बड़ी भारी भीड़ हो जाती है। उसे नियन्‍त्रण में रखना महा कठिन हो जाता है। महाप्रभु भीड़ को देखकर समीप के ही बगीचे में विश्राम करने के लिये चले गये। भक्‍तवृन्‍द भी प्रभु के पीछे पीछे चले। वाटिका में जाकर प्रभु एक सुन्‍दर से वृक्ष की शीतल छाया में पृथ्‍वी पर लेट गये। मन्‍द-सुगन्धित-शीतल पवन के स्‍पर्श से प्रभु को अत्‍यन्‍त ही आनन्‍द हुआ। वे सुखपूर्वक एक पैर पर दूसरे पैर को रखे हुए लेटे थे। उस समय थकान के कारण अपनी कोमल भुजा पर सिर रखकर लेटे हुए महाप्रभु बड़े ही भले मालूम पड़ते थे। वाटिका के प्रत्‍येक वृक्ष के नीचे एक एक, दो दो भक्‍त पड़े हुए संकीर्तन की थकान को मिटा रहे थे।

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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]



, Shri Hari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram Rath Yatra of Shri Jagannath

Long live that Krishna consciousness who dances at the head of the chariot of Sri. This was a wonderful thing for the worlds and even the lord of the universe was astonished

On the second day of the Marjan of Gunticha (garden temple) there was an eye festival. Mahaprabhu went to see Jagannath ji with all his devotees. Mahaprabhu was very happy that God has appeared today after a gap of fifteen days. He was looking at Shri Jagannathji’s Mukharvind with a fixed gaze. Two streams of tears were flowing from both his eyes. Both his Arun lips were moving like Navapallavs and he was slowly saying something to Jagannath ji, as if he was lovingly admonishing him for so many days of separation. Till afternoon, Mahaprabhu continued to have darshan of God with animesh. Then you came to your place along with the devotees and after getting Mahaprasad, again engaged in Katha-Kirtan.

The second day was the day of Jagannath ji’s Rath Yatra. There was no limit to the joy of the Lord. They were very worried about getting up in the morning. He could not sleep the whole night because of his joy.

Throughout the night, he kept on waking up unconscious in love. As soon as it was two o’clock in the night, you got up and sat down and woke up all the devotees as well. After retiring from toilet bath, went with everyone to have a darshan of Mahaprabhu ‘Panduvijaya’.

From the full moon of Jyeshtha to the new moon of Ashadh, Lord Mahalakshmi resides in solitude. On the day of Pratipada, there is an eye festival, only then Jagannath ji is seen. On Dwitiya or Tritiya, Lord Krishna mounts a chariot and leaves for Sundarachal to stay with Radhika for more than a week. That is called Rath Yatra! The time when the chariot leaves is called ‘Rath Yatra’ and after rest, when the chariot returns to the temple, it is called ‘Ulti Rath-Yatra’.

There are three chariots during the Rath Yatra. Jagannath’s chariot is at the front, followed by the chariots of Balarama and Subhadra. God’s chariot is very huge, as if it is a small mountain. The entire chariot is decorated with gold. Thousands of ghantas, taals, kinkinis and ghagars are tied in it. His umbrella is very high and huge. Various flags and flags keep flying in it. It is like a small fat city. Hundreds of men can stand in it. Big mirrors keep hanging all around. Hundreds of men keep rocking the clean white chavars. Its canopy is made of valuable silk cloth and the whole chariot is very well decorated with different types of paintings. Very long and strong ropes are tied in front of it, which are pulled by humans. Humans only pull the chariot of God to Gunticha Bhawan. The scene at that time is very unique.

Early in the morning, the chariot stands at the lion’s gate, ‘Dayitagan’ brings God in it, the time when God is lifted from the throne and placed in the chariot, it is called ‘Pandu Vijay’. ‘Dayita’ is the servant of Jagannath ji. Although ‘Dayita’ is a low class caste, but because of being eligible for the service of God, everyone gives them special respect. There are two categories among them, ordinary Dayitas are Shudratulya, but the Brahmins among them are called ‘Dayitapati’. In the days of Anvasar, they only offer sweets to the Lord as a child’s food and also offer medicines by saying that the Lord is ill. From the time of bath etc. till the day of the return of the chariot, they have a special right in the service of Shri Jagannath ji. They somehow make the Lord come on the chariot on the throne by ropes. At that time the Maharaja of Cuttack is personally present there.

Mahaprabhu reached for the darshan of ‘Panduvijaya’ along with his devotees. Maharaj had made good arrangements for the darshan of the Lord, that is why the Lord had a very convenient darshan of the Lord. After the darshan, the chariot is now ready to move. Lakhs of men and women from different states of India were present to watch the Rath Yatra. A deafening Jai sound was heard all around.

After sitting on the chariot of the Lord, Maharaj Prataparudra ji refined the path with gold dust and sprinkled water mixed with sandalwood from his hand. What is the wonder if Maharaj enhances his fame and glory by serving the innumerable Indras, Manus, Prajapatis and Brahmas who are always present in their service? In front of him what is the matter of kings and emperors, Brahma ji is also an ordinary creature. How can anyone serve him with respect, because all the prestige of the whole world is more insignificant in front of him. They are the source of honour, prestige, fame and fame. How can one worship Him with wealth, material things and other types of things? They are only hungry for emotion.

After Maharaj’s worship and purification of the path, the devotees of Gaudesh and men and women who came from different provinces of India caught the rope of God’s chariot. Everyone together loudly said ‘Jagannath ji ki Jai’. Along with the chanting, the Lord’s chariot moved for countless hours playing the kinkinis and talas together and shouting the word from house to house. The chariots of Balbhadra ji and Subhadra ji followed them. There was chanting all around. The entire path was made of beautiful sand. The beautiful coconut trees on both the sides of the Rajpath looked very beautiful. The sound of the Lord’s chariot going to Sundarachal was unique at that time. Sometimes the chariot moves fast, sometimes it moves slowly, sometimes it stops completely and does not move forward even after making a million efforts. Well, those whose stomachs are not filled with crores or two crores, but innumerable universes, how can these men who have strength like kites pull them? God himself is self-willed, when he is happy, he walks, otherwise he just stands here and there. No matter how hard people try, the chariot does not move forward, then Oriya devotees abuse God in lakhs. Don’t know why God gets pleased with abuses, the chariot starts moving as soon as he hears abuses.

Mahaprabhu was dancing in front of the chariot. Before starting the chariot, he garlanded all the devotees with his own hands and applied sandalwood paste on their heads. Thereafter, the Lord divided the Sankirtan congregations into seven parts.

The chief singer of the first troupe was Mahaprabhu’s second form Svanamadhya Sriswarupadamodar ji, his five assistants were made by Damodar (second), Narayan, Govindadatta, Raghav Pandit and Govindananda. The chief dancer of that troupe was His Excellency Shri Advaitacharya. In the dance of sankirtana when they grow old, they far exceed good devotees. His dance was very melodious and while shaking his white hair, he used to dance in front of the group like Sri Shankar ji’s Tandava dance. Shrivas Pandit was the chief singer of the second troupe. His body was stout, his face dripped with pride and his speech was serious and coarse. He stood like a lion with a manjira in his hand. Mahaprabhu made his five assistants Gangadas, Haridas (second), Shriman Pandit Shubhanand and Shriram Pandit. Shripad Nityanand ji was the chief dancer of that troupe. Avdhoot Nityanand ji looked very good while dancing with his long single body.

Gandharvavatar Srimukundadatta Pandit was the chief singer of the third troupe. His assistants were Vasudev, Gopinath, Murari, Gupta, Srikanta and Ballabhsen. His Excellency Mahatma Haridas ji was the chief dancer in this troupe. He was doing a graceful dance by jumping and moving his little beard. His round fat body was bouncing like a ball in dance. He used to say ‘Hari Hari’ nodding his head. Shri Govind Ghosh Haridas, Vishnudas, Daghav, Madhav and Vasudev were their assistants. Shrivakreshwar Pandit was the one who made this troupe crooked with dance. His dance was unique. While dancing, they used to roll on the ground. In this way, Mahaprabhu organized the four congregations from that time itself. Three circles were already formed. One was the elite village troupe, whose chief singer was Ramanand ji and used to dance along with Satyarao ji. His assistants, the elite villagers, were all devotees. The second was a congregation in Shantipur, whose head was Shri Achyutanand, the illustrious son of Shri Advaitacharya. He was also the dancer in it and all the devotees of Shantipur were his helpers.

The main singers and dancers of the third sect were Srinarahari and Raghunandan. All the residents of the block were in his favor. In this way, the combined Sankirtan of the seven sects was taking place. Four congregations were performing sankirtan in front of the Lord’s chariot. One on the right, one on the left and one behind the chariot was helping to propel the chariot with its tumult sound.

Simultaneously, fourteen drums or madals started playing in all the seven sects. The sweet sweet sound of innumerable manjirs mixed with the sound of those drums and instruments started creating a kind of strange juice. The devotees playing the drums used to repeat while playing the drums. His feet would rest on the earth and he would bend backwards while playing the drums. The dancing devotees started dancing in different ways by jumping, jumping and showing their emotions.

Mahaprabhu used to dance in all the circles. They used to come from one troupe to another troupe and start dancing there. No one knows at what time he went to another troupe and started dancing. Everyone thinks that Mahaprabhu is dancing in our circle. The travelers used to watch the dance of the Lord with wonder. Whatever he used to see, he used to keep seeing. No one wants to take his eyes off Mahaprabhu. What to talk about human beings, even Jagannath ji was amazed to see the dance of the Lord and he stood the chariot and started looking at the dancing image of the Lord. As if they had forgotten to walk being amazed by the dance of the Lord.

Maharaj Prataparudra along with his retinue was also happy to see this wonderful dance of Mahaprabhu. No one had ever seen such a dance of Mahaprabhu till date. The people, who till now used to listen only to the praises of Mahaprabhu, were mesmerized by seeing the dancing Gauranga and started shouting ‘Hari Bol, Hari Bol’. In this way, the chariot of Jagannath ji started moving forward slowly and the devotee of Gaur, madly in love, followed him, chanting kirtan.

Then Mahaprabhu made an independent sect of his own. Collected those seven sects.

Shrivas Pandit, Ramai Pandit, Raghunath, Mukunda, Haridas, Govindanand Madhav and Govind were the chief singers and Mahaprabhu himself was the dancer. The deafening sound of fourteen drums simultaneously stirred the hearts and oceans of the devotees. All the spectators were amazed by the frenzied dance of Mahaprabhu. He was looking at the divine dance of the Lord silently gazing at the writing of the picture. A commotion was heard in the sky. It is as if the deities are also standing in the sky to watch the dance of the Lord by climbing on their planes. All the devotees surrounded Mahaprabhu and started dancing. Mahaprabhu stopped the dance in a while. All the instruments stopped. There was complete silence all around. Then Mahaprabhu started praising Jagannath ji with great compassion from his cuckoo’s voice. The devotees also added their voice to the voice of the Lord.

Victory, victory to the god Devakinanda. Victory, victory, Krishna, the lamp of the Vrishni dynasty. Jayati Jayati Meghashyamala: Komalango Victory, victory, destroyer of the burden of the earth, O Mukunda.

Not a Brahmin, nor a king, nor a Vaishya, nor a Sudra I am neither a merchant nor a householder nor a forest dweller nor a saint But in the ocean of nectar full of all bliss- He is the servant of the lotus feet of the husband of the gopis.

The verse ‘Dasanudas’ ended and then cymbals, mridang and shells started playing automatically. The chariot started moving again after saying the word door to door. Mahaprabhu again started dancing in the same way. Stambh, Sweda, Pulak, Ashra, tremor, Vaivarna, vocal disorders etc. all sattvik disorders started rising in his whole body. All the hairs on his body stood erect, his teeth started chattering. The hoarseness happened completely, on trying, the right words could not come out of the mouth. Tears started flowing from the eyes. There is no question of sweating. It was as if innumerable rivers were coming out of the golden Sumeru mountain, foaming at the mouth. Sometimes he would lie down, then get up and start moving around like a spinning wheel.

The chariot stopped moving due to the fierce dance of the Lord. The devotees started trembling due to fear seeing such a strange condition of Mahaprabhu. Visitors used to break down to see Mahaprabhu’s dance. Nityanand ji started getting very nervous. The crowd of people was moving towards the Lord. Then Nityanand ji made a circle of his devotees and took the Lord in it. At the same time Maharaj also immediately ordered his servants to surround the circle of this group of devotees from all sides, so that other people could not push this group! The Maharaj’s orders were obeyed at the same time and the royal officials made arrangements for the protection of the devotees at the same time.

Maharaj Prataparudra was also watching the boisterous dance of Mahaprabhu with his hand on the shoulder of his minister Sri Harichandaneswar. In front of Maharaj, the tall Srivas Pandit stood engrossed in emotion. Maharaj was watching the dance of the Lord with a fixed gaze; But Shreevas Pandit, who was standing in front of him, used to dance repeatedly and obstruct Maharaj’s vision. Rajmantri Harichandaneswar repeatedly taunted him and signaled him to move away from there, but to whom the devotee Srivas, who was intoxicated in Harisamdira, was going to listen. If the minister was a big man then he would belong to the state, for the devotees everyone was equal here. Shrivas Pandit, who was full of emotion, got very angry after being pricked again and again. He didn’t even count, he slapped Rajmantri Chandneshwar’s beautiful red cheek tightly. As soon as he was hit by that force, the minister forgot all his ministerial duties, his cheeks became even more red. Tingling spread in the whole body. The Rajmantri started looking around in shock. At that time, in unconsciousness, he did not remember anything about honor and insult. When the king looked around him after being slapped, he realized his humiliation just as one feels pain from behind when he gets a deep injury. At the same time, he showed the brightness of his ministry! They started giving strict orders to the employees so that Shrivas Pandit could taste it at the same time. But the intelligent Maharaj pacified him and said – what are you talking about? Don’t see, they are engrossed in emotion. You are extremely fortunate that such a devotee of Bhagavad touched your forehead in the spirit of God. This is His infinite grace on you. If we had got the fortune of his slap, we would have considered ourselves the luckiest today. You pacify your anger and taste the kirtan juice of Mahaprabhu.

In this way, on the persuasion of Maharaj, Harichandneshwar the Rajmantri calmed down, otherwise he would have dissolved in color at the same time. On knowing this, Shrivas Pandit was very much ashamed. Mahaprabhu did not know anything about these things, he was dancing in the same spirit. Neither did he know about the people, nor about the king and the minister. They used to dance loudly, sometimes hugging someone, sometimes kissing someone, sometimes holding someone’s hand and started dancing. Visitors used to pick up the dust from under the feet of the Lord and offer it on their heads. Devotees used to rub that Charanrenu on their own body. Thus Mahaprabhu kept dancing for a long time. Prabhu sat down tired while dancing and ordered Swarup to sing a verse. Gayanacharya second Gourchandra Sriswaroopadamodar Goswami started singing-

Seit Paran Nath Painu. Madan Dahan Jhuri Ginu for here.

Along with the post, the instruments started playing. Chanting Hari, Hari, the devotees started dancing. Jagannath ji’s chariot moved forward and Mahaprabhu also walked in front of him while dancing. Now the Lord became emotional with Radha. He began to feel as if Shri Shyamsundar had come to meet him after a long separation. With this feeling, they started dancing towards Jagannath ji, showing different feelings of love with their hands. Now it seems to them as if Shri Krishna has come and met them, but there is no happiness in this meeting, which used to come in the Pulin Kunjs of Vrindavan. Being engrossed in this feeling, he started reciting this verse-

The one who destroys youth is the best of the nights of Chaitra Ste chonmilitamalatisurabhaya: praudha: kadambanila: And yet I am there in the manner of pleasure, trade and pastime. The mind is anxious on the banks of the river on the banks of the Vetasita tree

The heroine is saying at the time of reunion, ‘ The one who abducted our heart on the banks of Revandi in the time of her youth, he is our husband at this time. She is the charming Rajni of Madhumas, the same soft-scented air is blowing, the same soft-scented wind touched by Kadamba-Kanan, Surat-Vyapar Leela with husband. I am the heroine who does this and he is the hero who snatches my mind, yet my fickle mind like Chancharik is not satisfied, it is yearning for the delightful banks of the same Reva.’ Ray ! absence! You are the sacrifice of reunion.

In what sense Mahaprabhu is saying this verse, no one except Swarupadamodar could understand it. It was not even a matter of being understood by everyone, only Sri Swaroop Damodar, who was walking outside them, could understand. One day this sentiment was presented in front of Mahaprabhu after making a verse. Mahaprabhu was very surprised to hear that verse and with great affection, turning his hand on the back of Swaroopadamodar, said – ‘Swaroop! How did you know our mood while dancing in front of Lord Jagannath’s chariot? You have made this verse a perfect reflection of my feelings.’ Swaroop Damodar said softly in a shy voice – ‘Lord! How can anyone understand your occult feelings without your grace?’ Mahaprabhu praised that verse again and again and said – ‘Oh! What a beautiful gesture, really you have done the culmination of creativity and expression.’ Wow-

That dear Krishna is my companion who has met Kurukshetra I am that Radha and this is the happiness of the union of the two. Yet they played the sweet murali in the fifth jug My mind longs for the forest of Kalindipulina

On meeting again in Kurukshetra, Radhika ji is saying- ‘O friend! I have found the same Prannath Hridayaman Shri Krishna of mine in Kurukshetra, I am also the same Vrishbhanunandini Kirtisuta Radha and the confluence of the two is also attained. But dear friend! I am telling the truth of my heart, I am very longing for the Kalindi Koolwale forest in which I had heard the mesmerizing melody of Murli Manohar’s fifth note.’ It was In this way, showing many feelings of Shriradhika ji, the Lord started dancing in front of the chariot. His dance today had the power to fascinate the world. Once while dancing, Mahaprabhu Maharaj reached very close to Prataparudra. Taking this opportunity, Maharaj took the feet of the Lord. At the same time, the Lord had a vision and saying, ‘The king has touched me, my life is cursed.’ He went ahead from there. This angered the king a lot. Sarvabhaum Bhattacharya said- ‘Don’t get upset. This is God’s infinite grace on you, God had come here to do you a favor.’ Maharaj was satisfied with this.

Mahaprabhu now started circumambulating around the chariot. He himself started pushing the chariot with his hands. The chariot started moving forward loudly, rustling from house to house. Mahaprabhu would sometimes dance in front of Balabhadra’s chariot, sometimes in front of Subhadra’s chariot and sometimes in front of Jagannath’s chariot. In this way, dancing with the chariot reached Balagandi. The chariot stopped after going to Balgandi. Now preparations have started for the enjoyment of God.

There is a place called Balagandi between Shraddhavalu and Ardhasani Devi. There is a rule of enjoyment there. At that place, Jagannath ji relishes millions of types of things. The king, the subjects, the rich and the poor, the men and women who are there, all offer food to the Lord according to their respective beliefs. As per one’s wish, whatever he can apply for, he applies for the same thing. Siddha does not offer food like a temple. To the right, to the left, to the front, to the back of the path, wherever he gets a place in the garden, he keeps the bhog there. At that time there is a huge crowd of people. It becomes very difficult to keep it under control. Seeing the crowd, Mahaprabhu went to rest in the nearby garden. The devotees also followed the Lord. The Lord went to the garden and lay down on the ground under the cool shade of a beautiful tree. The Lord was greatly pleased by the touch of the soft-scented-cool wind. He was lying comfortably on one leg with the other leg crossed. At that time, due to fatigue, Mahaprabhu, lying with his head on his soft arm, looked very good. One or two devotees were lying under each tree of the garden, eradicating the fatigue of sankirtan.

respectively next post [119] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]

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