[133]”श्रीचैतन्य–चरितावली”

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।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
पुरी में प्रत्यागमन और वृन्दावन की पुनः यात्रा

गच्छन वृन्दावनं गौरो व्याघ्रेभैणखगान् वने।
प्रेमोन्मत्तान् सहोन्नृत्यान् विदधे कृष्णजल्पिनः।।

शान्तिपुर से विदा होकर महाप्रभु श्रीहट्ट, पानीहाटी आदि स्थानों में होते हए फिर लौटकर पुरी में आ गये। सब से पहले वे श्रीजगन्नाथ जी के दर्शनों को गये। भगवान को साष्टांग प्रणाम कर के वे गद्गद कण्ठ से उन की स्तुति करने लगे। पुजारी ने प्रभु को माला-प्रसाद लाकर दिया। भगवान का प्रसाद पाकर मन्दिर की प्रदक्षिणा करते हुए प्रभु अपने वासस्थान पर पहुँच गये। प्रभु के पुनः पुरी में पधारने का समाचार बात- की-बात में सम्पूर्ण नगर में फैल गया। जो भी सुनता वहीं प्रभु के दर्शनों को दौड़ा आता। सार्वभौम भट्टाचार्य, रामानन्दराय, काशी मिश्र, माइती, गदाधर आदि सभी भक्त प्रभु के स्थान पर आ गये। सभी ने प्रसन्नता प्रकट करते हुए कहा- ‘प्रभो! हमारा सौभाग्य, जो इतनी जल्दी आप के दर्शन हो गये, यह समय तीर्थयात्रा का नहीं है।’

प्रभु ने कहा- ‘और कुछ नहीं है, मुझे गदाधर जी का शाप लग गया। इन्हें साथ नहीं ले गया और जबरदस्ती यहाँ छोड़ गया, इसीलिये मैं वृन्दावन नहीं जा सका।’ हाथ जोड़े हुए दीनभाव से गदाधर गोस्वामी ने कहा- ‘प्रभो! आप के लिये वृन्दावन क्या, आप जहाँ भी बैठें वहीं वृन्दावन है, किन्तु लोक-शिक्षण के लिये आप तीर्थ यात्रा आदि करते हैं, यह आप की लीला-मात्र है!’ प्रभु ने कहा- ‘सनातन ने मुझे सर्वोत्तम सम्मति दी है, वे दोनों भाई बड़े ही भागवत वैष्णव हैं, उन के हृदय में प्रभु-प्रेम कूट-कूटकर भरा हुआ है। इतना भारी राज- काज करते हुए भी वे सदा उस से उदासीन ही बने रहते हैं और भगवान का सदा चिन्तन करते रहते हैं। उन्होंने ही मुझे सम्मति दी है कि वृन्दावन अकेले ही जाना चाहिये। इसलिये अब के मैं अकेला ही वृन्दावन जाऊंगा।’

राय रामानन्दजी ने निवेदन किया- ‘प्रभो! वर्षा काल सन्निकट है, रथ-यात्रा का उत्सव भी आ रहा है, अतः रथ-यात्रा कर के और चातुर्मास बिताकर फिर जैसा भी विचार हो कीजियेगा।’ राय महाशय की इस बात का सार्वभौम भट्टाचार्य, स्वरूप गोस्वामी, गदाधर आदि सभी भक्तों ने अनुमोदन किया। प्रभुने सब की सम्मति के सम्मुख सिर झुका दिया और वे वर्षा काल बिताकर ही वृन्दावन जाने के लिये राजी हो गये। शान्तिपुर से चलते समय प्रभु भक्तों से कह आये थे कि ‘अब के हम वृन्दावन चले जायंगे अतः रथ-यात्रा में अब पुरी आने की आवश्यकता नहीं है।’ प्रभु की आज्ञा मानकर इस साल गौड़ीय भक्त दल बनाकर पहले की भाँति रथ-यात्रा के लिये नहीं आये थे। महाप्रभु ने सदा की भाँति रथ-यात्रा का उत्सव मनाया और पुरी में ही वर्षा के चार मास व्यतीत किये।

वर्षा बीत जाने पर शरद के प्रारम्भ में प्रभु भक्तों से अनुमति लेकर वृन्दावन जाने के लिये उद्यत हुए। प्रभु एकाकी जा रहे हैं और साथ में किसी दूसरे को ले ही नहीं जाना चाहते तब गद्गद कण्ठ से स्वरूप गोस्वामी ने कहा- ‘प्रभो! मेरी एक प्रार्थना है। उसे आप अवश्य ही स्वीकार कर लीजिये। आप एकाकी ही वृन्दावन जा रहे हैं, यह हमारे लिये असह्य है, अतः किसी और को साथ ले जाना नहीं चाहते तो इस बलभद्र भट्टाचार्यको तो आप अवश्य ही साथ ले जायँ। यह कुलीन ब्राह्मण है, सेवा करना भलीभाँति जानता है, प्रभु के पादपद्मों में इसका दृढ़ अनुराग है, इसकी स्वयं भी व्रजमण्डल के सभी तीर्थों की यात्रा करने की इच्छा है, यह आपकी भिक्षा आदि बना दिया करेगा, इससे आपको भी असुविधा न रहेगी और हम लोगों को भी संतोष रहा करेगा।’ स्वरूप की बात सुनकर और सभी भक्तों की ऐसी ही इच्छा समझकर भक्तवत्सल प्रभु बोले- ‘आप लोगों की इच्छा के विरुद्ध कोई काम करने की मेरी शक्ति नहीं है, आप लोगों की जिसमें प्रसन्नता होगी और आप लोग जैसा कहेंगे वैसा ही मुझे करना पड़ेगा। अच्छा, आप लोगों के अनुरोध से मैं बलभद्र को साथ ले जाऊँगा।’ प्रभु के इस निश्चय से सभी को प्रसन्नता हुई और सभी प्रभु के शरीर की ओर से कुछ-कुछ निश्चिन्त-से हो गये। किन्तु किसी को इस बात का पता नहीं था कि प्रभु कब वृन्दावन जायेंगे।

शाम के समय प्रभु एकाकी भगवान के दर्शन करने गये और उनसे रात्रि में ही आज्ञा लेकर दूसरे दिन अँधेरे में ही बलभद्र भटटाचार्य को साथ लेकर वृन्दावन की ओर चल दिये। प्रातःकाल जब भक्तों ने देखा कि प्रभु नहीं हैं, तब सभी समझ गये कि प्रभु वृन्दावन को चले गये।

इधर महाप्रभु राजपथ को छोड़कर और कटक से बचकर झाड़ीखण्ड में होकर सीधे उपपथ के द्वारा वृन्दावन की ओर चले। रास्ते में बहुत दूर तक गाँव नहीं पड़ते थे, उन दिनों बलभद्र वन्य शाक-मूल-फलों को ही बनाकर प्रभु को भिक्षा करा देते। कभी-कभी बलभद्र गाँवों में से तीन-तीन, चार-चार दिन के लिए इकठ्ठा सामान माँग लाते और जहाँ सामान न मिलता, वहाँ उसी में से प्रभु को बनाकर भिक्षा करा देते थे। वे बड़ी सावधानी से प्रभु की सेवा करते थे। महाप्रभु इनकी सेवा से सदा सन्तुष्ट रहते और बार-बार इनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करते। प्रभु की माया कौन जाने, कहाँ तो एक हरीत की के टुकड़े को दूसरे दिन के लिये रखने से असन्तुष्ट हो गये। और यहाँ बलभद्र के अन्न- संग्रह करने पर भी उससे उल्टे प्रसन्न ही हुए। तभी तो कहा है-

लोकोत्तराणां चेतांसि को हि विज्ञातुमीश्वरः।

इन महापुरुषों के चित्त कुछ संसारी लोगों से विलक्षण ही होते हैं, उनके मनोगत भावों को जानने में कौन समर्थ हो सकता है?

महाप्रभु अपने अनुपम प्रभाव से पथ के पशु-पक्षी और हिंसक जीव-जन्तुओं को भी प्रेम-प्रदान करते हुए आगे बढ़ रहे थे। हिंसक जन्तु अपने क्रूर स्वभाव को छोड़कर प्रभु के पादपद्मों में लोटने लगते थे। प्रभु जिस ग्राम से होकर निकलते, उसी ग्राम के सभी पुरुष हरि-हरि कहते हुए प्रभु को चारों ओर से घेर लेते थे। इस प्रकार पथ के जीव-जन्तुओं को कृतार्थ करते हुए कुछ दिनों में प्रभु अविमुक्त क्षेत्र श्री वाराणसीपुरी में पहुँचे। विश्वनाथ जी की काशीपुरी में पहुँचकर सर्वप्रथम महाप्रभु स्नानार्थ काशी के प्रसिद्ध मणिकर्णिका घाट पर गये। स्नान करके प्रभु बैठे ही थे कि इतने में ही तपन मिश्र नामक एक बंगाली ब्राह्मण वहाँ आ पहुँचे। पाठकों को स्मरण होगा कि महाप्रभु जब पूर्ण बंगाल की यात्रा करने अपनी शिष्यमण्डली के साथ गये थे, तब उन्हें ये ही तपन मिश्र मिले थे और प्रभु ने इन्हें भगवन्नाम का उपदेश करके काशी जी भेजा था। आज सहसा प्रभु को संन्यासी के वेश में देखकर तपन मिश्र प्रभु के पैरों में पड़कर जोरों से रुदन करने लगे। प्रभु ने मिश्र जी को उठाकर गले लगाया और उनकी कुशल पूछते हुए उनके सिर पर हाथ फेरने लगे।

मिश्र जी ने गदगद कण्ठ से कहा- ‘प्रभो! आपने अपना भक्तवत्सल नाम आज सार्थक कर दिया। मुझ अधम को यहाँ आकर अपने देव-दुर्लभ दर्शनों से कृतार्थ कर दिया। अब कृपा करके कुछ काल इस कंगाल की कुटिया पर निवास करके इस दीन-हीन को कृतार्थ कीजिये।’ महाप्रभु ने मिश्र जी की प्रार्थना स्वीकार की और वे उन्हें साथ लेकर सबसे पहले तो भगवान विश्वनाथ जी के दर्शनों के लिये गये, फिर विन्दुमाध्यव के दर्शन करते हुए तपन मिश्र के घर पधारे। मिश्र जी ने पाद्य, अध्र्य, आचमन, धूप, दीप, नैवेद्य और फल-फूल आदि से प्रभु की यथोचित पूजा की। उनके चरणों को धोकर चरणामृत लिया और उसे अपने सम्पूर्ण धर में छिड़का। महाप्रभु उनके घर पर सुखपूर्वक रहने लगे, उनके पुत्र रघुनाथ जी प्रभु की खूब ही मनोयोग के साथ सेवा करने लगे। वे सदा प्रभु के समीप ही रहते थे, प्रभु को छोड़कर वे कहीं भी नहीं जाते थे।

वहीं पर चन्द्रशेखर नाम के एक बंगाली वैद्य मिल गये, वे यहाँ पुस्तकें लिखकर अपना जीवन-निर्वाह करते थे। नवद्वीप में एक बार इन्होंने प्रभु के दर्शन भी किये थे और मिश्र जी से सदा प्रभु की प्रशंसा सुनते रहते थे। प्रभु के दर्शनों से उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई और वे प्रभु को अपने घर भिक्षा कराने लगे। इस प्रकार इन दोनों बंगाली भक्तों के आग्रह से प्रभु दस-बारह दिन काशी में ठहर गये। उसी बीच एक मराठा ब्राह्मण प्रभु के दर्शनों के लिये आने लगा। उसका सम्बन्ध श्री स्वामी प्रबोधानन्द जी महाराज से भी था। उसने जाकर महाप्रभु के प्रेम की, उनके संकीर्तन और अद्भुत नृत्य की स्वामी जी से प्रशंसा की।

जिस प्रकार प्रायः अद्वैतवादी सभी बातों को माया और लीला बताकर उपेक्षा कर देते हैं, उसी प्रकार उन्होंने प्रभु के भक्तिभाव की उपेक्षा-सी कर दी और प्रभु के सम्बन्ध में भी उन्होंने उदासीनता के भाव प्रकट किये। उस मराठा भक्त को यह बात अच्छी नहीं लगी, उसने आकर प्रभु से कहा। प्रभु ने उसे समझाते हुए कहा-‘संसार में भिन्न-भिन्न प्रकृति के पुरुष होते हैं, जिनके ऊपर भगवान की पूर्ण कृपा होती है उन्हें ही प्रभु-प्रेम प्राप्त हो सकता है। आपको दूसरों से क्या, लोग जो चाहें सो कहते रहें, आपको प्रभु-प्रसाद प्राप्त करने का सतत प्रयत्न करना चाहिये-यही परम श्रेयस्कर मार्ग है। इस प्रकार अपने इन भक्तों को सन्तुष्ट करके प्रभु काशी जी से चलकर तीर्थराज प्रयाग पहुँचे। वहाँ भगवती भागीरथी अपनी बहिन सूर्यनन्दिनी कालिन्दी से आकर मिलती हैं, उस सितासित के संगम और सम्मिलन दर्शन से सभी पुरुषों को परमानन्द प्राप्त होता है। महाप्रभु अपने कृष्ण की प्यारी कालिन्दी के दर्शनों से एकदम व्याकुल हो गये और जल्दी से भावावेश में आकर यमुना जी में कूद पड़े। बलभद्र ने उन्हें पकड़कर बाहर निकाला। तीर्थराज की अन्भुत, अपूर्व शोभा को देखकर प्रभु गदगद कण्ठ से स्तोत्र पाठ करने लगे।

तीन दिन प्रयाग राज में ठहरकर प्रभु वृन्दावन की ओर चले। चलते-चलते वे मथुरा जी में पहुँच गये। सबसे पहले उन्होंने विश्राम घाट पर पहुँचकर यमुना जी में स्नान किया। ब्रह्मभूमि की पवित्र रज को पाकर प्रभु फूले नहीं समाते थे। वे रज में लोट-पोट होकर अपने आनन्द को प्रदर्शित कर रहे थे। बड़ी देर तक कालिन्दी के कमनीय श्याम कमल के समान नील जल में क्रीड़ा करते रहे। फिर हुंकार देकर बाहर निकले और गीले ही वस्त्रों से कीर्तन करते हुए नृत्य करने लगे। प्रभु के अदभुत नृत्य को देखकर सभी दर्शनार्थी तथा मथुरावासी मन्त्रमुग्ध की भाँति एकटक-भाव से प्रभु की ओर देखने लगे। जो भी आता वही प्रभु को देखते ही ‘कृष्ण-कृष्ण’ कहकर कीर्तन करने लगता। हजारों आदमियों की भीड़ एकत्रित हो गयी। महाप्रभु शरीर की सुध भुलाकर प्रेम में उन्मत्त हुए नृत्य कर रहे थे। उसी समय उन्होंने देखा कि भीड़ में एक वैष्णव ब्राह्मण बड़े ही प्रेम के साथ संकीर्तन देखकर बड़े प्रसन्न हुए और उसका हाथ पकड़कर नृत्य करने लगे।

संकीर्तन समाप्त होने पर प्रभु ने उस ब्राह्मण से पूछा- ‘महाभाग! आपको इस अदभुत प्रेमनिधि की प्राप्ति कहाँ से हुई है?’ ब्राह्मण ने अत्यन्त ही दीनता के साथ कहा- ‘प्रभो! प्रेमावतार जगन्मान्य श्री माधवेन्द्रपुरी महाराज ने मेरे ऊपर कृपा करके मुझे मन्त्र-दीक्षा दी है। वे ही मेरे दीक्षागुरु हैं, मुझमें जो भी कुछ यत्किंचित प्रेम आपको दीखता है वह उन्हीं महापुरुष की कृपा का फल है।’

श्री मन्माधवेन्द्रपुरी का नाम सुनते ही प्रभु उस ब्राह्मण के पैरों में गिर पडे और उसे बार-बार प्रणाम करने लगे। उसने भय से काँपते हुए कहा- ‘स्वामिन! यह आप कैसा अनर्थ कर रहे हैं, संन्यासी होकर हमारे ऊपर पाप चढ़ा रहे हैं। आप तो हमारे पूजनीय, वन्दनीय और माननीय हैं। संन्यासी होने के कारण आप आश्रम गुरु हैं, इसलिये मेरे पैरों को छूकर मुझे पाप का भागी न बनाइये।’

प्रभु ने गदगद कण्ठ से कहा- ‘विप्रवर! मैं समझ रहा था कि ऐसा प्रेम मेरे परमगुरु श्री माधवेन्द्रपुरी के जनों में ही सम्भव हो सकता है। भक्ति के उदगमस्थान वे ही भगवान माधवेन्द्रपुरी हैं, मैं उनके शिष्य का शिष्य हूँ, इसलिये आप मेरे गुरु के समान हैं।’ प्रभु का परिचय उस ब्राह्मण को बड़ा सन्तोष हुआ, वह प्रभु को अपने घर ले गया और वहाँ जाकर प्रभु को भिक्षा करायी। ब्राह्मण ने प्रभु का बहुत अधिक सत्कार किया। वह प्रभु की तन, मन, धन से यथाशक्ति सेवा करने लगा। प्रभु ने ब्राह्मण को साथ लेकर (1) अविमुक्तघाट, (2) अधिरूढ़घाट, (3) गुह्यतीर्थ, (4) प्रयागतीर्थ, (5) कनखलतीर्थ, (6) तिन्दुक, (7) सूर्यतीर्थ, (8) बटस्वामी, (9) ध्रुवघाट, (10) ऋषितीर्थ, (11) मोक्षतीर्थ, (12) बोधतीर्थ, (13) गोकर्णघाट, (14) कृष्णगंगा, (15) वैकुण्ठघाट, (16) असिकुण्ड, (17) चतुःसामुद्रिक कूप, (18) अकूटतीर्थ, (19) याज्ञिक विप्रस्थान, (20) कुब्जाकूप, (21) रंगस्थल, (22) मंचस्थल, (23) मल्लयुद्धस्थान, (24) दशाश्वमेध आदि यमुना जी के चौबीसों घाटों पर स्नान किया और स्वयम्भु, विश्रामघाट, दीर्घविष्णु, भूतेश्वर, महाविद्या, गोकर्णादि तीर्थों के दर्शन किये। अब प्रभु ने व्रज-मण्डल के बारहों वनों के दर्शनों की इच्छा की इसलिये उस ब्राह्मण को साथ लेकर आप वनों की यात्रा के लिये चल पड़े।

क्रमशः अगला पोस्ट [134]
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]



।। Srihari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Jap] Hare Krishna Hare Ram Return to Puri and revisit Vrindavan

Going to Vrindavan, Gaura will meet tigers, elephants and birds in the forest. He made them dance together in love and talk about Krishna.

After leaving Shantipur, Mahaprabhu visited Srihatt, Panihati etc. places and then returned to Puri. First of all he went to see Shri Jagannath ji. After prostrating to God, he started praising him with gadgad voice. The priest brought garland-prasad to the Lord. After getting the prasad of the Lord, the Lord reached his abode while circumambulating the temple. The news of the return of the Lord to Puri was spread by word of mouth in the whole city. Whoever listens, there he used to run to have the darshan of the Lord. Sarvabhaum Bhattacharya, Ramanandarai, Kashi Mishra, Maiti, Gadadhar etc. all the devotees came to the place of the Lord. Expressing happiness, everyone said – ‘Lord! It is our good fortune that we got to see you so soon, this is not the time for pilgrimage.’

The Lord said- ‘There is nothing else, I have been cursed by Gadadhar ji. Didn’t take them along and left them here forcefully, that’s why I could not go to Vrindavan.’ Gadadhar Goswami said with folded hands – ‘Lord! What is Vrindavan for you, Vrindavan is there wherever you sit, but you go on pilgrimage etc. for public education, this is just your leela!’ The Lord said- ‘Sanatan has given me the best advice, both those brothers are very Bhagwat Vaishnavs, their hearts are full of God-love. Despite doing such a heavy duty, he always remains indifferent to it and always thinks of God. He has advised me that I should go to Vrindavan alone. That’s why from now on I will go to Vrindavan alone.’

Rai Ramanandji requested – ‘ Lord! The rainy season is near, the festival of Rath-Yatra is also coming, so after doing Rath-Yatra and spending Chaturmas, then do whatever you think.’ All the devotees like Sarvabhaum Bhattacharya, Swaroop Goswami, Gadadhar etc. approved this thing of Rai Mahasaya. The Lord bowed his head in front of everyone’s consent and agreed to go to Vrindavan only after spending the rainy season. While walking from Shantipur, the Lord had told the devotees that ‘from now on we will go to Vrindavan, so there is no need to come to Puri in the Rath Yatra’. Obeying the Lord’s order, this year Gaudiya did not come for the Rath Yatra as before by forming a group of devotees. Mahaprabhu celebrated the Rath Yatra as usual and spent four months of rain in Puri itself.

After the rains were over, in the beginning of autumn, the Lord got ready to go to Vrindavan after taking permission from the devotees. Prabhu is going alone and does not want to take anyone else with him, then Swaroop Goswami said in a gleeful voice – ‘ Prabho! I have a prayer. You must accept it. You are going to Vrindavan alone, it is unbearable for us, so if you do not want to take anyone else with you, then you must take this Balabhadra Bhattacharya with you. He is a noble Brahmin, he knows very well how to serve, he has strong attachment to the lotus feet of the Lord, he himself has the desire to visit all the pilgrimages of Vrajmandal, he will make you alms etc., this will not inconvenience you and we People will also be satisfied.’ After listening to Swaroop and understanding the desire of all the devotees to be like this, Bhaktavatsal Prabhu said – ‘I have no power to do any work against your wishes, which will make you happy and like you. I have to do as I am told. Well, on your request, I will take Balabhadra along.’ Everyone was happy with this determination of the Lord and everyone became somewhat relaxed from the side of the Lord’s body. But no one knew when the Lord would go to Vrindavan.

In the evening, the Lord went alone to have darshan of God and after taking orders from him in the night itself, the next day in the dark, he took Balabhadra Bhattacharya along with him and went towards Vrindavan. In the morning, when the devotees saw that the Lord was not there, then everyone understood that the Lord had gone to Vrindavan.

Here Mahaprabhu bypassing the Rajpath and avoiding Cuttack, passed through the bushland and went directly towards Vrindavan by a by-path. There were no villages very far on the way, in those days Balbhadra used to make only wild vegetables-roots-fruits and give alms to the Lord. Sometimes Balabhadra used to ask for goods collected for three or four days from the villages and where the goods were not available, he used to make God out of that and make him alms. They used to serve the Lord very carefully. Mahaprabhu was always satisfied with his service and repeatedly expressed his gratitude towards him. Who knows the maya of God, somewhere he got dissatisfied by keeping a piece of green key for another day. And even after Balbhadra’s food collection here, he was happy on the contrary. That’s why it is said-

Who is able to know the minds of those beyond this world

The minds of these great men are unique from some worldly people, who can be able to know their occult feelings?

With his unique influence, Mahaprabhu was moving forward giving love to the animals and birds and the violent creatures of the path. Violent animals leaving their cruel nature started rolling in the lotus feet of the Lord. The village through which the Lord passed, all the men of that village used to surround the Lord saying Hari-Hari. In this way, in a few days, the Lord reached Shri Varanasipuri, the unmukt area, by doing good to the animals and animals of the path. After reaching Vishwanath ji’s Kashipuri, Mahaprabhu first went to the famous Manikarnika Ghat of Kashi for bath. Prabhu was sitting after taking a bath when a Bengali Brahmin named Tapan Mishra came there. Readers will remember that when Mahaprabhu had gone on a tour of the whole of Bengal with his disciples, he had found this very Tapan Mishra and the Lord had sent him to Kashi after preaching the name of the Lord. Today, suddenly seeing the Lord in the form of a monk, Tapan Mishra fell at the feet of the Lord and started crying loudly. Prabhu lifted Mishra ji up and hugged him and started stroking his head asking about his well-being.

Mishra ji said in a heartbroken voice – ‘ Lord! You have made your Bhaktavatsal name meaningful today. By coming here, you have made me an adham with your god rare darshans. Now please stay in this pauper’s cottage for some time and make this poor person useful.’ Mahaprabhu accepted the prayer of Mishra ji and he took him along with him, first of all went to see Lord Vishwanath ji, then to see Vindumadhyav. While doing this, Tapan came to Mishra’s house. Mishra ji worshiped the Lord appropriately with padya, adharya, aachaman, dhoop, lamp, naivedya and fruits and flowers etc. Washed his feet, took charanamrit and sprinkled it all over his house. Mahaprabhu started living happily at his house, his son Raghunath ji started serving the Lord with great enthusiasm. He always lived near the Lord, leaving the Lord he did not go anywhere.

A Bengali doctor named Chandrashekhar was found there, he used to earn his living by writing books here. Once he had darshan of the Lord in Navadweep and always used to listen to the praise of the Lord from Mishra ji. He was very happy to see the Lord and he started giving alms to the Lord at his house. In this way, on the request of these two Bengali devotees, the Lord stayed in Kashi for ten to twelve days. Meanwhile, a Maratha Brahmin started coming to have darshan of the Lord. He was also related to Shri Swami Prabodhanand Ji Maharaj. He went and praised Mahaprabhu’s love, his sankirtan and wonderful dance to Swamiji.

Just as non-dualists often ignore everything by calling it Maya and Leela, in the same way they neglected the devotion of GOD and also expressed their feelings of indifference towards GOD. That Maratha devotee did not like this, he came and told the Lord. Prabhu explained to him and said-‘ There are men of different nature in the world, on whom God’s full grace is there, only they can get the love of God. What should you say to others, whatever people want, you should make continuous efforts to get Prabhu-Prasad – this is the best way. In this way, after satisfying these devotees, Lord Tirtharaj reached Prayag after walking from Kashi ji. There Bhagwati Bhagirathi meets her sister Suryanandini Kalindi, all men get ecstasy by seeing the confluence and meeting of that Sitasit. Mahaprabhu was completely distraught by the visions of his beloved Kalindi of Krishna and quickly jumped into Yamuna ji in a fit of emotion. Balbhadra caught him and pulled him out. Seeing the wonderful, unique beauty of Tirtharaj, Lord Gadgad started reciting hymns.

After staying in Prayag Raj for three days, the Lord went towards Vrindavan. While walking, they reached Mathura ji. First of all, he reached Vishram Ghat and took bath in Yamuna ji. Prabhu could not contain his ecstasy after receiving the holy secret of Brahmabhoomi. They were displaying their joy by wallowing in raj. For a long time Kalindi kept playing in the blue water like the dark lotus. Then came out shouting and started dancing while singing kirtan in wet clothes. Seeing the wonderful dance of the Lord, all the visitors and residents of Mathura started looking at the Lord with a ecstasy like mesmerized. Whoever came, on seeing the Lord, started chanting ‘Krishna-Krishna’. A crowd of thousands of men gathered. Mahaprabhu was dancing madly in love forgetting the care of the body. At the same time he saw that a Vaishnava Brahmin in the crowd was very pleased to see the Sankirtan with great love and started dancing holding his hand.

After the Sankirtan was over, the Lord asked that Brahmin – ‘Great part! From where did you get this wonderful love fund?’ The Brahmin said with utmost humility – ‘Lord! Premavatar Jaganmanya Shri Madhavendrapuri Maharaj has blessed me and given me Mantra-Diksha. He is my Deekshaguru, whatever little love you see in me is the result of the grace of that great man.’

On hearing the name of Shri Manmadhavendrapuri, the Lord fell at the feet of that Brahmin and started saluting him again and again. Trembling with fear, he said – ‘Swamin! What a disaster you are doing, by being a sannyasin, you are inflicting sins on us. You are our worshipable, worshipable and respectable. Being a sannyasin, you are the ashram guru, so don’t make me a partaker of sin by touching my feet.’

The Lord said in a thunderous voice – ‘ Vipravar! I was understanding that such love can be possible only in the people of my Paramguru Shri Madhavendrapuri. He is Lord Madhavendrapuri, the source of devotion, I am the disciple of his disciple, therefore you are like my Guru.’ The Brahmin was very satisfied after the introduction of the Lord, he took the Lord to his home and went there to offer alms to the Lord. The Brahmin honored the Lord a lot. He started serving the Lord with his body, mind and wealth as much as he could. The Lord took the Brahmin along with him to (1) Avimuktghat, (2) Adhirudhaghat, (3) Guhyatirtha, (4) Prayagtirtha, (5) Kankhaltirtha, (6) Tinduk, (7) Suryatirtha, (8) Bataswami, (9) Dhruvghat. , (10) Rishiteertha, (11) Mokshatheertha, (12) Bodhteertha, (13) Gokarnaghata, (14) Krishnaganga, (15) Vaikunthaghata, (16) Asikunda, (17) Chatuhsamudrik Koopa, (18) Akutatheertha, (19) Yagnik Viprasthan, (20) Kubjakoop, (21) Rangasthala, (22) Manchasthala, (23) Mallayuddhasthan, (24) Dashashwamedh etc. took bath at the twenty-four ghats of Yamuna ji and visited Swayambhu, Vishramghat, Dirghvishnu, Bhuteshwar, Mahavidya, Gokarnadi pilgrimages. Visited Now the Lord wished to have darshan of the twelve forests of Vraj-mandal, so you took that Brahmin with you and started for the forest journey.

respectively next post [134] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]

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