[140]”श्रीचैतन्य–चरितावली”

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।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
श्री सनातन की कारागृह से मुक्ति और काशी में प्रभु-दर्शन

छिद्रान्वेषणतत्परः प्रियसखि प्रायेण लोकोऽधुना
रात्रिश्चापि घनान्धकारबहुला गन्तुं न ते युज्यते।
मा मैवं सखि! वल्लभः प्रियमस्तस्योत्सु का दर्शने
युक्तायुक्तविचारणा यदि भवेत् स्नेहाय दत्तं जलम्।।

श्रीरूप तो प्रभु की आज्ञा शिरोधार्य करके प्रयाग से वृन्दावन को चले गये। अब उन के छोटे भाई श्रीसनातन का समाचार सुनिये। वास्तव में सनातनजी श्री रूप से अवस्था में बड़े थे, किन्तु उनसे पहले ही श्री रूप को प्रभु को समीप रहकर भक्तिमार्ग का उपदेश प्राप्त हुआ था। भक्ति मार्ग में अवस्था से बड़प्पन न होकर गुरु-कृपा से ही बड़ेपन का विचार किया जाता है। महाप्रभु की कृपा के पात्र प्रथम श्री रूप ही हुए थे, अतः सनातन जी इन्हें अपने से श्रेष्ठ और गुरु समझते थे। सब वैष्णवो में भी ऐसी ही मान्यता थी। इसीलिये वैष्णव समाज में श्री सनातन-रूप न कहे जाकर श्रीसनातन-रुप न कहे जाते हैं। अवस्था में छोटे होने पर भी प्रथम गुरु-कृपा होने के कारण श्री रूप का ही नाम पहले लिया जाता है।

कारावास की काली कोठरी में पड़े हुए श्री सनातनजी श्री चैतन्य की मनमोहिनी मूर्ति का ही सदा ध्यान करते रहते। उन्हें अन्न-जल कुछ भी नहीं भाता था। नेत्रों में नींद का नाम तक नहीं। दिन-रात्रि ‘गौराचाँद’ ‘गौराचाँद’ रटते-रटते ही इनके आठों प्रहर बीतते। रात्रि बीत जाती, दिन आ जाता। दिन ढलकर शाम हो जाती, फिर अन्ध कार छा जाता, किन्तु इन्हें इस का कुछ भी ध्यान नहीं। ये तो चैतन्य-चिन्तन में सभी कामों को भूले हुए थे। इन का मन मधुप सदा अरुण रंग वाले श्री चैतन्य पदारविन्दों में ही गुंजार करता रहता। शरीर कारावास की काल कोठरी में पड़ा हुआ धौंकनी की तरह साँस लेता रहता। जब इन्हें बाह्य ज्ञान होता, तभी इन का दिल धड़क ने लगता, इस बात के स्मरण से कि मेरा शरीर श्री चैतन्य-चरणों से पृथक होकर कारावास में पड़ा हुआ है, ये इन विचारों के आते ही मूर्च्छित हो जाते और लम्बी-लम्बी सांसें छोड़ने लगते। इसी बीच गुप्त रीति से इन्हें अपने बड़े भाई का पत्र मिला। पत्र को पढ़कर इनकी विकलता और भी बढ़ गयी। ये चैतन्य-चरणों के मंगलमय तलुओं में अपने मस्तक को रगड़ने के लिये व्यग्र हो उठे। मोदी के यहाँ दस हजार रूपयों का समाचार पाते ही इन्होंने सोचा- ‘इन चांदी के ठीकरों के द्वारा ही प्रेम के कारावास से मेरी हो जाय और मैं चैतन्य -चरणों के दर्शन पा सकूँ तो यह जीवन सार्थक हो जाय।’ प्रेम में नियम कैसा? प्रेम तो नियम के झंझटो से परे है। उन्होंने उसी समय कारावास के प्रधान कर्मचारी से कहा-‘ भाई ! तुम मुझे जानते हो, मैं कौन हूँ?’

जेलर ने कहा- ‘श्रीमन! मैं आपको खूब जानता हूँ, आप राज्य के प्रधान मन्त्री हैं।’ श्री सनातन ने कहा- ‘तुम्हें यह भी पता है कि मैं क्यों जेल में हूँ?’

नम्रता के साथ जेलर ने कहा- ‘श्रीमन! इस बात को सभी लोग जानते हैं कि आपने कोई अपराध नहीं किया है, आप अपनी नौकरी को छोड़ना चाहते थे, इसी पर बादशाह ने आपको कैद कर लिया।’

श्री सनातन जी ने स्नेह से कहा- ‘तुम बता सकते हो, मैं नौकरी क्यों छोड़ना चाहता था?’

जेलर ने कहा- ‘श्रीमन! मैंने पण्डितों और समझकर आदमियों के मुख से ऐसा सुना है कि आप भजन करना चाहते हैं।’

‘भजन करना अच्छा काम है या बुरा, तुम्हारा इस बारे में क्या विचार है?’

सनातन जी ने पूछा। इस पर बड़ी ही सरलता के साथ जेलर ने कहा- ‘श्रीमन! मैं इस बारे में क्या बताऊँ? हम तो घर-गृहस्थी के झंझटों के कारण पैसे के ऐसे गुलाम बन गये हैं कि जिसने हमें पैदा किया है, उसे एकदम भूल गये हैं। हम इस बारे में कह ही क्या सकते हैं? आप भाग्यवान हैं, जो आप सब कुछ छोड़-छाड़कर ईश्वर का भजन करना चाहते हैं, इससे बढ़कर दूसरा कोई काम और हो ही क्या सकता है?’

‘अच्छा, तुम यह बताओ जो लोग भजन करना चाहते हैं, उनकी मदद करना पाप है या पुण्य?’ सनातन जी ने धीरे से पूछा।

जेलर ने कहा- ‘ऐसे आदमियों की जितनी भी जिससे बन सके, मदद करनी चाहिये, इससे बढ़कर पुण्य का काम दूसरा है ही नहीं।’ ‘तब तुम मुझे इस जेल खाने से निकालने में सहायता दो।’

सनातन जी ने चारों ओर देखकर जेलर के कान में कहा।

कुछ डरता हुआ और चारों ओर देखता हुआ कम्पित स्वर में धीरे-धीरे जेलर कहने लगा- ‘श्रीमन! यह मेरी शक्ति के बाहर की बात है। बादशाह इस बात के सुनते ही मुझे जिन्दा ही गड़वाकर कत्ल करा देगा।’

सनातन जी ने धीर से कहा- ‘भाई! मैंने मन्त्रीपने में तुम्हारे साथ बड़े-बड़े उपकार किये हैं, तुम इतना भी नहीं कर सकते? मेरे दस हजार रूपये अमुक मोदी के यहाँ रखे हैं, आज ही पत्र लिखकर मैं उन्हें मंगवाकर तुम्हें दे दूँगा। तुम बाल-बच्चेदार आदमी हो; उनसे तुम्हारा काम चलेगा।’

दस हजार रूपयों का नाम सुनते ही पैसों को ही पैसों की ही सर्वस्व समझने वाला वह तीस रूपये महीने का जेलर कर्तव्य विमूढ़ हो गया। उसने दस हजार रूपये अपने जीवन में कभी देखे भी नहीं थे। आज थोड़ा-सा साहस करने में ही इकट्ठे दस हजार रूपये मिल जायँगे, इसी को सोचकर और हर्ष के भावों को दबाते हुए विवशता के स्वर में कहने लगा- ‘श्रीमन! रूपयों की क्या बात है, मैं तो पहले भी आपका गुलाम था अब भी गुलाम हूँ, मगर बादशाह पूछेंगे तो मैं क्या जवाब दूँगा?’

सनातन जी समझ गये कि मेरा मन्त्र काम कर गया। उन्होंने दृढ़ता के स्वर में कहा- ‘हम कोई चोर-डाकुओं की तरह तो बन्दी हैं ही नहीं। राजा भी जानता है कि हमारे साथ राजबन्दी का-सा व्यवहार होता है। कह देना-वे गंगा स्नान करने गये थे, वहीं गंगा जी में बह गये। फिर बहुत ढुंढ़वाने पर भी उनका पता नहीं चला। मैं आज ही गौड़ देश को छोड़ दूँगा और और फिर इधर आऊँगा ही नहीं, तब बादशाह को कैसे पता चल जायगा।’ यह उक्ति जेलर के मन में बैठ गयी। बैठ क्या गयी दस हजार रुपयो के लोभ से घबड़ायी हुई बुद्धि के बहलाव का उसे एक अकाट्य बहाना मिल गया। वह सनातन जी की बात से सहमत हो गया और मोदी के यहाँ से रूपये मंगा लिये गये। छिपकर भागने का सभी प्रबन्ध ठीक कर दिया गया।

अन्धकार से परिपूर्ण घोर रात्रि थी, सभी लोग सो रहे थे। जेल के पहरेदार कभी-कभी भर्राई हुई आवाज से बीच-बीच में- ‘ताला जंगला लालटेन सब ठीक है सा…हब’ कह-कहकर बेमन से चिल्ला देते थे और फिर दीवाल के सहारे लुढ़क जाते। सभी पर निद्रादेवी का प्रभाव व्याप्त था, किन्तु दो ही जाग रहे थे, एक तो प्रभु-दर्शनों के लालची श्री सनातन और दूसरे दस हजार रूपयों की गर्मी से फूले हुए गौड़ देश के जेल-दरोगा। एक को प्रभु की चिन्ता थी, दूसरे को पैसे का हर्ष था, अत्यन्त चिन्ता में और अत्यन्त हर्ष में नींद नहीं आती। धीरे से सनातन जी की कोठरी के किवाड़ खुले। एक विश्वासी पहरेदार के साथ जेलर के उनकी कोठरी में प्रवेश किया। दबी हुई आवाज से उसने कहा- ‘सब प्रबन्ध ठीक हो गया है। श्रीमन! अब आपके चलने की ही देर है।’

जेलर की बात सुनकर धीरे से सनातन जी ने कहा- ‘मैं भी बिलकुल तैयार हूँ।’ यह कहकर पास में पड़े हुए अपने एक ईशान नामक विश्वासी सेवक को उन्होंने जगाया। आँखें मलता हुआ ईशान जल्दी से उठ पड़ा और उनके संकेत से अपनी गुदड़ी को उठाकर उनके पीछे-पीछे चलने लगे। फाँसी घर के एक छोटे दरवाजे से होकर सभी लोग गंगा तट पर आये। वहाँ पहले से ही नाव तैयार खड़ी थी, सब लोग चुपचाप उसमें बैठ गये। नाव चल पड़ी, सनातन जी ने अन्तिम बार गौड़ की राजधानी को प्रणाम किया और थोड़ी ही देर में वे गंगा जी के उस पार पहुँच गये।

पार पहुँचकर सनातन जी ने जेल-दरोगा की ओर कृतज्ञता की दृष्टि से एक बार देखा। डरते-डरते जेलर ने उन्हें प्रणाम किया। नाव में बैठकर जेलर लौट गया और सनातन जी राजपथ को छोड़कर वृक्षलताओं से घिरे हुए झाड़खण्ड के रास्ते से आगे बढ़ने लगे। वे गौर दर्शनों के लिये इतने उत्सुक हो रहे थे कि पैर में गड़ने वाले कुश-कण्टक तथा कंकड़-पत्थरों का उन्हें ध्यान ही नहीं था। वे गोर-गौर कहकर रुदन करते हुए रात्रि के घोर अन्धकार में पश्चिम की ओर बढ़ रहे थे। इसी प्रकार जंगल और वनों में होते हुए वे पातड़ा नामक पहाड़ के समीप पहुँचे।

स्वामिभक्त ईशान नामक सेवक उनकी ऐसी विपत्ति की अवस्था में भी बराबर उनके साथ चल रहा था, पातड़ा पहाड़ के समीप एक डाकुओं का सरदार रहता था। उसके पास ज्योतिषी था, वह ज्योतिषी गणित करके बता देता था कि अमुक पथियों के पास कितना द्रव्य है, वह डाकू अपने साथियों के सहित पथिकों के धन लूट लेता और उन्हें मार डालता था। स्वामिभक्त ईशान ने भी मार्ग व्यय के निमित्त आठ मुहरें अपने वस्त्रों में छिपा रखी थी। ज्योतिषी ने उस डाकुओं के दलपति को बता दिया कि इस आदमी के नौकर के पास आठ मुहरें हैं। मुहरों का नाम सुनते ही सरदार ने इनकी खूब आवभगत की और इनके भोजन आदि का बहुत ही अच्छा प्रबन्ध कर दिया। आज दो दिनों के पश्चात् भोजन पाकर सनातन जी सुख पूर्वक लेटे। उन्होंने सरदार से कहा- ‘कृपा करके हमें पहाड़ के परली पार पहुँचा दीजिये।’ सरदार ने उल्लास के सहित कहा- ‘हाँ’, हाँ, अवश्य जैसा आप कहेंगे वैसा ही प्रबन्ध कर दिया जायेगा।’ बुद्धिमान राजमंत्री सनातन जी ने सोचा- ‘डाकू होकर यह हमारा इतना अधिक सम्मान क्यों कर रहा है, यह इतना विनम्र क्यों बना है। अवश्य ही इसके अन्दर कोई गुप्त रहस्य है।’ सोचते-सोचते उनकी दृष्टि ईशान पर गयी। उन्होंने पूछा- ‘क्यों रे! तेरे पास कुछ द्रव्य तो नहीं है, ठीक-ठीक बता दे तैने कुछ छिपा तो नहीं रखा है?’ गिड़गिड़ाकर नौकर ने कहा- ‘श्रीमन! मेरे पास सात मुहरें है।’

उसे डांटते हुए सनातन जी ने कहा- ‘धत्तेरे बदमाश की; तेरा लोभ अब भी बना रहा। अभी जाकर इन सबको डाकुओं के सरदार को दे आ।’

अपने स्वामी की आज्ञा से ईशान सरदार के पास गया और सात मुहरें रखकर कहने लगा- ‘मेरे स्वामी ने ये मुहरें आपके पास भेजी हैं।’

हँसकर उसने उत्तर दिया- ‘एक तो फिर भी छिपा ही ली, मुझे पहले ही पता चल गया था। अस्तु, मैं तुम्हारे स्वामी की सच्चाई से बहुत प्रसन्न हूँ, ये मुहरें उन्हीं को दे देना।’ इतने में ही सनातन जी भी वहाँ आ उपस्थित हुए। सरदार को मुहरों को लौटाते देखकर उन्होंने आग्रह पूर्वक कहा- ‘आप इन मुहरों को ले लें। मुझे तो कहीं-न-कहीं फेंकनी ही होगी। मैं तो राजमंत्री-पद को छोड़कर जेल से भाग कर आया हूँ, कृपा करके मुझे उस पार पहुँचा दीजिये।’

सरदार ने चार आदमी इनके साथ कर दिये और ये पहाड़ के उस पार हो गये। आगे चलते-चलते सनातन जी ने ईशान से पूछा- ‘ईशान! मालूम पड़ता है, अभी तेरे पास कुछ और द्रव्य है?’

ईशान ने लज्जित भाव से कहा- ‘श्रीमन! मेरे पास एक मुहर और है। तब श्री सनातन जी ने कहा- ‘भैया! मुझे अब तुम्हारी आवश्यकता नहीं। मेरा तुम्हारा अब साथ ही कैसा? तुम अपने घर लौट जाओ।’ रोते-रोते ईशान ने अपने स्वामी के पैर पकड़ लिये और उनके बहुत कहने पर वह लौट गया। सनातन जी उसी प्रकार झाड़-झंडकाड़ों में होते हुए हाजीपुर पहुँचे।

हाजीपुर में इनके बहनोई श्री कान्त जी किसी राजकाज से ठहरे हुए थे, उनसे अकस्मात इनकी भेंट हो गयी। श्री कान्त इन्हें दरवेश के वेश में देखकर बड़े ही विस्मित हुए और कुछ काल वहाँ ठहरने का आग्रह किया, किन्तु इन्होंने वहाँ रहना स्वीकार नहीं किया। तब श्री कान्त इनसे मार्ग व्यय ले जाने के लिये बहुत आग्रह करने लगे, किन्तु इन्होंने कुछ भी साथ लेना स्वीकार नहीं किया, बहुत कहने पर एक भूटानी कम्बल इन्होंने ले लिया।

इनका वेश मुसलमान फकीरों-सा था। भिक्षा मांगते हुए और गौर-नाम का जप करते हुए ये श्री काशीजी में पहुँचे। वहाँ इन्हें पता चला कि महाप्रभु चन्द्रशेखर के घर पर ठहरे हुए हैं। इस समाचार को सुनते ही ये परम उल्लास के सहित चन्द्रशेखर जी के घर के पास पहुँचे और बाहर बैठकर प्रभु-दर्शनों की प्रतीक्षा करने लगे।

प्रेम में भी कितना अधिक आकर्षण होता है, घर के भीतर बैठे हुए महाप्रभु ने सनातन जी का आगमन जान लिया और पास में बैठे हुए चन्द्रशेखर से उन्होंने कहा- ‘चन्द्रशेखर! बाहर एक वैष्णव साधु बैठे हैं, उन्हें बुला लाओ।’

बाहर जाकर चन्द्रशेखर ने देखा कि यहाँ तो कोई वैष्णव साधु है नहीं। भीतर लौटकर उन्होंने प्रभु से कहा- ‘प्रभो! वहाँ तो कोई वैष्णव साधु है नहीं।’

प्रभु ने हंसकर कहा- ‘हाँ है, जरूर है, तुम अच्छी तरह से खोजो।’

चन्द्रशेखर फिर गये, किन्तु वहाँ एक मुसलमान दरवेश के सिवा कोई वैष्णव साधु उनके देखने में नहीं आया।

उन्होंने आकर हैरानी के साथ कहा- ‘प्रभो! एक मुसलमान दरवेश तो द्वार पर बैठा है। उसके अतिरिक्त कोई वैष्णव साधु तो मुझे फिर भी नहीं दीखा।’

प्रभु ने मुसकराकर कहा- ‘जिसे तुम मुसलमान दरवेश समझते हो वही परम भागवत वैष्णव है, उसी को मेरे पास लाओ।’

प्रभु की आज्ञा से चन्द्रशेखर श्री सनातन जी को साथ लेकर भीतर आये। सनातन ने दूर से ही भूमि पर लेटकर प्रभु के चरणों में प्रणाम किया। प्रभु जल्दी से उठकर उन्हें आलिंगन करने के लिये दौड़े। प्रभु को देखते ही वे सर्प को देखकर डरते हुए की भाँति पीछे हटते हुए दीनता के साथ प्रभु से कहने लगे- ‘प्रभो! मुझको स्पर्श न कीजिये। नाथ! मैं आपके स्पर्श के योग्य नहीं हूँ।’

भक्तवत्सल गौरांग कब सुनने वाले थे। वे जोरों से सनातन जी को आलिंगन करते हुए कहने लगे- ‘आज मैं पावन बन गया, जो सनातन जी की देहसे स्पर्श हो गया। सनातन जी के अंगस्पर्श से पापियों को भी श्रीकृष्ण प्रेम की प्राप्ति हो सकती है।’

सनातन जी प्रभु के कृपाभार से दब-से गये। प्रभु ने उन्हें अपने पास ही आसन दिया और उनसे कारावास का सब वृत्तान्त पूछा, सब वृत्तान्त सुनकर प्रभु ने कहा- ‘तुम्हारे दोनों भाई मुझे प्रयाग में मिले थे, वे वृन्दावन गये है। तुम कुछ काल यहीं मेरे पास रहो।’ प्रभु की आज्ञा पाकर सनातन चुपचाप नीचे को सिर किये हुए बैठे रहे। प्रभु उनके ही सम्बन्ध में सोचते रहे।

क्रमशः अगला पोस्ट [141]
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]



, Shri Hari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram Liberation of Shri Sanatan from prison and seeing the Lord in Kashi

My dear friend almost everyone is now busy looking for holes Even the night is full of clouds and darkness and you are not fit to go. Don’t be like that, friend! Who is eager to see the beloved and the beloved If water given for affection is done with proper consideration

Shree Rup went to Vrindavan from Prayag by obeying the command of the Lord. Now listen to the news of his younger brother Sreesanatan. In fact, Sanatanji was older in the form of Shri, but before that Shri Roop had received the teachings of the path of devotion by staying close to the Lord. In the path of Bhakti, greatness is thought of only by Guru’s grace, not by status. Shree Roop was the first to be blessed by Mahaprabhu, so Sanatan ji considered him superior and his teacher. All Vaishnavas also had a similar belief. That’s why in Vaishnav society, instead of being called Shri Sanatan-Roop, they are not called Shri Sanatan-Roop. Even though he is small in age, due to being the first Guru-Kripa, the name of Shri Roop is taken first.

Shree Sanatanji always used to meditate on the charming idol of Shree Chaitanya lying in the black cell of the prison. He did not like food and water. There is not even the name of sleep in the eyes. Day and night ‘Gaurachand’, ‘Gaurachand’ used to pass their eight hours. Night would pass, day would come. By the end of the day it would have been evening, then it would have been dark, but they didn’t care about it. He had forgotten all the works in consciousness-thinking. His mind’s honey always used to hum in Arun colored Shri Chaitanya Padarvind. The body kept breathing like a bellows lying in the dungeon of imprisonment. When he had external knowledge, then only his heart would start beating, remembering that my body was lying in prison separated from the feet of Sri Chaitanya, he would faint as soon as these thoughts came and exhaled profusely. It seems Meanwhile, secretly he received a letter from his elder brother. His distress increased even more after reading the letter. He became eager to rub his head in the auspicious soles of Chaitanya’s feet. As soon as he got the news of ten thousand rupees at Modi’s place, he thought- ‘If I can get rid of the imprisonment of love through these silver coins and if I can get the darshan of Chaitanya’s feet then this life will become meaningful.’ How is the rule in love? Love is beyond the hassles of rules. At the same time he said to the chief employee of the prison – ‘Brother! You know me, who am I?’

The jailer said – ‘Sir! I know you very well, you are the Prime Minister of the state. Shri Sanatan said- ‘You also know why I am in jail?’

With humility the jailer said- ‘Sir! Everyone knows that you haven’t committed any crime, you wanted to leave your job, that’s why the emperor imprisoned you.’

Shri Sanatan ji said with affection- ‘You can tell, why I wanted to leave the job?’

The jailer said – ‘Sir! I have heard from the mouth of pundits and people thinking that you want to do bhajan.’

‘Whether doing bhajan is good or bad, what is your opinion about it?’

Sanatan ji asked. On this the jailer said very simply – ‘Sir! What can I say about this? We have become such slaves of money due to the problems of household that we have completely forgotten the one who created us. What can we say about this? You are lucky, who leave everything and want to worship God, what can be more important than this?’

‘Well, you tell me, is it a sin or a virtue to help those who want to do bhajan?’ Sanatan ji asked softly.

The jailer said- ‘Such men should be helped as much as possible, there is no other work of virtue greater than this.’ ‘Then you help me out of this prison house.’

Sanatan ji looked around and said in the ear of the jailer.

Afraid of something and looking around, the jailer slowly started saying in a trembling voice – ‘Sir! This is beyond my power. As soon as the king hears of this, he will get me buried alive and killed.’

Sanatan ji said quietly – ‘Brother! I have done great favors to you in ministership, you can’t do even that much? My ten thousand rupees have been kept with such and such Modi, I will get them sent to you by writing a letter today itself. You are a childish man; Your work will be done with them.

As soon as he heard the name of ten thousand rupees, the jailer duty of thirty rupees a month, who considered money to be everything, became disoriented. He had never even seen ten thousand rupees in his life. Today, with a little courage, ten thousand rupees will be available together, thinking about this and suppressing the feelings of joy, he started saying in a voice of helplessness – ‘Sir! What is the matter of money, I was your slave earlier also and am still a slave, but what will I answer if the king asks?’

Sanatan ji understood that my mantra has worked. He said in a voice of firmness – ‘ We are not prisoners like thieves and dacoits. Even the king knows that we are treated like prisoners. Tell them – they had gone to bathe in the Ganges, while there they got washed away in the Ganges. Then even after searching a lot, he could not be found. I will leave Gaur country today itself and will not come here again, then how will the king know.’ This saying sat in the mind of the jailer. She got an irrefutable excuse for the entertainment of her mind which was bewildered by the greed of ten thousand rupees. He agreed with Sanatan ji and money was called from Modi’s place. All arrangements were made to run away secretly.

It was a dark night full of darkness, everyone was sleeping. The guards of the jail used to shout impatiently saying ‘Tala Jangala Lantern Sab Theek Hai Sir’ in a hoarse voice and then rolled down the wall. Everyone was under the influence of Nidradevi, but only two were awake, one Mr. Sanatan, who was greedy for God’s darshan and the other, the prison guard of Gaur country, bloated with the heat of ten thousand rupees. One was worried about God, the other was happy about money, in extreme worry and in extreme happiness sleep is not possible. Slowly the doors of Sanatan ji’s closet opened. The jailer, accompanied by a faithful guard, entered his cell. He said in a muffled voice – ‘All arrangements have been made fine. Sir! It is too late for you to leave.’

After listening to the jailer, Sanatan ji slowly said – ‘I am also absolutely ready.’ By saying this, he woke up one of his faithful servants named Ishaan, who was lying nearby. Rubbing his eyes, Ishaan quickly got up and by his signal picked up his cloak and started following him. Everyone came to the banks of the Ganges through a small door of the gallows. The boat was already standing there ready, everyone silently sat in it. The boat started moving, Sanatan ji bowed down to the capital of Gaur for the last time and in a short time he reached the other side of Ganga ji.

After reaching across, Sanatan ji once looked at the jailer with gratitude. Fearing – the jailer bowed down to him. The jailer returned after sitting in the boat and Sanatan ji left Rajpath and started moving forward on the way of Jharkhand surrounded by trees. He was getting so eager to see Gaur that he did not pay attention to the kush-kantak and pebble-stones falling in his feet. They were moving towards the west in the pitch darkness of the night crying loudly. In the same way, passing through the jungles and forests, they reached near a mountain named Patra.

A servant named Ishaan, a devotee of Swami, was walking with him even in such a state of calamity, a leader of dacoits lived near Patada mountain. He had an astrologer, that astrologer used to do calculations and tell how much money a certain wayfarer had, that dacoit used to rob the money of the wayfarers along with his companions and kill them. Swami devotee Ishaan had also hidden eight seals in his clothes for the purpose of traveling expenses. The astrologer told the leader of the dacoits that this man’s servant had eight seals. On hearing the name of the seals, Sardar entertained them a lot and made very good arrangements for their food etc. Today, after two days, Sanatan ji lay down happily after having food. He said to Sardar- ‘Please take us to the other side of the mountain.’ Sardar said with glee – ‘Yes’, yes, of course the arrangements will be made as you say.’ Intelligent Raj Minister Sanatan ji thought – ‘ Being a robber, why is he respecting us so much, why has he become so humble. Surely there is some hidden secret inside it.’ While thinking, his vision went to Ishaan. He asked – ‘Why! You don’t have any money, tell me exactly, haven’t you hidden something?’ Pleadingly, the servant said – ‘Sir! I have seven seals.’

Scolding him, Sanatan ji said- ‘Damned scoundrel; Your greed is still there. Now go and give them all to the leader of the dacoits.’

With the permission of his master, Ishaan went to Sardar and kept seven seals and said – ‘My master has sent these seals to you.’

Laughing, he replied – ‘ Still you hid one, I already knew it. Astu, I am very pleased with your master’s honesty, give these seals to him only.’ Meanwhile, Sanatan ji also came and appeared there. Seeing Sardar returning the seals, he insisted- ‘You take these seals. I have to throw it somewhere. I have escaped from jail leaving the post of Raj Minister, please take me to the other side.’

Sardar made four men with them and they went across the mountain. While walking ahead, Sanatan ji asked Ishaan – ‘Ishaan! It seems you have some more money with you now?’

Ishaan said with a sense of shame – ‘Sir! I have one more stamp. Then Shri Sanatan ji said – ‘Brother! I don’t need you anymore How is mine with you now? You go back to your home.’ Crying, Ishaan held the feet of his master and he returned after he said a lot. In the same way, Sanatan ji reached Hajipur after going through the bushes.

In Hajipur, his brother-in-law Mr. Kant was staying for some royal work, he accidentally met him. Mr. Kant was very surprised to see him in the dress of a dervish and requested him to stay there for some time, but he did not accept to stay there. Then Mr. Kant started urging him a lot to take the travel expenses, but he did not accept to take anything with him, after saying a lot, he took a Bhutanese blanket.

His dress was like that of Muslim fakirs. While begging and chanting Gaur-Naam, he reached Shri Kashiji. There he came to know that Mahaprabhu was staying at Chandrashekhar’s house. As soon as he heard this news, he reached near Chandrashekhar ji’s house with great joy and sat outside waiting for the Lord’s darshan.

There is so much attraction in love too, sitting inside the house Mahaprabhu came to know about the arrival of Sanatan ji and he said to Chandrashekhar sitting nearby – ‘ Chandrashekhar! A Vaishnav monk is sitting outside, call him.’

Going outside, Chandrashekhar saw that there was no Vaishnava monk here. Returning inside, he said to the Lord – ‘Lord! There is no Vaishnava monk there.

The Lord laughed and said – ‘Yes, it is, of course, you search thoroughly.’

Chandrashekhar went back, but there he did not see any Vaishnav monk except a Muslim dervish.

He came and said with surprise – ‘Lord! A Muslim dervish is sitting at the door. Apart from him, I have not seen any Vaishnava monk.

The Lord smiled and said- ‘The one whom you consider as a Muslim dervish is the Supreme Bhagwat Vaishnav, bring him to me.’

By the order of the Lord, Chandrashekhar came inside taking Shri Sanatan ji with him. Sanatan prostrated at the feet of the Lord by lying on the ground from a distance. Prabhu got up quickly and ran to hug him. As soon as they saw the Lord, they retreated in fear of seeing the snake and started humbly saying to the Lord – ‘Lord! Don’t touch me God! I am not worthy of your touch.’

When was Bhaktavatsal Gaurang going to listen? Hugging Sanatan ji loudly, he started saying- ‘Today I have become pure, who got touched by Sanatan ji’s body. With the touch of Sanatan ji, even sinners can attain the love of Shri Krishna.

Sanatan ji was overwhelmed by the grace of God. The Lord gave him a seat near him and asked him all the details of his imprisonment, after listening to all the details, the Lord said – ‘I met both your brothers in Prayag, they have gone to Vrindavan. You stay here with me for some time.’ After getting the permission of the Lord, Sanatan sat silently with his head down. The Lord kept thinking about him only.

respectively next post [141] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]

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