[15]”श्रीचैतन्य–चरितावली”

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*।। श्रीहरि:।।*                

[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम

*चांचल्य*

किं मिष्टं सुतवचनं मिष्टतरं किं तदेव सुतवचनम्।

मिष्टान्मिष्टतमं किं श्रुतिपरिपक्वं सदेव सुतवचनम्।।

इतनी चंचलता करने पर भी मिश्र-दम्पति का प्रेम निमाई के प्रति अधिकाधिक बढ़ता ही जाता था। यही नहीं, किन्तु निमाई की चंचलता में माता-पिता को एक अपूर्व आनन्द आता था। मिश्र जी तो मनुष्य स्वभाव के कारण कभी-कभी बहुत चंचलता से ऊब कर नाराज भी हो जाते, किन्तु माता का हृदय तो सदा बच्चे की बातें सुनने के लिये छटपटाता ही रहता। सच है, बच्चे की बोली में मोहिनी विद्या है। संसार में बच्चे की तोतली बोली से बढ़कर बहुमूल्य वस्तु मिल ही नहीं सकती। देखा गया है, प्रायः माता का सबसे छोटी सन्तान पर बहुत अधिक ममत्व होता है। निमाई मिश्र जी की वृद्धावस्था में उत्पन्न हुए थे, इसीलिये उनका भी इनके प्रति आवश्यकता से अधिक स्नेह था। इतनी चंचलता करने पर भी मिश्र जी उन्हें बहुत अधिक डाँटते-फटकारते नहीं थे। इसलिये ये मिश्र जी के सामने भी चंचलता करने में नहीं चूकते थे। सबसे अधिक तो ये माता के सामने उपद्रव करते। माता के सामने इन्हें तनिक भी संकोच नहीं होता था।

पिता के सामने थोड़ा संकोच करते और भाई विश्वरूप के सामने तो ये कभी भी उपद्रव नहीं करते थे, उनसे तो ये बहुत ही अधिक संकोच करते थे। विश्वरूप भी इनसे अत्यधिक स्नेह करते, किन्तु वह स्नेह अव्यक्त होता था। प्रायः वे अपने प्रेम को लोगों के सामने प्रकट नहीं करते थे। निमाई भी उनका मन-ही-मन बहुत आदर करते थे। उनके आते ही भोले-भाले बालक की तरह चुपचाप बैठ जाते या बाहर उठ जाते। अब ये पिता जी के साथ गंगा-स्नान करने को भी जाने लगे। विश्वरूप सबकी धोती, तैल और भीगे आँवले लेकर आगे-आगे चलते और मिश्र जी उनके पीछे होते। निमाई कभी तो पिता जी की उँगली पकड़कर चलते और कभी भाई का वस्त्र पकड़े हुए चलते। रास्ते में चलते हुए इधर-उधर देखते जाते। पिता जी से भाँति-भाँति के ऊटपटाँग प्रश्न भी करते जाते।

मिश्र जी किसी का तो उत्तर दे देते और किसी को टाल देते। कभी-कभी आप दोनों से अलग होकर चलते। इस पर विश्वरूप इन्हें बुलाकर झट से गोद में ले लेते। गंगा-स्नान करके मिश्र जी तथा विश्वरूप सन्ध्या-वन्दन करते, ये भी बैठकर उनकी नकल करते। जैसे वे लोग जल छिड़कते, ये भी जल छिड़कते, जब वे आचमन करते, ये भी आचमन करते तथा सूर्य को अर्घ देने पर ये भी खड़े होकर सूर्य को अर्घ देते। कभी-कभी तैल लगाकर स्नान करने के अनन्तर फिर आप बालू में लोट जाते। पिता फिर से इन्हें स्नान कराते। घर आकर ये सब बातें अपनी माता से कहते। स्त्रियाँ पूछतीं- ‘बेटा! अच्छा तुमने सन्ध्या कैसे की?’ तब आप पद्मासन लगाकर बैठ जाते और आँखे बंद कर धीरे-धीरे ओष्ठ हिलाने लगते। कभी-कभी नाक बंद करके प्राणायाम का अभिनय करते।

जब ये अपने छोटे-छोटे हाथों को ऊपर उठाकर सूर्य की ओर टकटकी लगाकर उपस्थान का ढंग दिखाते तब स्त्रियाँ हँसते-हँसते लोट-पोट हो जातीं। इसी प्रकार ये जिस काम को देखते उसी की नकल करते। इनके चांचल्य से कभी-कभी बड़ी हँसी होती। एक दिन मिश्र जी के साथ ये गंगा-स्नान करने गये। स्नान करने के अनन्तर मिश्र जी प्रायः पास के भगवान  के मन्दिर में दर्शन करने जाया करते थे। ये भी शाम के समय कभी-कभी बालकों के साथ उसमें आरती देखने और प्रसाद लेने चले जाते थे। आज दोपहर को भी ये मिश्र जी के साथ मन्दिर में चले गये। मिश्रजी ने जिस प्रकार साष्टांग प्रणाम किया उसी प्रकार इन्होंने भी किया। उन्होंने प्रदक्षिणा की तब ये भी प्रदक्षिणा करने लगे। पिता जी को हाथ बाँधे देखकर इन्होंने भी हाथ जोड़ लिये और इधर-उधर देखते-भालते हाथ जोड़े जगमोहन में बैठ गये। पुजारी जी ने मिश्रजी को चम्मच में थोड़ा केसर-कपूर-मिश्रित प्रसादी चन्दन दिया। इनका ध्यान तो उस तरफ था ही नहीं, ये तो न जाने किस चीज को देख रहे थे। पुजारीजी ने थोड़ा-सा चन्दन इन्हें भी दिया। इन्होंने पंचामृत की तरह दोनों हाथ फैलाकर चन्दन को ग्रहण किया और चट से उसे खा गये। पुजारी जी तथा मिश्र जी यह देखकर हँसने लगे। कडुवा लगने से वे वहीं थू-थू करने लगे और गुस्सा दिखाते हुए बोले- ‘यह कड़वा-कड़वा प्रसाद पुजारी जी ने न जाने आज कहाँ से दे दिया?’

मिश्र जी ने हँसते हुए कहा- ‘बेटा, यह प्रसादी चन्दन है! इसे खाते नहीं हैं मस्तक पर लगाते हैं।’ आपने मुँह बनाकर कहा- ’तब आपने मुझे पहले से यह बात क्यों नहीं बतायी थी?’ पुजारी जी ने जल्दी से इन्हें एक पेड़ा दिया उसे पाकर ये खुश हो गये। घर आकर माता जी से इन्होंने सभी बातें कह दीं। अब तो ये अकेले गंगा जी  पर चले जाते और वहाँ घण्टों खेला करते। दो-दो, तीन-तीन बार स्नान करते। बालू के लड्डू बना-बनाकर अपने साथ के लड़कों को मारते, गंगा जी में से पत्र-पुष्प निकाल-निकालकर उनसे बालू में बाग बनाते और नाना प्रकार की बाल-लीलाएँ करते। मिश्र जी इन्हें बहुत समझाते कि बेटा! कुछ पढ़ना भी चाहिये, किन्तु ये उनकी बातों पर ध्यान ही न देते और दिनभर बालकों के साथ खेला ही करते। एक दिन मिश्रजी को इन पर बड़ा गुस्सा आया, ये इन्हें पीटने के लिये गंगा-किनारे गये। शचीदेवी भी मिश्रजी को क्रोध में जाते देखकर गंगा-किनारे के लिये उनके पीछे-पीछे चल दीं। वहाँ पर ये बच्चों के साथ खूब उपद्रव कर रहे थे।

मिश्र जी तो गुस्से में भरे ही हुए थे, इन्हें उपद्रव करते देखकर वे आपे से बाहर हो गये और इन्हें पकड़ने के लिये दौडे़। ये भी बड़े चालाक थे, पिता को गुस्से में अपनी ओर आते देखकर ये खूब जोर से घर की तरफ भागे। रास्ते में माता मिल गयीं। झट से ये उनसे जाकर लिपट गये। माता ने इन्हें गोद में उठा लिया, ये उनके अंचल से मुँह छिपाकर लम्बी-लम्बी साँसे लेने लगे। माता कहती थी- ‘तू बहुत उपद्रव करता है, किसी की बात मानता ही नहीं, आज तेरे पिता तुझे खूब पीटेंगे।’ इतने में ही मिश्र जी भी आ गये, वे बाँह पकड़कर इन्हें शचीदेवी की गोद में से खींचने लगे। माता चुपचाप खड़ी थीं। इसी बीच और भी 10-5 आदमी इधर-उधर से आ गये। सभी मिश्रजी को समझाने लगे- ‘अभी बच्चा है, समझता नहीं। धीरे-धीरे पढ़ने लगेगा। आपको पण्डित होकर बच्चे पर इतना गुस्सा न करना चाहिये।’

सब लोगों के समझाने पर मिश्र जी का गुस्सा शान्त हुआ। पीछे उन्हें अपने इस कृत्य पर पश्चात्ताप भी हुआ। कहते हैं, एक दिन रात्रि के समय स्वप्न में किसी महापुरुष ने इनसे कहा- ‘पण्डित जी! आप अपने पुत्र को साधारण पुरुष ही न समझें। ये अलौकिक महापुरुषहैं। इनकी इस प्रकार भर्त्सना करना ठीक नहीं।’ स्वप्न में ही मिश्र जी ने उत्तर दिया- ‘ये चाहे महापुरुष हों या साधारण पुरुष, जब ये हमारे यहाँ पुत्ररूप में प्रकट हुए हैं, तो हमें इनकी भर्त्सना करनी ही पड़ेगी। पिता का धर्म है कि पुत्र को शिक्षा दे। इसीलिये शिक्षा देने के निमित्त हम ऐसा करते हैं।’ दिव्य पुरुष ने फिर कहा- ‘जब ये स्वयं सब कुछ सीखे हुए हैं और इन्हें अब किसी भी शास्त्र के सीखने की आवश्यकता नहीं, तब आप इन्हें व्यर्थ क्यों तंग करते हैं?’

इस पर इन्होंने कहा- ‘पिता का तो यही धर्म है, कि वह पुत्र को सदा शिक्षा ही देता रहे। फिर चाहे पुत्र कितना भी गुणी तथा शास्त्रज्ञ क्यों न हो। मैं अपने धर्म का पालन अवश्य करूँगा और आवश्यकता होने पर इनको दण्ड भी दूँगा।’ महापुरुष इनसे प्रसन्न होकर अन्तर्धान हो गये। प्रातःकाल ये इस बात पर सोचते रहे। कालान्तर में वे इस बात को भूल गये। इनकी अवस्था ज्यों-ज्यों बढ़ती गयी त्यों-ही-त्यों इनकी कान्ति और भी दिव्य प्रतीत होने लगी। ये शरीर से खूब हृष्ट-पुष्ट थे। शरीर के सभी अंग सुगठित और मनोहर थे। शरीर में इतना बल था कि 4-4, 5-5 लड़के मिलकर भी इनको पराजित नहीं कर सकते थे। इनके चेहरे से चंचलता सदा छिटकती रहती। जो भी इन्हें देखता खुश हो जाता और साथ ही सचेष्ट भी हो जाता कि कहीं हमसे भी कोई चंचलता न कर बैठें। रास्ते में ये सदा कूदकर चलते।

सीढि़यों से गंगा जी में उतरना हो तो सदा एक-दो सीढ़ी छोड़कर ही कूदते-कूदते उतरें। रास्ते में दो-चार लड़कों को खेलते देखकर ये किसी दूसरे को उनके ऊपर ढकेल देते और फिर बड़े जोरों से हँस पड़ते। गंगा-किनारे पर छोटी-छोटी कन्याएँ पूजा की सामग्री लेकर देवी तथा गंगा जी की पूजा करने जातीं। आप उनके पास पहुँच जाते और कहते- ‘सब नैवेद्य हमें चढ़ाओ, हम तुम्हें मनोवान्छित वर देंगे।’ छोटी-छोटी कन्याएँ इनके अपूर्व रूप-लावण्य को देखकर मन-ही-मन प्रसन्न हो जातीं और इन्हें बहुत-सी मिठाई खाने को देतीं। ये उन्हें वरदान देते। किसी से कहते- ‘तुम्हें खूब रूपवान सुन्दर पति मिलेगा।’ किसी से कहते ’तुम्हारा विवाह  बड़े भारी धनिक के यहाँ होगा।’ किसी से कहते ‘तुम्हारे पाँच बच्चे होंगे।’ किसी को सात, किसी को ग्यारह बच्चे का वरदान देते।

कन्याएँ सुनकर झूठा रोष दिखाते हुए कहतीं- ‘निमाई! तू हमसे ऐसी बातें किया करेगा तो फिर हम तुझे मिठाई न देंगी।’ बहुत-सी कन्याएँ अपना नैवेद्य छिपाकर भाग जातीं तब ये उनसे हँसते-हँसते कहते- ’भले ही भाग जाओ मुझे क्या, तुम्हें काना पति मिलेगा। धनिक भी होगा तो महा कंजूस होगा। 5-5 सौत घर में होंगी, लड़की-ही-लड़की पैदा होंगी। यह सुनकर सभी लड़कियाँ हँसने लगतीं और इन्हें लौटकर मिठाई दे जातीं। किसी से कहते- हमारी पूजा करो, हम ही सबके प्रत्यक्ष देवता हैं। कभी-कभी मालाएँ उठा-उठाकर गले में डाल लेते। स्त्रियों के पास चले जाते और उन्हें पूजन करते देख कहते- ‘हरि को भजे तो लड़का होय। जाति पाँति पूछै ना कोय।’ यह सुनकर स्त्रियाँ हँसने लगतीं। जो इनकी गाँव-नाते से भाभी या चाची होतीं वे इन्हें खूब तंग करतीं और खाने को मिठाई देतीं। इन्हीं लड़कियों में लक्ष्मी देवी भी पूजा करने आया करती थी। वह बड़ी ही भोली-भाली लड़की थी। निमाई के प्रति उसका स्वाभाविक ही स्नेह था। पूर्व-जन्मों के संस्कार के कारण वह निमाई को देखते ही लज्जित हो जाती और उसके हृदय में एक अपार आनन्द-स्त्रोत उमड़ने लगता। ये सब लड़कियों के साथ उसे भी देखते, किन्तु इससे कुछ भी नहीं कहते थे, न कभी इससे मिठाई ही माँगी। इसलिये लक्ष्मीदेवी की हार्दिक इच्छा थी कि कभी ये मेरा भी नैवेद्य स्वीकार करें। किन्तु बिना माँगे देने में न जाने क्यों उसे लज्जा लगती थी। एक दिन लक्ष्मीदेवी को पूजा के लिये जाती देखकर आपने उससे कहा- ‘तू हमारी ही पूजा कर।’ यह सुनकर भोली-भाली कन्या बड़ी ही श्रद्धा के साथ इनकी पूजा करने लगी। छोटी-छोटी, पतली-पतली उँगलियों से काँपते हुए उसने निमाई के मस्तक पर चन्दन चढ़ाया, अक्षत लगाये, माला पहनायी, नैवेद्य समर्पण किया और हाथ जोड़कर प्रणाम किया।

निमाई ने आशीर्वाद दिया- ‘तुम्हें देवतुल्य रूपवान तथा गुणवान पति प्राप्त हो।’ यह सुनकर बेचारी कन्या लज्जा के मारे जमीन में गड़-सी गयी और जल्दी वहाँ से भाग आयी। कालान्तर में इन्हीं लक्ष्मीदेवी को निमाई की प्रथम धर्मपत्नी होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। ये अपने साथ के सभी लड़कों में सरदार समझे जाते थे। चंचलता तो मानो इनकी नस-नस में भरी हुई थी। नटखटप ने में इनसे बढ़कर दूसरा बालक नहीं था। सभी लड़के इनसे अत्यधिक स्नेह करते, मानो ये बाल सेना के सर्वप्रधान सेनापति थे। लड़के इनका इशारा पाते ही कर्तव्य-अकर्तव्य सभी प्रकार के काम कर डालते। बालकपन से ही इनमें यह मोहिनी विद्या थी कि जो एक बार इनके साथ रह गया, वह सदा के लिये इनका गुलाम बन जाता था। इसलिये ये अपने सभी साथियेां को लेकर गंगा-किनारे भाँति-भाँति की बाल क्रीड़ाएँ करते। इन्हें स्त्री-पुरुषों को तंग करने में बड़ा मजा आता था। कभी-कभी ये बहुत से बालू के छोटे-छोटे लड्डू बनवाते। सभी की झोलियों में दस-दस, बीस-बीस लड्डू भर देते और एक ओर खडे़ हो जाते।

गंगा-स्नान करके जो भी निकलता सभी एक साथ तड़ातड़ बालू के लड्डू उनके ऊपर फेंकते और जल्दी से फेंककर भाग जाते। कभी-कभी किसी की सूखी धोती लेकर गंगा जी में डुबो देते। कभी ऐसा करते कि जहाँ दस-पाँच आदमी बैठे हुए बातें करते होते तो ये उनके पास जा बैठते और धीरे से एक के वस्त्र से दूसरे के वस्त्र को बाँध देते। जब वे स्नान करने को उठते तो एक-दूसरे को अपनी ओर खींचता। कभी-कभी वस्त्र भी फट जाता। ये अपने साथियों के साथ अलग खडे़ हुए ताली बजा-बजाकर खूब जोरों से हँसते, सभी लोग हँसने लगते, बेचारे वे लज्जित हो जाते।

कभी लड़कों के साथ घण्टों स्नान करते रहते। एक-दूसरे के ऊपर घण्टों पानी उलीचते रहते। किसी को कच्छप बनाकर आप उसके ऊपर चढ़ जाते। कभी धोती में हवा भरकर उसके साथ गंगा जी के प्रवाह की ओर बहते और कभी उस धोती के फूले हुए गुब्बारे में से हवा के बुलबुले निकालते। स्त्रियों के घाटों पर चले जाते, वहाँ पानी में बुड़की लगाकर कछुए का रूप बना लेते और स्नान करने वाली स्त्रियों के पैर डुबकी माकर पकड़ लेते। स्त्रियाँ चीत्कार मारकर बाहर निकलतीं तब ये हँसते-हँसते जल के ऊपर आते और सबसे कहते- ’देखो हम कैसे कछुए बने।’ स्त्रियाँ मधुर-मधुर भर्त्सना करतीं और कहतीं- ‘जू आज घर चल, मैं तेरी माँजी से सब शिकायत करूँगी। मिश्र जी तुझे मारते-मारते ठीक कर देंगे।’ कोई कहतीं। ‘इतना दंगली लड़का तो हमने कोई नहीं देखा। यह तो हद कर देता है।

हमारे लड़के भी तो इसने बिगाड़ दिये। वे हमारी बातें मानते ही नहीं।’ कोई कहती न जाने वीर! इस छोकरे में क्या जादू है, इतना उपद्रव करता है, फिर भी यह मुझे बहुत प्यारा लगता है’ इस बात का सभी समर्थन करतीं। स्त्रियों की ही भाँति पुरुष भी इनके भाँति-भाँति के उपद्रवों से तंग आ गये। बहुतों ने जाकर इनके पिता से शिकायत की। स्त्रियाँ भी शचीमाता के पास जा-जाकर मीठा उलाहना देने लगीं। शचीदेवी सभी की खुशामद करतीं और विनय के साथ कहतीं- ‘अब मैं क्या करूँ, तुम्हारा भी तो वह लड़का है। बहुत मना करती हूँ, शैतानी नहीं छोड़ता, तुम उसे खूब पीटा करो।’ स्त्रियाँ सुनकर हँस पड़तीं और मन-ही-मन खुश होकर लौट जातीं।

एक दिन कई पण्डितों ने जाकर निमाई की मिश्र जी से शिकायत की और कहा ‘अभी जाकर देख आओ तब तुम्हें पता चलेगा कि वह कितना उपद्रव करता है।’ यह सुनकर मिश्र जी गुस्से में भरकर गंगा-किनारे चले। किसी ने यह संवाद जाकर निमाई से कह दिया। निमाई जल्दी से दूसरे रास्ते होकर घर पहुँचे और अपने शरीर पर खड़ी आदि लगाकर माता से बोले- ‘अम्मा! मुझे तैल दे दे मैं गंगा-स्नान कर आऊँ।’ माता ने कहा- ‘अभी तक तैंने स्नान नहीं किया क्या?’ आपने कहा ’अभी स्नान कहाँ किया। तू जल्दी से मुझे तैल और धोती दे दे।’ यह कहकर आप तैल हाथ में लेकर और धोती बगल में दबाकर गंगा जी की ओर चले। उधर मिश्र जी ने गंगा जी के किनारे जाकर बच्चों से पूछा ’यहाँ निमाई आया था क्या?’ बच्चे तो पहले से ही सिखाये-पढ़ाये हुए थे। उन्होंने कहा ’आज तो निमाई इधर आया ही नहीं।’

यह सुनकर मिश्र जी घर की ओर लौटने लगे। घर से निकलते हुए बगल में धोती दबाये निमाई मिले। मिश्र जी ने कहा- ’तू इतना दंगल क्यों किया करता है?’ आपने जोर से कहा ’न जाने क्यों लोग हमारे पीछे पड़ गये हैं? यही बात अम्मा कहती थीं कि स्त्रियाँ तेरी बहुत शिकायत करती थीं। मैं तो अभी पढ़कर आ रहा हूँ। अब तक गंगा जी की ओर गया ही नहीं। यदि ये हमारी झूठी शिकायतें आ-आकर करते हैं तो अब हम सत्य ही किया करेंगे।’ मिश्र जी चुप हो गये और ये हँसते-हँसते गंगा जी की और स्नान करने चले गये। लड़कों में जाकर अपनी चालाकी का सभी वृत्तान्त सुनाया। लड़के सुनकर खूब जोर से हँसने लगे।

इस प्रकार इनकी अवस्था 5 वर्ष की हो गयी। माता-पिता  को इनकी इस चांचल्य-वृत्ति से बहुत ही आनन्द प्राप्त होता। विश्वरूप इनसे 11-12 वर्ष बड़े थे, किन्तु वे जन्म से ही बहुत अधिक गम्भीर थे, इसलिये पिता भी उनका बहुत आदर करते थे। अब तो उनकी अवस्था 16 वर्ष की हो चली थी, इसलिये ‘प्राप्ते तु षोडशे वर्षे पुत्रं मित्रवदाचरेत्’ अर्थात पुत्र जब 16 वर्ष का हो जाय तो उससे मित्र की भाँति व्यवहार करना चाहिये, इस सिद्धान्तानुसार मिश्र जी उनके प्रति पण्डित का-सा व्यवहार करते।

एक दिन माता ने भोजन बनाकर तैयार कर लिया, किन्तु विश्वरूप अभी तक पाठशाला से नहीं आये। वे श्री अद्वैताचार्य की पाठशाला में पढ़ते थे। आचार्य की पाठशाला मिश्र जी के घर से थोड़ी दूर गंगा जी की ओर थी। माता ने निमाई से कहा- ’बेटा निमाई! देख तेरा दादा अभी तक भोजन करने नहीं आया। जाकर उसे पाठशाला में से बुला तो ला।’ बस, इतना सुनना था कि ये नंगेवदन ही वहाँ से पाठशाला की ओर चल पड़े। शरीर की कान्ति तपाये हुए सुवर्ण की भाँति सूर्य के प्रकाश के साथ मिलकर झलमल-झलमल कर रही थी। गौरवर्ण शरीर पर स्वच्छ साफ धोती बड़ी ही भली मालूम पड़ती थी। निमाई  आधी धोती ओढ़े हुए थे। उनके बडे़-बड़े विकसित कमल के समान सुन्दर और स्वच्छ नेत्र मुखचन्द्र की शोभा को द्विगुणित कर रहे थे।

आचार्य के सामने हँसते-हँसते इन्होंने भाई से कहा ‘दद्दा! चलो भात तैयार है, अम्मा तुम्हें बुला रही हैं।’ विश्वरूप ने निमाई को गोद में बिठा लिया और स्नेह से बोले- ’निमाई! आचार्य देव को प्रणाम करो’ यह सुनकर निमाई कुछ लजाते हुए मुसकराने लगे। वे लज्जा के कारण भाई विश्वरूप की गोद में छिपे-से जाते थे। आचार्य से आज्ञा लेकर विश्वरूप घर चलने को तैयार हुए। निमाई विश्वरूप का वस्त्र पकड़े उनके पीछे खड़े हुए थे। आचार्य ने निमाई को खूब ध्यान से देखा। आज पहले-ही-पहले उन्होंने निमाई को भलीभाँति देखा था। देखते ही उनके सम्पूर्ण शरीर में बिजली-सी दौड़ने लगी। उन्हें प्रतीत होने लगा कि मैं इतने दिन से जिन भवभयहारी जनार्दन की उपासना कर रहा हूँ, वे ही जनार्दन साकार बनकर बालक-रूप में मुझे अभय प्रदान करने आये हैं। उन्होंने मन-ही-मन निमाई के पादपद्मों में प्रणाम किया और अपने भाव को दबाते हुए बोले- ‘विश्वरूप! यह तुम्हारे भाई हैं न?’

विश्वरूप ने नम्रता पूर्वक कहा- ‘हाँ, आचार्य देव! यह मेरा छोटा अनुज है। बड़ा चंचल है, आपके सामने यह ऐसे चुपचाप भोले बालक की भाँति खड़ा है, आप इसे गंगा-किनारे या घर पर देखें तब पता चले कि यह कितना कौतुकी है। संसार को उलट-पलट कर डालता है। माता तो इससे तंग हो जाती हैं।’ आचार्य यह सुनकर हँसने लगे। निमाई विश्वरूप की आड़ में से छिपकर आचार्य की ओर देखने लगे। विश्वरूप का वस्त्र पकड़कर जाते-जाते दो-तीन बार निमाई ने फिर-फिर आचार्य की ओर देखा। आचार्य चेतना-शून्य-से हो गये। वे ठीक-ठीक न समझ सके कि हमारे चित्त को यह बालक हठात अपनी ओर क्यों आकर्षित कर रहा है। अन्त में ये ही आचार्य गौरांगदेव के मुख्य पार्षद हुए, जिनके द्वारा गौरांग अवतारी माने जाने लगे। इसलिये अब यह जान लेना जरूरी है कि ये अद्वैताचार्य कौन थे और इनकी पाठशाला कैसी थी?

*क्रमशः अगला पोस्ट*  [16]

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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत



, Srihari:..*

[Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram

*sigh*

What is sweeter than the words of a son? What is that very word of a son?

What is sweeter than sweeter than the words of a son ripe for hearing

Despite this fickleness, the love of the Mishra-couple kept increasing more and more towards Nimai. Not only this, but the parents used to get an incomparable joy in Nimai’s playfulness. Due to human nature, Mishra ji would sometimes get bored and get angry because of the playfulness, but the mother’s heart would always yearn to listen to the child’s words. It is true that the child’s speech has charm. Nothing can be more valuable in the world than the speech of a child. It has been observed that often the mother has a lot of affection for the youngest child. Nimai was born in the old age of Mishra ji, that is why he also had more affection towards him. Even after being so fickle, Mishra ji did not scold him much. That’s why he didn’t fail to play pranks even in front of Mishra ji. Most of all, they create nuisance in front of the mother. He did not hesitate at all in front of his mother.

He hesitated a little in front of his father and he never used to create trouble in front of brother Vishwaroop, he used to hesitate a lot with him. Vishwaroop also used to love him a lot, but that love was unexpressed. Often they did not reveal their love in front of people. Nimai also used to respect him very much. As soon as he came, like an innocent child, he would sit quietly or get up outside. Now he also started going to bathe in the Ganges with his father. Vishwaroop used to walk ahead carrying everyone’s dhoti, oil and soaked gooseberries and Mishra ji would follow them. Sometimes Nimai would walk holding his father’s finger and sometimes he would walk holding his brother’s clothes. While walking on the way, he used to look here and there. He used to ask various ridiculous questions to his father.

Mishra ji would have answered some and avoided others. Sometimes you walk apart from both of you. On this Vishwaroop would have called him and taken him in his lap. After bathing in the Ganges, Mishra ji and Vishwaroop would perform sandhya-vandan, they would also sit and imitate them. Just like those people sprinkled water, they also sprinkled water, when they performed Aachaman, they also performed Aachaman and after offering Argh to the Sun, they also stood up and offered Argh to the Sun. Sometimes, after taking a bath with oil, you would return to the sand. Father would have given him a bath again. After coming home, he told all these things to his mother. Women ask – ‘ Son! Well, how did you spend your evening?’ Then you would sit in padmasana and, closing your eyes, slowly start moving your lips. Sometimes he used to perform pranayama by closing his nose.

When he raised his small hands up and gazed at the sun, the women used to roll over with laughter. Similarly, they used to copy the work they saw. Sometimes there was a lot of laughter due to their playfulness. One day he went to bathe in the Ganges with Mishra ji. Mishra ji often used to go to the nearby temple of God after taking bath. They also used to go sometimes in the evening with the children to watch the aarti in it and take prasad. This afternoon also he went to the temple with Mishra ji. The way Mishraji prostrated, he also did the same. They did Pradakshina, then they also started doing Pradakshina. Seeing father’s folded hands, he also folded his hands and sat in Jagmohan with folded hands while looking here and there. The priest gave Mishraji some saffron-camphor-mixed prasadi sandalwood in a spoon. Their attention was not on that side at all, they don’t know what they were looking at. The priest also gave some sandalwood to him. Like Panchamrit, he spread both his hands and accepted sandalwood and ate it with a spoon. Pujari ji and Mishra ji started laughing seeing this. Feeling bitter, he started spitting right there and, showing anger, said – ‘Don’t know from where did the priest give this bitter prasad today?’

Mishra ji said laughing- ‘Son, this prasadi is sandalwood! They don’t eat it, they put it on their forehead.’ You frowned and said – ‘Then why didn’t you tell me this before?’ The priest quickly gave him a tree and he was happy after getting it. After coming home, he told everything to his mother. Now he used to go to Ganga ji alone and play there for hours. Used to bathe twice, thrice. By making balls of sand, he used to kill the boys with him, taking out leaves and flowers from Ganga ji, making sand gardens from them and performing various types of child-plays. Mishra ji used to explain to him a lot that son! Some reading should also be done, but he did not pay attention to their words and used to play with the children all day long. One day Mishraji got very angry with him, he went to the banks of the Ganges to beat him. Seeing Mishraji getting angry, Shachidevi also followed him to the banks of the Ganges. There they were creating a lot of nuisance with the children.

Mishra ji was full of anger, seeing him creating trouble, he lost his temper and ran to catch him. He was also very clever, seeing his father coming towards him in anger, he ran very loudly towards the house. Mother met on the way. He quickly went and hugged her. Mother lifted him in her lap, he started taking long breaths hiding his face from her lap. Mother used to say- ‘You create a lot of trouble, don’t listen to anyone, today your father will beat you a lot.’ Mishra ji also came in the meantime, he started pulling him from the lap of Shachidevi by holding his arm. Mother was standing silently. Meanwhile, 10-5 more people came from here and there. Everyone started explaining to Mishraji – ‘ He is still a child, he does not understand. Will start reading slowly. Being a scholar, you should not get so angry with the child.

Mishra ji’s anger calmed down after everyone’s explanation. Later, he also repented for his act. It is said that one day in a dream at night some great man said to him – ‘Pandit ji! Don’t consider your son as an ordinary man. These are supernatural great men. It is not right to condemn him in this way.’ Mishra ji replied in the dream itself – ‘Whether he is a great man or an ordinary man, when he has appeared here in the form of a son, we will have to condemn him. It is the duty of the father to teach the son. That’s why we do this for the sake of teaching.’ The divine man again said – ‘When he himself has learned everything and he does not need to learn any scriptures, then why do you trouble him in vain?’

On this he said- ‘It is the religion of the father, that he should always give education to the son. Then no matter how virtuous and scientist the son may be. I will definitely follow my religion and will also punish them if necessary. ‘ The great man became happy with him and disappeared. He kept thinking about this in the morning. In course of time they forgot this thing. As his condition increased, his radiance seemed even more divine. He was very strong in body. All the parts of the body were compact and graceful. There was so much strength in the body that even 4-4, 5-5 boys together could not defeat him. Playfulness would always emanate from their faces. Anyone who sees them becomes happy and at the same time becomes conscious that no one should play fickleness with us. He always jumps and walks on the way.

If you want to go down the stairs to Ganga ji, always leave one or two steps and come down by jumping. Seeing two or four boys playing on the way, he would push someone else over them and then laugh out loud. Small girls used to go to the banks of the Ganges to worship the goddess and Ganga ji with the material of worship. You would go near him and say- ‘Offer all the offerings to us, we will give you the desired boon.’ Little girls would be very pleased to see his incomparable beauty and give him many sweets to eat. He would give them a boon. They say to someone, ‘You will get a very handsome husband.’ They say to someone, ‘You will get married at a very rich man’.

On hearing this, the girls used to show false anger and say- ‘Nimai! If you talk to us like this, then we will not give you sweets.’ Many girls used to hide their offerings and run away, then he would say to them laughingly – ‘Even if you run away, you will get a good husband. Even if he is rich, he will be very stingy. There will be 5 step-daughters in the house, all girls will be born. Hearing this, all the girls started laughing and returned and gave them sweets. Saying to someone – Worship me, I am the visible deity of all. Sometimes he would pick up the garlands and put them around his neck. He would go to the women and seeing them worshiping, would say – ‘ If you worship Hari, then you will have a boy. No one should ask about caste.’ The women started laughing after hearing this. Those who were sisters-in-law or aunts from their village relations used to harass them a lot and gave them sweets to eat. Lakshmi Devi also used to come to worship among these girls. She was a very innocent girl. He had a natural affection for Nimai. Due to the rituals of previous births, she would feel ashamed on seeing Nimai and an immense source of joy would start rising in her heart. All of them used to see him along with the girls, but did not say anything to him, nor did he ever ask for sweets from him. That’s why Lakshmidevi had a heartfelt desire that someday she would accept my offering too. But don’t know why he felt ashamed to give without asking. One day, seeing Lakshmidevi going for worship, you said to her – ‘You worship only us.’ Hearing this, the innocent girl started worshiping her with great devotion. Trembling with small, thin fingers, he offered sandalwood on Nimai’s head, applied Akshat, garlanded him, offered Naivedya and bowed down with folded hands.

Nimai blessed- ‘May you get a divinely handsome and virtuous husband.’ Hearing this, the poor girl buried herself in the ground in shame and quickly ran away from there. Later, this same Lakshmidevi got the privilege of being the first wife of Nimai. He was considered the leader among all the boys with him. It was as if playfulness was in their veins. There was no other child more naughty than him. All the boys used to love him very much, as if he was the supreme commander of the children’s army. The boys would have done all kinds of duties and duties as soon as they got their signal. Right from childhood, he had this seductive skill that once he stayed with him, he used to become his slave forever. That’s why he used to do different kinds of children’s games on the banks of the Ganges with all his friends. He used to enjoy troubling men and women. Sometimes they would make many small sand balls. Everyone used to fill ten, twenty-twenty laddus in their bags and stand on one side.

Whoever came out after bathing in the Ganges, all of them used to throw laddoos of coarse sand on them and quickly throw them away. Sometimes he used to take someone’s dry dhoti and dip it in Ganga ji. Sometimes he used to do such a thing that where ten to five people were sitting and talking, he would sit near them and gently tie the clothes of one to the clothes of the other. When they got up to take a bath, they would pull each other towards them. Sometimes the clothes would also get torn. Standing apart with his companions, he would clap and laugh out loud, everyone would start laughing, the poor thing would get embarrassed.

Sometimes he used to take bath with the boys for hours. They used to pour water on each other for hours. By making someone a turtle, you would have climbed on top of him. Sometimes by filling air in the dhoti, he would flow along with it towards the flow of Ganga ji and sometimes he would remove air bubbles from the inflated balloon of that dhoti. He used to go to the women’s ghats, there he used to make the form of a turtle by putting a bud in the water and would dive and hold the feet of the women taking bath. The women used to come out screaming, then they would come on top of the water laughing and say to everyone- ‘Look how we have become turtles.’ Mishra ji will cure you by beating you.’ Someone would say. ‘We have never seen such a riotous boy. It crosses the line.

He spoiled our boys too. They don’t listen to us at all.’ Someone says, don’t know Veer! What magic is there in this boy, he creates so much nuisance, yet I find him very cute’ everyone would support this. Like women, men also got fed up with their various nuisances. Many went and complained to his father. Women also went to Sachimata and started giving sweet remonstrances. Shachidevi used to flatter everyone and said with humility – ‘What should I do now, that boy is yours too. I refuse a lot, the devil does not leave, you beat him a lot.’ The women laughed hearing this and returned happy in their hearts.

One day many pundits went and complained about Nimai to Mishra ji and said, ‘Go and see now, then you will know how much trouble he creates.’ Hearing this, Mishra ji went to the banks of the Ganges filled with anger. Someone went and told this dialogue to Nimai. Nimai quickly reached home through another route and put a standing etc. on his body and said to his mother – ‘ Amma! Give me oil so that I can come after bathing in the Ganges.’ Mother said- ‘Haven’t you taken bath till now?’ You said ‘where did you take bath now? You quickly give me oil and dhoti. ‘ Saying this, you took oil in your hand and pressed the dhoti in your side and went towards Ganga ji. On the other side, Mishra ji went to the bank of Ganga ji and asked the children, ‘Did Nimai come here?’ The children were already taught. He said, ‘Today Nimai has not come here at all.’

Hearing this, Mishra ji started returning towards home. While coming out of the house, Nimai was found wearing a dhoti next to him. Mishra ji said- ‘Why do you create so much riots?’ You said loudly ‘Don’t know why people are following us? Amma used to say the same thing that women used to complain about you a lot. I am just coming after reading. Haven’t gone towards Ganga ji till now. If they come and make false complaints about us, then now we will do the truth.’ Mishra ji became silent and he laughed and went to bathe in Ganga ji. He went to the boys and narrated all the stories of his cleverness. The boys started laughing out loud on hearing this.

Thus, their condition became 5 years. The parents would have enjoyed their playful attitude. Visvaroop was 11-12 years older than them, but he was much more serious from birth, so his father also respected him very much. Now he was 16 years old, so according to the principle of ‘prapte tu shodashe varshe putram mitravadacharet’, that is, when a son reaches the age of 16, he should be treated like a friend.

One day the mother had cooked and prepared food, but Vishwaroop had not yet come from school. He used to study in the school of Shri Advaitacharya. Acharya’s school was a little far away from Mishraji’s house towards Gangaji. Mother said to Nimai – ‘ Son Nimai! Look, your grandfather hasn’t come to have food yet. At least go and call him from the school.’ All I had to hear was that he walked from there naked to the school. The radiance of the body was twinkling with the light of the sun like molten gold. A clean dhoti looked very good on a proud body. Nimai was wearing half a dhoti. His beautiful and clean eyes like big developed lotuses were doubling the beauty of Mukhchandra.

Laughing in front of Acharya, he said to his brother ‘Dadda! Come on, the rice is ready, Amma is calling you.’ Vishwaroop made Nimai sit on his lap and said affectionately – ‘Nimai! Salutations to Acharya Dev’ Hearing this, Nimai started smiling somewhat shyly. Because of shame, he used to go secretly in the lap of brother Vishwaroop. After taking permission from Acharya, Vishwaroop got ready to go home. Nimai was standing behind him holding the Vishvarupa’s cloth. Acharya looked at Nimai very carefully. Earlier today, he had seen Nimai very well. On seeing this, electricity started running in his whole body. It began to appear to him that the Bhavabhayahari Janardan whom I have been worshiping for so many days, that very Janardan has come in the form of a child to give me fearlessness. He bowed down at the lotus feet of Nimai in his mind and while suppressing his feelings said – ‘Vishwaroop! He is your brother, isn’t he?

Vishwaroop humbly said – ‘ Yes, Acharya Dev! This is my little brother. He is very playful, he stands quietly in front of you like an innocent child, if you see him on the banks of the Ganges or at home, then you will know how amazing he is. Turns the world upside down. Mother gets fed up with this. Acharya started laughing after hearing this. Nimai started looking at Acharya hiding from the guise of Vishwaroop. Nimai again and again looked at Acharya two or three times while going by holding the Vishvarupa’s cloth. Acharya became unconscious. They could not understand exactly why this child is suddenly attracting our attention. In the end, he became the chief councilor of Acharya Gaurangdev, through whom Gaurang came to be considered as an incarnation. That’s why now it is necessary to know who was this Advaitacharya and how was his school?

*next post respectively* [16]

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[Published by Geetapress, Gorakhpur by Shri Prabhudatta Brahmachari

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