।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
निन्दक के प्रति भी सम्मान के भाव
क्षमा शस्त्रं करे यस्य दुर्जनः किं करिष्यति।
अतृणे पतितो वहिनः स्वयमेवोपशाम्यति।।
महात्मा दादू दयाल जी ने निन्दा करने वाले को अपना पीर-गुरु बताकर उसकी खूब स्तुति की। जिन पाठशालाओ में परीक्षक होते हैं और वे सदा परीक्षा ही लेते रहते हैं, उसी प्रकार इन निन्दकों को भी समझना चाहिये। परीक्षक उन्हीं छात्रों की परीक्षा करते हैं, जो विद्वान बनने की इच्छा से पाठशाला में निमित्त प्रवेश करते हैं। जो बालक पढ़ता ही नहीं, जो जानवरों की तरह पैदा होते ही खाने-पीने की चिन्ता में लग जाता है उसकी परीक्षक परीक्षा ही क्या करेगा? वह तो निरक्षरता की परीक्षा में पहले ही उत्तीर्ण हो चुका है। इसी प्रकार निन्दक लोग उसी की निन्दा करते हैं तो इहलौकिक तथा पारलौकिक उन्नति करना चाहते हैं, जो श्रेष्ठ बनने की इच्छा से उन्नति की पाठशाला में प्रवेश करते हैं। जिसके जीवन में कोई विशेषता ही नहीं, जो आहार, निद्रा, भय और मैथुनादि धर्मों में अन्य प्राणियों के समान व्यवहार करता है उसकी निन्दा स्तुति दोनों समान हैं।
इहलौकिक उन्नति में निन्दा चाहे कुछ विघ्न भी कर सके, किन्तु पारलौकिक उन्नति में तो निन्दा सहायता ही करती हैं। निन्दा के दो भेद हैं- एक तो अपवाद, दूसरा प्रवाद। बुरे काम करने पर जो निन्दा होती है उसे अपवाद कहते हैं। उससे बचने की सभी को जी जान से कोशिश करनी चाहिये, किंतु कोई निन्दित कर्म किया तो है नहीं और वैसे ही लोग डाह से, द्वेष से या भ्रम से निन्दा करने लगे हैं उसे प्रवाद कहते हैं। उन्नति के पथ की ओर अग्रसर होने वाले व्यक्ति को प्रवाद की परवा न करनी चाहिये। प्रवाद ही उन्नति के कण्टकाकीर्ण शिखर पर चढ़ाने के लिये सहारे की लाठी का काम देता है। जो लोकरंजन के लिये प्रवाद की परवा करके उसकी असथार्थता लोगों पर प्रकट करते हैं वे तो ईश्वर हैं। ईश्वरों के तो वचनों को ही सत्य मानना चाहिये, उनके आचरणों की सर्वत्र नकल न करनी चाहिये। धोबी के प्रवाद पर निष्कलंक और पतिपरायणा सती-साध्वी जगन्माता सीता जी को श्री रामचन्द्र जी ने त्याग दिया। लोगों के दोष लगाने पर भगवान स्यमन्तकमणि को ढूँढते-ढूँढते परेशान हो गये। ये कार्य उन्हीं अवतारी पुरुषों को शोभा देते हैं हम साधारण कोटि के जीव यदि इस प्रकार के प्रवादों की परवा करें तब तो हम लोगों को पैर रखने की जगह भी न मिलेगी, क्योंकि जगत प्रवाद प्रिय है, इसे दूसरों की झूठी निन्दा करने में मजा मिलता है। ऐसे ही एक निन्दक महाशय स्वामी रामचन्द्रपुरी प्रभु के समीप कुछ काल रहे थे, उनका वृत्तान्त सुनिये।
भगवान माधवेन्द्रपुरी श्रीशंकराचार्य के दस नामी संन्यासियों में होने पर भी भक्तिभाव के उपासक थे। वे व्रजविहारी को ही सविशेष, निर्विशेष, साकार-निराकार तथा देशकाल और कार्यकारण से पृथक सच्चिदानन्द स्वरूप ब्रह्म समझते थे। वे निर्विशेष ब्रह्म की निन्दा करते थे। उनका कथन था- ‘भाई ! जिन्हें निर्गुण निर्विशेष ब्रह्म के ध्यान में आनन्द आता हो, वे भले ही ध्यान और अभ्यास के द्वारा उस निराकार ब्रह्म का ध्यान करें, किन्तु हमारा मन तो उस यमुना के पुलिनों पर गौओं के पीछे दौड़ने वाले किसी श्सामरंग के छोकरे ने हर लिया है। हमारी आँखों में तो वही गड़ गया है। उसके सिवा हमें दूसरा रूप भाता ही नहीं, विश्व हमें नीला-ही-नीला दीखता है।[1] ये रामचन्द्रपुरी जी भी उन्हीं भगवान माधवेन्द्रपुरी के शिष्य थे। उनके शिष्यों में परमानन्दपुरी, रंगपुरी, रामचन्द्रपुरी और ईश्वरपुरी आदि के नाम मिलते हैं। इन सबमें शिवपुरी ही अपने गुरु में अत्यधिक श्रद्धा रखते थे और उनकी छोटी-से-छोटी सेवा अपने ही हाथों से करते थे, इसीलिये इन पर गुरु महाराज का प्रसाद सबसे अधिक हुआ और उसी के फलस्वरूप इन्हें गौरांग महाप्रभु के मंत्र दीक्षा गुरु होने का लोकविख्यात पद प्राप्त हो सका। ये रामचन्द्रपुरी महाशय पहले से ही सूखी तबीयत के और गुरु निन्दक थे।
जब भगवान माधवेन्द्रपुरी का अन्तिम समय आया और वे इस नश्वर शरीर को परित्याग करके गोलोक को गमन करने लगे तब श्रीकृष्ण विरह में छटपटाते हुए रुदन करने लगे। रोते-रोते वे विकलता के साथ साँस भर भर कर वेदना के स्वर में कहते- ‘हा नाथ ! तुम्हें कब देख सकूँगा, मथुरा में जाकर आपके दर्शन न कर सका। हे मेरे मनमोहन ! इस अधम को भी उबारो, मैं आपके विरहजन्य दुःख से जला जा रहा हूँ !’ उनकी इस पीड़ा को, विकलता को, कातरता और अधीरता को कोई सच्चा भगवत रसिक ही समझ सकता था। शुष्क तबीयत के; अखण्ड प्रकृति से, ज्ञानाभ्यासी रामचन्द्रपुरी इस व्यथा का मर्म क्या जानें। उन्होंने वे ही सुनी हुई ज्ञान की बातें छाँटनी शुरू कर दीं। उन शिक्षकमानी महात्मा को यह भी ध्यान नहीं रहा कि जिन महापुरुष से हमने दीक्षा ली है वे भी इन बातों को जानते होंगे। वे गुरु जी को उपदेश करने लगे- ‘महाराज ! आप ये कैसी मोह की सी भूली-भूली बातें कर रहे हैं, यह हृदय ही मथुरा है, आप ही ब्रह्म हैं, जगत त्रिकाल में भी नहीं हुआ। आप इस शोक को दूर कीजिये और अपने को ही ब्रह्म अनुभव कीजिये।’
धीरे से क्षीण स्वर में महाराज ने अपने प्रिय शिष्य ईश्वरपुरी महाराज को बुलाया और उन्हें आज्ञा दी कि रामचन्द्र को मेरे सामने से हटा दो। रामचन्द्रपुरी गुरु की असन्तुष्टता को लिये हुए ही बाहर हुए। भगवान माधवेन्द्रपुरी ने श्रीकृष्ण-श्रीकृष्ण कहते हुए और अन्तिम समय में इस श्लोक का उच्चारण करते हुए इस पांच भौतिक नश्वर शरीर को त्याग दिया-
अयि दीनदयार्द्र नाथ हे मथुरानाथ कदावलोक्य से।
हृदयं त्वदलोककातरं दयित! भ्राम्यति किं करोम्यहम्।।[1]
पुरी महाराज के निधन के अनन्तर ईश्वरपुरी महाराज तो गौड़-देश की ओर चले गये और रामचन्द्रपुरी तीर्थों में भ्रमण करते रहे। भ्रमण करते-करते ये प्रभु की कीर्ति और प्रशंसा सुनकर पुरी में आये। आकर उन्होंने अपने ज्युष्ठ गुरुभ्राता परमानन्द जी पुरी के चरणों में प्रणाम किया और फिर प्रभु से मिलने के लिये गये। प्रभु इनका परिचय पाकर उठकर खड़े हो गये और इनके चरणों में गुरुभाव से श्रद्धा के साथ प्रणाम किया और भी प्रभु के साथी बहुत से विरक्त भक्त वहाँ आ गये, सभी ने गुरुभाव से पुरी को प्रण्धाम किया और बहुत देर तक भगवत्सम्बन्धी बातें होती रहीं।
प्रभु के पास आये हुए अतिथियों का भार इन्हीं सब विरक्त वैष्णवों पर था। वे लोग भिक्षा करके लाते थे और उसी से आगत अतिथियों का स्वागत सत्कार करते रहे। महाप्रभु की भिक्षा का कोई नियम नहीं था, जो भी भक्त निमन्त्रण करके प्रसाद दे जाय उसे ही प्रभु पा लेते थे। सार्वभौम भट्टाचार्य आदि गृहस्थी भक्त प्रभु को अपने घर पर भी बुलाकर भिक्षा कराते थे और विरक्त भक्त भी बारी-बारी से प्रभु को भिक्षा करा दिया करते थे। सामान्यतया प्रभु की भिक्षा में चार आने का खर्च था। चार आने के प्रसाद में प्रभु की भिक्षा का काम चल जाता और सब तो इधर उधर से भिक्षा कर लाते थे। केवल श्री ईश्वापुरी के शिष्य काशीश्वर और सेवक गोविन्द ये दो प्रभु के ही समीप भिक्षा पाते थे। इन चार आनों के प्रसाद में तीनों का ही काम चल जाता था। इसके अतिरिक्त प्रेम के कारण कोई और भी अधिक मिष्टान्न आदि पदार्थ ले आवे तो प्रभु उसकी भी अवहेलना नहीं करते थे। प्रसाद में उनकी भेद बुद्धि नहीं थी।
भक्त प्रेमपूर्वक प्रभु का आग्रह कर करके खूब खचिालाते थे और प्रभु भी उनके आग्रह को मानकर इच्छा न होने पर भी थोड़ा खा लेते थे। उस दिन नवागत रामचन्द्रपुरी का निमन्त्रण जगदानन्द जी ने किया। मन्दिर से प्रसाद लाकर उन्होंने प्रेमपूर्वक उन्हें भिक्षा करायी। वे तो प्रेमी थे, प्रभु को जिस प्रकार प्रेम पूर्वक आग्रह के साथ भिक्षा कराते थे, उसी प्रकार आग्रह कर करके उन्हें भी खूब खिलाया।
वे महाशय आग्रह करने से खा तो बहुत गये; किन्तु जाते ही उन्होंने जगदानन्द पण्डित की निन्दा करनी आरम्भ कर दी। कहने लगे- ‘सचमुच हमने जो सुना था कि श्रीकृष्ण-चैतन्य के सभी भक्त पेटू हैं, यह बात ठीक ही निकली। भला, साधु होकर जो इतना अन्न खायेगा, वह भजन पूजन कैसे कर सकेगा?’ इस प्रकार की बहुत सी बातें वे लोगों से कहते। स्वयं त्याग के अभिमान के कारण भिक्षा करके खाते। जहाँ तहाँ एकान्त स्थानों और पेड़ों के नीचे पड़े रहते और महाप्रभु के आचरण की लोगों में खूब निन्दा करते। वे अपने स्वभाव से विवश थे, प्रभु का इतना भारी प्रभाव उन्हें अखरता था। उनमें ही क्या विशेषता है कि लोग उन्हीे की पूजा करते हैं। वे संन्यासी होकर भी गृहस्थियों के घर में रहते हैं। हम विरक्तों की भाँति एकान्त स्थानों में निवास काते हैं। वे रोज बढ़िया-बढ़िया पदार्थ संन्यासी धर्म के विरुद्ध अनेकों बार खाते हैं। हम यतिधर्म का पालन करते हुए रूखी-सूखी भिक्षा पर ही निर्वाह करते हैं। वे सदा लोगों से घिरे रहते हैं। हम लोगों से एकदम पृथक रहते हैं। फिर भी मूर्ख लोग हमारा सत्कार न करके डनहीं का सबसे अधिक सत्कार करते हैं। मालूम होता है लोग यतिधर्म से अनभिज्ञ हैं, हम उन्हें समझाकर उनके भ्रम को दूर कर देंगे। यह सोचकर वे प्रभु के आचरणों की निन्दा करने लगे और यतिधर्म के व्याज से अपनी प्रशंसा करने लगे।
भक्तों ने जाकर यह बात प्रभु से कही। प्रभु तो किसी के सम्बन्ध का निन्दावाक्य सुनना ही नहीं चाहते थे, इसीलिये उन्होंने इस बात की एकदम उपेक्षा ही कर दी। रामचन्द्र जी अपने स्वभावानुसार प्रभु की तथा उनके भक्तों की सदा कड़ी आलोचना करते रहते थे।
एक दिन वे प्रातःकाल प्रभु के पास पहुँचे। उस समय प्रभु समुद्रस्नान करके बैठे हुए भगवन्नामों का जप कर रहे थे। एक ओर सुन्दर कमण्डलु रखा था, दूसरी ओर श्रीमद्भागवत की पुस्तक रखी थी। रात्रि की प्रसादी मालाएँ भी वहाँ टँग रही थीं। पुरी को देखते ही प्रभु ने उन्हें उठकर सादर प्रणाम किया और बैठने के लिये आसन दिया। जिस प्रकार मीठा और विष्ठा पास पास रहने पर मक्खी की दृष्टि विष्ठा पर ही जाती है और वह मीठे को छोडकर विष्ठा पर ही बैइती है उसी प्रकार छिद्रान्वेषण स्वभाव वाले रामचन्द्रपुरी की दृष्टि सामने दीवार पर चढ़ती हुई चींटियों के ऊपर पड़ी। दीवाल पर चींटियों का चढ़ना कोई नयी बात नहीं थी, किन्तु वे तो छिद्रान्वेषण के ही निमित्त आये थे। इसलिये बोले-‘क्यों जी ! हम समझते हैं, तुम मीठा बहुत खाते हो, तभी तो तुम्हारे यहाँ इतनी चींटी हैं।’
प्रभु इसे अस्वीकार न कर सके। उन्होंने सरलता के साथ कहा- ‘भगवन ! भगवान के प्रसाद में मैं मीठे खट्टे का विचार नहीं करता।’
पुरी ने अपना गुरुत्व जताते हुए कहा- ‘यह बात ठीक नहीं है, ऐसा आचरण यतिधर्म के विरुद्ध है। संन्यासी को स्वादिष्ट पदार्थ तो कभी खाने ही न चाहिये। भिक्षा में जो भी कुछ रूखा सूखा मिल गया उसी से उदरपूर्ती कर लेनी चाहिये। साधु को स्वाद से क्या प्रयोजन? तुम्हारे सभी भक्त खूब खाते हैं आर तान दुपट्टा सोते हैं, भला इतना अधिक खाने पर भजन कैसे हो सकता है ! सुना है, तुम भी बहुत खाते हो।’
प्रभु ने अत्यन्त ही दीनता के साथ कहा-‘अब आप जैसा उपदेश करेंगे, वैसा ही करूँगा।’
पुरी ने कुछ गर्व के स्वर में कहा- हम क्या उपदेश करेंगे तुम स्वयं समझदार हो।
संन्यासी होकर संन्यासियों का सा आचरण करो, इस दुकानदारी को छोड़ो। लोगों का मनोरंजन करने से क्या लाभ? संन्यासी का जीवन तो घोर तितिक्षामय होना चाहिये। यह सुनकर प्रभु चुप हो गये और रातचन्द्रपुरी उठकर चले गये। तब प्रभु ने गोविन्द को बुलाकर कहा- ‘गोविन्द ! आज से मेरे लिये एक ‘चोठि’ भात और पाँच पीठा के व्यंजन, बस यही भिक्षा में लिया करना। इससे अधिक मेरे लिये किसी से भिक्षा ली तो मैं बहुत असन्तुष्ट होऊँगा।’ जगन्नाथ जी का प्रसाद सदा मिट्टी की हाँडियों में बनता है। एक हाँडी के चौथाई भाग को ‘एक चोठि’ या एक चौथाई बोलते हैं। मालूम पड़ता है, उन दिनों मोल लेने पर एक हाँडी भात दो-तीन पैसे में मिलता होगा और एक दो पैसे में दूसरे व्यंजन। चार पैसे के प्रसाद में चार-पाँच आदमियों की भली-भाँति तृप्ति हो जाती होगी। अब प्रभु ने केवल एक पैसे का ही भोग लेना स्वीकार किया।
काशीश्वर और गोविन्द से कह दिया- ‘तुम लोग अन्यत्र जाकर भिक्षा ले आया करो।’ गोविन्द उदास मन से लौट गया। वह प्रभु की इस कठोर आज्ञा का कुछ भी अभिप्राय न समझ सका। गोविन्द प्रभु का अत्यन्त ही अन्तरंग भक्त था, उसका प्रभु के प्रति मातृवत स्नेह था। प्रभु की सेवा में उसे परमानन्द सुख का अनुभव होता था। उसे पता था कि प्रभु जिस बात का निश्चय कर लेते हैं, फिर उसे सहसा जल्दी नहीं छोड़ते। इसलिये उसने प्रभु के आज्ञा पालन में आनाकानी नहीं की। उस दिन एक ब्राह्मण ने प्रभु को निमन्त्रण किया था। वह बहुत सा सामान प्रभु की भिक्षा के निमित्त लाया था, किन्तु उसने उतना ही प्रसाद उसमें से लिया जितने की प्रभु ने आज्ञा दी थी, शेष सभी लौटा दिया। इस बात से ब्राह्मण को अपार दुःख हुआ, किन्तु प्रभु ने अधिक लेने की स्वीकृति ही नहीं दी।
भक्तों को इस बात का पता चला। सभी रामचन्द्रपुरी को खोटी-खरी सुनाने लगे। सभी प्रभु के समीप आ आकर प्रार्थना करने लगे।, किन्तु प्रभु ने इससे अधिक भिक्षा स्वीकार नहीं की। यह बात रामचन्द्रपुरी को भी मालूम हुई। वह भी प्रभु के भावों को ताड़ने के निमित्त प्रभु के समीप आये। प्रभु ने पूर्ववत ही उठकर उन्हें प्रेमपूर्वक प्रणाम किया और बैठने के लिये अपने से ऊँचा आसन दिया। आसन पर बैठते हुए गुरुत्व के भाव से पुरी कहने लगे- ‘हमने सुना है, तुमने हमारे कहने से अपना आहार घटा दिया है, यह बात ठीक नहीं है। हमारे कहने का अभिप्राय यह था कि आहर-विहार युक्त रहना चाहिये! इतना अधिक भी न करना चाहिये कि भजन में बैठा ही न जाय और इतना कम भी न करना चाहिये कि शरीर कृश हो जाय। युक्तपूर्वक भोजन करना चाहिये। शरीर सुखाने से क्या लाभ?
प्रभु ने धीरे से नम्रता के साथ कहा- ‘मैं आपका बच्चा हूँ, आप गुरुजन जैसी आज्ञा करेंगे, वैसा ही मैं करूँगा।’
उसी स्वर में पुरी कहने लगे- ‘हाँ, यह तो ठीक है, किन्तु भोजन पेट भर किया करो।’ इतना कहकर पुरी महाराज चले गये। किन्तु प्रभु ने अपने आहार उतना ही रखा; उसमें कुछ भी परिवर्तन नहीं किया। इससे भक्तों को तो बड़ा ही दुःख हुआ। वे सब परमानन्द जी पुरी के पास पहुँचे और उनसे प्रार्थना करने लगे कि वे प्रभु को समझा दें। भक्तों के कहने पर परमानन्द जी प्रभु के पास गये और अत्यन्त ही क्षीण देखकर कहने लगे- ‘आप इतने कृश क्यों हो गये हैं, सुना है आपने अपना आहार भी अति सूक्ष्म कर दिया है, इसका कारण क्या है?’
प्रभु ने सरलता पूर्वक उत्तर दिया- ‘श्रीपाद रामचन्द्र जी पुरी ने मुझे ऐसी आज्ञा दी थी कि संन्यासी को कम आहार करना चाहिये।’
कुछ रोष के स्वर मे परमानन्द जी ने कहा- ‘आपने भी किसकी बात मानी? उसे आप नहीं जानते, उसका तो स्वभाव ही दूसरों की निन्दा करना है, ऐसे निन्दकों के उपदेश पर चलने लगें तो सभी रसातल में पहुँच जायँ। आपकी तो बात ही क्या है, वह तो महामहिम श्री गुरुचरणों की निन्दा किये बिना नहीं रहता था। उसके कहने से आप शरीर को सुखा रहे हैं, इससे हमें बड़ा कष्ट होता है। आप हमारे आग्रह से भर पेट भोजन किया कीजिये।’
प्रभु ने सरलता के साथ कहा- ‘आप भी गुरु हैं, वे भी मान्य हैं। आपकी आज्ञा को भी टाल नहीं सकता, आज से कुछ अधिक खाया करूँगा।’ प्रभु के ऐसा विश्वास दिलाने पर पुरी उठकर अपने आसन पर चले गये। उस दिन से प्रभु ने आहार कुछ बढ़ाया तो अवश्य, किन्तु पहले के बराबर उनका आहार फिर कभी हुआ ही नहीं। सभी भक्त मन ही मन रामचन्द्रपुरी को कोसने लगे ओर भगवान से प्रार्थना करने लगे कि जल्दी ही इनके श्वेत पैर पुरी की पावन भमि को परित्याग करके कहीं अन्यत्र चले जायँ। भक्तों की प्रार्थना भगवान ने सुन ली और थोड़े दिनों बाद रामचन्द्रपुरी महाशय अपने आप ही पुरी छोड़कर किसी अन्य स्थान के लिये चले गये।
क्रमशः अगला पोस्ट [157]
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]
, Shri Hari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram sense of respect even towards the slanderer
What can a wicked man do who has forgiveness as a weapon in his hand A carrier that has fallen into the grass will automatically calm down.
Mahatma Dadu Dayal ji praised the blasphemer by calling him his peer-guru. In schools where there are examiners and they always take examinations, in the same way these detractors should also be understood. Examiners examine only those students who enter the school with the desire to become scholars. The child who does not study at all, who starts worrying about food and drink as soon as he is born like animals, what will the examiner do with him? He has already passed the test of illiteracy. In the same way, detractors blaspheme him, so they want to progress in this world and beyond, who enter the school of progress with the desire to become the best. One who has no specialty in his life, who behaves like other creatures in food, sleep, fear and sexual intercourse, his praise and condemnation are equal.
Criticism may create some hindrance in the progress of this world, but in the progress of the world, criticism only helps. There are two types of censure – one is exception, the other is profanity. The condemnation that is done for doing bad deeds is called exception. Everyone should try with all their heart to avoid it, but no reprehensible deed has been done and in the same way people have started condemning out of envy, malice or delusion, that is called Pravad. A person who is moving towards the path of progress should not care about the problems. Pravad itself serves as a stick of support to take us to the thorny peak of progress. The one who cares about Pravad for Lokaranjan and reveals its unreality to the people, he is God. Only the words of Gods should be accepted as truth, their practices should not be copied everywhere. Shri Ramchandra ji abandoned the unblemished and patiparayana sati-saadhvi Jaganmata Sita ji on the advice of the washerman. When people blamed him, he got upset while searching for Syamantakamani. These works suit only those incarnate men, if we ordinary creatures care about such types of pravadas, then we will not even get a place to step foot, because the world is dear to pravadas, it finds pleasure in criticizing others falsely. Is. Listen to the story of one such blasphemer, Mr. Swami Ramchandrapuri who was staying near Prabhu for some time.
Lord Madhavendrapuri was a devotee of Sri Shankaracharya even though he was among the ten famous sanyasis. He understood Vrajavihari as the Brahman in the form of Sachchidananda, with and without distinction, formless and formless, separate from place, time and cause. They condemned the unspecified Brahman. His statement was: ‘Brother! Those who delight in the meditation of the Nirguna Nirvishesha Brahman may meditate on that formless Brahman through meditation and practice, but our minds have been captured by some Ssamarang boy running after the cows on the banks of the Yamuna. That’s what’s in our eyes. We do not see any other form except Him, the world appears to us blue-only-blue.[1] This Ramachandrapuri was also a disciple of the same Lord Madhavendrapuri. Among his disciples are Paramanandpuri, Rangpuri, Ramachandrapuri and Ishwarpuri. Among all these, Shivpuri had the utmost faith in his Guru and did his smallest service with his own hands, hence he received the most grace of Guru Maharaj and as a result he became famous as the Mantra Initiation Guru of Gaurang Mahaprabhu position could be obtained. This Ramachandrapuri Mahasaya was already of dry health and a blasphemer of the Guru.
When Lord Madhavendrapuri’s last time came and he left this mortal body and started moving to Goloka, Shri Krishna started crying in separation. Weeping with distress, he said in a voice of pain with full breath – ‘ Ha Nath! When will I be able to see you, I could not go to Mathura and see you. Hey my Manmohan! Save this wretch as well, I am burning with the sorrow of your separation!’ Only a true devotee of God could understand his pain, distress, shyness and impatience. of dry health; From unbroken nature, knowledgeable Ramchandrapuri how to know the meaning of this agony. They started sorting the things of knowledge that they had heard. That great teacher did not even notice that the great men from whom we took initiation must also know these things. They started preaching to Guru ji – ‘ Maharaj! What kind of delusional things are you talking about, this heart is Mathura, you are Brahma, the world did not exist even in Trikal. You remove this grief and feel yourself as Brahman.
In a low voice, Maharaj called his dear disciple Ishwarpuri Maharaj and ordered him to remove Ramchandra from my presence. Ramchandrapuri went out carrying Guru’s dissatisfaction. Lord Madhavendrapuri renounced this five material mortal body saying Shri Krishna-Shri Krishna and uttering this verse at the last moment-
O poor and merciful Lord, O Lord of Mathura, from Kadavalokya. My heart is afraid of your world, dear! What am I going to do when it turns around?
After the death of Puri Maharaj, Ishwarpuri Maharaj went to Gaud-Desh and kept visiting Ramchandrapuri pilgrimages. While traveling, he came to Puri after hearing the fame and praise of the Lord. After coming, he bowed down at the feet of his elder brother Parmanand Ji Puri and then went to meet the Lord. Prabhu got up after getting his introduction and bowed down at his feet with devotion and also many disinterested devotees of Prabhu came there, all of them bowed down to Puri and the talks related to Bhagwat continued for a long time.
The burden of the guests who had come to the Lord was on all these disinterested Vaishnavas. Those people used to bring alms and with that they kept welcoming the incoming guests. There was no rule of Mahaprabhu’s alms, whatever devotee invited and offered Prasad, only that was received by the Lord. Household devotees like Sarvabhaum Bhattacharya used to call the Lord at their home and offer alms and the disinterested devotees also used to give alms to the Lord in turn. Normally the alms of the Lord used to cost four annas. In the prasad of four annas, the work of alms for the Lord would have been done and everyone used to bring alms from here and there. Only two disciples of Shri Ishwapuri, Kashishwar and servant Govind used to get alms near the Lord. The work of all three was done in the prasad of these four grains. Apart from this, if someone brought more sweets etc. out of love, then the Lord did not disregard that too. He did not have any discrimination in Prasad.
The devotees used to cry a lot by urging the Lord with love and the Lord also obeyed their request and used to eat a little even when they didn’t want to. On that day, Jagdanand ji invited the newcomer Ramchandrapuri. Bringing prasad from the temple, he lovingly made them alms. He was a lover, the way he used to make alms to the Lord with love and request, in the same way he also fed him a lot by requesting.
That gentleman ate a lot after urging; But as soon as he left, he started criticizing Jagadanand Pandit. Started saying- ‘Really what we had heard that all the devotees of Sri Krishna-Chaitanya are gourmets, this thing turned out to be correct. Well, being a saint who eats so much food, how will he be able to worship hymns?’ He used to say many such things to the people. Due to the pride of self-sacrifice, he used to eat by begging. Wherever he used to lie in lonely places and under trees, he used to criticize Mahaprabhu’s conduct a lot among the people. They were constrained by their nature, such a heavy influence of the Lord made them stubborn. What is the specialty of him that people worship him. Despite being a sannyasin, he lives in the house of householders. We live in lonely places like the estranged. They eat delicious food many times everyday against the sannyasin religion. We live on dry and dry alms while following Yatidharma. He is always surrounded by people. We live completely separate from people. Still, foolish people do not respect us and respect others the most. It seems that people are ignorant of Yetidharma, we will clear their confusion by explaining to them. Thinking of this, they started criticizing the conduct of the Lord and started praising themselves with the interest of Yeti Dharma.
The devotees went and told this to the Lord. Prabhu did not want to listen to the blasphemy about anyone’s relationship, that’s why he completely neglected this matter. According to his nature, Ramchandra ji always used to severely criticize the Lord and his devotees.
One day he reached the Lord early in the morning. At that time the Lord was chanting the names of the Lord sitting after taking a bath in the sea. On one side was kept the beautiful Kamandalu, on the other side was kept the book of Shrimad Bhagwat. Garlands of night offerings were also hanging there. On seeing Puri, the Lord got up and bowed down to him and gave him a seat to sit. Just as a fly’s eyes go to the excreta when sweet and excrement are near and it sits on excrement leaving the sweet, in the same way Ramchandrapuri’s vision of hole-exploring nature fell on the ants climbing the wall in front. It was not a new thing for ants to climb the wall, but they had come only for the purpose of digging holes. That’s why said – ‘Why! We understand, you eat sweets a lot, that’s why you have so many ants here.’
The Lord could not deny it. He said with simplicity – ‘ God! I don’t think of sweet and sour in God’s offerings.
Expressing his gravity, Puri said- ‘This thing is not right, such behavior is against Yatidharma. A sannyasin should never eat tasty things. Whatever dry food is found in alms, it should be filled with that. What is the use of taste to a monk? All your devotees eat a lot and sleep with a scarf, how can there be hymns after eating so much! I have heard that you also eat a lot.
The Lord said with great humility – ‘Now I will do as you preach.’
Puri said in a proud tone – What will we preach, you yourself are intelligent.
Be a monk and behave like a monk, leave this shop-keeping. What is the use of entertaining people? The life of a sannyasin should be very intense. Prabhu became silent after hearing this and got up and left for Ratchandrapuri. Then the Lord called Govind and said – ‘Govind! From today onwards, take one ‘chothi’ rice and five pitha dishes for me, just this in alms. If I take alms from anyone for me more than this, I will be very dissatisfied.’ Prasad of Jagannath ji is always made in earthen pots. One fourth part of a handi is called ‘Ek Chothi’ or one quarter. It seems that in those days, on bargaining, a pot of rice would be available for two-three paise and other dishes for a couple of paise. Four-five people would have been well satisfied in the prasad of four paise. Now the Lord has accepted the enjoyment of only one paisa.
Told Kashishwar and Govind- ‘You people go elsewhere and bring alms.’ Govind returned with a sad heart. He could not understand the meaning of this harsh order of the Lord. Govind was a very intimate devotee of the Lord, he had motherly affection for the Lord. He used to experience blissful happiness in the service of the Lord. He knew that whatever the Lord decides, he does not leave it suddenly. That’s why he didn’t hesitate to obey the Lord. That day a Brahmin had invited the Lord. He had brought a lot of things for the Lord’s alms, but he took only as much prasad from it as the Lord had ordered, returned all the rest. The Brahmin was deeply saddened by this, but the Lord did not allow him to take more.
The devotees came to know about this. Everyone started narrating lies to Ramchandrapuri. Everyone came near the Lord and started praying. But the Lord did not accept more alms than this. Ramchandrapuri also came to know about this. He also came close to the Lord for the purpose of chastising the feelings of the Lord. The Lord got up as before and bowed down to him lovingly and gave him a seat higher than himself to sit. Sitting on the seat, Puri said with a sense of gravity – ‘ We have heard, you have reduced your diet on our advice, this is not right. What we meant to say was that diet should be balanced. One should not do so much that one cannot sit in bhajan and one should not do so little that the body becomes emaciated. One should eat judiciously. What is the benefit of drying the body?
The Lord said softly with humility- ‘I am your child, I will do as you command the teacher.’
In the same voice, Puri started saying- ‘Yes, it is fine, but eat the food to your full stomach.’ Saying this, Puri Maharaj went away. But the Lord kept his diet the same; Nothing changed in that. Due to this, the devotees felt very sad. They all reached Parmanand ji Puri and started praying to him to explain to the Lord. At the behest of the devotees, Parmanand ji went to the Lord and seeing very emaciated, asked – ‘Why have you become so emaciated, I have heard that you have made your diet very subtle, what is the reason for this?’
The Lord replied simply- ‘Shripad Ramchandra ji Puri had given me such an order that a monk should eat less food.’
Parmanand ji said in a voice of anger – ‘Whose words did you also listen to? You don’t know him, his nature is to criticize others, if you start following the teachings of such slanderers, then everyone will reach the abyss. What is your point, he could not live without criticizing His Excellency Shri Guru’s feet. By saying that you are drying the body, it hurts us a lot. On our request, you should have a full meal.’
The Lord said simply – ‘ You are also a teacher, they are also valid. I can’t even disobey your order, I will eat more than today.’ Puri got up and went to his seat after being assured by the Lord. From that day the Lord increased his diet somewhat, but his diet was never the same again as before. All the devotees started cursing Ramchandrapuri in their hearts and started praying to God that soon their white feet should leave the holy land of Puri and go somewhere else. God listened to the prayers of the devotees and after a few days Ramchandrapuri Mahasaya left Puri on his own and went to some other place.
respectively next post [157] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]