[159]”श्रीचैतन्य–चरितावली”

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।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
जगदानन्द जी के साथ प्रेम-कलह

अनिर्दयोपभोगस्य रूपस्य मृदुनः कथम्।
कठिनं खलु ते चेतः शिरीषसयेव बन्धनम्।।

प्रेम कलह में कितना मिठास है, इसका अनुभव प्रेमी हृदय ही कर सकता है। यदि प्रेम में कलह पृथक की दी जाय जो उसका स्वाद उसी प्रकार का होगा जिस प्रकार चीनी निकालकर भाँति-भाँति के मेवा डालकर बनाये हुए हलुवे का। चीनी के बिना जिस प्रकार खूब घी डालकर बनाया हुआ हलवा स्वादिष्ट और चित्त को प्रसन्नता प्रदान करने वाला नहीं होता उसी प्रकार जब तक बीच बीच में मधुर मधुर कलह का सम्पुट न लगता रहे, तब तक उसमें निरन्तर रस नहीं आता। प्रणय-कलह प्रेम को नित्य नूतन बनाती रहती है। कलह प्रेमरूपी कभी न फटने वाली चद्दर की सज्जी है, वह उसे समय समय पर धोकर खूब साफ बनाती रहती है। किन्तु यह कलह मधुर भाव के उपासकों में ही भूषण समझी जाती है; अन्य भावों में तो इसे दूषण कहा है।

पण्डित जगदानन्द जी को पाठक भूले न होंगे, वे नवद्वीप में श्री निवास पण्डित के यहाँ प्रभु के साथ सदाकीर्तन में सम्मिलित होते थे। संन्यास ग्रहण करके जब प्रभु पुरी में पधारे तो ये भी प्रभु दण्ड लिये एक साधारण सेवक की भाँति उनके पीछे पीछे चले और रास्ते भर ये स्वर्य भिक्षा माँगकर प्रभु तथा अन्य सभी साथियों को भोजन बनाकर खिलाते थे। प्रभु के पहले वृन्दावन ताने पर ये भी साथ चले थे और फिर रामकेलि से ही उनके साथ लौट भी आये थे। प्रभु के नीलाचल में स्थायी रहने पर ये भी वहाँ स्थायी रूप से रहने लगे। बीच बीच में प्रभु की आज्ञा से शची माता के लिये भगवान का प्रसादी वस्त्र और महाप्रसाद लेकर ये नवद्वीप आया जाया भी करते थे। प्रभु के प्रति इनका अत्यन्त ही मधुर भाव था। भक्त इनके अत्यन्त ही कोमल मधुर भाव को देखकर इन्हें सत्यभामा का अवतार बताया करते थे और सचमुच इनकी उपासना थी भी इसी भाव की। ये प्रभु के संन्यास की कुछ भी परवा नहीं करते थे। ये चाहते थे, प्रभु खूब अच्छे अच्छे पदार्थ खायें, सुन्दर सुन्दर वस्त्र पहनें और अच्छे अच्छे स्वच्छ और सुन्दर आसनों पर शयन करें। प्रभु यतिधर्म के विरुद्ध इन वस्तुओं का सेवन करना चाहते नहीं थे। बस, इसी बात पर कलह होती ! कलह का प्रधान कारण यही था कि जगदानन्द प्रभु के शरीर की तनिक सी भी पीड़ा को सहन नहीं कर सकते थे और प्रभु शरीर-पीड़ा की कभी परवा ही नहीं करते थे। जगदानन्द जी अपने प्रेम के उद्रेक में प्रभु से कड़ी बातें भी कह देते और प्रभु भी इनसे सदा डरते-से रहते।

एक बार ये महाप्रसाद और वस्त्र लेकर नवद्वीप में शचीमाता के समीप गये। माता इन्हें देखकर अपने निमाई के दर्शनों का अनुभव करती थी और सभी गौरभक्त भी इनके दर्शनों से श्रीचैतन्य चरणों के दर्शनों का सा आनन्द प्राप्त करते। ये जाते तो सभी भक्तों से मिलकर ही आते। नवद्वीप से आचार्य के घर शान्तिपुर होते हुए ये शिवानन्द जी सेन के घर भी गये। वहाँ से ये एक कलश सुगन्धित चन्दनादि तैल प्रभु के निमित्त लेते आये। प्रभु सदा भाव में विभोर से रहते। उनके अंग प्रत्यंगों की नसें ढीली हो जातीं और सम्पूर्ण शरीर में पीड़ा होने लगती। इन्होंने सोचा के इस तैल से प्रभु की वात-पित्तजन्य सभी व्याधियाँ शान्त हो जाया करेंगी।

प्रेम के आवेश में पण्डित होकर भी ये इस बात को भूल गये कि संन्यासी के लिये तैल लगाना शास्त्रों में निषेध है। प्रेम में युक्तायुक्त विचारणा रहती ही नहीं। प्रेमी के लिये कोई लौकिक नियम नहीं, उसकी मथुरा तो तीन लोक से न्यारी हैं। जगदानन्द जी ने तैल लाकर गोविन्द को दे दिया और उससे कह दिया कि इसे प्रभु के अंगों में मल दिया करना।

गोविन्द ने प्रभु से निवेदन किया- ‘प्रभो ! जगदानन्द पण्डित गौड़देश से यह चन्दनादि तैल लाये हैं और शरीर में मलने के लिये कह गये हैं। अब जैसी आज्ञा हो वैसा ही मैं करूँ।’ प्रभु ने कहा- ‘एक तो जगदानन्द पागल है, उसके साथ तू भी पागल हो गया। भला, संन्यासी होकर कहीं तैल लगाया जाता है, फिर तिस पर भी सुगन्धित तैल, जो रास्ते में जाते हुए देखेंगे, वे ही कहेंगे- यह शौकीन संन्यासी कैसा श्रृंगार करता है। सभी विषयी कहकर मेरी निन्दा करेंगे। मुझे ऐसा तैल लगाना ठीक नहीं है।’ गोविन्द इस उत्तर को सुनकर चुप हो गया।

दो चार दिन के पश्चात् जगदानन्द जी ने गोविन्द से पूछा- ‘गोविन्द ! तुमने वह तैल प्रभु के शरीर में लगाया नहीं?,

गोविन्द ने कहा- ‘वे लगाने भी दें तब तो लगाऊँ ? वे तो मुझे डाँटते थे।’ जगदानन्द जी ने धीरे से कहा-‘अरे ! तैने भी उनके डाँटने का खूब खयाल किया ! वे तो ऐसे ही कहते ही रहेंगे, तू लगा देना। मेरा नाम ले देना।’

गोविन्द ने कहा- ‘पण्डित जी ! ऐसे लगाने का तो मेरा साहस नहीं है। हाँ, आप कहते हैं तो एक बार फिर निवेदन करूँगा।’

दो चार दिन के पश्चात् एकान्त में अत्यन्त ही दीनता के साथ गोविन्द ने कहा- ‘प्रभो ! वे बेचारे कितना परिश्रम करके इतनी दूर से तैल लाये हैं, थोड़ा सा लगा लीजिये। उनका भी मन रह जायगा और फिर यह ता औषधि है, रोग के लिये औषधि लगाने में क्या दोष ?’

प्रभु ने प्रेम के रोष में कहा- ‘तुम सब तो मिलकर मुझे अपने धर्म से च्युत करना चाहते हो। आज सुगन्धित तैल लगाने को कह रहे हो, कल कहोगे कि एक मालिश करने वाला रख लो। जगदानन्द की तो बुद्धि बिगड़ गई है, पण्डित होकर उन्हें इतना भी ज्ञान नहीं कि संन्यासी के लिये सुगन्धित तैल छूना भी महापाप है। वे यदि परिश्रम करके लाये हैं तो इसे जगन्नाथ जी के मन्दिर में दे आओ। वहाँ दीपक में जल जायेगा।’ गोविन्द प्रभु की मीठी फटकार सुनकर एकदम चुप हो गया, फिर उसने एक भी शब्द तैल के सम्बन्ध में नहीं कहा।

गोविन्द ने सभी बातें जाकर जगदानन्द जी से कह दीं। दूसरे दिन जगदानन्द जी मुँह फुलाये हुए कुछ रोष में भरे हुए प्रभु के समीप आये। प्रभु उनके हाव-भाव को ही देखकर समझ गये कि ये जरूर कुछ खरी खोटी सुनाने आये हैं, इसलिये उन्होंने पहले से पहले ही प्रसंग छेड़ दिया। वे अत्यन्त ही स्नेह प्रकट करते हुए धीरे धीरे मधुर वचनों में जगदानन्द जी से कहने लगे- ‘जगदानन्द जी ! आप गौड़देश से बड़ा सुन्दर तैल लाये हैं। मेरी तो इच्छा होती है, थोड़ा सा इसमें से लगाऊँ, किन्तु क्या करूँ, संन्यास धर्म से विवश हूँ। आप स्वयं पण्डित हैं, यह बात आपसे छिपी थोड़े ही है कि संन्यासी के लिये सुगन्धित तैल लगाना महापाप है। इसीलिये मैं लगा नहीं सकता। आप एक काम करें, इस तैल को जगन्नाथ जी भेंट कर आइये, वहाँ इसके दीपक जल जायँगे, आपका सभी परिश्रम सफल हो जायगा।’

जगदानन्द जी ने कुछ रोष के स्वर में कहा- ‘आपसे यह बिना सिर पैर की बात कह किसने दी। मैं कब तैल लाया हूँ ?’

प्रभु ने हँसते हँसते कहा- ‘आप सच्चे, मैं झूठा। इस तैल के कलश को मेरे यहाँ कोई देवदूत रख गया।’ यह सुनकर जगदानन्द जी रोष में उठे और उस तैल के कलश को उठाकर जोर से आँगन में दे मारा। कलश आँगन में गिरते ही चकनाचूर हो गया। सम्पूर्ण तैल आँगन में बहने लगा। कलश को फोड़कर जगदानन्द जी जल्दी से अपने घर को चले गये और भीतर से किवाड़ बंद करके पड़ रहे। दो दिन तक न तो अन्न जल ग्रहण किया और न बाहर निकले। प्रणयकोप में भीतर ही पड़े रहे।

तीसरे दिन प्रभु स्वयं उनके घर पहुँचे और किवाड़ खटखटाकर बोले- ‘पण्डित ! पण्डित ! भीतर क्या कर रहे हैं, बाहर तो आइये, आपसे एक बात कहनी है।’ किन्तु पण्डित किसकी सुनते हैं, वे तो खटपाटी लिये पड़े हैं।

तब प्रभु ने उसी स्वर में बाहर खड़े ही खड़े कहा- ‘देखिये, मैं आपके द्वार पर भिक्षा के लिये खड़ा हूँ और आप किवाड़ भी नहीं खोलते। अतिथि जिसके आरम से निराश लौट जाता है, वह उस मनुष्य के सभी पुण्यों को लेकर चला जाता है। देखिये, आज मेंरी आपके यहाँ भिक्षा है, जल्दी से तैयार कीजिये, मैं समुद्र स्नान और भगवान के दर्शन करके अभी आता हूँ।’

प्रभु इतना कहकर चले गये। अब जगदानन्द जी का क्रोध कितनी देर रह सकता था। प्रभु के लिये भिक्षा बनानी है, बस, इस विचार के आते ही, न जाने उनका क्रोध कहाँ चला गया। वे जल्दी से उठे। उठकर शौचादि से निवृत्त होकर स्नान किया और रघुनाथ, रमाई पण्डित तथा और भी अपने साथी दो चार गौड़ीय विरक्त भक्तों को बुलाकर वे प्रभु की भिक्षा का प्रबन्ध करने लगे। भोजन बनाने में तो वे परम प्रवीण थे ही, भाँति-भाँति के बहुत-से-सुन्दर सुन्दर पदार्थ उन्होंने प्रभु के लिये बना डाले। अभी वे पूरे पदार्थ को बना भी नहीं पाये थे कि इतने में ही मुसकराते हुए प्रभु स्वयं आ उपस्थित हुए। मन में अत्यन्त ही प्रसन्न होते हुए और ऊपर से हास्य से युक्त किंचित रोषयुक्त मुख से उन्होंने एक बार प्रभु की ओर देखा और फिर शाक को उलटने पल्टने लगे।

प्रभु जल्दी से एक आसन स्वयं ही लेकर बैठ गये। अब तो जगदानन्द जी उठे। उन्होंने नीची दृष्टि किये हुए वहीं बैठे-ही-बैठे एक थाल में प्रभु के पादपद्मों को पखारा। प्रभु ने इसमें तनिक भी आपत्ति नहीं की। फिर उन्होंने भाँति-भाँति के पदार्थों को सजाकर प्रभु के सामने परोसा। प्रभु चुपचाप बैठे रहे। जगदानन्द जी का अब मौन भंग हुआ। उन्होंने अपनी हँसी को भीतरी ही भीतर रोकते हुए लज्जायुक्त मधुर वाणी से अपनापन प्रकट करते हुए कहा- ‘प्रसाद पाते क्यों नहीं’

जगदानन्द जी ने उसी भाव से हँसकर कहा- ‘तब आये क्यों थे, कोई बुलाने भी तो नहीं गया था।’

प्रभु ने कहा- ‘अपनी इच्छा से आया था, अपनी इच्छा से ही नहीं पाता।’

जगदानन्द जी ने हँसकर कहा- ‘पाइये पाइये, देखिये भात ठण्डा हुआ जाता है।’

प्रभु ने कहा- ‘चाहे ठण्डा हो या गरम जब तक आप मेेरे साथ बैठकर न पावेंगे तब तक मैं भी न पाऊँगा। अपने लिये भी एक पत्तल और परोसिये’।

जगदानन्द जी ने मानमिश्रित हास्य के स्वर में कहा- ‘पाइये भी मेरी क्या बात है, मैं तो पीछे ही पाता हूँ, सो आपके पा लेने पर पाऊँगा।’

प्रभु ने कहा- ‘चाहे सदा पीछे ही क्यों न पाते हैं, आज तो मेरे साथ ही पाना पड़ेगा।’

जगदानन्द जी ने कुछ गम्भीरता के स्वर में कहा- ‘प्रभो ! मैंने और रमाई, रघुनाथ आदि सभी ने तो बनाया है। इन्हें प्रसाद देकर तब मैं पा सकता हूँ। अब आपकी आज्ञा को टाल थोड़े ही सकता हूँ। अवश्य पा लूँगा।’

यह सुनकर प्रभु प्रसाद पाने लगे। जो पदार्थ चुक जाता उसे ही जगदानन्द जी उतना ही परोस देते। इस भय से कि जगदानन्द जी नाराज हो जायँगे, प्रभु मना भी नहीं करते और उनकी प्रसन्नता के निमित्त खाते ही जाते। और दिनों की अपेक्षा कई गुना अधिक खा गये, तो भी जगदानन्द मानते नहीं हैं, तब प्रभु ने दीनता के स्वर में कहा- ‘बाबा, अब दया भी करोगे या नहीं। अन्य दिनों की अपेक्षा दस गुना खा गया, अब कब तक और खिलाते जाओगे?’ इतना कहकर प्रभु ने भोजन समान्त किया। जगदानन्द जी ने मुखशुद्धि के लिये लौंग, इलायची और हीरत की के टुकड़े दिये। प्रभु उन्हें खाते हुए फिर वहीं बैठ गये और कहने लगे- ‘जब तक आप मेरे सामने प्रसाद न पा लेंगे तब तक मैं यहाँ से न हटूँगा।’

जगदानन्द जी ने हँसकर कहा- ‘अब आप इतनी चिन्ता क्यों करते हैं, अब तो सबके साथ मुझे प्रसाद पाना ही है, आप चलकर आराम करें।’ यह सुनकर प्रभु गोविन्द से कहने लगे- ‘गोविन्द ! तू यहीं रह और जब तक ये प्रसाद न पा लें तब तक मेरे पास मत आना।’ यह कहकर प्रभु अकेले ही कमण्डलु उठाकर अपने निवास स्थान पर चले गये।

प्रभु के चले जाने पर जगदानन्द जी ने गोविन्द से कहा- ‘तुम जल्दी जाकर प्रभु के पैरों को दबाओ। मैं तुम्हारे लिसे प्रसाद रख छोड़ूंगा। सम्भव है प्रभु सो जायँ।’ यह सुनकर गोविन्द चला गया और लेटे हुए प्रभु के पैर दबाने लगा। प्रभु ने पूछा- ‘जगदानन्द ने प्रसाद पाया?’, गोविन्द ने कहा- ‘प्रभो ! वे पा लेंगे, उन्हें अभी थोड़ा कृत्य शेष है।’ यह कहकर वह धीरे धीरे प्रभु के तलुओं को दबाने लगे। प्रभु कुछ झपकी-सी लेने लगे। थोड़ी देर बाद जल्दी से आँख मलते-मलते कहने लगे- ‘गोविन्द ! जा देख तो सही, जगदानन्द ने प्रसाद पाया या नहीं। यदि पा लिया हो या पा रहे हों तो मुझे आकर फौरन सूचना देना।’ प्रभु की आज्ञा से गाविन्द फिर गया। उसने आकर देखा सब भक्तों को प्रभु का उच्छिष्ट महाप्रसाद देकर उसी पत्तल पर जगदानन्द जी खाने को बैठे हैं। गोविन्द को देखते ही वे कहने लगे- ‘गोविन्द ! तुम्हारे लिये मैंने अलग से परोसकर रख दिया है, आओ, तुम भी बैठ जाओ।’

गोविन्द ने कहा- ‘मैं पहले प्रभु को सूचना दे आऊँ, तब प्रसाद पाऊँगा।’ यह कहकर वह प्रभु को सुचना देने चला गया। जगदानन्द जी प्रसाद पा रहे हैं, यह सुनकर प्रभु को सन्तोष हुआ और उन्होंने गोविन्द को भी प्रसाद पाने के लिये भेज दिया। गोविन्द ने आकर सभी भक्तों के साथ बैठकर प्रसाद पाया और फिर सभी भक्त अपने अपने स्थानों को चले गये।

इसी प्रकार की प्रेम कलह महाप्रभु और जगदानन्द जी के बीच में प्रायः होती रहती थी। इसमें दोनों ही आनन्द का अनुभव करते थे।

क्रमशः अगला पोस्ट [160]
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]



।। Srihari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Jap] Hare Krishna Hare Ram Love quarrel with Jagdanand

How soft is the form of ruthless enjoyment It is indeed hard for your mind to be bound like a headdress.

Only the heart of a lover can feel the sweetness of discord in love. If discord in love is separated, then its taste will be the same as that of pudding made by taking out sugar and adding different types of nuts. Just as pudding made without sugar is not tasty and gives pleasure to the mind, in the same way, unless there is an envelope of sweet discord in between, there is no continuous juice in it. Love-discord keeps on making love new everyday. Discord is the decoration of love’s never-ending sheet, it washes it from time to time and makes it very clean. But this discord is considered a jewel only among the worshipers of sweet spirit; In other senses it is called contamination.

Readers must not have forgotten Pandit Jagadanand ji, he used to participate in Sadakirtan with the Lord at Shri Niwas Pandit’s place in Navadweep. When Prabhu came to Puri after attaining sannyas, he also followed him like an ordinary servant carrying the punishment of Prabhu and throughout the way he used to beg for alms and feed Prabhu and all other companions by preparing food. They had also accompanied the Lord on the first Vrindavan taunt and then returned with Him from Ramkeli itself. When the Lord was permanent in Nilachal, he also started living there permanently. In between, by the order of the Lord, he used to come and go to Navadweep with God’s Prasadi cloth and Mahaprasad for Shachi Mata. He had a very sweet feeling towards the Lord. Devotees used to call him the incarnation of Satyabhama after seeing his very soft and sweet nature and he was really worshiped in the same spirit. They didn’t care about the retirement of the Lord. He wanted, God should eat very good things, wear beautiful clothes and sleep on good, clean and beautiful rugs. Prabhu did not want to consume these things against Yatidharma. That’s all, there would have been discord on this matter! The main reason for the discord was that Jagadanand could not bear even the slightest pain of the Lord’s body and the Lord never bothered about physical pain. Jagdanand ji used to say harsh things to the Lord in the excitement of his love and the Lord was always afraid of him.

Once he went near Sachimata in Navadweep with Mahaprasad and clothes. Mother used to experience the darshan of her Nimai by seeing him and all the proud devotees also get the pleasure of seeing the feet of Sri Chaitanya from his darshan. Had he gone, he would have come after meeting all the devotees. From Nabadwip to Acharya’s house via Shantipur, he also went to Shivanandji Sen’s house. From there he brought a vase of fragrant sandalwood oil for the Lord. Prabhu always lived with enthusiasm. The veins of their limbs would become loose and pain would start in the whole body. They thought that with this oil all the diseases of the Lord’s vat-pitta would be pacified.

Despite being a scholar in the passion of love, he forgot that applying oil to a monk is prohibited in the scriptures. There is no rational thinking in love. There is no cosmic rule for a lover, his Mathura is different from the three worlds. Jagdanand ji brought oil and gave it to Govind and asked him to rub it in the Lord’s organs.

Govind requested the Lord – ‘ Lord! Jagdanand Pandit has brought this sandalwood oil from Gaudesh and asked to rub it on the body. Now I will do as I am ordered.’ The Lord said- ‘Jagdanand is mad, you have also gone mad with him. Well, being a sannyasin, oil is applied somewhere, then fragrant oil on thirty, those who see while going on the way, they will say – how this fond sannyasin adorns. Everyone will criticize me by calling them subjects. It is not right for me to apply such oil.’ Govind became silent after hearing this answer.

After two to four days, Jagdanand ji asked Govind – ‘Govind! Didn’t you apply that oil on the Lord’s body?

Govind said- ‘Even if they allow it, then at least I should plant it? They used to scold me.’ Jagdanand ji said softly – ‘Hey! You too took great care of his scolding! They will keep on saying like this, you put it on. Take my name.

Govind said – ‘Pandit ji! I don’t have the courage to apply like this. Yes, if you say so, I will request you once again.

After two to four days in solitude, with great humility, Govind said – ‘Lord! Those poor people have worked so hard to bring oil from such a distance, apply some of it. Their mind will also remain and then this is a medicine, what is the fault in applying medicine for the disease?

The Lord said in the fury of love- ‘You all together want to make me deviate from your religion. Today you are asking to apply perfumed oil, tomorrow you will ask to hire a masseur. Jagadanand’s intelligence has deteriorated, being a scholar, he does not even know that even touching perfumed oil is a great sin for a monk. If they have brought it with hard work, then give it to Jagannath ji’s temple. There it will burn in the lamp.’ Govind became completely silent after hearing the sweet reprimand of the Lord, then he did not say a single word regarding the oil.

Govind went and told everything to Jagdanand ji. On the second day, Jagadanand ji came near the Lord with his mouth full of anger. Prabhu understood by looking at his gesture that he has definitely come to narrate some truth, that’s why he started the matter in advance. Expressing immense affection, he slowly started saying to Jagdanand ji in sweet words – ‘Jagdanand ji! You have brought very beautiful oil from Goddesh. I wish to apply a little of it, but what to do, I am bound by the religion of renunciation. You are a scholar yourself, it is hardly hidden from you that it is a great sin for a sannyasin to apply perfumed oil. That’s why I can’t guess. You do one thing, gift this oil to Jagannath ji, its lamps will be lit there, all your hard work will be successful.’

Jagdanand ji said in a voice of some anger – ‘ Who told you this thing without head and feet. When have I brought oil?’

The Lord said laughingly – ‘ You are true, I am a liar. An angel has kept this oil urn at my place.’ Hearing this, Jagadanand ji got angry and picked up that oil urn and threw it loudly in the courtyard. The urn shattered as soon as it fell in the courtyard. All the oil started flowing in the courtyard. After breaking the Kalash, Jagadanand ji quickly went to his house and kept reading by closing the door from inside. Neither took food nor water for two days nor came out. Remained inside in the love affair.

On the third day the Lord himself reached his house and knocking on the door said – ‘Pandit! Pandit! What are you doing inside, come outside, I have one thing to say to you.’ But whom do the pundits listen to, they are in trouble.

Then the Lord said while standing outside in the same voice – ‘Look, I am standing at your door for alms and you don’t even open the door. The guest from whose comfort he returns disappointed, goes away with all the virtues of that person. Look, today I have alms at your place, prepare it quickly, I will come now after bathing in the sea and seeing God.’

Prabhu left after saying this. Now how long could Jagadanand ji’s anger last? Don’t know where his anger went as soon as this thought came, he has to make alms for the Lord. They got up quickly. He got up after retiring from the toilet, took a bath and after calling Raghunath, Ramai Pandit and other two or four Gaudiya disinterested devotees, he started arranging the Lord’s alms. He was very proficient in cooking food, he made many beautiful things for the Lord. Right now they could not even make the whole substance that in the meantime the Lord Himself came and appeared with a smile. Being very happy in the mind and with a slightly angry face mixed with humor, he once looked at the Lord and then started turning the grass upside down.

Prabhu quickly took a seat himself and sat down. Now Jagadanand ji got up. He looked down and while sitting there, he washed the lotus flowers of the Lord in a plate. The Lord did not object to it at all. Then they decorated various things and served them in front of the Lord. Prabhu kept sitting silently. Jagdanand ji’s silence has now been broken. Holding his laughter inside, expressing his affection in a shy, sweet voice, he said – ‘Why don’t you get Prasad?’

Jagdanand ji laughed in the same spirit and said- ‘Why did you come then, no one had even gone to call you.’

The Lord said- ‘He came by his will, he does not get by his will.’

Jagdanand ji smiled and said – ‘Pieye payie, see the rice gets cold.’

The Lord said- ‘Whether it is cold or hot, until you do not get it sitting with me, I will not get it either. Serve one more plate for yourself too.

Jagdanand ji said in a tone of condescending humour- ‘What’s the point of me getting it, I get it later, so I will get it if you get it.’

The Lord said- ‘Even if you always get behind, today you will have to get with me.’

Jagdanand ji said in a tone of some seriousness – ‘ Lord! I and Ramai, Raghunath etc. all have made it. I can get them only by giving them prasad. Now I can hardly avoid your orders. I will definitely get it.

Hearing this, Prabhu started getting Prasad. Jagadanand ji would have served only that much of the food that was missed. Due to the fear that Jagadanand ji will get angry, the Lord does not even forbid and goes on eating for his happiness. Jagadanand does not agree even if he has eaten many times more than in other days, then the Lord said in a voice of humility – ‘ Baba, now will you show mercy or not. He has eaten ten times as compared to other days, for how long will you continue to feed him? Jagdanand ji gave pieces of clove, cardamom and diamond to clean the mouth. After eating them, the Lord then sat there and said- ‘I will not move from here until you get the prasad in front of me.’

Jagdanand ji smiled and said- ‘Why do you worry so much now, now I have to get prasad along with everyone, you go and rest.’ After hearing this, Lord started saying to Govind- ‘Govind! You stay here and don’t come near me until you get this prasad.’ Having said this, the Lord alone took the kamandalu and went to his abode.

After the departure of the Lord, Jagdanand ji said to Govind – ‘ You go quickly and press the feet of the Lord. I will leave the prasad for you. It is possible that the Lord may be asleep.’ Hearing this, Govind went away and started pressing the feet of the lying Lord. The Lord asked – ‘Jagdanand got the prasad?’, Govind said – ‘Lord! They will get it, they still have a little work to do. Saying this, he slowly started pressing the soles of the Lord. Prabhu started taking a few naps. After a while, quickly rubbing his eyes, he said – ‘Govind! Go and see whether Jagadanand got the prasad or not. If you have got it or are getting it, then come and inform me immediately.’ Gavind turned back by the order of the Lord. He came and saw that Jagdanand ji is sitting on the same plate after giving the leftover Mahaprasad of the Lord to all the devotees. On seeing Govind, he started saying – ‘Govind! I have served it separately for you, come, you also sit down.’

Govind said- ‘Let me inform the Lord first, then I will get the prasad.’ Saying this he went to inform the Lord. Prabhu was satisfied after hearing that Jagdanand ji was getting the prasad and he sent Govind also to get the prasad. Govind came and got prasad sitting with all the devotees and then all the devotees went to their respective places.

This type of love discord often used to happen between Mahaprabhu and Jagadanand ji. Both used to experience joy in this.

respectively next post [160] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]

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