।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
समुद्रपतन और मृत्युदशा
शरज्ज्योत्स्नासिन्धोरवकलनया जातयमुना
भ्रमाद्धावन् योऽस्मिन् हरिविरहतापार्णव इव।
निमग्नो मूर्च्छात: पयसि निवसन् रात्रिमखिलां
प्रभाते प्राप्त: स्वैरवतु से शचीसुनुरिह न:।।
सर्वशास्त्रों में श्रीमद्भावगत श्रेष्ठ है। श्रीमद्भागवत में भी दशम स्कन्ध सर्वश्रेष्ठ हैं, दशम स्कन्ध में भी पूर्वार्ध श्रेष्ठ है और पूर्वार्ध में भी रासपंचाध्यायी सर्वश्रेष्ठ है और रासपंचाध्यायी में भी ‘गोपी-गीत’ अतुलनीय है। उसकी तुलना किसी से की ही नहीं जा सकती, वह अनुपमेय है। उसे उपमा भी दे तो किसकी दें। उससे श्रेष्ठ या उसके समान संसार में कोई गीत है ही नहीं। महाप्रभु को भी रासपंचाध्यायी ही अत्यन्त प्रिय थी। वे सदा रासपंचाध्यायी के ही श्लोकों को सुना करते थे और भावावेश में उन्हीं भावों का अनुकरण भी किया करते थे।
एक दिन राय रामानन्द जी ने श्रीमद्भागवत के तैंतीसवें अध्याय में से भगवान् की कालिन्दी कूल की जल-क्रीडा की कथा सुनायी। प्रभु के दिनभर वही लीला स्फुरण होती रही। दिन बीता, रात्रि आयी, प्रभु की विरहवेदना भी बढने लगी। वे आज अपने को संभालने में एकदम असमर्थ हो गये। पता नहीं किस प्रकार वे भक्तों की दृष्टि बचाकर समुद्र के किनारे-किनारे आईटोटा की ओर चले गये। वहाँ विशाल सागर की नीली-नीली तरंग उठकर संसार को हृदय की विशालता, संसार की अनित्यता और प्रेम की तन्मयता की शिक्षा दे रही थीं। प्रेमावतार, गौरांग के हृदय से एक सुमधुर संगीत स्वत: ही उठ रहा था।
महाप्रभु उस संगीत के स्वर को श्रवण करते-करते पागल हुए बिना सोचे-विचारे ही समुद्र की ओर बढ़ रहे थे। अहा ! समुद्र के किनारे सुन्दर-सुन्दर वृक्ष अपनी शरत्कालीन शोभा से सागर की सुषमा को और भी अधिक शक्तिशालनी बना रहे थे। शरत् की सुहावनी शर्वरी थी, अपने प्रिय पुत्र चन्द्रमा की श्रीवृद्धि और पूर्ण ऐश्वर्य से प्रसन्न होकर पिता सागर आनन्द से उमड़ रहे थे। महाप्रभु उसमें कृष्णांग-स्पर्श से पुलकित और आनन्दित हुई कालिन्दी का दर्शन कर रहे थे। उन्हें समुद्र की एकदम विस्मृति हो गयी, वे कालिन्दी में गोपिकाओं के साथ क्रीडा करते हुए श्रीकृष्ण के प्रत्यक्ष दर्शन करने लगे। बस, फिर क्या था, आप उस क्रीडासुख से क्यों वंचित रहते, जोरों से हुंकार करते हुए अथाह सागर के जल में कूद पड़े और अपने प्यारे के साथ जलविहार का आनन्द लेने लगे। इसी प्रकार जल में डूबते और उछलते हुए उनकी सम्पूर्ण रात्रि बीत गयी।
इधर प्रभु को स्थान पर न देखकर भक्तों को सन्देह हुआ कि प्रभु कहाँ चले गये। स्वरूप गोस्वामी, गोविन्द, जगदानन्द, वक्रेश्वर, रघुनाथदास, शंकर आदि सभी भक्तों को साथ व्याकुलता के साथ प्रभु की खोज में चले। श्रीजगन्नाथ जी के मन्दिर में सिंहद्वार से लेकर उन्होंने तिल-तिलभर जगह को खोज डाला। सभी के साथ वे जगन्नाथवल्लभ नामक उद्यान में गये वहाँ भी प्रभु का कोई पता नहीं। वहाँ से निराश होकर वे गुण्टिचा मन्दिर में गये। सुन्दरचल में उन्होंने इन्द्रद्युम्नसरोवर, समीप के सभी बगीचे तथा मन्दिर खोज डाले। सभी को परम आश्चर्य हुआ कि प्रभु गये भी तो कहाँ गये। इस प्रकार उन्हें जब कहीं भी प्रभु का पता नहीं चला तब वे निराश होकर फिर पुरी में लौट आये। इस प्रकार प्रभु की खोज करते-करते उन्हें सम्पूर्ण रात्रि बीत गयी। प्रात:काल के समय स्वरूप गोस्वामी ने कहा– ‘अब चलो, समुद्र के किनारे प्रभु की खोज करे, वहाँ प्रभु का अवश्य ही पता लग जायगा।’ यह कहकर वे भक्तों को साथ लेकर समुद्र के किनारे-किनारे चल पड़े।
इधर महाप्रभु रात्रिभर जल में उछलते और डूबते रहे। उसी समय एक मल्लाह वहाँ जाल डालकर मछली मार रहा था, महाप्रभु का मृत्यु–अवस्था को प्राप्त वह विकृत शरीर उस मल्लाह के जाल में फँस गया। उसने बड़ा भारी मच्छ समझकर उसे किनारे पर खींच लिया। उसने जब देखा कि यह मच्छ नहीं कोई मुर्दा है, तो उठाकर प्रभु को किनारे पर फेंक दिया। बस, महाप्रभु के अंग का स्पर्श करना था कि वह मल्लाह आनन्द से उन्मत्त होकर नृत्य करने लगा। प्रभु के श्रीअंग के स्पर्शमात्र से ही उसके शरीर में सभी सात्त्विक भाव आप से आप ही उदित हो उठे। वह कभी तो प्रेम में विह्वल होकर हँसने लगता, कभी रोने लगता, कभी गाने लगता और कभी नाचने लगता। वह भयभीत हुआ वहाँ से दौडने लगा। उसे भ्रम हो गया कि मेरे शरीर में भूत ने प्रवेश किया है, इसी भय से वह भागता-भागता आ रहा था कि इतने में ये भक्त भी वहाँ पहुँच गये। उसकी ऐसी दशा देखकर स्वरूप गोस्वामी ने उससे पूछा– ‘क्यों भाई ! तुमन यहाँ किसी आदमी को देखा है, तुम इतने डर क्यों रहे हो? अपने भय का कारण तो हमें बताओ।’
भय से कांपते हुए उस मल्लाह ने कहा– ‘महाराज ! आदमी तों मैंने यहाँ कोई नहीं देखा। मैं सदा की भाँति मछली मार रहा था कि एक मुर्दा मेरे जाल में फँस आया। उसके अंग में भूत था, वही मेरे अंग में लिपट गया है। इसी भय से मैं भूत उतरवाने के लिये ओझा के पास जा रहा हूँ। आप लोग इधर न जायँ। वह बडा ही भयंकर मुर्दा है, ऐसा विचित्र मुर्दा तो मैंने आज तक देखा ही नहीं।’ उस समय महाप्रभु का मृत्युदशा में प्राप्त शरीर बड़ा ही भयानक बन गया था। कविराज गोस्वामी ने मल्लाह के मुख से प्रभु के शरीर का जो वर्णन कराया है, उसे उन्हीं के शब्दों में सुनिये –
जालिया कहे–इहाँ एक मनुष्य ना देखिल।
जाल बाहिते एक मृत मोर जाले आइल।।
बड़ मत्स्य बले, आमि उठाइलूँ यतने।
मृतक देखिते मोर भय हैल मने।।
जाल खसाइते तार अंग-स्पर्श हइल।
स्पर्शमात्रे सेइ भूत हृदये पशिल।।
भये कम्प हैल, मोर नेत्रे बहे जल।
गद्गद वाणी मेार उठिल सकल।।
कि वा ब्रह्मदैत्य कि वा भूत कहने ना जाय।
दर्शनमात्रे मनुष्येर पशे सेइ काय।।
शरीर दीघल तार-हाथ पांच सात।
एक हस्त पद तार, तिन तिन हाथ।।
अस्थि-सन्धि छूटि चर्म करे नड-बड़े।
ताहा देखि, प्राण कार नाहि रहे धरे।।
मड़ा रूप धरि, रहे उत्तान-नयन।
कभू गों-गों करे, कभू देखि अचेतन।।
स्वरूप गोस्वामी के पूछने पर जालिया (मल्लाह) कहने लगा– मनुष्य तो मैंने यहाँ कोई देखा नहीं है। जाल डालते समय एक मृतक मनुष्य मेरे जाल आ गया। मैंने उसे बड़ा मत्स्य जानकर उठाया। जब मैंने देखा कि यह तो मुर्दा है, तब मेरे मन में भय हुआ। जाल से निकालते समय उसके अंग से मेरे अंग का स्पर्श हो गया। स्पर्शमात्र से ही वह भूत मेरे शरीर में प्रवेश कर गया। भय के कारण मेरे शरीर में कँपकँपी होने लगी, नेत्रों से जल बहने लगा और मेरी वाणी गद्गद हो गयी। या तो वह ब्रह्मदैत्य है या भूत है, इस बात को मैं ठीक-ठीक नहीं कह सकता। वह दर्शनमात्र से ही मनुष्य के शरीर में प्रवेश कर जाता है। उसका शरीर पांच-सात हाथ लम्बा है। उसके एक-एक हाथ-पांव तीन-तीन हाथ लम्बे हैं। उसके हड्डियों की सन्धियाँ खुल गयी हैं। उसके शरीर के ऊपर का चर्म लुजु-बुजुर-सा करता है। उसे देखकर किसी के भी प्राण नही रह सकते। बड़ा ही विचित्र रूप धारण किये है, दोनों नेत्र चढ़े हुए हैं। कभी तो गों-गों शब्द करता है और कभी फिर अचेतन हो जाता है।
इस बात को मल्लाह के मुख से सुनकर स्वरूप गोस्वामी सब कुद समझ गये कि वह महाप्रभु का ही शरीर होगा। उनके अंग-स्पर्श से ही इसकी ऐसी दशा हो गयी है। भय के कारण इसे पता नहीं कि यह प्रेम की अवस्था है। यह सोचकर वे कहने लगे– ‘तुम ओझा के पास क्यों जाते हो, हम बहुत अच्छी ओझाई जातने हैं। कैसा भी भूत क्यों न हो, हमने जहाँ मंत्र पढ़ा नहीं बस, वहीं उसी क्षण वह भूत भागता हुआ ही दिखायी देता है। फिर वह क्षणभर भी नहीं ठहरता।’ ऐसा कहकर स्वरूप गोस्वामी ने वैसे ही झूठ-मूँठ कुछ पढ़कर अपने हाथ को उसके मस्तक पर छुआया और जोरों से उसके गाल पर तीन तमाचे मारे। उसके ऊपर भूत थोड़े ही था। उसे भूत का भ्रम था, विश्वास के कारण वह भय दूर हो गया।
तब स्वरूप गोस्वामी ने उससे कहा– ‘तू जिन्हें भूत समझ रहा है, वे महाप्रभु चैतन्यदेव हैं, प्रेम के कारण उनकी ऐसी दशा हो जाती है। तू उन्हें हमको बता कहाँ हैं। हम उन्हीं की खोज में तो आये हैं।’
इस बात को सुनकर वह मल्लाह प्रसन्न होकर सभी भक्तों को साथ लेकर प्रभु के पास पहुँचा। भक्तों ने देखा, सुवर्ण के समान प्रभु का शरीर चांदी के चूरे के समान समुद्र की बालुका में पड़ा हुआ है, आँखे ऊपर को चढ़ी हुई हैं, पेट फूला हुआ है, मुँह में से झाग निकल रहे हैं। बिना किसी प्रकार की चेष्टा किये हुए उनका शरीर गीली बालुका से सना हुआ निश्चेष्ट पड़ा हुआ है। सभी भक्त प्रभु को घेरकर बैठ गये।
हम संसारी लोग तो मृत्यु को ही अन्तिम दशा समझते हैं, इसलिये संसारी दृष्टि से प्रभु के शरीर का यहीं अन्त हो गया। फिर उसे चैतन्यता प्राप्त नहीं हुई। किन्तु रागानुगामी भक्त तो मृत्यु के पश्चात भी विरहिणी को चैतन्यता लाभ कराते हैं। उनके मत में मृत्यु ही अन्तिम दशा नहीं है। इस प्रसंग में हम बंगला भाषा के प्रसिद्ध पदकर्ता श्री गोविन्ददास जी का एक पद उद्धृत करते हैं। इससे पाठकों को पता चल जायगा कि श्री कृष्ण नाम श्रवण से मृत्युदशा को प्राप्त हुई भी राधिका जी फिर चैतन्यता प्राप्त करके बातें कहने लगीं।
कुंज भवने धीन। तुया गुण गणि गणि।
अतिशय दुरबली भेल।
दशमीक पहिल, दशा हेरि सहचरी।
घरे संगे बाहिर केल।।
शुन माधव कि बलब तोय।
गोकुल तरुणी, निचय मरण जानि।
राइ राइ करि रोय।।
तहि एक सुचतुरी, ताक श्रवण भरि।
पुन पुन कहे तुया नाम।।
बहु क्षणे सुन्दरी, पाइ परान कोरि।
गद्गद कहे श्याम नाम।।
नामक आछू गुणे, शुनिले त्रिभुवने।
मृतजने पुन कहे बात।।
गोविन्ददास कह, इह सब आन नह।
याइ देखह मझ साथ।।
श्रीकृष्ण से एक सखी श्री राधिका जी की दशा का वर्णन कर रही है। सखी कहती है– ‘हे श्यामसुन्दर! राधिका जी कुंजभवन में तुम्हारे नामों को दिन-रात रटते-रटते अत्यन्त ही दुबली हो गयी हैं। जब उनकी मृत्यु के समीप की दशा मैंने देखी तब उन्हें उस कुंजकुटीर से बाहर कर लिया। प्यारे माधव ! अब तुमसे क्या कहूँ, बाहर आने पर उसकी मृत्यु हो गयी, सभी सखियाँ उसकी मृत्युदशा को देखकर रुदन करने लगीं। उनमें एक चतुर सखी थी, वह उसके कान में तुम्हारा नाम बार-बार कहने लगी। बहुत देर के अनन्तर उस सुन्दरी के शरीर में कुछ-कुछ प्राणों का संचार होने लगा। थोडी देर में वह गद्गद-कण्ठ से ‘श्याम’ ऐसा कहने लगी। तुम्हारे नाम का त्रिभुवन में ऐसा गुण सुना गया है कि मृत्यु-दशा को प्राप्त हुआ प्राणी भी पुन: बात कहने लगता है। सखी कहती है– ‘तुम इस बात को झूठ मत समझना। यदि तुम्हें इस बात का विश्वास न हो, तो मेरे साथ चलकर उसे देख आओ।’ यह पद गोविन्द दास कवि द्वारा कहा गया है।’ इसी प्रकार भक्तों ने भी प्रभु के कानों में हरिनाम सुनाकर उन्हें फिर जागृत किया। वे अर्धबाह्य दशा में आकर कालिन्दी में होने वाली जलकेलि का वर्णन करने लगे। ‘वह साँवला सभी सखियों को साथ लेकर यमुना जी के सुन्दर शीतल जल में घुसा। सखियों के साथ वह नाना भाँति की जलक्रीडा करने लगा। कभी किसी के शरीर को भिगोता, कभी दस-बीसों को साथ लेकर उनके साथ दिव्य-दिव्य लीलाओं का अभिनय करता। मैं भी उस प्यारे की क्रीडा में सम्मिलित हुई। वह क्रीडा बडी ही सुखकर थी।’ इस प्रकार कहते-कहते प्रभु चारों ओर देखकर स्वरूप गोस्वामी से पूछने लगे– ‘मैं यहाँ कहाँ आ गया? वृन्दावन से मुझे यहाँ कौन ले आया?’ तब स्वरूप गोस्वामी ने सभी समाचार सुनाये और वे उन्हें स्नान कराकर भक्तों के साथ वास स्थान पर ले गये।
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]
, Shri Hari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram seasickness and death
The Yamuna is born by the calculation of the sea of autumn lights He who runs away from delusion is like an ocean separated from the monkeys He drowned and fainted and spent the night in milk May the son of Sachi who arrived in the morning be here with us
Shrimadbhavagat is the best among all scriptures. In Shrimad Bhagwat also tenth canto is best, in tenth canto also first half is best and in first half also Raspanchadhyayi is best and in Raspanchadhyayi also ‘Gopi-Geet’ is incomparable. He cannot be compared to anyone, He is incomparable. Even if you give him a metaphor, then whom should you give? There is no other song in the world better than it or equal to it. Mahaprabhu also loved Raspanchadhyayi very much. He always used to listen to the verses of Raspanchadhyayi and used to follow the same expressions in his emotions.
One day Rai Ramanand ji narrated the story of God’s water sports in Kalindi Cool from the thirty-third chapter of Shrimad Bhagwat. The same leela kept on happening throughout the day of the Lord. Day passed, night came, God’s separation also started increasing. Today he was totally unable to control himself. Don’t know how he saved the sight of the devotees and went towards Itota along the sea shore. There the blue-blue waves of the vast ocean were rising up to teach the world the vastness of the heart, the impermanence of the world and the impermanence of love. Premavatar, a melodious music was rising automatically from the heart of Gauranga.
Hearing the sound of that music, Mahaprabhu went mad without thinking and moving towards the sea. Aha! Beautiful trees on the seashore were making the beauty of the ocean even more powerful with their autumnal beauty. Sharat’s beautiful hair was there, the father Sagar was overflowing with joy, being pleased with the growth and full opulence of his beloved son Chandrama. Mahaprabhu was having darshan of Kalindi who was ecstatic and happy at the touch of Krishna. He completely forgot the sea, he started seeing Shri Krishna directly while playing with the gopikas in Kalindi. Just, what was it then, why were you deprived of that sports pleasure, roaring loudly, jumped into the water of the bottomless ocean and started enjoying the water with your beloved. In the same way, his whole night passed by drowning and jumping in the water.
Here, not seeing the Lord at the place, the devotees doubted that where the Lord had gone. Swaroop Goswami, Govind, Jagadanand, Vakreshwar, Raghunathdas, Shankar etc. all the devotees went in search of the Lord with distraction. Starting from Singhdwar in Shri Jagannath ji’s temple, he searched every mole of the place. Along with everyone, he went to the garden named Jagannathvallabh, there too there was no trace of the Lord. Disappointed from there, he went to Gunticha temple. In Sundarchal, he discovered Indradyumnasarover, all the nearby gardens and temples. Everyone was very surprised that even when the Lord went, where did he go? Thus, when he could not find the Lord anywhere, he returned to Puri disappointed. In this way they spent the whole night searching for the Lord. In the early morning, Swaroop Goswami said – ‘Now let’s go in search of the Lord on the seashore, the Lord will definitely be found there.’ Having said this, he took the devotees along and went to the seashore.
Here Mahaprabhu kept jumping and drowning in the water throughout the night. At the same time, a boatman was fishing there by casting a net, Mahaprabhu’s mutilated body got trapped in that boatman’s net. Mistaking it for a big fish, he dragged it to the shore. When he saw that it was not a fish but a dead body, he picked up the Lord and threw him on the shore. Just had to touch Mahaprabhu’s body, that sailor started dancing madly with joy. Just by the touch of Lord’s body, all the sattvik feelings in his body automatically arose from you. Sometimes he starts laughing in love, sometimes starts crying, sometimes starts singing and sometimes starts dancing. He got scared and started running from there. He got confused that a ghost has entered his body, due to this fear he was running and running, in the meanwhile these devotees also reached there. Seeing his condition like this, Swaroop Goswami asked him – ‘Why brother! You have seen some man here, why are you so scared? Tell us the reason for your fear.’
Trembling with fear, that sailor said – ‘ Maharaj! Man, I have not seen anyone here. I was fishing as usual when a dead body got entangled in my net. There was a ghost in his body, the same is wrapped in my body. Due to this fear, I am going to the exorcist to get rid of the ghost. You guys don’t go here. He is a very terrible dead body, I have never seen such a strange dead body till date. At that time the body of Mahaprabhu in the state of death had become very terrible. Listen to Kaviraj Goswami’s description of the Lord’s body from the mouth of the boatman in his own words –
Jaaliya says – don’t see a man here. A dead peacock webs isle. Big fish, I can pick up as many mangoes as I can. Seeing the dead, I am afraid of hell. Jaal khasite tar organ-touch hiel. Sparshmatre sei bhoot hrudaye pashil. Bhaye kamp hale, mor netre bahe jal. Gadgad Vani Mear Uthil Sakal. Whether it is a Brahmaditya or a ghost cannot be said. Darshanmatre manushyer pashe sei kya. Body dighal wire-hand five seven. One hand post wire, three three hands. The bones and joints are freed and the skin becomes large. Look at that, the life is not in the car. Have a big look, stay Uttan-Nayan. Sometimes go-go-go, sometimes unconscious.
On being asked by Swaroop Goswami, Jaliya (sailor) said – I have not seen any human being here. While casting the net, a dead man came to my net. I picked it up thinking it was a big fish. When I saw that he was dead, then I was afraid. While taking him out of the trap, his body touched my body. That ghost entered my body with just a touch. Due to fear, my body started trembling, water started flowing from my eyes and my speech became hoarse. Either he is a Brahmadaitya or a ghost, I cannot say for sure. He enters the human body just by sight. His body is five-seven hands long. Each of his hands and feet are three cubits long. The joints of his bones have opened. The skin on the top of his body is like luju-bujur-like. Seeing him, no one’s life can survive. He has assumed a very strange form, both eyes are swollen. Sometimes he utters gong-gong words and sometimes he becomes unconscious.
After hearing this from the mouth of the boatman, Swaroop Goswami understood everything that it would be the body of Mahaprabhu. It has become like this only because of his touch. Due to fear it does not know that it is a state of love. Thinking this, they said- ‘Why do you go to the exorcist, we are very good exorcists. No matter what kind of ghost it is, where we haven’t read the mantra, that very moment that ghost is seen running away. Then he doesn’t stop even for a moment.’ Saying this, Swaroop Goswami touched his hand on his forehead and slapped him thrice on the cheek after reciting something false. There was little ghost on him. He had an illusion of ghost, due to faith that fear went away.
Then Svarupa Goswami said to him – ‘The one whom you consider to be a ghost, is Mahaprabhu Chaitanyadev, because of love he becomes in such a condition. You tell us where they are. We have come in search of him. Hearing this, the boatman was happy and reached the Lord with all the devotees. Devotees saw, Lord’s body like gold, like silver dust, lying in the sand of the sea, eyes upturned, stomach bloated, foam coming out of the mouth. Without making any effort, his body is lying motionless covered with wet sand. All the devotees sat around the Lord.
We worldly people consider death as the last condition, that’s why from the worldly point of view the body of the Lord ended here. Then he did not attain consciousness. But the raganugami devotees give the benefit of consciousness to Virhini even after death. In his opinion, death is not the final condition. In this context, we quote a post of the famous speaker of Bangla language Shri Govinddas ji. From this the readers will come to know that Radhika ji regained consciousness and started talking even after attaining the state of death by hearing Shri Krishna’s name.
Kunj Bhavane Deen. Your qualities are many. Very weak bhel. Dashmik Phil, Dasha Hari Sahchari. Come out with the house. Shun Madhav’s Balab Toy. Gokul Taruni, knowing death. Cry, cry, cry. That’s a good thing, full of hearing. Say your name again and again. Many moments are beautiful, Pai Paran Kori. Gadgad says the name of Shyam. Naam achhu gune, shunile tribhuvane. The dead said again. Govindas kah, ih sab aan nahi. Hey, see me with you.
A friend of Shri Krishna is describing the condition of Shri Radhika ji. Friend says – ‘ Hey Shyamsundar! Radhika ji has become very thin while chanting your names day and night in Kunj Bhavan. When I saw his condition near death, I took him out of that cottage. Dear Madhav! What should I tell you now, she died on coming out, all the friends started crying seeing her death. There was a clever friend among them, she started saying your name again and again in his ear. After a long time, the communication of some life started in the body of that beautiful woman. In a short while, she started saying ‘Shyam’ out of glee. Such a quality has been heard in Tribhuvan of your name that even a creature who has attained the condition of death starts speaking again. Friend says- ‘Don’t take this thing as a lie. If you do not believe this, then come with me to see him.’ This verse has been said by the poet Govind Das.’ Similarly, the devotees also re-awakened the Lord by reciting Harinam in his ears. He came in Ardhabhaya condition and started describing the Jalkeli that happens in Kalindi. ‘ That dusky entered the beautiful cool water of Yamuna ji taking all the friends along with him. He started doing various water sports with his friends. Sometimes he used to soak someone’s body, sometimes he would take ten or twenty people along with them and act in divine pastimes. I also joined in the game of that beloved. That sport was very enjoyable.’ Saying this, the Lord looked around and asked Swarup Goswami – ‘Where did I come here? Who brought me here from Vrindavan?’ Svarupa Goswami then narrated all the news and took him to his abode along with the devotees after bathing him.
respectively next post [172] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]