।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
महाप्रभु का अदर्शन अथवा लीलासंवरण
अद्यैव हसिंतं गीतं पठितं यै: शरीरिभि:।
अद्यैव ते न दृश्यन्ते कष्टं कालस्य चेष्टितम्।।
महाभारत में स्थान-स्थान पर क्षात्रधर्म की निन्दा की गयी है। युद्ध में खड़ग लेकर जो क्षत्रिय अपने भाई-बन्धुओं और सगे-सम्बन्धियों का बात की बात में वध कर सकता है, ऐसे कठोर धर्म को धर्मराज युधिष्ठिर ऐसे महात्मा ने पर निन्द्य बताकर भी उसमें प्रवृत्त होने के लिये अपनी विवशता बतलायी है। किन्तु क्षात्र धर्म से भी कठोर और क्रूर कर्म हम-जैसे क्षुद्र लेखकों का है, जिनके हाथ में वज्र के समान बलपूर्वक लोहे की लेखनी दे दी जाती है और कहा जाता है कि उस महापुरुष की अदर्शन-लीला लिखो ! हाय ! कितना कठोर कर्म है, हृदय को हिला देने वाले इस प्रसंग का वर्णन हमसे क्यों कराया जाता है? कल तक जिसके मुखकमल को देखकर असंख्य भावुक भक्त भक्ति भागीरथी के शीतल और सुखकर सलिलरूपी आनन्द में विभोर होकर अवगाहन कर रहे थे, उनके नेत्रों के सामने वह आनन्दमय दृश्य हटा दिया जाय, यह कितना गर्हणीय काम होगा। हाय रे विधाता ! तेरे सभी काम निर्दयतापूर्ण होते हैं ! निर्दयी ! दुनियाभर की निर्दयता का ठेका तैने ही ले लिया है। भला, जिनके मनोहर चन्द्रवदन को देखकर हमारा मनकुमुद खिल जाता है, उसे हमारी आँखों से ओझल करने में तुझे क्या मजा मिलता है? तेरा इसमें लाभ ही क्या है? क्यों नही तू सदा उसे हमारे पास ही रहने देता। किन्तु कोई दयावान हो उससे तो कुछ कहा- सुना भी जाय, जो पहले से ही निर्दयी है, उससे कहना मानो अरण्य में रोदन करना है। हाय रे विधाता !
सचमुच लीलासंवरण के वर्णन के अधिकारी तो व्यास, वाल्मीकि ही हैं। इनके अतिरिक्त जो नित्य महापुरुषों की लीलासंवरण का उल्लेख करते हैं, वह उनकी अनधिकार चेष्टा ही है। महाभारत में जब अर्जुन की त्रिभुवनविख्यात शूरता, वीरता और युद्ध चातुर्य की बातें पढ़ते हैं तो पढते-पढते रोंगटे खड हो जाते हैं। हमारी आँखों के सामने लम्बी-लम्बी भुजाओं वाले गाण्डीवधारी अर्जुन की वह विशाल और भव्य मूर्ति प्रत्यक्ष होकर नृत्य करने लगती है। उसी को जब श्रीकृष्ण के अदर्शन के अनन्तर आभीर और भीलों द्वारा लुटते देखते हैं, तो यह सब दृश्य-प्रपंच स्वप्नवत प्रतीत होने लगता है। तब यह प्रत्यक्ष अनुभव होने लगता है कि यह सब उस खिलाडी श्रीकृष्ण की खिलवाड है, लीला-प्रिय श्याम की ललित लीला के सिवा कुछ नहीं है।
पाण्डवों की सच्चरित्रता, कष्टसहिष्णुता, शूरता, कार्यदक्षता, पटुता, श्रीकृष्णप्रियता आदि गुणों को पढ़ते हैं तब रोंगटे खड़े हो जाते हैं, हृदय उनके लिये भर आता है, किन्तु उन्हें ही जब हिमालय में गलते हुए देखते हैं तो छाती फटने लगती है। सबसे पहले द्रौपदी बर्फ में गिर जाती है। उस कौमलांगी अबला को बर्फ में ही बिलबिलाती छोड़कर धर्मराज आगे बढ़ते हैं। वे मुड़कर भी उसकी ओर नहीं देखते। फिर प्यारे नकुल-सहदेव गिर पड़ते हैं। धर्मराज उसी प्रकार दृढ़तापूर्वक बर्फ पर चढ़ रहे हैं। हाय, गजब हुआ। जिस भीम के पराक्रम से यह सप्तद्वीपा वसुमती प्राप्त हुई थी। वह भी बर्फ में पैर फिसलने से गिर पड़ और तड़पने लगा। किन्तु युधिष्ठिर किसकी सुनते हैं, वे आगे बढे ही जा रहे हैं। अब वह हृदयविदारक दृश्य आया। जिसके नाम से मनुष्य तो क्या स्वर्ग के देवता थर-थर कांपते थे, वह गाण्डीव धुनषधारी अर्जुन मूर्च्छित होकर गिर पड़ा और हा तात ! कहकर चीत्कार मारने लगा, किन्तु धर्मराज ने मुड़कर भी उनकी ओर नहीं देखा !
सचमुच स्वर्गारोहण पर्व को पढ़ते-पढ़ते रोंगटे खड़े हो जाते हैं। कैसा भी वज्रहृदय क्यों न हो बिना रोये न रहेगा। जब मुझ-जैसे कठोर हृदय वाले की आँखों से भी अश्रुविन्द निकल पड़े तब फिर सहृदय पाठकों की तो बात ही क्या?
इसी प्रकार जब वाल्मीकीय रामायण में, श्री राम की सुकुमारता, ब्राह्मणप्रियता, गुरुभक्ति, शूरता और पितृभक्ति की बातें पढ़ते तो हृदय भर आता है। सीता जी के प्रति उनका कैसा प्रगाढ़ प्रेम था। हाय ! जिस समय कामान्ध रावण जनकनन्दिनी को चुरा ले गया, तब उन मर्यादापुरुषोत्तम की भी मर्यादा टूट गयी। वे अकेली जानकी के पीछे विश्वब्रह्माण्ड को अपने अमोघ बाण के द्वारा भस्म करने को उद्यत हो गये। उस समय उनका प्रचण्ड क्रोध, दुर्धर्ष तेज और असहनीय रोष देखते ही बनता था। दूसरे ही क्षण वे साधारण कामियों की भाँति रो-रोकर लक्ष्मण से पूछने लगते– ‘भैया ! मैं कौन हूँ? तुम कौन हो, हम यहाँ क्यों फिर रहे हैं? सीता कौन है, हा सीते ! हा प्राणवल्लभे ! तू कहाँ चली गयी ?’ ऐसा कहते-कहते बेहोश होकर गिर पड़ते हैं। उनके अनुज ब्रह्मचारी लक्षमण जी बिना खाये-पीये और भूख-नींद का परित्याग किये छाया की तरह उनके पीछे-पीछे फिरते हैं और जहाँ श्रीराम का एक बूँद पसीना गिरता है, वहीं वे अपने कलेजे को काटकर उसका एक प्याला खून निकालकर उससे उसे स्वेद-विन्दु को धोते हैं।
उन्हीं लक्ष्मण का जब श्री रामचन्द्र जी ने छद्मवेषधारी यमराज के कहने से परित्याग कर दिया और वे श्री राम के प्यारे भाई सुमित्रानन्दन महाराज दशरथ के प्रिय पुत्र सरयू नदी में निमग्न कर अपने प्राणों को खोते हैं तो हृदय फटने लगता है। उससे भी अधिक करुणापूर्ण तो यह दृश्य है कि जब श्री रामचन्द्र जी भी अपने भाइयों के साथ उसी प्रकार सरयू में शरीर को निमग्न कर अपने नित्यधाम को पधारते हैं। सचमुच इन दोनों महाकवियों ने इन करुणापूर्ण प्रसंग को लिखकर करुणा की एक अविच्छिन्न धारा बहा दी है, जो इन ग्रन्थों के पठन करने वालों के नेत्र-जल से सदा बढ़ती ही रहती है। महाभारत और रामायण के ये दो स्थल मुझे अत्यन्त प्रिय हैं, इन्हीं हृदयविदारक प्रकरणों को जब पढ़ता हूँ तभी कुछ हृदय पसीजता है और श्रीराम-कृष्ण की लीलाओं की कुछ-कुछ झलक सी दिखायी देने लगती है। यह हम-जैसे नीरस हृदय वालों के लिये है। जो भगवत्कृपा पात्र हैं, जिनके हृदय कोमल हैं, जो सरस हैं, भावुक है, प्रेमी हैं और श्रीराम-कृष्ण के अनन्य उपासक हैं, उन सबके लिये तो ये प्रकरण अत्यन्त ही असह्य हैं। उनके मत में तो श्रीराम-कृष्ण का कभी अदर्शन हुआ ही नहीं, वे नित्य हैं, शाश्वत हैं। आत्मा से नहीं, वे शरीर से भी अभी ज्यों-के-त्यों ही विराजमान हैं। इसीलिये श्रीमद्वाल्मीकीय के पारायण में उत्तरकाण्ड छोड़ दिया जाता है। वैष्णवगण राजगद्दी होने पर ही रामायण की समाप्ति समझते हैं और वही रामायण का नवाह समाप्त हो जाता है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने तो इस प्रकरण को एकदम छोड़ ही दिया है। भला, वे अपनी कोमल और भक्तिभरी लेखनी से सीता माता का परित्याग, उनका पृथ्वी में समा जाना और गुप्तारघाट पर रामानुज लक्ष्मण का अन्तर्धान हो जाना इन हृदयविदारक प्रकरणों को कैसे लिख सकते थे।
इसी प्रकार श्री चैतन्य चरित्र-लेखकों ने श्री श्रीचैतन्य की अन्तिम अदर्शन लीला का वर्णन नहीं किया है। सभी इस विषय में मौन ही रहे हैं। हाँ, ‘चैतन्यमंगल’ कार ने कुछ थोसा-सा वर्णन अवश्य किया है, सो अदर्शन की दृष्टि से नहीं। उसमें श्री चैतन्य देव के सम्बन्ध की सब करामाती, अलौकिक चमत्कारपूर्ण घटनाओं का ही वर्णन किया गया है। इसीलिये उनका शरीर साधारण लोगों की भाँति शान्त नहीं हुआ, इसी दृष्टि से अलौकिक घटना ही समझकर उसका वर्णन किया गया है। नहीं तो सभी वैष्णव इस दु:खदायी प्रसंग को सुनना नहीं चाहते। कोमल प्रकृति के वैष्णव भला इसे सुन ही कैसे सकते हैं? इसीलिये एक भौतिक घटनाओं को ही सत्य और इतिहास मानने वाले महानुभाव ने लिखा है कि ‘श्रीचैतन्यदेव के भक्तों की अन्धभक्ति ने श्री चैतन्य देव की मृत्यु के सम्बन्ध में एकदम पर्दा डाल दिया है।’
उन भोले भाई को यह पता नहीं कि चैतन्य तो नित्य हैं। भला चैतन्य की भी कभी मृत्यु हो सकती है। जिस प्रकार अग्नि कभी नहीं बुझती उसी प्रकार चैतन्य भी कभी नहीं मरते। अज्ञानी पुरुष ही इन्हें बुझा और मरा हुआ समझते हैं।
अग्नि तो सर्वव्यापक है, विश्व उसी के ऊपर अवलम्बित है। संसार से अग्नितत्त्व निकाल दीजिये। उसी क्षण प्रलय हो जाय। शरीर के पेट की अग्नि को शान्त कर दीजिये उसी क्षण शरीर ठंडा हो जाय। सर्वव्यापक अग्नि के ही सहारे यह विश्व खड़ा है। वह हमें इन चर्म-चक्षुओं से सर्वत्र प्रत्यक्ष नहीं दीखती। दो लकडियों को घिसिये, अग्नि प्रत्यक्ष हो जायेगी। इसी प्रकार चैतन्य सर्वत्र व्यापक हैं। त्याग, वैराग्य और प्रेम का अवलम्बन कीजिये, चैतन्य प्रत्यक्ष होकर ऊपर को हाथ उठा-उठाकर नृत्य करने लगेंगे। जिसका जीवन अग्निमय हो, जो श्रीकृष्ण प्रेम में छटपटाता-सा दृष्टिगोचर होता हो, जिसके शरीर में त्याग, वैराग्य और प्रेम ने घर बना लिया हो, जो दूसरों की निन्दा और दोष-दर्शन से दूर रहता हो वहाँ समझ लो कि श्री चैतन्य यहाँ प्रत्यक्ष प्रकट हो गये हैं। यदि सचमुच चैतन्य के दर्शन करने के तुम उत्सुक हो तो इन्हीं स्थानों में चैतन्य के दर्शन हो सकेंगे। किन्तु ये सब बातें तो ज्ञान की हैं। भक्त को इतना अवकाश कहाँ कि वह इन ज्ञानगाथाओं को श्रवण करे। वह तो श्री चैतन्य–चरित्र ही सुनना चाहता है। उसमें इतना पुरुषार्थ कहाँ ? उसका पुरुषार्थ तो इतना ही है कि भक्तरूप में या भगवान रूप में श्रीकृष्ण ने जो-जो लीलाएं की हैं उन्हीं को बार-बार सुनना चाहता है। उसकी इच्छा नहीं कि सभी लीलाओं को सुन ले। श्रीकृष्ण की सभी लीलाओं का पार तो वे स्वयं ही नहीं जानते फिर दूसरा कोई तो जान ही क्या सकता है? भक्त तो चाहता है, चाहे कूप से ला दो या घड़े से हमारी तो एक लोटे की प्यास है, नदी से लाओगे तो भी एक ही लोटा पीवेंगे और घड़े से दोगे तो भी उतना ही। समुद्र में से लाओ तो सम्भव है, हमसे पिया भी न जाय। क्योंकि उसका पान तो कोई अगस्त्य-जैसे महापुरुष ही कर सकते हैं। इसलिये भावुक भक्त सद श्रीकृष्ण और उनके दूसरे स्वरूप श्रीकृष्ण-भक्तों की ही लीलाओं का श्रवण करते रहते हैं। उनका कोमल हृदय इन अप्रकट और अदर्शन लीलाओं का श्रवण नहीं कर सकता, क्योंकि शिरीषकुसुम के समान, छुई-मुई के पत्तों के समान उनका शीघ्र ही द्रवित हो जाने वाला हृदय होता है। यह बात भी परम भावुक भक्तों की है; किन्तु हम-जैसे वज्र के समान हृदय रखने वाले पुरुष क्या करें?
भक्त का तो लक्षण ही यह है कि भगवन्नाम के श्रवणमात्र से चन्द्रकान्तमणि के समान उसके दोनों नेत्र बहने लगें। आंसू ही भक्त का आभूषण है, आंसू में ही श्रीकृष्ण छिपे रहते हैं। जिस आँख में आंसू नहीं वहाँ श्रीकृष्ण नहीं। तब हम कैसे करें, हमारी आँखों में तो आंसू आते ही नहीं। हां, ऐसे-ऐसे हृदयविदारक प्रकरणों को कभी पढ़ते हैं तो दो-चार बूँदें आप से आप ही निकल पड़ती हैं, इसलिये भक्तों को कष्ट देने के निमित्त नहीं, अपनी आँखों को पवित्र करने के निमित्त, अपने वज्र के समान हृदय को पिघलाने के निमित्त हम यहाँ अति संक्षेप में श्री चैतन्यदेव के अदर्शन का यत्किंचित वृत्तान्त लिखते हैं। चौबीस वर्ष नवद्वीप में रहकर गृहस्थाश्रम में और चौबीस वर्ष संन्यास लेकर पुरी आदि तीर्थों में प्रभु ने बिताये। संन्यास लेकर छ: वर्षों तक आप तीर्थों में भ्रमण करते रहे और अन्त में अठारह वर्षों तक अचल जगन्नाथजी के रूप में पुरी में रहे। बारह वर्षों तक निरन्तर दिव्योन्माद की दशा में रहे। उसका यत्किंचित आभास पाठकों को पिछले प्रकरणों में मिल चुका है। जिन्होंने प्रार्थना करके प्रभु को बुलाया था उन्होंने ही अब पहेली भेजकर गौरहाट उठाने की अनुमति दे दी। इधर स्नेहमयी शचीमाता भी इस संसार को त्यागकर परलोकवासिनी बन गयीं। चैतन्य महाप्रभु जिस कार्य के लिये अवतरित हुए थे, वह कार्य भी सुचारुरीति से सम्पन्न हो गया। अब उन्होंने लीलासंवरण करने का निश्चय कर लिया। उनके अन्तरंग भक्त तो प्रभु के रंग-ढंग को ही देखकर अनुमान लगा रहे थे कि प्रभु अब हमसे ओझल होना चाहते हैं। इसलिये वे सदा सचेष्ट ही बने रहते थे।
शाके 1455[1]का आषाढ़ महीना था। रथ यात्रा का उत्सव देखने के निमित्त गौड़ देश से कुछ भक्त आ गये थे। महाप्रभु आज अन्य दिनों की अपेक्षा अत्यधिक गम्भीर थे। भक्तों ने इतनी अधिक गम्भीरता उनके जीवन में कभी नहीं देखी। उनके ललाट से एक अद्भुत तेज-सा निकल रहा था, अत्यन्त ही दत्तचित्त होकर प्रभु स्वरूप गोस्वामी के मुख से श्रीकृष्ण कथा श्रवण कर रहे थे। सहसा वे वैसे ही जल्दी से उठकर खडे हो गये और जल्दी से अकेले ही श्रीजगन्नाथजी के मन्दिर की ओर दौडने लगे। भक्तों को परम आश्चर्य हुआ।
महाप्रभु इस प्रकार अकेले मन्दिर की ओर कभी नहीं जाते थे, इसलिये भक्त भी पीछे-पीछे प्रभु के पादपद्मों का अनुसण करते हुए दौड़ने लगे। आज महाप्रभु अपने नित्य के नियमित स्थान पर गरुडस्तम्भ के समीप नहीं रुके, वे सीधे मन्दिर के दरवाजे के समीप चले गये। सभी परम विस्मित-से हो गये।
महाप्रभु ने एक बार द्वार पर से ही उछककर श्रीजगन्नाथ जी की ओर देखा और फिर जल्दी से आप मन्दिर में घुस गये। महान आश्चर्य ! अघटित घटना ! ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। मन्दिर के सभी कपाट अपने-आप बंद हो गये, महाप्रभु अकेले ही मन्दिर के भीतर थे। सभी भक्तगण चुपचाप दरवाजे पर खड़े इस अलौकिक दृश्य को उत्सुकता के साथ देख रहे थे। गुंजाभवन में एक पूजा करने वाले भाग्यवान पुजारी प्रभु की इस अन्तिम लीला को प्रत्यक्ष देख रहे थे। उन्होंने देखा, महाप्रभु जगन्नाथ जी के सम्मुख हाथ जोड़े खड़े हैं और गद्गदकण्ठ से प्रार्थना कर रहे हैं– ‘हे दीनवत्सल प्रभो! हे दयामय देव ! हे जगत्पिता जगन्नाथ देव ! सत्य, त्रेता, द्वापर और कलि–इन चारों युगों में कलियुग का एकमात्र धर्म श्रीकृष्ण संकीर्तन ही है। हे नाथ! आप अब जीवों पर ऐसी दया कीजिये कि वे निरन्तर आपके सुमधुर नामों का सदा कीर्तन करते रहें। प्रभो ! अब घोर कलियुग आ गया है, इसमें जीवों को आपके चरणों के सिवा दूसरा कोई आश्रय नहीं। इन अनाश्रित जीवों पर कृपा करके अपने चरण कमलों का आश्रय प्रदान कीजिये।’ बस, इतना कहते-कहते प्रभु ने श्री जगन्नाथ जी के श्री विग्रह को आलिंगन किया और उसी क्षण आप उसमें लीन हो गये।
पुजारी जल्दी से यह कहता हुआ– ‘प्रभो ! यह आप क्या कर रहे हैं, दयालो ! यह आपकी कैसी लीला है, जल्दी से प्रभु को पकड़़ने के लिये दौड़़ा ! किन्तु प्रभु अब वहाँ कहाँ ! वे तो अपने असली स्वरूप में प्रतिष्ठित हो गये। पुजारी मूर्च्छित होकर गिर पड़ा और ‘हा देव ! हे प्रभो ! हे दयालो ! कहकर जोरों से चीत्कार करने लगा। द्वार पर खड़े हुए भक्तों ने पुजारी का करुण क्रन्दन सुनकर जल्दी से किवाड़ खोलने को कहा, किन्तु पुजारी को होश कहाँ ! जैसे-तैसे बहुत कहने-सुनने पर पुजारी ने किवाड़ खोले। भक्तों ने मन्दिर में प्रवेश किया और प्रभु को वहाँ न देखकर अधीर होकर वे पूछने लगे– ‘प्रभु कहाँ हैं? पुजारी ने लड़खड़ती हुई वाणी में रुक-रुककर सारी कहानी कह सुनायी। सुनते ही भक्तों की जो दशा हुई, उसका वर्णन यह काले मुख की लेखनी भला कैसे कर सकती है ? भक्त पछाड़ खा-खाकर गिरने लगे, कोई दीवार से सिर रगड़ने लगा। कोई पत्थर से माथा फोड़ने लगा। कोई रोते-रोते धूलि में लोटने लगा। स्वरूप गोस्वामी तो प्रभु के बाहरी प्राण ही थी। वे प्रभु के वियोग को कैसे सह सकते थे। वे चुपचाप स्तम्भित भाव से खड़े रहे। उनके पैर लड़खड़ाने लगे। भक्तों ने देखा उनके मुंह से कुछ धुँआं-सा निकल रहा है। उसी समय फट से आज हुई। स्वरूप गोस्वामी का हृदय फट गया और उन्होंने भी उसी समय प्रभु के ही पथ का अनुसरण किया।
भक्तों को जगन्नाथ पुरी अब उजड़ी हुई नगरी-सी मालूम हुई। किसी ने तो उसी समय समुद्र में कूदकर प्राण गँवा दिये। किसी ने कुछ किया और बहुत-से पुरी को छोड़कर विभिन्न स्थानों में चले गये। पुरी से अब गौराहट उठ गयी। वक्रेश्वर पण्डित ने फिर उसे जमाने की चेष्टा की, किन्तु उसका उल्लेख करना विषयान्तर हो जायगा। किसी के जमाने में हाट थोडे ही जमती है, लाखों मठ हैं और उनके लाखों ही पैर पुजाने वाले महन्त हैं, उनमें वह चैतन्यता कहाँ। साँप निकल गया, पीछे से लकीर को पीटते रहो। इससे क्या? इस प्रकार अड़तालीस वर्षों तक इस धराधाम पर प्रेमरूपी अमृत की वर्षा करने के पश्चात महाप्रभु अपने सत्वस्वरूप में जाकर अवस्थित हो गये। बोलो प्रेमावतार श्री चैतन्य देव की जय ! बोलो उनके सभी प्रियपार्षदों की जय ! बोलो भगवन्नाम प्रचारक श्री गौरचन्द्र की जय !
नामसंकीर्तनं यस्य सर्वपापप्रणाशनम्।
प्रणामो दु:खशमनस्तं नमामि हरिं परम्।।[1]
‘जिनके नाम का सुमधुर संकीर्तन सर्व पापों को नाश करने वाला है और जिनको प्रणाम करना सकल दु:खों को नाश करने वाला है उन सर्वोत्तम श्रीहरि के पादपद्मों में मैं प्रणाम करता हूँ।’
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]
।। Srihari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Jap] Hare Krishna Hare Ram The absence of the Lord or the covering of His pastimes
Today I have read this laughing song by those who have embodied souls Even today they do not see the trouble caused by time
Kshatradharma has been condemned at many places in the Mahabharata. Dharmaraj Yudhishthira, such a great soul, who can kill his brothers and relatives by taking a dagger in a war, has told his compulsion to engage in such a harsh religion even after calling it reprehensible. But even harsher and crueler than Kshatra Dharma is the work of petty writers like us, who are given an iron pen with force like a thunderbolt and are asked to write the invisible past of that great man! Oh ! What a harsh action, why are we being told about this heart-wrenching incident? Till yesterday seeing the face of the lotus, innumerable passionate devotees were gazing at the cool and pleasant bliss of Bhagirathi, how admirable it would be to remove that blissful scene from their eyes. Hi Ray Creator! All your deeds are cruel! cruel ! You have taken the contract for the cruelty of the whole world. Well, what pleasure do you get in making her disappear from our eyes, seeing whose beautiful moonlight blossoms? What is your benefit in this? Why don’t you always let him stay with us. But if someone is kind, then at least say something to him – to be heard, to say something to someone who is already cruel, is like crying in the wilderness. Hi Ray Creator!
Really only Vyas and Valmiki are entitled to describe Lilasavanran. Apart from these, those who always refer to the pastimes of great men, it is their unauthorized attempt. In the Mahabharata, when we read about Arjuna’s tribhuvan-famous bravery, bravery and war cleverness, we get goosebumps while reading it. In front of our eyes, that huge and magnificent statue of Arjuna with long arms, Gandivadhari starts dancing in front of us. When he is seen being looted by Abhir and Bhils during the absence of Shri Krishna, then all this scene-world seems to be a dream. Then it starts to be experienced directly that it is all a game of that player Shri Krishna, Leela-Priya Shyam’s Lalit Leela is nothing but.
One gets goosebumps when we read about the good character, hard-tolerance, bravery, efficiency, ingenuity, love of Shri Krishna, etc. of the Pandavas, but when we see them getting lost in the Himalayas, our chest starts bursting. First Draupadi falls in the snow. Dharamraj moves ahead leaving that Kaumalangi Abla wailing in the snow. They don’t even turn to look at him. Then the beloved Nakul-Sahdev fall down. Dharmaraj is climbing on the ice with the same determination. Hi, great. By whose prowess this Saptadvipa Vasumati was obtained. He also fell due to slipping in the snow and started suffering. But whom does Yudhishthir listen to, he is moving ahead. Now that heartbreaking scene came. At whose name humans, let alone the gods of heaven used to tremble, Arjuna, wielding the Gandiva bow, fainted and fell down. Saying this, he started shouting, but Dharmaraj did not even turn to look at him!
One really gets goosebumps reading the Ascension Day. No matter how thunderous the heart may be, it will not remain without crying. When tears came out from the eyes of even a hard hearted person like me, then what to talk about kind hearted readers?
Similarly, in Valmiki’s Ramayana, when we read about Shri Ram’s gentleness, Brahmin-love, Guru-bhakti, bravery and patriotism, the heart fills. What a deep love he had for Sita ji. Oh ! At the time when Kamandha Ravana stole Janakandini, then the dignity of that Maryadapurushottam was also broken. Following Janaki alone, he set out to burn the universe into ashes with his infallible arrow. At that time, his fierce anger, misery was intense and unbearable fury was created at the sight of him. The very next moment, like ordinary workers, they started crying and asking Laxman – ‘Brother! Who am I? Who are you, why are we roaming here? Who is Sita, oh Site! Ha Pranvallabhe! Where have you gone?’ Saying this he faints and falls down. His younger brother Brahmachari Lakshman ji follows him like a shadow without eating-drinking and abandoning hunger-sleep and wherever Shri Ram sweats a drop, he cuts his liver and takes out a cup of his blood and makes him sweat. Let’s wash the point.
When the same Laxman was abandoned by Shri Ramchandra ji at the behest of disguised Yamraj and he lost his life by immersing himself in the Saryu river, the beloved son of Shri Ram’s beloved brother Sumitranandan Maharaj Dashrath, then his heart starts to burst. Even more compassionate than this is the scene when Shri Ramchandra ji also reaches his eternal abode by immersing his body in Saryu in the same way along with his brothers. Truly, these two great poets have shed an uninterrupted stream of compassion by writing these compassionate episodes, which keeps on increasing with tears in the eyes of those who read these texts. These two places of Mahabharata and Ramayana are very dear to me, when I read these heart-wrenching episodes, my heart swells and some glimpses of pastimes of Shri Ram-Krishna start appearing. This is for the dull hearted like us. Those who are worthy of God’s grace, whose hearts are soft, who are juicy, who are passionate, who are lovers and who are exclusive worshipers of Shri Ram-Krishna, these episodes are very unbearable for all of them. In their opinion, Shriram-Krishna never disappeared, they are eternal, eternal. Not with the soul, but with the body, they are still sitting as they are. That is why Uttarakand is left out in the Parayan of Srimad Valmiki. Vaishnavgans understand the end of Ramayana only after getting the throne and that is the end of Ramayana. Goswami Tulsidas ji has completely left this episode. Well, how could he write these heart-wrenching episodes of Sita Mata’s abandonment, her dissolution in the earth and Ramanuja Lakshmana’s demise at Guptarghat with his soft and devotional pen.
Similarly, Sri Chaitanya’s character-writers have not described Sri Sri Chaitanya’s last unseen pastimes. Everyone has remained silent in this matter. Yes, ‘Chaitanyamangal’ car has definitely given some description, but not from the point of view of invisibility. In it all the enchanting, supernatural miraculous incidents of Sri Chaitanya Dev’s relationship have been described. That’s why his body did not become calm like ordinary people, from this point of view it has been described as a supernatural phenomenon. Otherwise all Vaishnavas do not want to listen to this sad incident. How can Vaishnavas of soft nature listen to this? That is why a great personality who believes only physical events to be truth and history has written that ‘the blind devotion of the devotees of Sri Chaitanya Dev has completely covered the death of Sri Chaitanya Dev’.
That innocent brother does not know that consciousness is eternal. Well Chaitanya can also die sometime. Just as fire never goes out, similarly consciousness never dies. Ignorant men only consider them extinguished and dead. Fire is omnipresent, the world is dependent on it. Remove the element of fire from the world. Doomsday will happen at that very moment. Calm down the fire in the stomach of the body and the body becomes cool at the same moment. This world is standing on the support of all pervading fire. It is not visible to us everywhere through these skin-eyes. Rub two sticks, the fire will be evident. In the same way consciousness is pervasive everywhere. Rely on renunciation, quietness and love, consciousness will become visible and start dancing by raising hands up. One whose life is full of fire, one who is seen drooling in the love of Lord Krishna, one who has renunciation, disinterest and love made a home in his body, one who stays away from criticizing and blaming others, understand that Sri Chaitanya is here directly. have appeared. If you are really eager to see Chaitanya, then you will be able to see Chaitanya in these places only. But all these things are of knowledge. Where does the devotee have so much leisure to listen to these stories of knowledge? He only wants to hear Sri Chaitanya-charitra. Where is so much effort in that? His only effort is that he wants to hear again and again the pastimes performed by Shri Krishna in the form of a devotee or in the form of God. He does not wish to listen to all the pastimes. He himself does not know the extent of all the pastimes of Shri Krishna, then how can anyone else know? The devotee wants, whether he brings it from the well or from the pitcher, we are thirsty for one pot, if you bring it from the river, we will drink only one pot and if you give it from the pot, the same. It is possible to bring it from the sea, but we can’t even drink it. Because only a great man like Agastya can drink it. That’s why passionate devotees always listen to the pastimes of Shri Krishna and his second form of Shri Krishna-devotees. His soft heart cannot listen to these unmanifest and invisible pastimes, because he has a heart that melts quickly, like a lotus flower, like the leaves of a mimosa. This thing is also of the most passionate devotees; But what to do men like us who have a heart like a thunderbolt?
The sign of a devotee is that just by hearing the name of the Lord, both his eyes start flowing like the moon. Tears are the ornament of the devotee, Shri Krishna remains hidden in tears. Where there are no tears in the eye, there is no Shri Krishna. Then how can we do, tears do not come in our eyes. Yes, whenever you read such heart-wrenching episodes, then two or four drops come out of you, that’s why not for the sake of troubling the devotees, for the purpose of purifying your eyes, for the purpose of melting your heart like a thunderbolt. We write here very briefly the account of Sri Chaitanyadev’s appearance. Prabhu spent twenty-four years in Navadvipa in Grihasthashram and twenty-four years after taking sannyas, in pilgrimages like Puri. After taking sannyas, you kept on traveling in pilgrimages for six years and finally lived in Puri as Achal Jagannathji for eighteen years. Stayed in a state of continuous ecstasy for twelve years. Readers have got a brief glimpse of it in the previous episodes. Those who had prayed and called the Lord, have now given permission to raise Gaurhat by sending Paheli. Here the loving Sachimata also left this world and became a resident of the other world. The work for which Chaitanya Mahaprabhu had incarnated, that work was also completed smoothly. Now he has decided to do Leelaswaran. His intimate devotees were guessing by looking at the appearance of the Lord that the Lord now wants to disappear from us. That’s why he always remained conscious.
Shake was the Ashadha month of 1455[1]. Some devotees had come from Gaur country to witness the Rath Yatra festival. Today Mahaprabhu was more serious than on other days. Devotees have never seen so much seriousness in his life. A wonderful radiance was emanating from his forehead, he was listening to the story of Shri Krishna from the mouth of Prabhu Swaroop Goswami with great devotion. Suddenly he stood up quickly and quickly started running alone towards Shri Jagannathji’s temple. The devotees were astonished.
Mahaprabhu never used to go towards the temple alone like this, so the devotees also started running behind following the footsteps of the Lord. Today Mahaprabhu did not stop at his regular place near the Garudastambha, he went straight to the temple gate. Everyone was very surprised.
Mahaprabhu once jumped from the door and looked at Shri Jagannathji and then quickly entered the temple. great surprise! Incident! This had never happened before. All the doors of the temple were automatically closed, Mahaprabhu was alone inside the temple. All the devotees were silently watching this supernatural scene standing at the door with curiosity. A fortunate priest who worshiped in Gunja Bhavan was directly watching this last pastime of the Lord. He saw, Mahaprabhu standing in front of Jagannath ji with folded hands and praying with gadgadkanth- ‘O Deenvatsal Prabho! Oh merciful God! Oh world father Jagannath Dev! In the four ages of Satya, Treta, Dwapara and Kali, the only religion of Kaliyuga is Shri Krishna Sankirtan. Hey Nath! Now you show such mercy to the living beings that they keep chanting your melodious names continuously. Lord! Now the fierce Kaliyug has come, in this the living beings have no other shelter except your feet. Kindly provide the shelter of your lotus feet to these helpless creatures.’ Just saying this, the Lord embraced the Deity of Shri Jagannath ji and at that very moment you got absorbed in it.
The priest quickly saying – ‘Lord! What are you doing, dear! What kind of leela is this of yours, ran quickly to catch the Lord! But where is the Lord there now? They have become established in their original form. The priest fainted and fell down and said ‘O God! Oh, Lord ! O kind! Saying this, he started shouting loudly. The devotees standing at the door heard the priest’s compassionate cry and asked them to open the door quickly, but the priest was not conscious! Somehow after saying a lot, the priest opened the doors. The devotees entered the temple and impatient not seeing the Lord there, they asked – ‘Where is the Lord? The priest told the whole story after stopping in stammering speech. How can this black-faced pen describe the condition of the devotees as soon as they heard about it? Devotees started falling after falling behind, someone started rubbing his head against the wall. Someone started breaking his head with a stone. Some started rolling in the dust while crying. Swaroop Goswami was only the external life of the Lord. How could they bear the separation of the Lord. He stood silently in a stupor. His feet started faltering. The devotees saw something like smoke coming out of his mouth. At the same time today suddenly happened. Svarupa Goswami’s heart broke and he too followed the Lord’s path at the same time.
Jagannath Puri now appeared like a ruined city to the devotees. Some lost their lives by jumping into the sea at the same time. Somebody did something and many left Puri and went to different places. Gaurahat has now risen from Puri. Vakreshwar Pandit again tried to revive it, but mentioning it would be out of topic. In some times, there are only a few markets, there are lakhs of maths and there are lakhs of Mahants who worship their feet, where is that consciousness in them. The snake has come out, keep beating the line from behind. So what? In this way, after showering the nectar of love on this earth for forty-eight years, Mahaprabhu went and settled in his true form. Say hail to Premavatar Shri Chaitanya Dev! Say hail to all his dear councillors! Say hail to the preacher of God’s name Shri Gaurchandra!
The chanting of His Name destroys all sins. I offer my obeisances to the Supreme Hari, the reliever of suffering.
‘I bow down to the lotus feet of the supreme Sri Hari, whose melodious chanting of his name destroys all sins and whose salutations destroy all sorrows.’
respectively next post [173] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]