।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
विश्वरूप का गृह-त्याग
धन्याः खलु महात्मानो मुनयः सत्यसम्मताः।
जितात्मानो महाभागा येषां न स्तः प्रियाप्रिये।।
बन्धन का हेतु ममत्व है, ममत्व का सम्बन्ध मन से है। जिसने मन से ममत्व को निकाल दिया, वह तो नित्यमुक्त ही है। उसके लिये न कोई अपना है न पराया, वह तो अनेक रूपों में एक ही आत्मा को चारों ओर देखता है, फिर वह संकुचित सीमा में अपने को आबद्ध नहीं रख सकता। विश्वरूप ने निश्चय कर लिया कि मुझे इस गृह को त्याग देना चाहिये। जहाँ पर माता-पिता ही मुझे अपना समझते हैं, जहाँ नित्यप्रति भाँति-भाँति के संसारी प्रलोभनों के आने की सम्भावना है, ऐसी जगह अब अधिक दिन ठहरना ठीक नहीं है। ऐसा निश्चय कर लेने पर एक दिन इन्होंने अपनी माता को एक पुस्तक देते हुए कहा- ‘माँ, यह पुस्तक निमाई के लिये है, जब वह बड़ा हो तो इस पुस्तक को उसे दे देना, भूल मत जाना।’
माता ने सरलता के साथ उत्तर दिया- ‘तब तक तू कहीं चला थोड़े ही जायगा। मैं भूल जाऊँ तो तू तो न भूलेगा। तू ही इसे अपने हाथ से उसे देना और पढ़ाना। तू भी तो अब पण्डित बन गया है। निमाई तुझसे ही पढ़ा करेगा।’ विश्वरूप ने मानसिक भावों को छिपाते हुए कहा- ‘हाँ, ठीक है, मैं रहा तो दे ही दूँगा, किन्तु तू भी इस बात को याद रखना।’ भोली-भाली माता को क्या पता कि मेरा विश्वरूप अब दो ही चार दिन का मेहमान है। दो-चार दिन के बाद फिर इसकी मनमोहिनी सूरत हम लोगों को कभी भी देखने को न मिल सकेगी। माता अपने काम-धंधे में लग गयी। जाड़े का समय है, खूब कड़ाके का जाड़ा पड़ रहा है। सभी प्राणी जाडे़ के मारे गुड़मुड़ी मारे रात्रि में सो रहे हैं। चारों ओर नीरवता का साम्राज्य है, कहीं भी कोलाहल सुनायी नहीं पड़ता, सर्वत्र स्तब्धता छायी हुई है। ऐसे समय विश्वरूप को निद्रा कहाँ?
वे तो भविष्य-जीवन को महान बनाने की ऊहापोह में लगे हुए हैं। घर में एक बार दृष्टि डाली। एक ओर माता सो रही है, उसके पास ही चुपचाप निमाई आँख बन्द किये हुए शयन कर रहे हैं। मिश्र जी दूसरी ओर रजाई ओढ़े खाट पर सो रहे हैं। विश्वरूप ने एक बार खूब ध्यान से पिता की ओर देखा। सिर के बाल पके हुए थे, मुँह पर झुर्रियाँ पड़ी हुई थीं। हमेशा गृहस्थी की चिन्ता करते रहने से उनका स्वभाव ही चिन्तामय बन गया था, सोते समय भी मानो वे किसी गहरी चिन्ता में डूबे हुए हैं। निर्धन वृद्ध के चेहरे की ओर देखकर एक बार तो विश्वरूप अपने निश्चय से विचलित हुए।
उनके मन में भाव आया- ‘पिता वृद्ध हैं, आजीविका का कोई निश्चित प्रबन्ध नहीं, निमाई अभी निरा बालक ही है, घर का काम कैसे चलेगा?’ किन्तु थोड़े ही देर बाद वे सोचने लगे- ‘अरे, मैं यह क्या सोच रहा हूँ? जिसने इस चराचर विश्व की रचना की है, जो सभी के भरण-पोषण का पहले से ही प्रबन्ध कर देता है, उसको कर्ता न मानकर मैं अपने में कर्तापने का आरोप क्यों कर रहा हूँ? वृत्ति तो सबकी वही चलता है। मनुष्य तो निमित्तमात्र है। विश्वम्भर ही सबका पालन करते हैं, मुझे अपने सत्संकल्प से विचलित न होना चाहिये’ यह सोचकर उन्होंने सोती हुई माता को मन-ही-मन प्रणाम किया। छोटे भाई को एक बार प्रेमपूर्वक देखा और धीरे से घर से निकल पड़े। संकेत के अनुसार लोकनाथ उन्हें गंगा तट पर तैयार बैठे मिले। दोनों एक-दूसरे को देखकर अत्यन्त ही प्रसन्न हुए, अब उन्हें यह चिन्ता हुई कि रात्रि में गंगा-पार किस प्रकार जा सकते हैं। अब बहुत ही शीघ्र प्रातःकाल होने वाला है। इधर-उधर कहीं जायँगे तो पहचाने जाने पर पकड़े जायँगे। इसलिये गंगा-पार जाये बिना क्षेम नहीं है। उस समय नाव का मिलना कठिन था। दोनों ही युवक निर्भीक थे, जीवन का मोह तो उन्हें था ही नहीं।
मनुष्य इस जीवन-रक्षा के ही लिये साहस के काम करने से डरा करता है। जिसने जीवन की उपेक्षा कर दी है, जिसने अपने शीश को उतारकर हथेली पर रख लिया है, वह संसार में जो भी चाहे कर सकता है, उसके लिये कोई काम कठिन नहीं। ’असम्भव’ तो उसके शब्द-कोष में रहता ही नहीं। ये दोनों युवक भी भगवान का नाम लेकर पतितपावनी कलिमलहारिणी भगवती भागीरथी की गोद में बिना शंका के कूद पड़े। मानो आज वे जलती हुई भव-दावाग्नि से निकलकर जगज्जननी माँ जाह्नवी की सुशीतल क्रोड में शाश्वत शान्ति के निमित्त सदा के लिये प्रवेश करते हों। गंगा जी के किनारे रहने वाले छोटे-छोटे बच्चे भी खूब तैरना जानते हैं, फिर ये तो युवक थे और तैरने में प्रवीण थे, सामान इन लोगों के पास कुछ था ही नहीं, इसलिये ये निर्विघ्न गंगा पार हो गये। जाड़े का समय था, शरीर के सभी वस्त्र भीग गये थे, किन्तु इन्हें इस बात का ध्यान ही नहीं था। शीतोष्णादि द्वन्द्व तो तभी तक बाधा पहुँचा सकते हैं जब तक कि शरीर में ममत्व होता है। शरीर से ममत्व कम हो जाने पर मनुष्य द्वन्द्वों की वेदना से ऊँचा उठ जाता है, तभी वह निर्द्वन्द्व हो सकता है।
विश्वरूप निर्द्वन्द्व हो चुके थे। वे गीले ही वस्त्रों से आगे बढ़े चले गये। इसके पश्चात् विश्वरूप जी का कोई निश्चित वृत्तान्त नहीं मिलता। पीछे से यही पता चला कि इन्होंने किसी अरण्य नामक संन्यासी से संन्यास ग्रहण कर लिया और इनके संन्यास का नाम हुआ शंकरारण्य। इनके संन्यासी हो जाने पर लोकनाथ ने इनसे संन्यास लिया। दो वर्षों तक ये भारत के अनेक तीर्थों में भ्रमण करते रहे। अन्त में महाराष्ट्र के परम प्रसिद्ध तीर्थ पण्ढरपुर में इन्होंने श्रीविट्ठलनाथ जी के क्षेत्र में अपना यह पांच भौतिक शरीर त्याग कर दिया। देहत्याग के पूर्व इन्होंने अपना स्वकीय तेज श्रीमन्माधवेन्द्रपुरी के आश्रम में उनके परम प्रिय शिष्य श्रीईश्वरपुरी को प्रदान कर दिया था। उन्हीं से वह तेज नित्यानन्द के पास आया। इसीलिये नित्यानन्द को बलराम या शेषनाग को अवतार मानते हैं। इस प्रसंग को पाठक आगे समझेंगे। इधर प्रातःकाल हुआ।
मिश्र जी ने देखा विश्वरूप शय्या पर नहीं है। इतने सबेरे पिता से पहले वे उठकर कहीं नहीं जाते थे। पिता को एकदम शंका हो गयी। उन्होंने शय्या के समीप जाकर देखा। पहले तो सोचा गंगास्नान के लिये चला गया होगा, किन्तु जलपात्र और धोती तो ज्यों-की-त्यों रखी है। थोड़ी देर तक वे चुप रहे, फिर उनसे नहीं रहा गया, उन्होंने यह बात शचीदेवी से कही। शचीदेवी भी सोच में पड़ गयी। निमाई भी उठ बैठा। शचीदेवी ने कहा- ‘बेलपोखरा (शचीदेवी के पिता नीलाम्बर चक्रवर्ती का घर बेलपोखरा मुहल्ले में ही था, विश्वरूप लोकनाथ से शास्त्रविचार करने बहुधा वहीं चले जाते थे) लोकनाथ के पास चला गया हो।’ मिश्रजी जल्दी से चक्रवर्ती महाशय के घर गये। वहाँ जाकर देखा कि लोकनाथ भी नहीं है। सभी समझ गये। दोनों परिवार के लोग शोकसागर में मग्न हो गये। शचीदेवी दौड़ी-दौड़ी अद्वैताचार्य के यहाँ गयी। वहाँ भी विश्वरूप का कुछ पता नहीं था। क्षणभर में यह बात सर्वत्र फैल गयी कि विश्वरूप घर छोड़कर चले गये। चारों ओर से मिश्र जी के स्नेही उनके घर आने लगे। लोगों की भीड़ लग गयी।
अद्वैताचार्य भी अपने शिष्यों के साथ वहाँ आ गये। सभी भाँति-भाँति की कल्पनाएँ करने लगे। कुछ भक्त कहने लगे- ‘अब घोर कलियुग आ गया। साधु-ब्राह्मणों का मान नहीं, वैष्णवों को सर्वत्र अपमानित होना पड़ता है, धर्म-कर्म सभी लोप हो गये। अब यह संसार भले आदमियों के रहने योग्य नहीं रहा। हमें भी सर्वस्व छोड़कर विश्व के ही मार्ग का अनुसरण करना चाहिये।’ कुछ कहते- ‘भाई! विश्वरूप को हम इतना निष्ठुर नहीं समझते थे, उसने अपने छोटे भाई का भी तनिक मोह नहीं किया।’
मिश्र जी की आँखों से अश्रुओं की धारा बह रही थी, वे मुख से कुछ भी नहीं कहते थे, नीची दृष्टि किये वे बराबर भूमि की ओर ताक रहे थे, मानो उन्हें सन्देह हो गया था कि इस भूमि ने ही मेरे प्राण प्यारे पुत्र को अपने में छिपा लिया है। उनके धँसे हुए कपोल और सिकुडी हुई खाल के ऊपर से अश्रु-विन्दु बह-बहकर पृथ्वी में गिरते जाते थे और वे उसी समय पृथ्वी में विलीन होते जाते थे। इससे उनका सन्देह और भी बढ़ता जाता था कि जो पृथ्वी बराबर इन अश्रुओं को अपने में छिपाती जाती है उसने ही जरूर मेरे बेटे विश्वरूप को छिपा लिया है। उनकी दृष्टि ऊपर उठती ही नहीं थी। लोग परस्पर में क्या बातें कर रहे हैं इसका उन्हें कुछ भी पता नहीं था। उनके साथी-सम्बन्धी उन्हें भाँति-भाँति से समझाते, किन्तु वे किसी की भी बात का प्रत्युत्तर नहीं देते थे। इधर शचीदेवी के करूण-रूदन को सुनकर पत्थर भी पसीजने लगे। माता जोर-जोर से दहाड़ मारकर रुदन कर रही थीं।
विश्वरूप के गुणों का बखान करते-करते माता जिस प्रकार गौ अपने बच्चे के लिये आतुरता से रम्हाती है उसी प्रकार शचीदेवी उच्च स्वर से विलाप कर रही थीं। वे बार-बार कहतीं- ‘बेटा, इस बूढ़ी को अधजली ही छोड़कर चला गया। यदि मेरा और अपने बूढे़ बाप का कुछ खयाल न किया तो न सही, इस अपने छोटे भाई की ओर भी तूने नहीं देखा। यह तो तेरे बिना क्षणभर भी नहीं रह सकेगा। विश्वरूप! मैं नहीं जानती थी, कि तू इतना निर्दयी भी कभी बन सकेगा।’ माता के विलाप को सुनकर निमाई भी जोर-जोर से रोने लगे और रोते-रोते वे एकदम बेहोश हो गये। भ्रातृ-वियोग का स्मरण करके तथा माता-पिता के दुःख को देखकर निमाई मूर्च्छित हो गये। उनका सम्पूर्ण शरीर संज्ञा शून्य हो गया। आस-पास की स्त्रियों ने जल्दी से निमाई को उठाया, उनके मुख में जल डाला और उन्हें सचेत करने के लिये भाँति-भाँति की चेष्टाएँ करने लगीं। स्त्रियाँ शचीदेवी को समझा रही थीं- ‘शची! अब रोने से क्या होगा, धैर्य धारण करो। तुम्हारे पुत्र ने कोई बुरा काम तो किया ही नहीं। तुम्हारी सैकड़ों पीढ़ियों को उसने तार दिया।
भगवान की भक्ति से बढ़कर और क्या है? अब इस निमाई को ही देखकर धैर्य धारण करो। देख, तेरे रुदन से यह बेहोश हो गया है, इसका खयाल करके तू रोना बंद कर दे।’ माता ने कुछ-कुछ धैर्य धारण किया। निमाई को धीरे-धीरे चेतना होने लगी। वे थोड़ी ही देर में प्रकृतिस्थ हो गये। अपने आँसुओं को पोंछकर आप माता से बोले- ‘माँ! दद्दा चले गये तो कोई चिन्ता नहीं। मैं तुम लोगों की बड़ा होकर सेवा-शुश्रूषा करूँगा। आप लोग धैर्य धारण करें।’ लोग मिश्र जी से कह रहे थे। हम उत्तर की ओर जाते हैं, चार आदमियों को दक्षिण की ओर भेजो। लोकनाथ के पिता दो-चार आदमियों को लेकर गंगा-पार जायँ। अभी दो-चार कोस ही तो पहुँचे होंगे, हम उन्हें जल्दी ही लौटा लावेंगे। इन सब लोगों की बातें सुनकर ऊपर दृष्टि उठाकर मिश्र जी ने साहस के साथ कहा- ‘अब भाई! कहीं जाने से क्या लाभ?
विश्वरूप बालक तो है ही नहीं। यदि उसकी ऐसी ही इच्छा है, तो भगवान उसकी मनोकामना पूर्ण करें। यदि उसे संन्यास में ही सुख है तो वह संन्यासी ही बनकर रहे। आप सब लोग भगवान से यही प्रार्थना करें कि वह संन्यासी होकर अपने धर्म को यथारीति पालन करता रहे और फिर लौटकर घर में न आवे।’ पिता के ऐसे साहसपूर्ण वचनों को सुनकर सभी को बड़ा आनन्द हुआ। सभी इसी सम्बन्ध की बातें करते हुए सुखपूर्वक घर लौट गये। माता-पिता ने धैर्य तो धारण किया, किन्तु उनके हृदय में सर्वगुण-सम्पन्न पुत्र के वियोग के कारण एक गहरा-सा घाव हो गया जो अन्त तक बना रहा। मिश्रजी तो एक ही घाव को लेकर इस संसार से विदा हो गये, किन्तु वृद्धा शची के तो आगे चलकर एक और भी बड़ा भारी घाव हुआ था, जिसकी मीठी-मीठी वेदना का रसास्वादन करते हुए उसने अपना सम्पूर्ण जीवन इसी प्रकार वेदनामय ही बिताया। गृहस्थ में जहाँ अनेक सुख और आनन्द के अवसर आते हैं, वहाँ ऐसे दुःख के भी प्रसंग बहुत आते हैं, जिनके स्मरणमात्र से छाती फटने लगती है। जगज्जननी सीता जी जब अपने प्राणनाथ श्रीरामचन्द्र जी के वियोग से अत्यन्त ही व्यथित हो उठीं ओर उनकी वेदना असह्या हो गयी तब उन्होंने रोते-रोते बड़ी ही मार्मिक वाणी में हनुमान जी से ये वचन कहे थे-
प्रियान्न संभवेद्दुःखमप्रियादधिकं भवेत्।
ताभ्यां हि ते वियुज्यन्ते नमस्तेषां महात्मनाम्।।
वे जितात्मा सत्यवादी महात्मा धन्य हैं जिन्हें प्रिय की प्राप्ति में न तो सुख होता है ओर न अप्रिय की प्राप्ति में अधिक दुःख, व्यथा हो सकती है, जिनकी वृत्ति सुख-दुःख में समान रहती है, ऐसे महात्माओं के चरणों में बार-बार प्रणाम है।
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]
, Shri Hari:.
[Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram
exodus of world form
Blessed indeed are the great sages who are truthful.
They are the most fortunate who have conquered themselves and who have nothing to do with pleasure or displeasure.
The reason for the bond is attachment, attachment is related to the mind. The one who removed attachment from the mind, he is eternally free. For him no one is his own or alien, he sees the same soul all around in many forms, then he cannot keep himself bound in narrow limits. Vishwaroop decided that I should leave this house. Where parents only consider me as their own, where there is a possibility of worldly temptations coming everyday, it is not right to stay in such a place for a long time. Having decided this, one day he gave a book to his mother and said- ‘Mother, this book is for Nimai, when he grows up, give this book to him, don’t forget.’
The mother replied simply – ‘ Till then you will not be able to go anywhere. If I forget, you will not forget. You give it to him with your own hands and teach it. You have also become a pundit now. Nimai will teach you only.’ Vishwaroop said hiding his mental feelings- ‘Yes, okay, I will give it, but you also remember this thing.’ How did the innocent mother know that my Vishwaroop is now He is a guest for only two to four days. After two-four days, we will never get to see its charming face again. Mother got busy in her work. It is winter time, it is getting very cold. All the creatures are sleeping in the night due to cold. There is a kingdom of silence all around, no noise is heard anywhere, there is stillness everywhere. Where is the world’s sleep at such a time?
They are engrossed in the hustle and bustle of making their future life great. Took a look at the house once. On one side the mother is sleeping, Nimai is sleeping quietly beside her with closed eyes. On the other hand Mishra ji is sleeping on the cot covered with a quilt. Vishwaroop looked at his father very carefully once. The hair of the head was ripe, wrinkles were lying on the face. Due to always worrying about the household, his nature had become anxious, even while sleeping as if he was immersed in some deep worry. Seeing the face of the poor old man, once Vishwaroop was distracted from his determination.
A feeling came in his mind- ‘Father is old, there is no fixed arrangement for livelihood, Nimai is still a child, how will the household work be done?’ But after a while he started thinking- ‘Hey, what am I thinking? ? Why am I accusing myself of being a doer, not considering him as the doer who has created this world, who already makes arrangements for everyone’s sustenance? Everyone’s attitude is the same. Human beings are only instrumental. Only Vishwambhar follows everyone, I should not be distracted from my good resolution’ thinking this he bowed down to the sleeping mother. Looked at the younger brother lovingly once and slowly left the house. According to the signal, Loknath found him sitting ready on the banks of the Ganges. Both were very happy to see each other, now they were worried about how they could cross the Ganges in the night. Now it is going to be morning very soon. If you go here and there, you will be caught on being recognized. That’s why there is no peace without crossing the Ganges. At that time it was difficult to get a boat. Both the young men were fearless, they had no attachment to life.
Man scares to do the act of courage for the sake of saving this life. One who has neglected life, who has taken off his head and kept it on his palm, can do whatever he wants in the world, no work is difficult for him. ‘Impossible’ does not exist in his vocabulary. Taking the name of God, both these young men without any doubt jumped into the lap of Kalimalharini Bhagwati Bhagirathi. As if today they come out of the burning Bhava-Davagni and enter the soft core of Jagajjanani Maa Jahnavi forever for the sake of eternal peace. Even the small children living on the banks of Ganga ji know how to swim well, then they were young and proficient in swimming, these people did not have anything with them, so they crossed the Ganges without any obstacles. It was winter time, all the clothes of the body were wet, but they did not care about it. The cold-blooded conflict can create obstacles only as long as there is attachment in the body. When the attachment to the body decreases, a man rises above the pain of conflicts, only then he can become free from conflicts.
Vishwaroop had become free. They went ahead with wet clothes. After this, there is no definite account of Vishwaroop ji. It came to be known from behind that he had taken sannyas from a monk named Aranya and the name of his sannyas was Shankaranya. After his retirement, Loknath took retirement from him. For two years, he kept on traveling in many pilgrimages of India. In the end, in the most famous pilgrimage of Maharashtra, Pandharpur, he left his five physical bodies in the field of Shrivitthalnath ji. Before leaving his body, he had given his own glory to his most beloved disciple, Shri Ishwarpuri, in the ashram of Srimanmadhavendrapuri. It was from him that brilliance came to Nityananda. That is why Nityananda is considered as incarnation of Balram or Sheshnag. Readers will understand this context further. It was morning here.
Mishra ji saw that Vishwaroop is not on the bed. So early in the morning before his father, he did not get up and go anywhere. The father got suspicious. He went near the bed and looked. At first thought he must have gone to bathe in the Ganges, but the water pot and dhoti are kept as they are. He remained silent for a while, then he could not bear it, he said this to Sachidevi. Shachidevi also got lost in thought. Nimai also sat up. Shachidevi said- ‘Belpokhara (Shachidevi’s father Nilambar Chakraborty’s house was in Belpokhara locality itself, Vishwaroop often used to go there to discuss scriptures with Loknath) must have gone to Loknath.’ Mishraji hurriedly went to Chakraborty’s house. Went there and saw that even Loknath was not there. Everyone understood. The people of both the families got engrossed in the ocean of sorrow. Sachidevi ran to Advaitacharya’s place. There too there was no idea of the form of the universe. In a moment the word spread everywhere that Vishwaroop had left home. Mishra ji’s loved ones started coming to his house from all around. There was a crowd of people.
Advaitacharya also came there with his disciples. Everyone started fantasizing in different ways. Some devotees started saying- ‘Now the fierce Kaliyug has come. Saints and Brahmins are not respected, Vaishnavas have to be insulted everywhere, all religious deeds have disappeared. Now this world is no longer fit for good men to live in. We should also leave everything and follow the path of the world.’ Some say- ‘Brother! We didn’t consider Vishwaroop to be so ruthless, he didn’t even have the slightest attraction for his younger brother.
Tears were flowing from Mishra ji’s eyes, he did not say anything through his mouth, he kept looking down at the ground, as if he had a doubt that this land had given my beloved son to his life. hid in From the top of their sunken cheeks and shriveled skin, tear-drops flowed down to the earth and at the same time they merged into the earth. Due to this, his doubt increased even more that the earth which keeps hiding these tears in itself, must have hidden my son Vishwaroop. His vision did not rise up at all. They didn’t know anything about what people were talking to each other. His companions and relatives used to explain to him in various ways, but he did not respond to anyone’s words. On the other hand, even the stones started sweating after listening to the cry of Sachidevi. Mother was crying loudly by roaring.
While extolling the virtues of Vishwarupa, the way a mother moans eagerly for her child, in the same way, Sachidevi was lamenting in a loud voice. She used to say again and again- ‘Son, he left this old woman half-burnt. If you didn’t care for me and your old father, then it’s okay, you didn’t even look at your younger brother. He cannot live without you even for a moment. Vishwarup! I didn’t know that you would ever be so cruel.’ Hearing the mother’s lamentation, Nimai also started crying loudly and fainted while crying. Remembering the fraternal separation and seeing the sorrow of the parents, Nimai fainted. His entire body became empty. The women around quickly picked up Nimai, poured water into her mouth and started making various efforts to alert her. Women were explaining to Shachidevi- ‘Shachi! Now what will happen by crying, have patience. Your son has not done any bad thing at all. He has wired hundreds of your generations.
What is greater than devotion to God? Now be patient seeing this Nimai only. See, he has fainted due to your crying, thinking about this, stop crying.’ Mother took some patience. Nimai slowly started regaining consciousness. He became natural in no time. Wiping your tears, you said to your mother – ‘ Mother! No worries if Dadda is gone. I will grow up and take care of you guys. You people have patience.’ People were saying to Mishra ji. We go to the north, send four men to the south. Loknath’s father should go across the Ganges with two to four men. At least two or four kos would have reached now, we will bring them back soon. After listening to all these people, looking up, Mishra ji said with courage- ‘Now brother! What is the use of going somewhere?
There is no world-form child at all. If he has such a wish, may God fulfill his wish. If he is happy in retirement, then he should remain a monk. All of you should pray to God that he should continue to follow his religion as a monk and then never come back home. Everyone was very happy to hear such courageous words of the father. Everyone returned home happily talking about this relationship. The parents had patience, but due to the separation of their all-qualified son, there was a deep wound in their heart which remained till the end. Mishraji left this world with only one wound, but the old lady Shachi had a bigger and bigger wound later on, relishing the sweet pain of which she spent her whole life in the same painful condition. Where there are many occasions of happiness and joy in the householder, there are also many incidents of such sorrow, whose chest starts bursting just by remembering them. When Jagajjanani Sita ji became very distressed by the separation of her Prannath Shri Ramchandra ji and her pain became unbearable, then she said these words to Hanuman ji in a very poignant voice while crying-
It is not possible for a beloved to suffer more than an unpleasant one.
They are separated from both of them I offer my obeisances to those great souls
Blessed are those Jitātmā truthful Mahatmas, who do not feel happy in getting the beloved, nor can there be much sorrow and pain in getting the unpleasant, whose attitude remains the same in happiness and sorrow, I bow down again and again at the feet of such Mahatmas. .
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[From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]