।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
चंचल पण्डित
सदयं हृदयं यस्य भाषितं सत्यभूषितम्।
कायः परहितो यस्य कलिस्तस्य करोति किम्।।
मिश्री को कहीं से भी खाओ उसका स्वाद मीठा ही होगा, घी-बूरे का लड्डू यदि टेढ़ा और इरछा-तिरछा भी बना हो तो भी उसके स्वाद में कोई कमी नहीं होती। इसी प्रकार प्रेम किसी भी प्रकार किया जाय, कहीं भी किया जाय, किसी के भी साथ किया जाय उसका परिणाम अनिर्वचनीय सुख ही होगा। हृदय में दया के भाव हों, अन्तःकरण शुद्ध हो, अपने स्वार्थ की मन में वाञ्छा न हो, फिर चाहे दूसरों के साथ कैसा भी बर्ताव करो, उन्हें चाहे गले से लगाकर आलिंगन करो या उनकी मधुर-मधुर भर्त्सना करो, दोनों में ही सुख है, दोनों से ही आनन्द प्राप्त होता है।
निमाई अब विद्यार्थी नहीं हैं। अब उनकी गणना प्रसिद्ध पण्डितों में होने लगी है। अब वे गृहस्थी भी बन गये हैं और अध्यापक भी। ऐसी दशा में अब उन्हें गम्भीरता धारण करनी चाहिये जिससे लोग उनकी इज्जत-प्रतिष्ठा करें। किन्तु निमाई ने तो गम्भीरता का पाठ पढ़ा ही नहीं है। मानो वे संसार में सबसे बड़ी समझी जाने वाली मान-प्रतिष्ठा की कुछ परवाह ही नहीं रखते। ‘लोग हमारे इस व्यवहार से क्या सोचेंगे’ यह विचार उनके मन में आता ही नहीं। ‘लोगों को जो सोचना हो सोचते रहें। दुनियाभर के विचारों का हमने कोई ठेका थोडे़ ही ले लिया है। हमें तो जिसमें प्रसन्नता प्राप्त होगी, जिस काम से हमारा अन्तःकरण सुखी और शान्त होगा हम तो उसे ही करेंगे। लोग बकते हैं तो बकते रहें। हम किसी का मुँह थोड़े ही सी सकते हैं।’ बस, निमाई इन्हीं विचारों में मस्त रहते।
पाठशाला में विद्यार्थियों को पढ़ा रहे हैं। पढ़ाते-पढ़ाते बीच-बीच में ऐसी हँसी की बात कह देते हैं कि सभी खिलखिलाकर हँस उठते हैं। किसी लड़के को पाठ याद नहीं होता तो उसे आँखें निकालकर डाँटते नहीं। प्रेम के साथ कहते हैं, ‘भाई! तोते की तरह धुन लगा जाया करो। जैसे ‘अनद्यतने लुट्’ इसे बार-बार कहो।’ इतना समझाकर आप स्वयं सिर हिला-हिलाकर ‘अनद्यतने लुट्’ ‘अनद्यतने लुट्’ इस सूत्र को बार-बार पढ़ते। लड़के हँसते-हँसते लोट-पोट हो जाते। तब आप दूसरे विद्यार्थी को समझाने लगते। पाठ समाप्त हुआ और साथ ही विद्यार्थी और पण्डित का भाव भी समाप्त हो गया। अब सभी विद्यार्थियों को साथी समझकर उन्हें लेकर गंगा-किनारे पहुँच गये। कभी किसी के साथ शास्त्रार्थ हो रहा है, कभी गंगा जी की बालुका में कबड्डी खेली जा रही है, कभी जल-विहार का ही आनन्द छिड़ा हुआ है।
निमाई पण्डित स्वयं अपने हाथों से विद्यार्थियों के ऊपर पानी उलीचते हैं, विद्यार्थी भी सब भूल-भालकर उनके ऊपर पानी उलीच रहे हैं। कभी-कभी दस-पाँच मिलकर एक साथ ही निमाई के ऊपर जल उलीचने लगते हैं, निमाई पण्डित जल से घबड़ाकर जल्दी से जल से बाहर निकलकर भागते हैं, पैर फिसल जाने से वे जल में गिर पड़ते हैं, सभी ताली देकर हँसने लगते हैं। दर्शनार्थी दूर से देखते हैं और खुश होते हैं। बहुत-से ईर्ष्यावश आवाजें कसने लगते हैं- ‘वाह रे पण्डित! पण्डितों के नाम को भी कलंकित करते हो। विद्यार्थियों के साथ ऐसी खिलवाड़?’ कोई चंचल पण्डित कहता- ‘छोटी उम्र में अध्यापक बन जाने का यही कुपरिणाम होता है।’ किन्तु उनकी इन बातों पर कौन ध्यान देता है, निमाई अपने खेल में मस्त हैं। कौन क्या बक रहा है, इसका उन्हें पता भी नहीं। कभी-कभी दूर से ही पुचकारते हुए कह देते- ‘अच्छा, बेटा, भूकते रहो। कभी-न-कभी टुकड़ा मिल ही जायगा।’ स्नान करके रास्ते में जा रहे हैं, किसी ने किसी को किसी के ऊपर ढकेल दिया है, वह मोरी में गिर पड़ा है, सभी ताली देकर हँस रहे हैं।
किसी पण्डित को देखते ही बड़ी कठिन संस्कृत बोलने लगते हैं। एक साथ ही उससे दस-बीस प्रश्न कर डाले। बेचारा बगल में आसन दबाये चुपचाप भीगी बिल्ली की भाँति बिना कुछ कहे ही गंगा की ओर चला जाता है, इनसे बातें करने की हिम्मत ही नहीं होती। बाजार में भी चौकड़ी मारकर भागते हैं। कूद-कूदकर चलना तो इनका स्वभाव ही था। रास्ते भी बच्चों की तरह कुदककर चलते। किसी वैष्णव को देखते ही उसे घेर लेते और उससे जोर से प्रश्न करते ‘किं तावत् वैष्णवत्वम्’ ‘वैष्णवता किसे कहते हैं?’ कभी पूछते ‘ऊर्ध्वपुण्ड्रेन किं स्यात्’ ‘ऊर्ध्वपुण्ड्र लगाने से क्या होता है?’ बेचारे वैष्णव हैरान हो जाते और इनसे जैसे-तैसे अपना पीछा छुड़ाकर भागते। वे कहते जाते- ‘घोर कलियुग आ गया। पण्डित भी वैष्णवों की निन्दा करने लगे।’ कोई कहता- ‘अजी इस निमाई को पण्डित कहता ही कौन है, यह तो रसिकशिरोमणि है, उद्दण्डता की सजीव मूर्ति है, इसका भी कोई धर्म-कर्म है?’ कोई कहता- इतना छिछोरपन ठीक नहीं।’ उन्हीं दिनों श्रीअद्वैताचार्य की पाठशाला में चटगाँवनिवासी मुकुन्ददत्त नामक एक विद्यार्थी पढ़ता था। वह परम वैष्णव था। उसके चेहरे से सौम्यता टपकती थी। उसका कण्ठ बड़ा ही मनोहर था। वह अद्वैताचार्य की सभा में पद-संकीर्तन किया करता था और अपने सुमधुर गान से भक्तों के चित्त को आनन्दित किया करता था।
निमाई उससे मन-ही-मन बहुत स्नेह करते थे, किन्तु ऊपर से सदा उससे छेड़खानी ही करते रहते। जब भी वह मिल जाता, उसे पकड़कर न्याय की फक्कि का पूछने लगते। वह हाथ जोड़कर कहता- ‘बाबा! मुझे माफ करो, मैं तुम्हारा न्याय-फ्याय कुछ नहीं जानता। मैं तो वैष्णव-शास्त्रों का अध्ययन करता हूँ।’ तब आप उससे कहते- ‘अच्छा, वैष्णव की ही परिभाषा करो। बताओ वैष्णव के क्या लक्षण हैं?’ मुकुन्द कहते- ‘भाई, हम हारे तुम जीते। कैसे पिण्ड भी छोड़ोगे? तुमसे मगजपच्ची कौन करे? तुम पर तो सदा शास्त्रार्थ का ही भूत सवार रहता है। हमें इतना समय कहाँ है?’ इस प्रकार कहकर वे जैसे-तैसे इनसे अपना पीछा छुड़ाकर भागते। एक दिन ये गंगा-स्नान करके आ रहे थे, उधर से मुकुन्ददत्त भी गंगा-स्नान करने के निमित्त आ रहे थे, इन्हें दूर से ही आता देख मुकुन्ददत्त जल्दी से दूसरे रास्ते होकर गंगा की ओर जाने लगे। निमाई ने अपने विद्यार्थियों से कहा- ‘देखी, तुमने इस वैष्णव विद्यार्थी की चालाकी? कैसा बच के भागा जा रहा है, मानो मैं उसे देख ही नहीं रहा हूँ।
एक विद्यार्थी ने कहा- ‘किसी जरूरी काम से उधर जा रहे होंगे।’ आप जोर से कहने लगे- ‘जरूरी काम कुछ नहीं है। सोचते हैं वैष्णव होकर हम इन अवैष्णव लोगों से व्यर्थ की बातें क्यों करें। इसलिये एक तरफ होकर निकले जा रहे हैं।’ फिर जोरों से मुकुन्ददत्त को सुनाते हुए बोले- ‘अच्छा बेटा, देखते हैं कितने दिन इस तरह हमसे दूर रहोगे। यों मत समझना कि हम ही वैष्णव हैं। एक दिन हम भी वैष्णव होंगे और ऐसे वैष्णव होंगे कि तुम सदा पीछे-पीछे फिरते रहोगे।’ इन बातों को सुनते-सुनते मुकुन्द गंगा की ओर चले गये और ये अपनी पाठशाला में लौट आये। इनके पिता श्रीहट्ट के निवासी थे। नवद्वीप में बहुत-से श्रीहट्ट के विद्यार्थी पढ़ने के लिये आया करते और बहुत-से श्रीहट्टवासी नवद्वीप में रहते ही थे। ये जहाँ भी श्रीहट्ट के विद्यार्थी को देखते वहीं उसकी खिल्ली उड़ाते। श्रीहट्ट की बोली की नकल करते, उनके आचार-विचार की आलोचना करते। लोग कहते- ‘तुम्हें शर्म नहीं आती, तुम भी तो श्रीहट्ट के ही हो। जहाँ के रहने वाले हो वहीं की खिल्लियाँ उड़ाते हो।’ ये कहते- ‘शर्म तो हमने उतारकर अपने घर की खूँटी पर लटका दी है, तुम झूठ मानो तो हमारे घर जाकर देख आओ।’ सभी सुनते और चुप हो जाते। कोई-कोई राज-कर्मचारियों तक से इनकी उद्दण्डता की शिकायत करते, किन्तु राजकर्मचारी इनके स्वभाव से परिचित थे, ये उन्हें देखकर जोरों से हँस पड़ते।
कर्मचारी शिकायत करने वाले को ही चार उलटी-सीधी सुनाकर विदा करते। इस प्रकार इनकी चंचलता नगरभर में विख्यात हो गयी। उन दिनों नवद्वीप में इने-गिने ही वैष्णव थे, उनकी संख्या उँगलियों पर गिनी जा सकती थी। उन सबके आश्रयदाता थे अद्वैताचार्य। वैष्णवगण अपनी मनोव्यथा उन्हीं से जाकर कहते। वे वैष्णव को आश्वासन दिलाते, ‘घबड़ाओ मत। अन्तर्यामी भगवान हमारी दुर्दशा को भलीभाँति जानते हैं, वे प्रत्यक्ष रीति से हमारी दुर्गति देख रहे हैं। बहुत शीघ्र ही वे हमारा उद्धार करेंगे। एक दिन नवद्वीप में भक्ति की ऐसी बाढ़ आवेगी कि उसमें सभी नर-नारी सराबोर हो जायँगे। जितने दिन की यह विपत्ति है उतने दिन धैर्य से और काटो, अब शीघ्र ही नास्तिकवाद और हिंसावाद का अन्त होने वाला है।’
वैष्णव कहते- ‘निमाई पण्डित ऐसे विद्वान वैष्णवों की हँसी उड़ाते हैं।’ अद्वैत कहते- ‘तुम अभी निमाई को जानते नहीं, वे हृदय से वैष्णवों के प्रति बड़ा स्नेह रखते हैं, वे जो भी कुछ कहते हैं ऊपर से ही यों ही कह देते हैं। आगे चलकर तुम उन्हें यथार्थ रीति से समझ सकोगे।’ इस प्रकार वैष्णव तो आपस में ऐसी बातें किया करते और निमाई अपनी लोकोत्तर मधुर-मधुर चंचलता से नगरवासी तथा शचीदेवी और लक्ष्मीदेवी को आनन्दित और हर्षित किया करते।
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]
, Shri Hari:.
[Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram
Chanchal Pandit
His words are adorned with truth and his heart is compassionate
What does Kali do to one whose body is for the welfare of others
Eat sugar candy from anywhere, its taste will be sweet, even if the laddoos made of ghee-bure are made crooked and skewed, there is no shortage in its taste. Similarly love can be done in any way, anywhere, with anyone, its result will be indescribable happiness. There should be feelings of kindness in the heart, the conscience should be pure, there should be no desire for selfishness in the mind, then no matter how you treat others, whether you hug them or criticize them sweetly, there is happiness in both. Pleasure is derived from both.
Nimai is no longer a student. Now he is being counted among the famous pundits. Now he has become a householder as well as a teacher. In such a situation, now he should take seriousness so that people respect him. But Nimai has not learned the lesson of seriousness. As if they don’t care about the prestige considered to be the biggest in the world. The thought of ‘what will people think of our behavior’ does not cross their mind. Let people think whatever they want to think. We have taken a little contract for the ideas of the world. Whatever makes us happy, the work by which our conscience will be happy and peaceful, we will do that only. If people talk then keep talking. We can hardly sew someone’s face.
Teaching students in school. While teaching, he tells such funny things every now and then that everyone bursts out laughing. If a boy does not remember the lesson, then he is not scolded by gouging out his eyes. Says with love, ‘Brother! Tune in like a parrot. Like ‘Anadyatne loot’ Say it again and again. ‘ After explaining this, you yourself would recite this formula ‘Anadyatne loot’ ‘Anadyatne loot’, nodding your head. The boys would be rolling in laughter. Then you start explaining to the other student. The lesson ended and along with it the feeling of a student and a scholar also ended. Now considering all the students as companions, he took them to the banks of the Ganges. Sometimes a debate is taking place with someone, sometimes kabaddi is being played in the sand of Ganga ji, sometimes the joy of water-vihar is spread.
Nimai Pandit himself pours water on the students with his own hands, the students are also splashing water on them by mistake. Sometimes ten-five together start splashing water over Nimai, Pandit Nimai gets scared of the water and runs quickly out of the water, they fall into the water due to slipping of their feet, everyone starts clapping and laughing. Onlookers watch from a distance and are happy. Out of jealousy, many start raising their voices – ‘Wow, Pandit! You tarnish the name of pundits as well. Playing with the students like this?’ Some playful pundit would say- ‘This is the bad result of becoming a teacher at a young age.’ But who pays attention to his words, Nimai is engrossed in his game. They don’t even know who is talking about what. Sometimes calling out from afar, he would say- ‘Well, son, keep on starving. Sooner or later the piece will be found. After taking a bath, they are going on the way, someone has pushed someone over someone, he has fallen into the drain, everyone is clapping and laughing.
On seeing a pundit, he starts speaking very difficult Sanskrit. At the same time put ten to twenty questions to him. The poor man, like a wet cat pressing the seat next to him, goes towards the Ganga without saying anything, does not even have the courage to talk to him. Even in the market, they run away after hitting a quartet. It was their nature to walk by jumping. They used to walk along the roads jumping like children. On seeing any Vaishnav, they would surround him and ask him loudly ‘Kim Tavat Vaishnavatvam’ ‘What is Vaishnavism?’ By the way, you would have run away after getting rid of your chase. They used to say- ‘The fierce Iron Age has come. Pundits also started criticizing Vaishnavs.’ Someone said- ‘Who calls this Nimai a Pandit, he is a rasikshiromani, a living idol of arrogance, he also has some religious work?’ In those days, a student named Mukundadatta, a resident of Chittagong, was studying in Shri Advaitacharya’s school. He was the ultimate Vaishnava. Gentleness dripped from his face. His voice was very beautiful. He used to perform pada-saṅkīrtana in the assembly of Advaitacharya and used to delight the hearts of the devotees with his melodious songs.
Nimai used to love her a lot from his heart, but on top of that he always used to flirt with her. Whenever he was found, they would hold him and ask him about the justice. He would say with folded hands- ‘Baba! I’m sorry, I don’t know your justice. I study Vaishnava scriptures.’ Then you would say to him – ‘Well, just define Vaishnava. Tell me what are the characteristics of Vaishnav?’ Mukund says- ‘Brother, we lose and you win. How will you leave the body too? Who will puzzle you? You are always haunted by the ghost of debate. Where do we have so much time?’ By saying this, they somehow managed to get rid of them and run away. One day he was coming after taking a bath in the Ganges, and Mukundadatta was also coming from there to take a bath in the Ganges, seeing him coming from a distance, Mukundadatta quickly took another route and started going towards the Ganges. Nimai said to his students- ‘Have you seen the cleverness of this Vaishnava student? How is he running away, as if I am not even seeing him.
A student said – ‘You must be going there for some important work.’ You started saying loudly – ‘There is no important work. They think that being Vaishnav why should we talk nonsense with these non-Vaishnav people. That’s why they are leaving on one side.’ Then while narrating loudly to Mukundatta, he said – ‘Good son, let’s see for how long you will stay away from us like this. Don’t think that we are Vaishnavs. One day we will also be Vaishnavs and will be such Vaishnavs that you will always go back and forth.’ Hearing these words, Mukund went towards the Ganges and returned to his school. His father was a resident of Srihatt. Many Srihatt students used to come to Navadweep to study and many Srihatt residents used to live in Navadweep. Wherever he saw the student of Srihatt, he used to make fun of him. Copying Srihatt’s speech, criticizing his conduct. People used to say- ‘You don’t feel ashamed, you also belong to Srihatt. You make fun of the place where you live.’ They used to say- ‘We have removed the shame and hanged it on the peg of our house, if you believe a lie then go and see our house.’ Everyone used to listen and become silent. Some used to complain about his arrogance even to the government employees, but the government employees were familiar with his nature, they used to laugh out loud seeing him.
The employees used to bid farewell to the complainant by reciting four reverses. In this way their playfulness became famous throughout the city. In those days there were only a few Vaishnavas in Navadvipa, their number could be counted on the fingers. Advaitacharya was their protector. The Vaishnavs would go and share their anguish with him. He would assure Vaishnav, ‘Don’t panic. The inner God knows our plight very well, He is directly seeing our plight. Very soon He will deliver us. One day there will be such a flood of devotion in Navadvipa that all men and women will be drenched in it. As long as this calamity lasts, wait patiently, now atheism and violence is going to end soon.’
Vaishnavas say- ‘Nimai Pandits make fun of such learned Vaishnavas.’ Advaita says- ‘You don’t know Nimai yet, he has great affection for Vaishnavas from his heart, whatever he says, he just says it from above. Huh. Later on, you will be able to understand them properly.’ In this way, Vaishnav used to say such things to each other and Nimai used to make the townspeople and Shachidevi and Lakshmidevi happy and happy with their extraterrestrial sweet-sweet playfulness.
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[From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]