।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
सर्वप्रिय निमाई
यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः।
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः।।
न तो बाह्य सौन्दर्य ही सौन्दर्य है और न बाह्य पवित्रता ही असली पवित्रता है। जिसका हृदय शुद्ध है, उसमें तनिक भी विकार नहीं है तो वह बदसूरत होने पर भी सुन्दर प्रतीत होता है, लोग उसके आन्तरिक सौन्दर्य के कारण उस पर मुग्ध हो जाते हैं और उसके इशारे पर नाचने लगते हैं। भीतर की पवित्रता ही चेहरे पर झलकने लगती है। उस पवित्रता में मोहकता है, इसी से लोग उनके वश में हो जाते हैं। यदि हृदय भी स्वच्छ शीशे की भाँति निर्मल हो और देह की कान्ति भी कमनीय और मनोहर हो तब तो उस देवतुल्य मनुष्य की मोहकता का कहना ही क्या है। फिर तो सोने में सुगन्ध ही है। ऐसा कौन सहृदय पुरुष होगा, जो ऐसे पुरुष के गुणों का प्रशंसक नहीं बन जाता। यदि ऐसा पुरुष प्रसन्नचित्त और चुलबुले स्वभाव का भी हो, तब तो सभी लोग उससे आत्मीय की भाँति स्नेह करने लगते हैं और उससे किसी भी मनुष्य को संकोच अथवा उद्वेग नहीं होता। बच्चे से लेकर बूढे़ तक उससे खिलावाड़ करने लगते हैं।
निमाई पण्डित में उपर्युक्त सभी गुण विद्यमान थे। उनका हृदय अत्यन्त ही कोमल और बड़ा ही विशाल था, उसमें मनुष्यमात्र के ही लिये नहीं, प्राणिमात्र के प्रति प्रेम और ममता के भाव भरे हुए थे, उनका शरीर सुगठित, सुन्दर और शोभायुक्त था। वे इतने अधिक सुन्दर थे कि मनुष्य उनके सौन्दर्य को ही देखकर मोहित हो जाते थे। चेहरे पर कभी सिकुड़न ही नहीं पड़ती थी। हर समय हँसते ही रहते और साथियों को भी अपनी विनोदपूर्ण बातों से सदा हँसाते रहते थे। स्वभाव में इतना चुलबुलापन था कि छोटे-छोटे बच्चों के स्वभाव को भी मात कर देते थे। इन्हीं सब कारणों से नगर के सभी लोग इनसे आन्तरिक स्नेह रखते थे, जो भी इन्हें देख लेता वही प्रसन्नता से खिल उठता। सभी जानते थे, निमाई अब बालक नहीं हैं, वे नवद्वीप के एक नामी पण्डित हैं, इन्होंने शास्त्रार्थ में दिग्विजयी पण्डित को परास्त किया है, ये अपने लोकोत्तर प्रतिभा के कारण बंगाल के कोने-कोने में प्रसिद्ध हो गये हैं।
सैकड़ों छात्र इनके पास विद्याध्ययन करने आते हैं, फिर भी वे उन्हें अपना एक साथी तथा प्रेमी ही समझते थे। उन लोगों को यह खयाल कभी नहीं होता था कि ये बड़े आदमी हैं, इनके साथ सम्मान और शिष्टाचार का व्यवहार करना चाहिये। ये यदि शिष्टाचार या सम्मान करना भी चाहें तो निमाई पण्डित उन्हें ऐसा करने का अवकाश ही कब देने वाले थे। ये उन सबसे बिना बात ही छेड़खानी करते। बड़े-बड़े लोगों से परिहास करने में नहीं चूकते थे। इनके सभी कार्य विचित्र होते और उनसे सभी को प्रसन्नता होती। ये नवद्वीप के प्रत्येक मुहल्ले में घूमते। कभी इस मुहल्ले से उस मुहल्ले में जा रहे हैं और उस मुहल्ले से इसमें। रास्ते में जो भी मिल जाता है उसी से कुछ-न-कुछ छेड़खानी करते हैं।
बड़े लोग कहते हैं- ‘पण्डित! अब थोड़ी गम्भीरता भी सीखनी चाहिये, हर समय लड़कपन ठीक नहीं होता। अब तुम एक गण्यमान्य पण्डित हो गये हो।’ ये झूठा आश्चर्य-सा प्रकट करते हुए कहते, ‘हाँ, सचमुच अब हमारी गणना पण्डितों में होने लगी है, हमें तो पता भी नहीं। यदि ऐसी बात है तो हम कहीं जाकर किसी से गम्भीरता जरूर सीखेंगे।’ कहने वाले बेचारे अपना-सा मुँह लेकर चले जाते। ये विद्यार्थियों के साथ हँसते-खेलते फिर उसी भाँति चले जाते। इनका नगर-भ्रमण बड़ा ही मनोहर होता। देखने वाले इन्हें एकटक देखते-के-देखते ही रह जाते। तपाये हुए सुवर्ण के समान सुन्दर शरीर था, उस पर एक हलकी-सी बनियायिन रहती। चैड़ी काली किनारी की नीचे तक लटकती हुई सफेद धोती के ऊपर एक हल्के-से पीले रंग की चादर ओढे़ रहते। मुख में पान की बीरी है, बाँये हाथ में पुस्तक है, दाहिने में एक हलकी-सी छड़ी है। साथ में दस-पाँच विद्यार्थी हैं, उनसे बातें करते हुए चले जा रहे हैं, बीच-बीच में कभी इधर-उधर भी देखते जाते हैं। किसी कपड़े वाले की दूकान को देखकर उस पर जा बैठते हैं। कपड़े वाला पूछता है- ‘कहिये महाराज! क्या चाहिये?’ आप हँसते हुए कहते हैं- ‘जो यजमान की इच्छा, जो दे दोगे वही ले लेंगे।’ दूकानदार हँसी समझता और चुप हो जाता। कोई-कोई दूकानदार जबरदस्ती इनके सिर कपड़ा मँढ़ देता।
आप उससे कहते- ‘लेने को तो हम लिये जाते हैं, किन्तु पास में पैसा नहीं है। उधार किसी से न कभी चीज ली है न लेते हैं। दामों की आशा न रखना।’ दूकानदार हाथ जोड़कर श्रद्धा के साथ कहते- ‘हमारा अहोभाग्य आप पहनेंगे, तो हमारा यह व्यवसाय भी सफल हो जायगा। यह कपड़ा और लेते जाइये। इसके किसी गरीब छात्र के वस्त्र बनवा दीजियेगा।’ ये प्रसन्नतापूर्वक उन वस्त्रों को ले आते। कोई-कोई दूकानदार इनसे कटाक्ष भी करता- ‘पैसा पास नहीं है, कपड़े खरीदने चले हैं।’ आप हँसते हुए कहते- ‘पैसा ही पास होता तो फिर तुम्हारी ही दूकान कपड़ा खरीदने को रही थी? फिर तो जी चाहता वहीं से खरीद लाते।’ कभी किसी गरीब वस्त्र बनाने वाले के यहाँ जाते। उसका थान देखते, उससे दाम पूछते और कहते- ‘दाम तो हमारे पास है नहीं, बोलो, वैसे ही दोगे’- वह श्रद्धा के साथ कहता, ‘हाँ, ले जाइये महाराज! आपका ही तो है।’ वे हँसते हुए चले आते।
इनके नाना नीलाम्बर चक्रवर्ती के पास बहुत-से अहीरों के घर थे। वे दूध बेचने का व्यवसाय करते। आप उनके घरों में चले जाते और जिस अहीर को भी पाते उसी से कहते- ‘मामा! आज दूध नहीं पिलाओगे क्या?’ वे इन्हें बड़े सत्कार से अपने घरों को ले जाते। सभी मिलकर विद्यार्थियों के सहित इनका खूब सत्कार करते। कोई ताजा दूध पिलाता। कोई दही लाकर इनके सामने रख देता और थोड़ा खा लेने का आग्रह करता। ये निस्संकोच भाव से खाने लगते।
किसी स्त्री को देखकर कहते ‘मामी! तेरा दही तो खट्टा है, थोड़ी चीनी डाल देती तो स्वाद बन जाता।’ यह सुनकर कोई चीनी लेने दौड़ती। चीनी घर में न होती तो गुड़ ही ले आती। ये हँसते-हँसते गुड़ के साथ दही पीने लगते। विद्यार्थियों को भी दूध-दही पिलाते और फिर हँसते-हँसते पाठशाला की ओर चले आते। विशेषकर ये सीधे-सादे वैष्णवों को और सरल स्वभाव वाले दूकानदारों को खूब छेड़ते। दूकानदारों को भी इनके साथ छेड़खानी करने में आनन्द आता। एक पान वाले से इनका सदा झगड़ा ही बना रहता। ये उससे मुफ्त ही पान माँगा करते और वह मुफ्त देने से इनकार किया करता। तब ये अपने हाथ से ही उठा लेते। पान वाला हँस पड़ता, ये तब तक पान को चट कर जाते। पान वाले को ऐसा करने में नित्य नया ही आनन्द प्रतीत होता था, अतः यह झगड़ा प्रायः रोज ही हुआ करता। कभी तो दिन में दो-दो, तीन-तीन बार हो जाता। पान वाला बड़ा ही सरल और कोमल प्रकृति का पुरुष था।
वह इन्हें पुत्र की तरह मन-ही-मन चाहता था। वहीं श्रीधर नाम के एक भक्त दूकानदार थे। वे अत्यन्त ही गरीब थे, किन्तु थे परम वैष्णव। उनके पास रहने वाले उनके कारण बहुत ही परेशान रहते। वे रातभर खूब जोरों के साथ भगवन्नाम का कीर्तन करते रहते। पड़ोसियों की रात में जब भी आँखें खुलतीं तभी इन्हें भगवन्नाम का कीर्तन करते ही पाते। कोई कहता- ‘भाई, इस बूढे़ के कारण तो हम बड़े परेशान हैं, रातभर चिल्लाता रहता है, सोने ही नहीं देता?’ कोई कहता- ‘भगवान जाने इसे नींद क्यों नहीं आती। दिनभर तो दूकानदारी करता है और रातभर चिल्लाता रहता है, यह सोता किस समय है?’
कोई-कोई इनके पास जाकर कहते- ‘बाबा! भगवान बहिरा थोड़े ही है, जरा धीरे-धीरे भजन किया करो।’ ये कहते- ‘बेटा! धीरे-धीरे कैसे करूँ, तुम सब लोग तो दिन-रात काम में ही जुटे रहते हो, कभी भगवान का घड़ी भर को भी नाम नहीं लेते। इसलिये जिह्वा से नहीं ले सकते तो कान से तो सुनोगे ही, इसीलिये मैं जोर-जोर से भगवन्नाम का उच्चारण करता हूँ जिससे तुम सबों के कानों में भगवन्नाम पड़ जाय।’ इस प्रकार ये किसी की भी बात नहीं सुनते और हमेशा भगवान के मधुर नामों का उच्चारण करते रहते। ये केले के पत्ते ओर केले के भीतर के कोमल-कोमल कोपलों को बेचा करते। बंगाल में कोमल कोपलों का साग बनाया जाता है।
निमाई इनसे रोज ही आकर छेड़खानी किया करते। इनके खोल को उठा लेते और कहते- ‘पैसे के कितने खोल दोगे?’ वे कहते- ‘चार देंगे।’ तब आप कहते- ‘अजी आठ दो। सब जगह आठ-आठ तो बिक ही रहे हैं।’ श्रीधर कहते- ‘पण्डित! यह रोज-रोज की छेड़खानी अच्छी नहीं होती। जहाँ आठ बिक रहे हों, वहीं से जाकर ले आओ। हमने तो चार ही बेचे हैं, चार ही देंगे। तुम्हारी राजी पड़े ले जाओ, न राजी हो मत ले जाओ, झगड़ा करने से क्या फायदा?’
आप कहते- ‘हमें तो तुम्हारे ही खोल बहुत प्रिय लगते हैं, तुम्हीं से लेंगे और आठ ही लेंगे।’
श्रीधर कहते- ‘देखो, तुम अब सयाने हुए। ये बातें अच्छी नहीं होतीं। तुम्हें आठ दे देंगे तो फिर सभी आठ ही माँगेंगे। यदि ऐसी ही बात है, तो हम तुम्हें बिना ही मूल्य खोल दिया करेंगे।’
निमाई हँसते हुए कहते- ‘वाह! फिर कहना ही क्या है?’ नेकी और पूछ-पूछकर’ ‘मीठा और भर कठौता’ बस, यही तो हमें चाहिये।’
फिर कहते- ‘हमारी पूजा नहीं करते, माला हमें भी दिया करो’।
श्रीधर कहते- ‘माला तो मैं देवता के ही लिये लाता हूँ, गंगाजी के लिये पुष्प लाता हूँ, तुम्हें पुष्प-माला कैसे दूँ?’
आप कहते- ‘सबसे बड़े देवता तो हमी हैं, हमसे बढ़कर देवता और कौन हो सकता है? गंगा जी तो हमारे चरणों का धोवन हैं।’ यह सुनकर श्रीधर कानों पर हाथ रख लेते और दाँतों से जीभ काटते हुए कहते- ‘हाय पण्डित! पढ़े-लिखे होकर ऐसी बातें कहते हो! ऐसी बात के कहने से पाप होता है। तुम ब्राह्मण के कुमार होकर ऐसी पाप की बातें अपने मुँह से निकालते हो!’ कालान्तर में यही श्रीधर महाप्रभु गौरांग के अनन्य भक्त हुए और इन्होंने अन्त में उन्हें ईश्वर करके माना और अपने इन वाक्यों के लिये बहुत ही पश्चात्ताप प्रकट किया।
प्रभु इनसे अत्यन्त ही स्नेह रखते थे। गौर-भक्तों में श्रीधर का खोल बहुत ही प्रसिद्ध था। गौर को श्रीधर के खोल के बिना सभी व्यंजन रुचिकर ही नहीं होते थे। एक दिन ये घर की ओर जा रहे थे, रास्ते में पण्डित श्रीवास जी मिले। श्रीवास पण्डित अद्वैताचार्य के साथी और स्नेही थे। पण्डित जगन्नाथ मिश्र के ये अभिन्न मित्र थे, इनकी पत्नी मालती देवी और ये निमाई को सगे पुत्र की भाँति प्यार करते थे। ये भी इन दोनों में माता-पिता के समान श्रद्धा रखते थे। श्रीवास पण्डित को देखकर इन्होंने उन्हें प्रणाम किया।
पण्डित जी ने इन्हें आशीर्वाद दिया और बड़े ही प्रेम के साथ बोले- ‘निमाई! देखो, अब तुम बालक नहीं हो, यह बाल-चापल्य तुम्हें शोभा नहीं देता। इस तरह से उच्छृंखलता का जीवन बिताना ठीक नहीं। कुछ भक्तिभाव भी सीखना चाहिये। तुम्हारे पिता तो परम वैष्णव थे।
इन्होंने सरलता से कहा- ‘अभी थोड़े दिन और इसी तरह मौज कर लेने दो, फिर इकट्ठे ही वैष्णव बनेंगे और ऐसे वैष्णव बनेंगे कि वैष्णवों की तो बात ही क्या है, साक्षात विष्णु भी हमारे पास आया करेंगे।’
इनकी बात सुनकर उन्होंने कहा- ‘आगे और कब होगे? अभी से कुछ भक्तिभाव करना चाहिये। किसी देवी-देवता में श्रद्धा रखते हो?’ इन्होंने कहा- ‘किस देवता में श्रद्धा रखें, आप ही कृपा करके बताइये?’
श्रीवास पण्डित ने कहा- ‘जिसमें तुम्हारी श्रद्धा हो। देवपूजा करनी चाहिये और भगवन्नाम का यथाशक्ति जप करना चाहिये।’
निमाई जानते थे, कि वैष्णव ‘सोऽहम्’ और ‘अहं ब्रह्मास्मि’ इन वाक्यों से चिढ़ते हैं। इसलिये श्रीवास पण्डित को चिढ़ाने के लिये कहने लगे- ‘सोऽहम्’, ‘अहं ब्रह्मास्मि’ हमारी तो इन्ही महावाक्यों पर श्रद्धा है। जब हम ही ब्रह्म हैं तब पूजा किसकी करें और जप किसके नाम का करें, आप ही बताइये?’
यह सुनकर श्रीवास पण्डित ने कानों पर हाथ रख लिया और बोले- ‘वैष्णव के पुत्र को ऐसी बात मुख से नहीं कहनी चाहिये। तुम तो लड़कपन किया करते हो।’ इतना सुनकर ये यह कहते हुए घर की ओर चले गये कि ‘अच्छा, किसी दिन देख लेना, हम कैसे वैष्णव बनते हैं, तब तुम हमारे पीछे-ही-पीछे लगे डोलोगे।’
इन्होंने यह बातें हँसी में कही थीं, किन्तु श्रीवास पण्डित को इन बातों से कुछ आशा-सी हुई। वे सोचने लगे- ‘यदि निमाई- जैसे पण्डित, मेधावी और सर्वप्रिय पुरुष वैष्णव बन जायँ तो वैष्णवधर्म का देशभर में झंडा फहराने लगे। अनाथ वैष्णव भक्त सनाथ हो जायँ।’ वे यही सोचते-विचारते गंगा जी की ओर चले गये। कालान्तर में श्रीवास पण्डित के विचार सत्य ही हो गये। वैष्णव-धर्म की विजय-दुन्दुभि से सम्पूर्ण देश गूँजने लग गया और भक्ति-भागीरथी की एक ऐसी भारी बाढ़ आयी जिसके कारण सभी विषमता दूर होकर चारों ओर समता का साम्राज्य स्थापित हो गया।
क्रमशः अगला पोस्ट [32]
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]
, Shri Hari:.
[Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram
favorite nimai
Whom the world is not afraid of, and who is not afraid of the world.
He who is free from joy, anger, fear and anxiety is also dear to Me.
Neither external beauty is beauty nor external purity is real purity. The one whose heart is pure, does not have even the slightest disorder, then he appears beautiful even when he is ugly, people get mesmerized by his inner beauty and start dancing at his behest. The inner purity is reflected on the face. There is attractiveness in that purity, due to which people get under their control. If the heart is pure like a clean mirror and the radiance of the body is also lovely and lovely, then what can we say about the attractiveness of that godly man. After all, there is only fragrance in gold. Who would be such a kind hearted man, who does not become an admirer of the qualities of such a man. If such a man is also of a happy and flirtatious nature, then everyone starts loving him like a soulmate and no one feels any hesitation or anxiety because of him. From children to old people, they start playing with him.
All the above mentioned qualities were present in Nimai Pandit. His heart was very soft and very large, it was full of love and affection not only for humans, but for all living beings, his body was well-formed, beautiful and graceful. He was so beautiful that humans used to get fascinated just by looking at his beauty. There was never any wrinkle on the face. He used to keep laughing all the time and always used to make his colleagues laugh with his humorous talks. There was so much flirtatiousness in his nature that he used to beat even the nature of small children. For all these reasons, all the people of the city had inner affection for him, whoever saw him would have blossomed with happiness. Everyone knew, Nimai is no longer a child, he is a famous pundit of Navadweep, he has defeated Digvijayi Pandit in Shastrarth, he has become famous in every corner of Bengal due to his supernatural talent.
Hundreds of students come to him to study, yet he considered him as his friend and lover. Those people never used to think that they are big men, they should be treated with respect and courtesy. Even if he wanted to show courtesy or respect, when was Nimai Pandit going to give him the leave to do so. He used to flirt with them without talking. He did not hesitate to joke with big people. All his works would have been strange and everyone would have been happy with them. He used to roam in every locality of Nabadwip. Sometimes going from this locality to that locality and from that locality to this. Whatever they meet on the way, they do something or the other to molest them.
Elders say – ‘Pandit! Now a little seriousness should also be learned, boyishness is not right all the time. Now you have become a respected Pandit.’ Expressing astonishment, he said, ‘Yes, really now we are being counted among Pandits, we don’t even know. If it is such a thing, then we will definitely go somewhere and learn seriousness from someone.’ He used to laugh and play with the students and then go away in the same way. His city tour would have been very pleasant. The onlookers used to keep staring at them. She had a beautiful body like melted gold, a light vest would have been on her. Over the white dhoti hanging down to the bottom of the wide black border, a light-yellow sheet would be covered. There is a betel leaf in the mouth, a book in the left hand, and a small stick in the right. There are ten-five students with him, he is walking while talking to them, occasionally looking here and there. Seeing the shop of a cloth seller, they go and sit on it. The cloth man asks – ‘Say, Maharaj! What do you want?’ You laugh and say – ‘We will take whatever the host wishes, whatever he gives.’ The shopkeeper understood the laughter and kept quiet. Some shopkeeper would forcefully cover their heads with a cloth.
You say to him- ‘We are taken to take, but there is no money nearby. Have taken something or the other on loan from someone or the other. Don’t expect prices.’ The shopkeeper folded hands and said with reverence- ‘If you wear our bad luck, then this business of ours will also be successful. Keep taking more of this cloth. Get some poor student’s clothes made for him.’ He would have happily brought those clothes. Some shopkeeper used to sarcasm with him – ‘I don’t have money, I have gone to buy clothes.’ You would laugh and say- ‘If money was there, then you would have gone to your shop to buy clothes? If I wanted to, I would have bought it from there. Sometimes I would go to a poor cloth maker. Seeing his station, asking him the price and saying- ‘We don’t have the price, tell me, you will give it anyway’- he would say with reverence, ‘Yes, take it Maharaj! It is yours only.’ They would walk away laughing.
His maternal grandfather Nilambar Chakraborty had many Ahir houses. He used to do business of selling milk. You would go to their houses and say to whomsoever Ahir you found – ‘Mama! Won’t you give milk today?’ They would have taken them to their homes with great hospitality. Everyone together along with the students would have felicitated them a lot. Someone gives fresh milk. Someone would bring curd and put it in front of them and would urge them to eat some. They started eating without any hesitation.
Seeing a woman, he would say ‘Mami! Your curd is sour, if you had added some sugar, it would have become tastier.’ Hearing this, someone ran to buy sugar. If there was no sugar in the house, she would have brought jaggery. They used to drink curd with jaggery while laughing. He used to give milk and curd to the students and then used to walk towards the school laughing. Especially he used to tease the simple Vaishnavs and the shopkeepers with simple nature. Even the shopkeepers would have enjoyed flirting with them. They would always have a quarrel with a paan seller. They used to ask him for free paan and he refused to give it free. Then he would have picked it up with his own hands. The paan seller would have laughed, till then he would have licked the paan. The paan seller used to find new joy everyday in doing this, so this quarrel used to happen almost daily. Sometimes it would happen twice or thrice a day. The paan wala was a very simple and gentle man.
He wanted him like a son in his heart. There was a devotee shopkeeper named Shridhar. He was very poor, but he was a supreme Vaishnava. Those living near him used to be very upset because of him. He used to chant the Lord’s name with great vigor throughout the night. Whenever the eyes of the neighbors opened in the night, only then they would find them chanting the name of God. Someone says- ‘Brother, we are very worried because of this old man, he keeps on shouting all night, doesn’t let us sleep?’ Someone says- ‘God knows why he can’t sleep. He shops all day long and keeps on shouting all night, at what time does he sleep?’
Some go to him and say- ‘Baba! God is only a little deaf, do bhajan slowly.’ He used to say- ‘Son! How to do it slowly, all of you people are engaged in work day and night, never take the name of God even for a moment. That’s why if you can’t take it from the tongue, then you will hear it from the ear, that’s why I loudly pronounce the name of God so that the name of God can be heard in your ears.’ Thus they do not listen to anyone and always chant the sweet names of God. Keep pronouncing They used to sell banana leaves and the soft buds inside the banana. In Bengal, greens are made of soft buds.
Nimai would come and molest them everyday. He would pick up their shell and say- ‘How many shells will you give for the money?’ Eight-eight are being sold everywhere.’ Sridhar would say – ‘Pandit! This everyday flirting is not good. Wherever eight are being sold, go and get them. We have sold only four, will give only four. Take me if you agree, don’t take me if you don’t agree, what’s the use of fighting?’
You would say- ‘We like your shells very much, we will take only eight from you.’
Sridhar would say- ‘Look, you have become wise now. These things are not good. If you give eight then everyone will ask for eight only. If that’s the case, we’ll give you away without cost.’
Nimai laughingly said- ‘Wow! Then what is there to say?’ Kindness and asking’ ‘Sweet and bitter’ is all we need.’
Then they would say- ‘Do not worship us, give the garland to us too’.
Shridhar says- ‘I bring garland only for the deity, I bring flowers for Gangaji, how can I give you flower-garland?’
You used to say- ‘We are the biggest deities, who can be more deities than us? Ganga ji washes our feet.’ Hearing this, Shridhar would put his hands on his ears and bite his tongue and say – ‘Hi Pandit! Being educated, you say such things! It is a sin to say such a thing. You, being a son of a Brahmin, utter such sinful things from your mouth!’ Later on, this Shridhar Mahaprabhu became an ardent devotee of Gauranga and in the end he accepted him as God and expressed great remorse for his words.
The Lord had great affection for him. Shridhar’s shell was very famous among Gaur-devotees. Without Sridhar’s shell to Gaur, all the dishes were not tasty at all. One day he was going towards home, met Pandit Shrivas ji on the way. Srivasa was the companion and affection of Pandit Advaitacharya. He was an integral friend of Pandit Jagannath Mishra, his wife Malati Devi and he loved Nimai like a real son. He also had faith in both of them like parents. Seeing Shrivas Pandit, he bowed down to him.
Pandit ji blessed him and said with great love- ‘Nimai! Look, you are no longer a child, this childishness does not suit you. It is not right to lead a life of disorder like this. Some devotion should also be learned. Your father was Param Vaishnav.
He simply said- ‘Let us enjoy like this for a few more days, then together we will become Vaishnavs and we will become such Vaishnavs that what is there to talk about Vaishnavs, Vishnu will also come to us in person.’
After listening to him, he said- ‘When will you be next? Some devotion should be done from now itself. Do you have faith in any deity?’
Shrivas Pandit said – ‘ In whom you have faith. Devpuja should be done and God’s name should be chanted as much as possible.
Nimai knew that Vaishnavas get irritated by these sentences ‘So’ham’ and ‘Aham Brahmasmi’. That’s why Shrivas started saying to tease Pandit – ‘So’ham’, ‘Aham Brahmasmi’, we have faith in these great sentences. When we are Brahma, then whom should we worship and whose name should we chant, you tell me.’
Hearing this, Shrivas Pandit put his hands on his ears and said – ‘The son of Vaishnav should not say such a thing with his mouth. You are acting like a boy.’ Hearing this, he went towards the house saying, ‘Well, some day see how we become Vaishnavs, then you will follow us.’
He had said these things in jest, but Shrivas Pandit got some hope from these words. They started thinking- ‘If a pundit, meritorious and all-loved man like Nimai becomes a Vaishnav, then the flag of Vaishnavism will start hoisting all over the country. May the orphan Vaishnav devotee become eternal.’ Thinking this, he went towards Ganga ji. In course of time, the thoughts of Shrivas Pandit became true. The whole country started echoing with the victory of Vaishnavism-Dundubhi and such a huge flood of Bhakti-Bhagirathi came due to which all inequalities were removed and the kingdom of equality was established all around.
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[From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]