।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
प्रकृति-परिवर्तन
परोपदेशकुशला दृश्यन्ते बहवो जनाः।
स्वभावमतिवर्तन्तः सहस्रेष्वपि दुर्लभाः।।
बाल्यावस्था का स्वभाव आगे चलकर धीरे-धीरे बदल जाता है, किन्तु युवावस्था में जो स्वभाव बन जाता है, उसका परिवर्तित होना अत्यन्त ही कठिन है। अवस्था ज्यों-ज्यों प्रौढ़ होती जाती है, त्यों-त्यों स्वभाव में भी प्रौढ़ता होने लगती है और फिर जिस मनुष्य का जैसा स्वभाव होता है वही उसका आगे के लिये स्वाभाविक गुण बन जाता है। बहुधा ऐसा भी देखा गया है कि बहुत-से लोगों का जीवन एकदम पलट जाता है, वे क्षणभर में ही कुछ-से-कुछ बन जाते हैं। जो आज महाविषयी-सा प्रतीत होता है, वही कल परम वैष्णवों के-से आचरण करने लगता है। जिसे हम कल तक आवारा-आवारा कहकर पुकारते थे, थोड़े दिनों में सहस्रों नर-नारी सिद्ध महात्मा मानकर उसी की पूजा-अर्चा करते हुए देखे गये हैं, किन्तु ऐसा परिवर्तन सभी पुरुषों के जीवन में नहीं होता। ऐसे तो कोई विरले ही भाग्यशाली महापुरुष होते हैं। प्रायः देख गया है कि मनुष्य जब प्राकृति विचारों से ऊँचे उठने लगता है, तब हृदय के परिवर्तन के साथ उसके शरीर में भी परिवर्तन हो जाता है। शरीर के सभी अवयव स्वभाव के ही अनुसार बने हैं, मनुष्य जैसे-जैसे प्राकृतिक विचारों को छोड़ने लगता है वैसे-वैसे उसके अंग-प्रत्यंग भी बदलते जाते हैं।
साधारण लोग उस परिवर्तन को रोग समझने लगते हैं। जो एकदम प्रकृति से ऊँचा उठ गया है, फिर उसका पांचभौतिक शरीर अधिक काल स्थिर नहीं रह सकता। क्योंकि शरीर के स्थायित्व के लिये रजोगुणजन्य प्राकृतिक अहंभाव की कुछ-न-कुछ आवश्यकता पड़ती ही है। तभी तो परम भावुक ज्ञानी और प्रेमी अल्पावस्था में ही इस शरीर को त्याग जाते हैं। श्रीशंकाराचार्य, चैतन्यदेव, ज्ञानेश्वर, रामतीर्थ, जगद्बन्धु ये सभी परम भावुक भगवत-भक्त प्रकृति से अत्यन्त ऊँचे उठ जाने के ही कारण शरीर को अधिक दिन नहीं टिका सके। कोई-कोई महापुरुष, अपने सत्संकल्प का कुछ अंश देकर लोक-कल्याण की दृष्टि से उस अवस्था में पहुँचने पर भी कुछ काल के लिये इस शरीर को टिकाये रहते हैं, फिर भी उनमें भावुकता की अपेक्षा ज्ञानांश की कुछ अधिकता होती है, तभी वे ऐसा कर सकते हें। भावुकता की चरम सीमा पर पहुँचने पर तो संकल्प करने का होश ही नहीं होता। जब हृदय में सहसा प्रबल भावुकता का उदय होता है, तो निर्बल शरीर उसका सहन नहीं कर सकता। किसी-किसी का शरीर तो उसी वेग में शान्त हो जाता है, बहुत-से उसे सहन तो कर लेते हैं, किन्तु पागल हो जाते हैं, कुछ कर-धर नहीं सकते।
जिनसे भगवान को कुछ काम कराना होता है, वे उस वेग को पूर्णरीति से सहन करने में समर्थ होते हैं, किन्तु शरीर पर उसका कुछ-न-कुछ असर पड़ना तो स्वाभाविक ही है, इसलिये उनके शरीर में या तो वायुरोग हो जाता है या अतिसार। बहुधा इन दो भयंकर रोगों के द्वारा ही उस भाव का शमन हो सकता है। संसारी लोगों को ये रोग प्रायः चालीस-पचास वर्ष की अवस्था के बाद हुआ करते हैं, किन्तु जिन लोगों के शरीर में प्रबल भावुकता के उदय होने के उद्वेग में ये रोग होते हैं, उनके लिये कोई नियम नहीं, कभी हो जाय। असल में उनके ये रोग साधारण लोगों के रोग की भाँति यथार्थ रोग नहीं होते, किन्तु वे रोग-से ही प्रतीत होते हैं और भावों के शमन होने पर आप ही शान्त हो जाते हैं। परमहंस रामकृष्णदेव को युवावस्था में ही यह उद्वेग उत्पन्न हुआ। किसी ने उसे वायुरोग, किसी ने मस्तिष्क रोग और किसी ने वीर्योन्मादरोग बताया। उनके परम भक्त मथुरा बाबू तो चिकित्सकों के कहने से उन्हें वेश्याओं तक के यहाँ ले गये, किन्तु उन्हें उन्माद या वायुरोग हो तब तो। वहाँ भी वे छोटे बालक की भाँति क्रीड़ा करते रहे। सालों वे अतिसार के भयंकर रोग से पीड़ित बने रहे।
उनके इस भाव को एक ब्राह्मणी ने ही समझा। पीछे से उनके बहुत-से भक्त भी समझ गये। चिकित्सक इन्हें अन्त तक वायुरोग बताते रहे और बोलने से मना करते रहे, किन्तु इन्होंने शरीर को टिका ही इसलिये रखा था, चिकित्सकों के मना करने पर भी धारा प्रवाह बोलते रहे, अन्त में गले में फोड़ा-सा हुआ और उसी की भयंकर वेदना में महीनों बिताकर वे इस नश्वर शरीर को त्याग गये। गले के फोड़े को चिकित्सक लोग अधिक बोलने का विकार बताते, उसके कारण इतनी पीड़ा होती कि तोले भर दूध पीने में भी उन्हें महाकष्ट होता था, किन्तु इस अवस्था में भी वे भक्तों को उपदेश तो निरन्तर करते ही रहे। चिकित्सकों के बार-बार जोर देकर मना करने पर वे कह देते- ‘अब इस शरीर का बनेगा ही क्या? इससे जिसका जितना भी उपकार हो सके उतना ही उत्तम है।’ क्योंकि वे शरीर के प्राकृतिक स्वभाव से एकदम ऊँचे उठ गये थे।
अब निमाई पण्डित के भी प्रकृति-परिवर्तन का समय आया। निमाई परम भावुक थे, यदि सचमुच इनके हृदय में एक साथ ही प्रबल भावुकता की भारी बाढ़ आती, तो चाहे इनका शरीर कितना भी बलवान क्यों नहीं था, वह उसका सहन कभी नहीं कर सकता। इसलिये इनकी भावुकता का उत्तरोत्तर विकास हुआ और अन्त में तो वे शरीर को एकदम भूलकर समुद्र में ही कूद पड़े। इनके जीवन में प्रेम के जैसे उत्तरोत्तर अद्वितीय भाव प्रकट हुए हैं, वैसे भाव संसार का इतिहास खोजने पर भी किसी प्रकटरूप से उत्पन्न हुए महापुरुष के जीवन में शायद ही मिलें! किसी के जीवन में क्या, बहुतों के जीवन में ये भाव प्रकट हुए होंगे, किन्तु वे संसार की दृष्टि से दूर जाकर प्रकट हुए होंगे, संसारी लोगों को उन भावों का पता नहीं चैतन्य के जीवन के भाव तो भक्तों ने प्रत्यक्ष देखे और उनके समकालीन लेखकों ने यथासाध्य उनका वर्णन करने की चेष्टा भी की है, किन्तु वे भाव तो अवर्णनीय हैं। संसारी भाषा इन अलौकिक भावों का वर्णन कर ही कैसे सकती है?
सहसा एक दिन निमाई पण्डित रास्ता चलते-चलते पुस्तक फेंककर अपने घर की ओर भाग पड़े। रास्ते के सभी लोग डर गये। इनकी सूरत विचित्र ही बन गयी थी। घर पहुँचकर इन्होंने घर के सभी बर्तनों को आँगन में निकाल-निकालकर फोड़ना प्रारम्भ कर दिया। माता अवाक होकर इनकी ओर देखने लगीं। उनकी हिम्मत न हुई कि निमाई को ऐसा करने से रोकें। ये अपनी धुन में मस्त थे। किसी भी चीज की परवा नहीं करते। जो भी चीज मिल जाती उसे ही नष्ट करते। पानी को उलीचते, अन्न को फेंकते और वस्त्रों को बीच से फाड़ देते थे। माता बाहर जाकर आस-पास के लोगों को बुला लायीं। लोगों ने इन्हें इस काम से हटाने की चेष्टा की, किन्तु जो भी इनकी ओर जाता, उसे ही ये मारने के लिये दौड़ते। इसलिये किसी की हिम्मत ही नहीं पड़ती थी। जैसे-तैसे लोगों ने इन्हें हटाकर शय्या पर सुलाया। चारों ओर से विद्यार्थी तथा इनके स्नेही इनकी शय्या को घेरकर बैठ गये। अब ये निरन्तर पागलों की भाँति बकने लगे। लोगों से कहते- ‘हम साक्षात विष्णु हैं, हमारी पूजा करो। संसार में हम ही एकमात्र वन्दनीय तथा पूजनीय हैं। तुम लोग निरन्तर श्रीकृष्ण-कीर्तन किया करो। संसार में श्रीकृष्ण का ही नाम सार है और सभी वस्तुएँ असार हैं। इस प्रकार ये न जाने क्या-क्या कहते रहे।’
लोग अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार भाँति-भाँति के अनुमान लगाते। कोई कहता- ‘भूतव्याधि है।’ कोई कहता- ‘किसी डाकिनी-शाकिनी का प्रकोप है।’ कोई-कोई उपेक्षा की दृष्टि से कहता- ‘अजी, बहुत बकवाद का यही तो फल होता है, दिनभर शास्त्रार्थ करके विद्यार्थियों के साथ मगजपच्ची करके तथा लोगों को छेड़कर बका ही तो करते थे। इन्हें कभी किसी ने चुपचाप तो देखा ही नहीं था। उसी का यह फल है, पागलपन है। मस्तिष्क का विकार है। गर्मी बढ़ गयी है और कुछ नहीं है।’
चिकित्सकों ने वायुरोग स्थिर किया। समाचार पाकर बुद्धिमन्त खाँ और मुकुन्द संजय- ये सभी धनी-मानी सज्जन वैद्यों को साथ लेकर निमाई के घर दौड़े आये। सभी घबड़ा गये। ये लोग बड़े-बड़े धनिक थे। नाना प्रकार की मूल्यवान ओषधियाँ इनके यहाँ रहती थीं। वैद्यों की सम्मतिसे विष्णुतैल, नारायणतैल आदि सुगन्धित और मूल्यवान तैल इनके सिर में मले जाने लगे। इनके सिर को तैल में डुबाया गया और भी भाँति-भाँति के उपचार किये जाने लगे। इस प्रकार कई दिनों में धीरे-धीरे ये स्वस्थ हुए। यह देखकर इनके प्रेमियों को परम प्रसन्नता हुई। धीरे-धीरे ये फिर पूर्व की भाँति अपनी पाठशाला में जाकर अध्यापन का कार्य करने लगे।
अब इनके स्वभाव में बहुत कुछ परिवर्तन हो गया। अब ये पहले की भाँति लोगों से छेड़खानी नहीं करते थे। इनमें बहुत कुछ गम्भीरता आ गयी। वैष्णवों की हँसी करना इन्होंने एकदम छोड़ दिया। इन्हें स्वस्थ देखकर लोग कहते- ‘भगवान की बड़ी कृपा हुई आप स्वस्थ हो गये। यह शरीर नश्वर और क्षणभंगुर है, अब कुछ कृष्णकीर्तन भी करना चाहिये। आयु को इसी तरह बिता देना ठीक नहीं।’ ये हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम करते और उनकी बात को स्वीकार करते। लोगों को- विशेषकर वैष्णवों को इनके इस स्वभाव- परिवर्तन से परम प्रसन्नता हुई। अब ये नियमितरूप से भगवान की पूजा और तुलसी पूजन आदि कार्यों को करने लगे।
सन्ध्या-पूजा करके ये पढ़ाने के लिये जाते और सभी विद्यार्थियों के सदाचार के ऊपर अत्यधिक ध्यान रखते। जिस विद्यार्थी के मस्तक पर तिलक नहीं देखते उसे ही बुलाकर कहते- ‘आज तिलक क्यों नहीं धारण किया है?’ फिर सबको सुनाकर कहते- ‘जिसके मस्तक पर तिलक नहीं, समझ लो आज वह बिना ही सन्ध्या-वन्दन किये चला आया है।’ इस प्रकार जिसे भी तिलकहीन देखते उसे ही कहते- ‘पहले घर जाकर सन्ध्या-वन्दन करके तिलक धारण कर आओ, तब आकर पाठ पढ़ना।’ फिर आप समझाने लगते- ‘देखो भाई! सन्ध्या ही तो द्विजातियों का सर्वस्व है।
जो ब्राह्मण सन्ध्या-वन्दन तक नहीं करता उसे ब्राह्मण कह ही कौन सकता है? फिर वह पारमार्थिक उन्नति तो बहुत दूर रही, इहलौकिक उन्नति भी नहीं कर सकता। कहा भी है-
विप्रो वृक्षस्तस्य मूलं च सन्ध्या
वेदाः शाखाः धर्मकर्मादि पत्रम्।
तस्मान्मूलं यत्नतो रक्षणीयं
छिन्ने मूले नैव शाखा न पत्रम्।।
ब्राह्मणरूपी वृक्ष की सन्ध्या ही जड़ है। वेद ही उस वृक्ष की बड़ी-बड़ी चार शाखाएँ हैं और धर्म- कर्मादि ही उस वृक्ष के सुन्दर-सुन्दर पत्ते हैं, इसलिये खूब सावधानी के साथ जल आदि देकर जड़की ही सेवा करनी चाहिये, क्योंकि जड़ के नष्ट हो जाने पर न तो शाखा ही रह सकती है और न पत्ते ही।’ आप कहते- ‘जो साठ घड़ी के दिन-रात्रि में से दो घड़ी सन्ध्या के लिये नहीं निकाल सकता वह आगे उन्नति ही क्या कर सकता है?’ इनके इस कथन का विद्यार्थियों के ऊपर बड़ा ही प्रभाव पड़ता और वे सभी यथासमय उठकर स्नानादि से निवृत्त होकर सन्ध्या-वन्दनादि करके तब पाठ पढ़ने आते। इन सभी बातों से विद्यार्थी इनके ऊपर बड़ा ही अनुराग रखने लगे और ये भी उन्हें प्राणों से भी अधिक प्यार करने लगे।
ये भाव इनके हृदय में भक्ति-भागीरथी के स्त्रोत उमड़ने के पूर्व के सूत्रपातमात्र ही हैं। निमाई के हृदय में भक्ति के स्त्रोत का उदय तो श्रीगयाधाम में श्रीविष्णु भगवान के पादपद्मों के दर्शन से ही होगा। वहीं से भक्ति-भागीरथी का प्रवाह नवद्वीप आदि पुण्यस्थानों में होर अपनी द्रुतगति से समस्त प्राणियों को पावन करता हुआ श्रीनीलाचल के महासागर में एकरूप हो जायगा। यह बात नहीं कि नीलाचन में जाकर प्रेमपयोधि में मिलने पर उस त्रितापहारी प्रेमपीयूषपूर्ण पावन प्रवाह की परिसमाप्ति हो जायगी, किन्तु वह प्रवाह भगवती भागीरथी की भाँति अखण्डरूप से इस धराधाम पर सदा प्रवाहित ही होता रहेगा, जिसमें अवगाहन करके प्रेमी भक्त सदा सुख-शान्ति प्राप्त करते रहेंगे। इन सभी बातों का वर्णन पाठकों को अगले प्रकरणों में प्राप्त होगा।
क्रमशः अगला पोस्ट [34]
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]
, Shri Hari:.
[Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram
nature change
Many people seem to be good at teaching others.
They are rare even among thousands who transgress their own nature
The nature of childhood gradually changes later on, but the nature that is formed in youth is very difficult to change. As the stage becomes mature, maturity starts taking place in the nature as well and then whatever nature a person has, that becomes his natural quality for the future. Often it has also been seen that many people’s life turns completely upside down, they become something or the other in a moment. The one who seems like a great subject today, tomorrow he starts behaving like a Param Vaishnava. Whom we used to call as vagabond till yesterday, in a few days thousands of men and women have been seen worshiping him as a proven Mahatma, but such change does not happen in the lives of all men. Such fortunate great men are rare. It has often been seen that when a man starts rising above natural thoughts, then along with the change of heart, his body also changes. All the parts of the body are made according to nature, as a man starts leaving natural thoughts, his parts also change.
Ordinary people start considering that change as a disease. One who has completely risen above nature, then his five-material body cannot remain stable for a long time. Because for the stability of the body, there is a need for some or the other natural egoism generated by Rajoguna. That’s why the most passionate, knowledgeable and lover leaves this body in a short period of time. Srishankaracharya, Chaitanyadeva, Dnyaneshwar, Ramtirtha, Jagadbandhu all these supremely passionate devotees of the Lord could not sustain the body for long because of rising very high above nature. Some great men, by giving some part of their good thoughts for the welfare of the people, even after reaching that stage, remain in this body for some time, still they have some excess of knowledge than sentimentality, that’s why they become like this. Can do On reaching the peak of sentimentality, there is no consciousness to make a resolution. When a strong emotion suddenly arises in the heart, the weak body cannot bear it. Some people’s body becomes calm in the same speed, many tolerate it, but they become mad, cannot do anything.
Those from whom God has to do some work, they are able to tolerate that velocity completely, but it is natural that it has some effect on the body, that’s why their body either gets wind disease or diarrhoea. . Most of the time that feeling can be cured only by these two dangerous diseases. These diseases usually occur to worldly people after the age of forty-fifty years, but there is no rule for those people who have these diseases due to the emergence of strong emotionality in their body. In fact, their diseases are not real diseases like the diseases of ordinary people, but they appear to be diseases and you become calm when the emotions are suppressed. Paramhansa Ramakrishnadev had this urge in his youth. Some called it Vayu disease, some brain disease and some called it ermosis. His supreme devotee Mathura Babu even took him to prostitutes’ place on the advice of doctors, but only if he has mania or air disease. There also he kept playing like a small child. For years he was suffering from a terrible disease of diarrhea.
Only a Brahmin understood his sentiment. Many of his devotees also understood from behind. Till the end the doctors told him to be an air disease and refused to speak, but he had kept the body stable for this reason, even after the doctors refused, he continued to speak in torrents, in the end there was a boil in the throat and he was in severe pain for months. After spending it, they left this mortal body. The doctors used to describe throat boils as a disorder of excessive speaking, due to which he used to suffer so much that even drinking a ton of milk caused great pain to him, but even in this condition, he continued to preach to the devotees. When the doctors repeatedly insisted on refusing, they would say- ‘What will become of this body now? Whoever is benefited by this is the best.’ Because he had risen completely above the natural nature of the body.
Now the time has come for Nimai Pandit to change his nature. Nimai was extremely emotional, if his heart really had a huge flood of strong emotion at the same time, no matter how strong his body was, he could never bear it. That’s why their sentimentality developed gradually and in the end, forgetting the body completely, they jumped into the sea. The way unique feelings of love have appeared in his life, even after searching the history of the world, such feelings are rarely found in the life of a great man born in any form! These feelings must have appeared in the life of some, in the lives of many, but they must have appeared far away from the vision of the world, worldly people do not know about those feelings; Has also tried to describe them as much as possible, but those feelings are indescribable. How can worldly language describe these supernatural expressions?
Suddenly, one day while walking on the way, Nimai Pandit threw away the book and ran towards his house. Everyone on the way got scared. His face had become strange. After reaching home, he took out all the utensils in the courtyard and started breaking them. Mother started looking at him speechless. He did not dare to stop Nimai from doing so. He was engrossed in his tune. Don’t care about anything. Whatever he could find, he would have destroyed it. They used to stir water, throw food and tear clothes in half. Mother went out and called the people around. People tried to remove him from this work, but whoever turned towards him, he used to run to kill him. That’s why no one had the courage. Somehow people removed them and made them sleep on the bed. Students and his loved ones sat around his bed from all sides. Now he started babbling continuously like a madman. Saying to the people- ‘We are Vishnu in person, worship us. We are the only worshipable and worshipable in the world. You people do Shri Krishna-Kirtan continuously. In the world only the name of Shri Krishna is the essence and all the things are asar. Don’t know what he kept saying like this.
People make different guesses according to their intelligence. Some say- ‘It is demonic disease.’ Some say- ‘It is the wrath of some Dakini-Shakini.’ And he used to do the rest by teasing people. No one had ever seen him silently. This is the result of that, it is madness. It is a disorder of the brain. The heat has increased and nothing else.
The doctors stabilized the air disease. After getting the news, Buddhimant Khan and Mukund Sanjay – all these rich and respected gentlemen came running to Nimai’s house with the doctors. Everyone got scared. These people were very rich. Various types of valuable medicines used to be kept here. With the advice of doctors, Vishnu tail, Narayan tail etc. fragrant and valuable oils were mixed in their heads. His head was immersed in oil and various treatments were started. In this way, he gradually recovered over several days. Seeing this, their lovers were very happy. Slowly, like before, he went to his school and started teaching.
Now there has been a lot of change in their nature. Now he did not molest people as before. There was a lot of seriousness in this. He completely stopped making fun of Vaishnavs. Seeing him healthy, people used to say- ‘It is God’s grace that you have become healthy. This body is mortal and transitory, now some Krishna Kirtan should also be done. It is not right to spend one’s life like this. They would bow down to him with folded hands and accept his words. The people, especially the Vaishnavas, were overjoyed by this change in their nature. Now they started worshiping God and worshiping Tulsi regularly.
After evening worship, he went to teach and took utmost care of the conduct of all the students. Calling the student who does not see Tilak on his forehead, he would be called and asked- ‘Why haven’t you worn Tilak today?’ Then after telling everyone, they would say- ‘The one who does not have Tilak on his forehead, understand that today he has come without offering evening prayers.’ In this way, whoever he sees without a tilak, he would be told- ‘First go home and wear Tilak after evening prayers, then come and read the lesson.’ Then you would start explaining- ‘Look brother! Evening is the everything of the two castes.
Who can call a Brahmin who does not even offer evening prayer? Then that spiritual progress is very far away, he cannot even make worldly progress. Where is it-
The brahmin is the tree and its root is the evening
The Vedas are the branches, the letter of Dharma and Karma.
Therefore the root should be carefully protected
When the root is cut off, there is no branch or leaf.
The evening is the root of the Brahmin-like tree. Vedas are the four big branches of that tree and Dharma-Karmadi are the beautiful leaves of that tree, therefore one should serve only the root by giving water etc. with great care, because if the root is destroyed, neither the branch No leaves can remain.’ You say- ‘The one who cannot take out two hours for the evening out of the sixty hours of day and night, how can he progress further?’ This statement of his had a great impact on the students. It used to fall and all of them got up on time, retired from the bath and did evening salutations and then came to read the lesson. Due to all these things, the students started having great affection for him and they also started loving him more than their lives.
These sentiments are just the starting point before the source of Bhakti-Bhagirathi rises in their heart. The source of devotion in Nimai’s heart will arise only after the darshan of Lord Vishnu’s lotus feet in Shri Gayadham. From there, the flow of Bhakti-Bhagirathi will unite in the ocean of Sri Nilachal, purifying all the living beings with its fast speed in holy places like Navadweep etc. It is not a matter that after going to Neelachan and meeting in Prempyodhi, that tritapari love-pious holy flow will end, but like Bhagwati Bhagirathi, that flow will always continue to flow on this land in an unbroken form, in which loving devotees always get happiness and peace Will remain Readers will get the description of all these things in the next episodes.
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[From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]