[35]”श्रीचैतन्य–चरितावली”

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।। श्रीहरि:।।

[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम

श्रीगयाधाम की यात्रा

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।

स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।

आश्विन शुक्ला दशमी का दिवस है। आज के ही दिन भगवान श्रीरामचन्द्रजी ने लंका पर विजय प्राप्त करने के लिये चढ़ाई की थी। घर-घर आनन्द मनाया जा रहा है। आज के ही दिन वर्षाकाल की परिसमाप्ति समझी जाती है। व्यापारी आज के ही दिन वाणिज्य के निमित्त विदेशों की यात्रा करते हैं। नृपतिगण आज के ही दिन दूसरे देशों को दिग्विजय करने के निमित्त अपनी-अपनी सेनाओं को सजाकर राज्य-सीमा से बाहर होते हैं। चार महीने एक ही स्थान पर रहने वाले परिव्राजक आज के ही दिन फिर से भ्रमण करना आरम्भ कर देते हैं। तीर्थयात्रा करने वाले भी आज के ही दिन यात्रा के लिये प्रस्थान करते हैं। अब के नवद्वीप से भी बहुत-से यात्री गयाधाम की यात्रा करने जा रहे थे। गौरांग के मौसा पं. चन्द्रशेखर भी गया को जाना चाहते थे, उन्होंने अपनी इच्छा निमाई को जतायी। सुनते ही इन्होंने बड़ी प्रसन्नता प्रकट की। माता की आज्ञा लेकर इन्होंने भी अपने कुछ स्नेही तथा छात्रों के साथ गया जी की यात्रा का निश्चय किया सब सामान जुटाकर अन्य लोगों को साथ लेकर ये गयाधाम के लिये चल पड़े।

इस प्रकार ये अपने सभी साथियों के साथ आनन्द मनाते ओर प्रेम में श्रीकृष्ण-कीर्तन करते हुए मन्दार नामक स्थान में पहुँचे। इन स्थान में पहुँचकर इन्हें बड़े जोरों से ज्वर आ गया। इनके साथी इनकी ऐसी दशा देखकर बहुत अधिक चिन्तित हुए और भाँति-भाँति के उपचार करने लगे, किन्तु इन्हें किसी प्रकार भी लाभ नहीं हुआ। अन्त में इन्होंने अपनी ओषधि अपने-आप ही बतायी। इन्होंने कहा- ‘मेरी व्याधि इन प्राकृतिक ओषधियों से न जायगी।

यह रोग तो असाध्य है, इसकी एकमात्र ओषधि है भगवत्कृपा! भगवान की प्रसन्नता का सर्वश्रेष्ठ साधन है ब्राह्मणों की अर्चा-पूजा। श्रीमद्भागवत में भगवान ने अग्नि और ब्राह्मण अपने दो ही मुख बताये हैं, उनमें ब्राह्मण को ही सर्वोत्तम सुख बताया है। वे अपने श्रीमुख से ही सनकादि महर्षियों की स्तुति करते हुए कहते हैं-

नाहं तथाग्नि यजमानहविर्विताने

श्च्योतद्घृतप्लुतमदन् हुतभुड्मुखेन।

यद् ब्रह्मणस्य मुखतश्चरतोऽनुघासं

तुष्टस्य मय्यवहितैर्निजकर्मपाकैः।।

अर्थात भगवान कहते हैं ‘मेरे अग्नि और ब्राह्मण ये दो मुख हैं, इनमें ब्राह्मण ही मेरा श्रेष्ठ मुख है, जिन्होंने अपने सम्पूर्ण कर्मों को मेरे ही अर्पण कर दिया है और जो सदा सन्तुष्ट ही रहते हैं, ऐसा ब्राह्मण जो टपकते हुए घृत से व्याप्त सुस्वादु अन्न के व्यंजनों को खाता है, उसके प्रत्येक ग्रास के साथ मैं ही उस अन्न के रस का आस्वादन करता हूँ। उस ब्राह्मण की तृप्ति से जितना मैं तुष्ट होता हूँ, उतना यज्ञ में अग्निद्वारा, यजमान के अर्पण किये हुए कवि आदि से नहीं होता।’ ‘जिन ब्राह्मणों की ऐसी महिमा साक्षात भगवान ने अपने श्रीमुख से वर्णन की है, उन्हीं का पादोदक पान करने से मेरा यह रोग शमन हो सकेगा।’

यह सुनकर एक सरल- से विद्यार्थी ने प्रश्न किया- ‘गुरुजी! जो ब्राह्मण नहीं हैं केवल ब्रह्मबन्धु हैं[1] उनका तो इतना सत्कार नहीं करना चाहिये। वे तो केवल काष्ठ की हस्ती के समान नाममात्र के ही ब्राह्मण हैं, जैसे काष्ठ के हाथी से हाथीपने का कोई भी काम नहीं चलने का, उसी प्रकार जो अपने धर्म-कर्म से हीन है, जिसने विद्या प्राप्त नहीं की, उस नाममात्र के ब्राह्मण का हम आदर क्यों करें?’

निमाई पण्डित ने थोड़ी देर सोचने के अनन्तर कहा- ‘तुम्हारा कथन एक प्रकार से ठीक ही है, जो अपने धर्म-कर्म से रहित है, वह तो दूध न देने वाली वन्ध्या गौ के समान है, उससे संसारी स्वार्थ कोई सध नहीं सकता। फिर भी जो सभी कामों को सकाम भाव से नहीं करते हैं, जो श्रद्धा के साथ शास्त्रों की आज्ञानुसार अपने को ही सुधारने का सदा प्रयत्न करते रहते हैं, वे दूसरों के दोषों के प्रति उदासीन रहते हैं। हम दोषदृष्टि से देखना आरम्भ करेंगे तब तो संसार में एक भी मनुष्य दोष से रहित दृष्टिगोचर नहीं होगा। संसार ही दोष-गुण के सम्मिश्रण से बना है! इसलिये अपनी बुद्धि को संकुचित बनाकर गौ की सेवा करने में यह बुद्धि रखना ठीक नहीं कि जो गौ अधिक दूध देगी हम उसी की सेवा करेंगे। जो दूध नहीं देती, उससे हमें क्या मतलब? ऐसी बुद्धि रखने से तो विचारों में संकुचितता आ जायगी। तुम तो शास्त्र की आज्ञा समझकर गौमात्र में श्रद्धा रखो। यह तो स्वाभाविक ही होगा कि जो गौ सुशील, सुन्दर तथा दुधारी होगी, उसकी सभी लोग इच्छा-अनिच्छापूर्वक सेवा-शुश्रूषा करेंगे और अश्रद्धालु पुरुषों को भी सुमिष्ट दूध के लालच से प्रभावान्वित होकर ऐसी गौ की सेवा करते हुए देखा गया है, किन्तु यह सर्वश्रेष्ठ पक्ष नहीं है।

सर्वश्रेष्ठ तो यही है कि मन में किसी भी प्रकार का पक्षपात न करके केवल शास्त्राज्ञा समझकर और अपना कर्तव्य मानकर गो-ब्राह्मणमात्र की सेवा करें। किन्तु ऐसे श्रद्धालु संसार में बहुत ही थोडे़ होते हैं। भगवान ने स्वयं क्रुद्ध हुए भृगु को अपनी छाती में जोर से लात मारते देखकर बड़ी नम्रता से दुःख प्रकट करते हुए कहा था- अतीव कोमलौ तात चरणौ ते महामुने।

अर्थात हे ब्राह्मणदेव! आपके कोमल चरणारविन्दों को मेरी इस वज्र-सी छाती में लगने पर बड़ा कष्ट हुआ होगा।

ये बहुत ऊँचे साधक के भाव हैं, जो संसारी मान-प्रतिष्ठा तथा धन और विषयभोगों की इच्छा को सर्वथा त्याग कर एकमात्र भगवत-कृपा को ही अपने जीवन का चरम लक्ष्य समझकर सभी कार्यों को करते हैं, उन्हीं के लिये भगवान अपने श्रीमुख से फिर स्वयं उपदेश करते हैं-

ये ब्राह्मणान्मयि धिया क्षिपतोऽर्चयन्त-

स्तुष्यद्धृदः स्मितसुधोक्षितपद्मवक्त्राः।

वाण्यानुरागकलयात्मजवद्गृणन्तः

सम्बोधयन्त्यहमिवाहमुपाहृतस्तैः।।

‘जो पुरुष वासुदेव-बुद्धि रखकर कठोर बोलने वाले ब्राह्मणों की भी प्रसन्न अन्तःकरण से कमल के समान प्रफुल्लित मुख द्वारा अपनी अमृतमयी वाणी से प्रसन्नचित्त होकर स्तुति करते हैं और पिता के क्रुद्ध होने पर जिस प्रकार पुत्रादि क्रुद्ध न होकर उनका सत्कार ही करते हैं, उसी प्रकार उन्हें प्रेमपूर्वक बुलाते हैं, तो समझ लो ऐसे पुरुषों ने मुझे अपने वश में ही कर लिया है।’ क्रुद्ध होने वाले किसी भी प्राणी पर जो क्रोध नहीं करता वही सच्चा साधक और परमार्थी है। प्रभु के पाद-पद्मों की प्राप्ति ही जिसका एकमात्र लक्ष्य है, उसके हृदय में दूसरों के प्रति असम्मान के भाव आ ही नहीं सकते। इसलिये तुम लोग शीघ्र जाकर इस ग्राम के किसी ब्राह्मण का पादोदक लाकर मेरे मुख में डाल दो।’

इनकी आज्ञा पाकर दो-तीन विद्यार्थी गये और एक परम शुद्ध वैष्णव ब्राह्मण के चरणों को धोकर उसका चरणोदक ले आये। यह तो इनकी लोगों को ब्राह्मणों का महत्त्व प्रदर्शित करने की लीला थी। चरणोदक का पान करते ही ये झट से अच्छे हो गये और अपने सभी साथियों के साथ आगे बढ़ने लगे। पुनपुना-तीर्थ में पहुँचकर इन सब लोगों ने पुनपुन नाम की नदी में स्नान किया और सभी ने अपने-अपने पितरों का श्राद्धादि कराया। इसके अनन्तर सभी श्रीगयाधाम में पहुँच गये।

ब्रह्मकुण्ड में स्नान और देव-पितृ-श्राद्धादि करके निमाई पण्डित अपने साथियों के सहित चक्रवेड़ा के भीतर विष्णु-पाद-पद्मों के दर्शनों के निमित्त गये। ब्राह्मणों ने पाद-पद्मों पर माला-पुष्प चढ़ाने को कहा। ये अपने विद्यार्थियों के द्वारा गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, माला आदि सभी पूजन की बहुत-सी सामग्री साथ लिवाते गये थे।

गयाधाम के तीर्थ-पण्डा जोरों से पाद-पद्मों का प्रभाव वर्णन कर रहे थे। वे उच्च स्वर से कह रहे थे- ‘इन्हीं पाद-पद्मों के धोवन से जगत-पावनी मुनि-मन-हारिणी भगवती भागीरथी की उत्पत्ति हुई है। इन्हीं चरणों का लक्ष्मी जी बड़ी श्रद्धा के साथ निरन्तर सेवन करती रहती हैं। इन्हीं चरणों का ध्यान योगीजन अपने हृदय-कमल में निरन्तर करते रहते हैं। इन्हीं चरणों को प्रभु ने गयासुर के मस्तक पर रखकर उसे सद्गति प्रदान की थी।’

असंख्य लोगों की भीड़ थी, हजारों आदमी पाद-पद्मों के दर्शन कर रहे थे और बीच-बीच में जय-घोष करते जाते थे। पण्डा लोग उनसे भेंट चढ़ाने का आग्रह कर रहे थे। बार-बार पाद-पद्मों का पुण्य-माहात्म्य सुनाया जा रहा था। पाद-पद्मों का माहात्म्य सुनते ही निमाई पण्डित आत्मविस्मृत हो गये। उन्हें शरीर का होश नहीं रहा। शरीर थर-थर काँपने लगा, युगल अरुण ओष्ठ कोमल पल्लव की भाँति हिलने लगे। आँखों से निरन्तर अश्रुधारा बहने लगी। उनके चेहरे से भारी तेज निकल रहा था। वे एकटक पाद-पद्मों की ओर निहार रहे थे। वे कहाँ खड़े हैं, उनके पास कौन है, किसने उन्हें स्पर्श किया, इन सभी बातों का उन्हें कुछ भी पता नहीं है। वे संज्ञाशून्य-से होकर काँप रहे हैं, उनका शरीर उनके वश में नहीं है, वे मूर्च्छित होकर गिरने वाले ही थे कि सहसा एक तेजस्वी संन्यासी का सहारा लगने से वे गिरने से बच गये। उनके साथियों ने उन्हें पकड़ा और भीड़ से हटाकर जल्दी से बाहर ले गये।

बाहर पहुँचकर उन्हें कुछ होश आया और वे निद्रा से उठे मनुष्य की भाँति अपने चारों ओर आँखें उठा-उठाकर देखने लगे। सहसा उनकी दृष्टि एक लम्बे-से तेजस्वी संन्यासी पर पड़ी। वे उन्हें देखकर एक साथ चौंक उठे, उनके आनन्द का वारापार नहीं रहा। इन्होंने दौड़कर संन्यासी जी के चरण पकड़ लिये। अपनी आँखों से अश्रुविमोचन करते हुए संन्यासी ने इन्हें उठाकर गले से लगा लिया। इनके स्पर्शमात्र से संन्यासी महाशय बेहोश हो गये। दोनों ही आत्मविस्मृत थे। दोनों को ही शरीर का होश नहीं था, दोनों ही प्रेम में विभोर होकर अश्रुविमोचन कर रहे थे। यात्री इन दोनों के ऐसे अलौकिक प्रेम को देखकर आनन्द-सागर में गोते खाने लगे। बहुत-से लोग रास्ता चलते-चलते खड़े हो गये। चारों ओर से लोगों की भीड़ लग गयी। कुछ काल में संन्यासी को कुछ-कुछ चेतना हुई। उन्होंने बड़े ही प्रेम से इनका हाथ पकड़कर एक ओर बिठाया और अत्यन्त प्रेमपूर्ण वाणी से वे कहने लगे- ‘निमाई पण्डित! आज मेरा भाग्योदय हुआ जो सहसा मुझे तुम्हारे दर्शन हो गये।

नवद्वीप में ही मेरा हृदय तुम्हारी ओर स्वाभाविक ही खिंचा-सा जाता था। मुझसे लोग कहते- ‘निमाई पण्डित कोरे पोथी के ही पण्डित हैं, बड़े चंचल हैं, देवता तथा वैष्णवों की खिल्लियाँ उड़ाते हैं। आप उनहें अपना ‘श्रीकृष्णलीलामृत’ सुनाकर क्या लाभ उठावेंगे?’ कोई-कोई तो यहाँ तक कहता- ‘अजी, ये तो पूरे नास्तिक हैं। वैष्णवों को छेड़ने में ही इन्हें मजा आता है।’ मैं उन सबकी बातें सुनता और चुप हो जाता। मेरा अन्तःकरण इन बातों को कभी स्वीकार ही नहीं करता था। मैं बार-बार यही सोचता था- ‘निमाई पण्डित- जैसे सरस, सरल, सहृदय और भावुक पुरुष, भक्तिहीन कभी हो नहीं सकते। इनके मुख का तेज ही इनकी भावी शक्ति का परिचय दे रहा है। आज आपके दर्शन के समय के भाव को देखकर मेरे आनन्द की सीमा नहीं रही। मैं कृतकृत्य हो गया।

भगवत-दर्शन से जो आनन्द मिलता है, उसी आनन्द का मैं अनुभव कर रहा हूँ। मैं अपने आनन्द को प्रकट करने में असमर्थ हूँ।’ इतना कहते-कहते संन्यासी महाशय का गला भर आया। आगे वे कुछ और भी कहना चाहते थे, किन्तु कह नहीं सके। उनके नेत्रों में से अश्रुधारा अब भी पूर्ववत बह रही थी।

संन्यासी महाराज की बातें सुनते-सुनते इन्हें कुछ चेतना हो गयी थी। इसलिये रूँधे हुए कण्ठ से कुछ अस्पष्ट स्वर में इन्होंने कहा- ‘प्रभो! आज मैं कृतार्थ हुआ। मेरी गया-यात्रा सफल हुई। मेरी असंख्यों पीढि़यों का उद्धार हो गया, जो यहाँ आने पर आपके दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ। तीर्थ में श्राद्ध करने पर तो उन्हीं पितरों की मुक्ति होती है, जिनके निमित्त श्राद्ध-तर्पणादि कर्म किये जाते हैं, किन्तु आप-जैसे परम भागवत वैष्णवों के दर्शन से तो करोड़ों पीढ़ियों के पितर स्वतः ही मुक्त हो जाते हैं। सब लोगों को आपके दर्शन दुर्लभ हैं। जिनका भाग्योदय होता है, उन्हीं को आपके दर्शन होते हैं।’ यह कहते-कहते इन्होंने फिर से संन्यासी महाशय के चरण पकड़ लिये।

संन्यासी जी ने हठपूर्वक अपने चरण छुड़ाये और इन्हें प्रेम वाक्यों से आश्वासन दिया। पाठक समझ ही गये होंगे ये संन्यासी महाशय कौन हैं। ये वे ही भक्ति-बीज के अंकुरित करने वाले श्रीमन्माधवेन्द्रपुरी जी के सर्वप्रधान प्रिय शिष्य श्री ईश्वरपुरी हैं, जिन्हें अन्तिम समय में गुरुदेव अपना सम्पूर्ण तेज प्रदान करके इस संसार से तिरोहित हो गये थे। नवद्वीप के प्रथम मिलन में ही ये निमाई पण्डित के अलौकिक तेज और अद्वितीय रूप-लावण्य पर मुग्ध होकर इन्हें एकटक देखते-के-देखते ही रह गये थे। इन्हें इस प्रकार देखते देखकर निमाई पण्डित ने हँसकर कहा था- ‘आज हमारे घर ही भिक्षा कीजियेगा, तभी हमें दिनभर भलीभाँति देखते रहने का सुअवसर प्राप्त हो सकेगा।’

उनकी प्रार्थना पर ये उनके घर भिक्षा करने गये थे और कुछ काल तक अपने स्वसम्पादित ग्रन्थ ‘श्रीकृष्णलीलामृत’ को भी उन्हें सुनाते रहे। तभी से पुरी महाशय के हृदय-पटल पर इनकी प्रेममयी मनोहर मूर्ति खिंच गयी थी। आज सहसा भेंट हो जाने पर दोनों ही आनन्द में डूब गये और आनन्द के उद्वेग में ही उपर्युक्त बातें हुई थीं। पुरी महाशय की आज्ञा लेकर निमाई पण्डित अपने स्थान के लिये विदा हुए। स्थान पर पहुँचकर इन्होंने साथियों को संग लेकर गया के सभी मुख्य-मुख्य तीर्थों के दर्शन किये और वहाँ जाकर यथाविधि शास्त्ररीत्यनुसार श्राद्ध और पिण्डादि पितृ-कर्म किये।

अन्तः सलिता भगवती फल्गुनदी में जाकर इन्होंने पितरों के लिये बालुका के पिण्ड दिये। फल्गुका प्रवाह गुप्त है। उसका जल नीचे-ही-नीचे बहता है। ऊपर से बालू ढकी रहती है। बालू को हटाकर जल निकाला जाता है और यात्री उससे स्नान-सन्ध्यादि कृत्य करते हैं। प्रेत-गया, राम-गया, युधिष्ठिर-गया, भीम-गया, शिव-गया आदि सोलहों गया में निमाई पण्डित ने अपने साथियों के साथ जा-जाकर पितरों के पिण्ड और श्राद्धादि कर्म किये, सब स्थानों में दर्शन तथा श्राद्ध करके ये अपने ठहरने के स्थान पर लौट आये।

क्रमशः अगला पोस्ट [36]

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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]



, Shri Hari:.

[Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram

trip to srigayadham

Whatever the best does, that is what the other person does.

Whatever evidence he establishes the world follows

It is the day of Ashwin Shukla Dashami. It was on this day that Lord Shriramchandra had marched to conquer Lanka. There is rejoicing in every house. This day itself is considered to be the end of the rainy season. Traders travel to foreign countries for the sake of commerce on this day itself. On this day, the Nripatigans go out of the state-boundaries by decorating their respective armies for the sake of conquering other countries. Parivrajak, who stays at one place for four months, starts traveling again on this day itself. Pilgrims also leave for the journey on this day itself. Many travelers from now Navadweep were also going to visit Gayadham. Gaurang’s uncle Pt. Chandrashekhar also wanted to go to Gaya, he expressed his wish to Nimai. He expressed great happiness on hearing this. Taking the permission of the mother, he also decided to travel to Gaya ji along with some of his friends and students. After collecting all the things, he took other people along with him and left for Gayadham.

In this way, rejoicing with all his companions and singing Shri Krishna-Kirtan in love, he reached a place called Mandar. After reaching this place, he got very high fever. Seeing his condition like this, his companions became very worried and started doing various treatments, but they did not benefit in any way. In the end, he himself told his medicine. He said- ‘My disease will not go away with these natural medicines.

This disease is incurable, its only medicine is God’s grace! The best means of pleasing God is the worship of Brahmins. In Shrimad Bhagwat, God has described Agni and Brahmin as his two faces, among them only Brahmin has been described as the best happiness. He praises Sankadi Maharishi from his head and says-

I am not so in the fire sacrificial offering

They ate the lighted butter with their mouths full of burnt food.

That which is the smell of the walking from the mouth of the Brahman

Satisfied with the cooking of his own actions devoted to Me.

That is, God says ‘My Agni and Brahmin are my two faces, Brahmin is my best mouth among them, who has surrendered all his actions to me and who is always satisfied, such a Brahmin who is filled with delicious ghee dripping. One eats dishes of food, with each of its grass I taste the juice of that food. As much as I am satisfied by the satisfaction of that Brahmin, I am not satisfied as much by the fire in the yagya, the poet offered by the host, etc. ‘By drinking Padodak of those Brahmins whose glory has been described by God in person. This disease of mine will be cured.

Hearing this, a simple student asked – ‘ Guruji! Those who are not Brahmins but only Brahmabandhus[1] should not be respected so much. They are only nominal brahmins like a wooden figure, just like a wooden elephant has no work to do with an elephant; Why should we respect?’

Nimai Pandit said after thinking for a while – ‘ Your statement is correct in a way, the one who is devoid of her religious deeds, she is like a barren cow that does not give milk, no worldly interest can be achieved by her. Nevertheless, those who do not do all work with fruition, who always try to improve themselves according to the instructions of the scriptures with devotion, they remain indifferent to the faults of others. If we start seeing from the point of view of faults, then not a single person in the world will be visible without faults. The world itself is made of a mixture of virtues and vices. That’s why it is not right to serve the cow by making your intellect narrow and having the intellect that we will serve the cow which gives more milk. What do we mean by the one who does not give milk? Having such an intellect will lead to narrow mindedness. You understand the injunctions of the scriptures and have faith in the cow. It would be natural that the cow which is gentle, beautiful and milk-loving, all people will serve-groom her willingly-reluctantly, and unfaithful men have also been seen serving such a cow by being influenced by the greed of sumisht milk, but this is the best. is not a party.

The best thing is that without any kind of partiality in the mind, only considering the scriptures and considering it as your duty, serve the cow-Brahmin only. But such devotees are very few in the world. Seeing angry Bhrigu kicking him hard in the chest, the Lord Himself expressed sorrow with great humility and said – Ativa Komlau Tat Charanau Te Mahamune.

That means O Brahmin Dev! It must have been a great pain for your soft feet to hit my thunderbolt-like chest.

These are the feelings of a very high seeker, who, renouncing the desire for worldly honor and wealth and sensual pleasures, does all the works considering only God’s grace as the ultimate goal of his life, for them God himself again from his head. preaches-

Those who worshiped the Brahmins who threw their minds at me-

Their hearts were praised and their lotus faces were sprinkled with the nectar of their smiles

singing like the sons of the art of passion for speech

They address me as if I were brought by them

‘The man who, having Vasudev-intelligence, praises even the harsh-speaking Brahmins with a happy heart, with a mouth full of nectar like a lotus, and the way a son does not get angry when his father is angry, he is the same. If you call them lovingly, then understand that such men have taken me under their control.’ The one who does not get angry on any creature who gets angry, he is a true seeker and a benefactor. The one whose only goal is to attain the feet of the Lord, the feeling of disrespect towards others cannot come in his heart. That’s why you guys go quickly and bring a padodak of a Brahmin of this village and put it in my mouth.’

After getting his permission, two or three students went and after washing the feet of a most pure Vaishnav Brahmin, brought him to his feet. This was his leela to show the importance of Brahmins to his people. As soon as he drank Charanodak, he immediately became better and started moving forward with all his companions. After reaching Punpuna-tirtha, all these people took bath in the river named Punpuna and all of them performed Shraddha for their ancestors. After this everyone reached Shri Gayadham.

After bathing in the Brahmakund and paying obeisance to the gods and ancestors, Nimai Pandit along with his companions went inside Chakraveda for the darshan of Vishnu-Pada-Padma. Brahmins asked to offer garlands and flowers on the lotus feet. He used to get many materials of worship like smell, flowers, incense, lamps, garlands etc. by his students.

The pilgrims of Gayadham were loudly describing the effect of padma-padma. He was saying in a loud voice- ‘The world-purifier Muni-mind-harini Bhagwati Bhagirathi was born from the washing of these feet and lotuses. Lakshmi ji continues to consume these feet with great devotion. Yogis keep meditating on these feet continuously in their heart-lotus. By placing these feet on the head of Gayasur, the Lord gave him salvation.

There was a crowd of innumerable people, thousands of people were having darshan of Pad-Padma and used to shout Jai-Ghosh in between. Panda people were urging them to offer gifts. The virtues and greatness of the lotus feet were being recited again and again. Nimai Pandit became self-forgetful on hearing the greatness of Pada-Padama. He was not conscious of his body. The body started trembling, the couple Arun’s lips started moving like a soft Pallava. Tears started flowing continuously from the eyes. There was a lot of brightness coming out of his face. He was staring at the lotus feet. Where He is standing, who is with Him, who has touched Him, all these things He has no idea. They are trembling through unconsciousness, their body is not under their control, they were about to fall unconscious when suddenly they were saved from falling due to the support of a bright monk. His companions caught hold of him and removed him from the crowd and quickly took him outside.

After reaching outside, he regained consciousness and like a man who has woken up from sleep, he started looking around with his eyes raised. Suddenly his eyes fell on a tall and bright monk. They were shocked to see him together, their joy knew no bounds. He ran and took hold of the feet of the monk. While releasing tears from his eyes, the monk picked him up and hugged him. The monk fell unconscious just by his touch. Both were self-forgetful. Both were not conscious of the body, both were shedding tears in love. Seeing such supernatural love of these two, the travelers started diving in the ocean of joy. Many people stood up while walking on the road. There was a crowd of people from all around. After some time the sannyasin regained some consciousness. He held his hand with great love and made him sit on one side and with a very loving voice he started saying – ‘Nimai Pandit! Today I got lucky that suddenly I got to see you.

In Navadvipa itself, my heart was naturally drawn towards you. People say to me- ‘Nimai Pandit is a pundit of Kore Pothi, he is very fickle, he makes fun of Gods and Vaishnavas. What benefit will you get by reciting your ‘Shri Krishna Leelamrit’ to him?’ Some even say – ‘Aji, he is a complete atheist. They only enjoy teasing Vaishnavas.’ I used to listen to all of them and became silent. My conscience never accepted these things. I used to think again and again- ‘ Nimai Pandit- a man like Saras, simple, kind hearted and emotional, can never be without devotion. The brightness of his face is giving the introduction of his future power. There is no limit to my joy seeing the sense of time of your darshan today. I am grateful.

I am experiencing the joy that comes from seeing God. I am unable to express my joy.’ Sanyasi sir’s throat choked while saying this. Further, he wanted to say something else, but could not. Tears were still flowing from his eyes as before.

While listening to the words of Sanyasi Maharaj, he got some consciousness. That’s why he said in some indistinct voice with choked throat – ‘ Lord! Today I am grateful. My trip to Gaya was successful. My innumerable generations have been saved, who got the good fortune of your darshan on coming here. By performing Shraddha in pilgrimage, only those ancestors are liberated, for whose sake Shraddha-Tarpanadi Karma is performed, but by seeing Param Bhagwat Vaishnavs like you, the ancestors of crores of generations automatically get liberated. Your darshan to all people is rare. Those who have good luck, they only get your darshan.’ Saying this, he once again took hold of the feet of Sanyasi Mahasaya.

Sanyasi ji stubbornly freed his feet and assured him with words of love. Readers must have understood who is this monk. This is the very most beloved disciple of Shrimanmadhavendrapuri ji, Shri Ishwarpuri, who sprouted the seed of devotion, to whom Gurudev had disappeared from this world by giving him all his glory at the last moment. In the very first meeting of Navadvipa, he was mesmerized by Nimai Pandit’s supernatural brightness and unique beauty and kept looking at him. Seeing him like this, Nimai Pandit had said with a smile- ‘Today, do alms at our house, only then we will get the opportunity to keep seeing him well for the whole day.’

On his request, he went to his house for alms and kept narrating his self-edited book ‘Srikrishnalilamrit’ to him for some time. Since then, her loving and charming idol was drawn on the heart of Puri Mahasaya. Today, on meeting suddenly, both of them drowned in joy and in the excitement of joy the above mentioned things happened. Taking permission from Puri Mahasaya, Nimai Pandit left for his place. After reaching the place, he took his companions with him and visited all the main pilgrimages of Gaya and went there and performed Shraddha and Pindadi Pitra-Karma according to the scriptures.

Finally Salita Bhagwati went to Falgundi and gave sand balls for the ancestors. Falguka flow is secret. Its water flows from bottom to bottom. It is covered with sand from above. Water is extracted by removing the sand and the pilgrims perform bath-evening rituals with it. In Pret-Gaya, Ram-Gaya, Yudhishthira-Gaya, Bhim-Gaya, Shiv-Gaya etc. in sixteen Gayas, Nimai Pandit with his companions performed rituals for ancestors and Shraddhas. Returned to the place of stay.

respectively next post [36]

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[From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]

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