।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
प्रेम-स्त्रोत उमड़ पड़ा
श्रृण्वन्सुभद्राणि रथांगपाणे-
र्जन्मानि कर्माणि च यानिलोके।
गीतानि नामानि तदर्थकानि
गायन्विलज्जो विचरेदसंगः।।
संसार में उन्हीं मनुष्यों का जीवन धारण करना सार्थक कहा जा सकता है, जिनके हृदय-पटल पर हर समय मुरली मनोहर मुकुन्द की मंजुल मूर्ति नृत्य करती रहती हो। जिनके कर्ण-रन्ध्रों में प्रतिक्षण मनोहर मुरली की मधुर तान सुनायी पड़ती रहती हो। जिनके चक्षु भगवान की मूर्ति के अतिरिक्त किसी अन्य वस्तु का दर्शन ही न करना चाहते हों, जिनका मनमधुप सदा भक्त-भयहारी भगवान के चरण-कमलों का मधुरातिमधुर मकरन्द-पान करता रहता हो, ऐसे शुभ-दर्शन भक्त स्वयं तो कृतकृत्य होते ही हैं, वे सम्पूर्ण संसार को भी अपनी पद-रज से पावन बना देते हैं। उनकी वाणी में उन्माद होता है, दृष्टि में जीवों को अपनी ओर आकर्षित करने की शक्ति होती है, उनके सभी कार्य अलौकिक होते हैं, उनके सम्पूर्ण कार्य लोकबाह्य और संसार के कल्याण करने वाले ही होते हैं।
निमाई पण्डित की हृदय-कन्दरा में से जो त्रैलोक्यपावन प्रेम-स्त्रोत उमड़ने वाला था, जिसका सूत्रपात चिरकाल से हो रहा था, अद्वैताचार्य आदि भक्तगण जिसकी लालसा लगाये वर्षों से प्रतीक्षा कर रहे थे, उस स्त्रोत का पृथ्वी पर परिस्फुट होने का सुहावना समय अब सन्निकट आ पहुँचा। जगत-विख्यात गयाधाम को ही उसके प्रकट करने का अखण्ड यश प्राप्त हो सका। यही पावन पृथ्वी इसका कारण बन सकी। अहा ‘वसुन्धरा पुण्यवती च तेन’। सचमुच वह वसुन्धरा बड़भागिनी है, जिसका संसर्ग किसी महापुरुष की लोकविख्यात घटना के साथ हो सके। वही संसार में पावन तीर्थ के नाम से विख्यात हो जाता है। निमाई पण्डित अपने निवास स्थान पर अन्य साथियों के साथ भोजन बना रहे थे। दाल-साग बनकर तैयार हो चुके थे। चूल्हे में से थोड़ी अग्नि निकालकर दाल को उस पर रख दिया था। साग दूसरी ओर चौके में ही रखा था। चूल्हे पर भात बन रहा था। निमाई उसे बार-बार देखते। चावल तैयार तो हो चुके थे, किन्तु उनमें थोड़ा-सा जल और शेष था, उसे जलाने के लिये और भात केा शुष्क बनाने के लिये हमारे पण्डित ने उसे ढक दिया था। थोड़ी देर बाद वे कटोरी को भात पर से उतार ही रहे थे कि इतने में ही उन्हें दूर से पुरी महाशय अपनी ओर आते हुए दिखायी दिये। कटोरी को ज्यों-की-त्यों ही पृथ्वी पर पटककर ये उनकी चरण-वन्दना करने के लिये दौड़े। पुरी ने प्रेमपूर्वक इनका आलिंगन किया और वे हँसते हुए बोले- ‘अपने स्थान से किसी शुभ मुहूर्त में ही चले थे, जो ठीक तैयारी के समय पर आ पहुँचे।’
नम्रता के साथ निमाई पण्डित ने उत्तर दिया- ‘जिस समय भाग्योदय होता है और पुण्य-कर्मों के संस्कार जागृत होते हैं, उस समय आप-जैसे महानुभावों के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त होता है। भोजन बिलकुल तैयार है, हाथ-पैर धोइये ओर भिक्षा प्रेम-स्त्रोत उमड़ पड़ाकरने की कृपा कीजिये।’
हँसते हुए पुरी महाशय बोले- ‘यह खूब कही, अपने लिये बनाये हुए अन्न को हमें ही खिला दोगे, तब तुम क्या खाओगे?’ नम्रता के साथ नीची निगाह करके इन्होंने उत्तर दिया- ‘अन्न तो आप ही का है, मैं तो केवल रन्धन करने वाला पाचकमात्र हूँ, आज्ञा होगी तो और बना दूँगा।’ पुरी ने देखा ये भिक्षा बिना कराये मानेंगे नहीं। इसलिये बोले- ‘अच्छा, फिर से बनाने की क्या आवश्यकता है, जो बना है उसी में से आधा-आधा बाँटकर खा लेंगे। क्यों मंजूर है न? किन्तु हम ठहरे संन्यासी और तुम ठहरे गृहस्थी। हमारी भिक्षा होगी और तुम्हारा होगा भोजन। इस प्रकार कैसे काम चलेगा? तुम भी थोड़ी देर के लिये भिक्षा ही कर लेना।’
कुछ हँसते हुए निमाई पण्डित ने कहा- ‘अच्छा, जैसी आज्ञा होगी, वही होगा। आप पहले हाथ-पैर तो धावें।’ यह कह इन्होंने अपने हाथों से पुरी जी के पैर धोये और उन्हें एक सुन्दर आसन पर बिठाया। पुरी महाशय बैठकर भोजन करने लगे। जब निमाई-जैसे प्रेमावतार परोसने वाले हों, तब भला फिर किसी तृप्ति हो सकती है, धीरे-धीरे इन्होंने आग्रह कर-करके सभी सामान पुरी महाशय को परोस दिया और वे भी प्रेम के वशीभूत होकर सारा खा गये। अग्नि तो जल ही रही थी, क्षणभर में ही दूसरी बार भी भोजन तैयार हो गया मानो अन्नपूर्ण ने आकर स्वयं ही भोजन तैयार कर दिया हो। भोजन तैयार होने पर इन्होंने भी भोजन किया और फिर परस्पर बातें होने लगीं।
हाथ जोड़े हुए निमाई पण्डित ने कहा- ‘भगवन! अब तो हमें बहुत दिन इस ब्राह्यवृत्ति के जीवन को बिताते हुए हो गये, अब हमें अपने चरणों की शरण प्रदान कीजिये। कृपा करके थोड़ी-बहुत श्रीकृष्णभक्ति हमें भी दीजिये।’
इनकी बात का उत्तर देते हुए पुरी महाशय ने कहा- ‘आप तो स्वयं ही श्रीकृष्ण-स्वरूप हैं, आपको भला भक्ति कौन प्रदान कर सकता है? आप स्वयं ही सम्पूर्णज्ञ संसार को प्रेम-प्रदान कर सकते हैं।’ दीनता के साथ इन्होंने कहा- ‘प्रभो! मेरी वंचना न कीजिये। मेरी प्रार्थना स्वीकृत कीजिये और मुझे श्रीकृष्ण-मन्त्र प्रदान कर दीजिये।’ पुरी ने सरलता के साथ कहा- ‘आप श्रीकृष्ण-मन्त्र प्रदान करने को ही कहते हैं, हम आपके कहने पर अपने प्राण प्रदान कर सकते हैं, किन्तु हममें इतनी योग्यता हो तब तो? हम स्वयं अधम हैं।
प्रेम का रहस्य हम स्वयं नहीं जानते फिर आप-जैसे कुलीन और विद्वान ब्राह्मण को हम मन्त्र प्रदान कैसे कर सकेंगे?’ बड़ी सरलता के साथ आँखों में आँसू भरे हुए इन्होंने उत्तर दिया- ‘आप सर्वसामर्थ्यवान हैं, आप स्वयं ईश्वर हैं। आपका श्रीविग्रह ही प्रेम की सजीव मूर्ति है। आप चाहें तो संसार भर को प्रेम-पीयूष में प्लावित कर सकते हैं।’ कुछ विवशता दिखाते हुए पुरी ने कहा- ‘संसार को प्रेम-पीयूष के पुण्य-पयोधि में परिप्लावित करने की एकमात्र शक्ति तो आप में ही है, किन्तु आप अपने गुरुपद के गुरुतर गौरव का सौभाग्य मुझे ही प्रदान करना चाहते हैं, तो मैं विवस हूँ। आपकी आज्ञा को टाल ही कौन प्रेम-स्त्रोत उमड़ पड़ा सकता है। जैसी आपकी आज्ञा होगी, उसी प्रकार मैं करने के लिये तैयार हूँ।’ इतना कहकर पुरी महाशय मन्त्र-दीक्षा देने के लिये तैयार हो गये। उसी समय पत्रा देखकर दीक्षा की शुभ तिथि निश्चित की गयी। नियत तिथि आ गयी।
निमाई पण्डित नवीन उल्लास और आनन्द के साथ मन्त्र-दीक्षा लेने के लिये तैयार हो गये। इनके सभी साथियों ने उस दिन दीक्षोत्सव के उपलक्ष्य में खूब तैयारियाँ की थीं। नियत समय पर पुरी महाशय आ गये। उनकी पद-धूलि इन्होंने मस्तक पर चढ़ाई और स्वस्त्ययन के पुण्य-श्लोक पढ़कर और भगवान के मधुर-मंजुल नामों का संकीर्तन करने के अनन्तर पुरी महाशय ने इनके कान में ‘गोपीजनवल्लभाय नमः’ इस दशाक्षरमन्त्र का उपदेश कर दिया। मन्त्र के श्रवणमात्र से ही ये मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े और इन्हें अपने शरीर का बिलकुल ही होश नहीं रहा। साथियों ने भाँति-भाँति के उपचार करके इन्हें सावधान किया। बहुत देर के अनन्तर इन्हें कुछ होश हुआ। तब तो इनकी विचित्र ही दशा हो गयी। कभी तो खूब जोरों के साथ हँसते, कभी रोते और कभी ‘हा कृष्ण! हा पिता!’ ऐसा कहकर जोरों से रुदन करते। कभी यह कहते हुए कि ‘मैं तो श्रीकृष्ण के पास व्रज में जाऊँगा’ व्रज की ओर भागते। इनके साथी इन्हें पकड़-पकड़कर लाते, किन्तु ये पागलों की भाँति उनसे अपने शरीर को छुड़ा-छुड़ाकर भागते। कभी फिर उसी भाँति जोरों से प्रलाप करने लगते। रोते-रोते कहते- ‘प्यारे! मुझे छोड़कर तुम कहाँ चले गये? मेरे कृष्ण! मुझे अपने साथ ही ले चलो।’ इतना कहकर फिर जोरों से रोने लगते।
कभी रोते-रोते अपने विद्यार्थियों तथा साथियों से कहते- ‘भैया! तुम लोग अब अपने-अपने घर जाओ। अब हम लौटकर घर नहीं जायँगे, हम तो अब श्रीकृष्ण के पास वृन्दावन में ही जाकर रहेंगे। हमारी माता को हमारा हाथ जोड़कर प्रणाम कहना और कह देना तेरा निमाई तो पागल हो गया है।’ इनके सभी साथी इनकी ऐसी अलौकिक दशा देखकर चकित रह गये और इनका भाँति-भाँति से प्रबोध करने लगे, किन्तु ये किसी की मानते ही नहीं थे। इस प्रकार रुदन तथा प्रलाप में रात्रि हो गयी। सभी साथी तथा शिष्यगण सुख की नींद में सो गये, किन्तु इन्हें नींद कहाँ? सुखी संसार सुखरूपी मोह-निशा में शयन कर सकता है, किन्तु जिनके हृदय में विरह-वेदना की तीव्र ज्वाला उठ रही है, उनके नयनों में नींद कहाँ? सबके सो जाने पर ये जल्दी से उठ खड़े हुए और रात्रि में ही रुदन करते हुए व्रज की ओर दौड़े। इनके प्राण श्रीकृष्ण से मिलन के लिये छटपटा रहे थे। इन्होंने साथी तथा शिष्यों की कुछ भी परवा न की और घोर अन्धकार में अकेले ही अलक्षित स्थान की ओर चल पड़े। ये थोड़ी दूर ही चले होंगे कि इन्हें मानो अपने हृदय में एक दिव्य वाणी सुन पड़ी। इन्हें भास हुआ मानो कोई अलक्षित भाव से कह रहा है- ‘तुम्हारा व्रज में जाने का अभी समय नहीं आया है, अभी कुछ काल और धैर्य धारण करो। अभी अपने सत्संग से नवद्वीप के भक्तों को आनन्दित करके प्रेमदान करो। योग्य समय आने पर ही तुम व्रज में जाना।’ आकाशवाणी का आदेश पाकर ये लौटकर अपने स्थान पर आ गये और आकर अपने आसर पर पड़ गये।
क्रमशः अगला पोस्ट [37]
••••••••••••••••••••••••••••••••••
[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]
, Shri Hari:.
[Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram
love blossomed
Shrunvansubhadrani rathangapane-
births and actions in the world.
The names of the songs are meaningful
Singing, he walked around without shame.
It can be called meaningful to lead the life of only those people in the world, on whose heart Manjul idol of Murli Manohar Mukund dances all the time. In whose ear-holes the melodious tone of Manohar Murli is heard every moment. Whose eyes don’t want to see anything other than the idol of God, whose mind always keeps on drinking the sweet nectar of the lotus feet of the devotee-fearful God, such auspicious darshan devotees themselves are blessed. He purifies the whole world with his feet. There is frenzy in his speech, his vision has the power to attract the living beings towards him, all his works are supernatural, all his works are for the welfare of the world and the world.
The auspicious time is now near for the holy source of love, which was about to emerge from the heart of Nimai Pandita, which was being started from time immemorial, for which the devotees like Advaitacharya etc. were eagerly waiting for years. Arrived Only the world-renowned Gayadham could get unbroken fame for its manifestation. This holy earth could become the reason for this. Aha ‘Vasundhara Punyavati Cha Ten’. Truly she is Vasundhara Badbhagini, who can be associated with a famous incident of a great man. He becomes famous in the world by the name of holy pilgrimage. Nimai Pandit was cooking food with other companions at his residence. Lentils and greens were ready. After taking out some fire from the stove, the lentils were kept on it. On the other hand, the greens were kept in the square itself. Rice was being cooked on the stove. Nimai used to see him again and again. The rice was ready, but there was some water left in it, our priest had covered it to burn it and to make the rice dry. After a while, he was removing the bowl from the rice when he saw Puri Mahashay coming towards him from a distance. Throwing the bowl on the ground as it was, they ran to worship his feet. Puri hugged him lovingly and he said laughing- ‘He had left his place only in an auspicious time, so that he reached at the right time of preparation.’
Nimai Pandit humbly replied – ‘When luck rises and the rituals of virtuous deeds are awakened, at that time one gets the good fortune of seeing great personalities like you. The food is all ready, wash your hands and feet and give alms to make the love-source overflow.
Laughing Puri sir said – ‘It is well said, you will feed us only the food prepared for you, then what will you eat?’ He humbly replied with a downcast look – ‘The food is yours, I am only Randhan. I am the only one who can do this, if I am allowed, I will make more.’ Puri saw that he would not accept alms without being given. That’s why he said – ‘Okay, what is the need to make it again, we will divide and eat half of what is made. Why is it acceptable? But we remained sannyasins and you remained householders. We will have alms and you will have food. How would this work? You also do alms for a while.
Laughing somewhat, Nimai Pandit said – ‘Well, it will happen as it is ordered. You run your hands and feet first.’ Saying this he washed Puri ji’s feet with his own hands and made him sit on a beautiful seat. Puri sir sat down and started eating. When Nimai-like Premavatar is going to serve, then there can be some satisfaction, slowly, by urging, he served all the things to Puri Mahashay and he also ate everything under the influence of love. The fire was still burning, in a moment the food was ready for the second time as if Annapurna had come and prepared the food herself. When the food was ready, they also ate and then started talking to each other.
Nimai Pandit with folded hands said – ‘ God! Now we have been spending many days in this celibate life, now give us the shelter of your feet. Please give some devotion to Shri Krishna to us too.’
Answering his words, Puri Mahasaya said – ‘ You yourself are the form of Shri Krishna, who can give you good devotion? You yourself can give love to the all-knowing world.’ With humility he said – ‘Lord! Don’t deprive me Please accept my prayer and give me the Shri Krishna mantra.’ so? We ourselves are inferior.
We ourselves do not know the secret of love, then how will we be able to provide mantras to a noble and learned Brahmin like you?’ He replied with tears in his eyes with great simplicity – ‘You are omnipotent, you are God himself. Your idol is the living idol of love. If you want, you can flood the whole world with Prem-Piyush.’ Showing some compulsion, Puri said- ‘You have the only power to flood the world with the virtues of Prem-Piyush, but you are your gurupad. If the Guru wants to give me the good fortune of glory, then I am Vivas. Which source of love can overflow by avoiding your command. I am ready to do as per your orders.’ Having said this, Puri Mahasaya got ready to give mantra-initiation. At the same time, seeing the letter, the auspicious date of initiation was fixed. The due date has arrived.
Nimai Pandit got ready to take Mantra-Diksha with new enthusiasm and joy. All his companions had made a lot of preparations that day on the occasion of Dikshotsav. Puri sir came at the appointed time. He put the dust of his feet on his head and after reciting the holy verses of Swastyan and chanting the sweet and sweet names of God, Puri Mahasaya preached this Dashakshara mantra ‘Gopijanvallabhay Namah’ in his ear. Just listening to the mantra, he fainted and fell on the earth and he was not conscious of his body at all. The companions cautioned him by treating him in various ways. After a long time, he regained consciousness. Then their condition became strange. Sometimes laughing out loud, sometimes crying and sometimes ‘Ha Krishna! Ha father!’ Saying this he used to cry loudly. Sometimes saying that ‘I will go to Shri Krishna in Vraj’, he used to run towards Vraj. His companions used to catch him and bring him, but he used to run away from them like a madman after getting rid of his body. Sometimes again they start raving loudly in the same way. Weeping and saying- ‘Dear! Where did you go leaving me? My Krishna! Take me with you.’ Saying this, he started crying again.
Sometimes he used to say to his students and colleagues while crying- ‘Brother! You guys now go to your respective homes. Now we will not go back home, we will stay with Shri Krishna in Vrindavan. Saying obeisance to our mother with folded hands and saying that your Nimai has gone mad. All his companions were amazed to see his supernatural condition and started enlightening him in many ways, but he did not listen to anyone. Thus the night passed in weeping and delirium. All the companions and disciples slept in the sleep of happiness, but where did they sleep? A happy world can sleep in the form of happiness, but where is the sleep in the eyes of those whose heart is burning with intense pain of separation? When everyone fell asleep, he quickly got up and ran towards Vraj crying in the night itself. His soul was yearning to meet Shri Krishna. He didn’t care about his companions and disciples and walked alone in the dark towards the unseen place. He must have walked a little distance that he heard a divine voice in his heart. He felt as if someone is saying in an unintended way – ‘The time has not yet come for you to go to Vraj, just have some time and patience. Now donate love by making the devotees of Navadweep happy with your satsang. You go to Vraj only when the right time comes.’ After getting the order of Akashvani, he returned to his place and came and fell on his asar.
respectively next post [37]
••••••••••••••••••••••••••••••••••
[From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]