।। श्रीहरि
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
नदिया में प्रत्यागमन
एवंव्रतः स्वप्रियनामकीर्त्या
जातानुरागो द्रुतचित्त उच्चैः।
हसत्यथो रोदिति रौति गाय-
त्युन्मादवन्नृत्यति लोकबाह्यः।।
प्रेम में पागल हुए उन मतवालों के दर्शान जिन लोगों को स्वप्न में भी कभी हो जाते हैं, वे संसार में बड़भागी हैं, फिर ऐसे भक्तों के निरन्तर सत्संग का सौभाग्य जिन्हें प्रापत हो सका है, उनके भाग्य की तो भला सराहना कर ही कौन सकता है? इसीलिये तो महाभागवत विदुर जी ने भगवत-दासों के दासों का दास बनने में ही अपने को कृतकृत्य माना है। सचमुच भगवत-संगियों का संग बड़ा ही मधुमय, आनन्दमय और रसमय होता है। उनका क्षणभर का भी संसर्ग हमें संसार से बहुत दूर ले जाता है। उनके दर्शनमात्र से ही आनन्द उमड़ने लगता है।
निमाई पण्डित को मन्त्र-दीक्षा देकर श्रीईश्वरपुरी किधर और कहाँ चले गये, इसका अन्त तक किसी को पता नहीं चला। उन्होंने सोचा होगा, जगत-पूज्य प्रेमावतार लोक-शिक्षा के निमित्त गुरु मानकर हमें प्रणाम करेंगे, यह हमारे लिये अहसनीय होगा, इसलिये अब इस संसार में प्रकट रूप से नहीं रहना चाहिये। इसीलिये वे उसी समय अन्तर्धान हो गये। फिर जाकर कहाँ रहे, इसका ठीक-ठीक पता नहीं। इधर प्रातःकाल निमाई पण्डित उठे। लोगों ने देखा उनके शरीर का सारा कपड़ा आँसुओं से भीगा हुआ है, वे क्षणभर के लिये भी रात्रि में नहीं सोये थे। रातभर ‘हा कृष्ण! मेरे प्यारे! ओः बाप! मुझे छोड़कर किधर चले गये?’ इसी प्रकार विरहयुक्त वाक्यों के द्वारा रुदन करते रहे। इनकी ऐसी विचित्र अवस्था देखकर अब साथियों ने गया जी में अधिक ठहरना उचित नहीं समझा। इनके शिष्य इन्हें बड़ी सावधानी के साथ इनके शरीर को सँभालते हुए नवद्वीप की ओर ले चले। ये किसी अचैतन्य पदार्थ की भाँति शिष्यों के सहारे से चलने लगे। शरीर का कुछ भी होश नहीं है। कभी-कभी होश में आ जाते हैं, फिर जोरों से चिल्ला उठते हैं, ‘हा कृष्ण! किधर चले गये?
प्राणनाथ! रक्षा करो! पतितपावन! इस पापी का भी उद्धार करो।’ इस प्रकार ये श्रीकृष्ण प्रेम में बेसुध हुए साथियों के सहित कुमारहट्ट नाम के ग्राम में आये। जिनसे इन्होंने श्रीकृष्ण-मन्त्र की दीक्षा ली थी, जिन्होंने इन्हें पण्डित से पागल बना दिया था, उन्हीं श्रीईश्वरपुरी जी का जन्मस्थान इसी कुमारहट्ट नामक ग्राम में था। प्रभु ने उस नगरी को दूर से ही साष्टांग प्रणाम किया। फिर साधारण लोगों को गुरुमहिमा का महत्त्व बताने के लिये इन्होंने उस ग्राम की धूलि अपने वस्त्र में बाँध ली और साथियों से कहा- ‘इस धूलि में कभी श्रीगुरुदेव के चरण पड़े होंगे।
बाल्यकाल में हमारे गुरुदेव का श्रीविग्रह इसमें कभी लोट-पोट हुआ होगा। इसलिये यह रज हमारे लिये अत्यन्त ही पवित्र है। इससे बढ़कर त्रिलोकी में कोई भी वस्तु नहीं हो सकती। कुमारहट्ट का कुत्ता भी हमारे लिये वन्दनीय है। जिस स्थान में हमारे गुरुदेव ने जन्म धारण किया है, जहाँ की पावन भूमि में उन्होंने क्रीड़ा की है, वह हमारे लिये लाखों तीर्थों से बढ़कर है।’ इस प्रकार गुरुदेव का माहात्म्य प्रदर्शन करते हुए वह आगे बढ़े और थोड़े दिनों में नवद्वीप पहुँच गये। इनके गया से लौट आने का समाचार सुनकर सभी इष्ट-मित्र, स्नेही तथा छात्र इनके दर्शन के लिये आने लगे। कोई आकर इन्हें प्रणाम करता, कोई चरण-स्पर्श करता, कोई गले लगकर मिलता। ये भी सबका यथोचित आदर करते। किसी को पुचकारते, किसी को आशीर्वाद देते, किसी के सिर पर हाथ रख देते और जो अवस्था में बड़े थे और इनके माननीय थे, उन्हें ये स्वयं प्रणाम करते। वे इन्हें भाँति-भाँति के आशीर्वाद देते। शचीमाता तथा विष्णुप्रिया के आनन्द का तो कुछ ठिकाना ही नहीं था। वे मन-ही-मन प्रसन्न हो रही थीं। उस भारी भीड़ में वे दोनों एक ओर चुपचाप बैठी थीं। सबसे मिल लेने पर इन्होंने प्रेमपूर्वक सभी को विदा किया और स्वयं स्नानादि में लग गये। इनका भाव विचित्र था, शरीर की दशा एकदम परिवर्तित हो गयी थी। माता को इनकी ऐसी दशा देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ, किन्तु वे कुछ पूछ न सकीं।
तीसरे पहर जब ये स्वस्थ होकर बैठे तब श्रीमान पण्डित सदाशिव कविराज, मुरारी गुप्त आदि इनके अन्तरंग स्नेही इनके समीप आकर गया-यात्रा का वृत्तान्त पूछने लगे। सबकी जिज्ञासा देखकर इन्होंने कना प्रारम्भ किया- ‘पुरी की यात्रा का क्या वर्णन करूँ? मैं तो पागल हो गया। जिस समय पादपद्मों का माहात्म्य मेरे कानों में पड़ा, जब मैंने सुना कि प्रभु के पादपद्म सभी प्रकार के प्राणियों को पावन और प्रेममय बनाने वाले हैं, पापी-से-पानी प्राणी भी इन पादपद्मों का सहारा पाकर अपार संसार-सागर से सहज में ही तर जाता है, जिन पादपद्मों के प्रक्षालित पय से त्रिलोकपावनी भगवती भागीरथी निकली हैं, उन पादपद्मों के दर्शन करने से किसे परमशान्ति न मिल सकेगी?’ इतना सुनते ही मैं बेहोश हो गया।
प्रभु अन्तिम शब्दों को ठीक-ठीक कह भी न पाये थे कि वे बीच में ही बेहोश होकर गिर पड़े। लोगों को इनकी ऐसी दशा देखकर महान आश्चर्य हुआ। सभी भौचक्के से एक-दूसरे की ओर देखने लगे। तीन महीने पहले उन्होंने जिस निमाई को देखा था, आज उसे इस प्रकार प्रेम में विह्वल देखकर उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। निमाई लम्बी-लम्बी साँसें ले रहे थे। उनकी आँखों में से निरन्तर अश्रु निकल रहे थे, शरीर पसीने से लथपथ हो रहा था। थोड़ी देर में वे ‘हा कृष्ण! हा प्राणनाथ! प्यारे! ओ मेरे प्यारे! मुझे छोड़कर कहाँ चले गये?’ यह कहते-कहते बहुत जोरों के साथ रुदन करने लगे। सभी ने शान्त करने की चेष्टा की, किन्तु परिणाम कुछ भी नहीं हुआ। इन्होंने रूँधे हुए कण्ठ से कहा- ‘आज हमारी प्रकृति स्वस्थ नहीं है। कल हम स्वयं शुक्लाम्बर ब्रह्मचारी के निवासस्थान पर आकर अपनी यात्रा का समाचार सुनायँगे।’ इतना सुनकर इनके सभी साथी अपने-अपने स्थानों के लिये चले गये।
अब तो इनके इस अद्भुत नूतन भाव की नवद्वीप में स्थान-स्थान पर चर्चा होने लगी। हँसते-हँसते श्रीमान पण्डित ने श्रीवास आदि भक्तों से कहा- ‘आज हम आप लोगों को बड़ी ही प्रसन्नता की बात सुनाना चाहते हैं, आप लोग सभी सुनकर परम आश्चर्य करेंगे। गया में जाकर निमाई पण्डित की तो काया पलट ही हो गयी। वे श्रीकृष्ण-प्रेम में विह्वल होकर कभी रोते हैं, कभी गाते हैं, कभी हँसते हैं और कभी-कभी जोरों से नृत्य करने लगते हैं। उनके जीवन में महान परिवर्तन हो गया है। आज तक किसी को स्वप्न में भी ऐसी आशा नहीं थी कि उनका जीवन इस प्रकार एक साथ ही इतना पलटा खा जायगा।’
परम प्रसन्नता प्रकट करते हुए श्रीवास पण्डित ने कहा- ‘सचमुच ऐसी बात है? तब तो फिर वैष्णवों के भाग्य ही खुल गये। वैष्णवों का एक प्रधान आश्रय हो गया। निमाई पण्डित के वैष्णव हो जाने पर भक्ति फिर से सनाथ हो गयी। आप हँसी तो नहीं कर रहे हैं? क्या यथार्थ में ऐसी बात है?’
जोर देकर श्रीमान पण्डित ने कहा- ‘मैं शपथपूर्वक कहता हूँ, हँसी का क्या काम? आप स्वयं जाकर देख आइये, वे तो बालकों की भाँति फूट-फूटकर रुदन कर रहे हैं। कल सदाशिव, मुरारी आदि सभी लोगों को शुक्लाम्बर ब्रह्मचारी के स्थान पर बुलाया है, वहाँ अपनी यात्रा का समस्त वृत्तान्त सुनावेंगे।’ इस बात को सुनकर श्रीवास आदि सभी भक्तों को परम सन्तोष हुआ। किन्तु गदाधर पण्डित को अब भी कुछ सन्देह ही बना रहा। उन्होंने निश्चय किया कि ब्रह्मचारी के घर में छिपकर सब बातें सुनूँगा, देखें उन्हें यथार्थ में श्रीकृष्ण-प्रेम उत्पन्न हुआ है या नहीं। यह सोचकर वे दूसरे दिन नियत समय के पूर्व ही शुक्लाम्बर ब्रह्मचारी के घर में जा छिपे।
नियत समय पर सदाशिव पण्डित, मुरारी गुप्ता, नीलाम्बर चक्रवर्ती तथा श्रीमान पण्डित आदि सभी मुख्य-मुख्य गण्यमान्य भद्रपुरुष प्रभु की यात्रा का समाचार सुनने शुक्लाम्बर ब्रह्मचारी के स्थान पर गंगातीर आ पहुँचे। थोड़ी देर में प्रभु भी आ पहुँचे। आते ही इन्होंने वही राग अलापना आरम्भ कर दिया। कहने लगे- ‘भैया! मुझे श्रीकृष्ण से मिला दो, मेरा प्यारा कृष्ण कहाँ चला गया? हाय रे! मेरा दुर्भाग्य! मेरा श्रीकृष्ण मुझसे बिछुड़ गया! मुझे बिलखता ही छोड़ गया।’ इतना कहते-कहते ये मूर्च्छित होकर गिर पड़े। इनकी ऐसी दशा देखकर भीतर घर में छिपे हुए गदाधर भी प्रेम में विह्वल होकर मूर्छा आने के कारण पृथ्वी पर गिर पड़े और जोरों से रुदन करने लगे। कुछ काल के अनन्तर प्रभु की मूर्छा भंग हुई वे कुछ काल के लिये प्रकृतिस्थ हुए, किन्तु फिर भारी वेदना उठने के कारण जोरों से चीत्कार मारकर रुदन करने लगे। इनके रुदन को देखकर वहाँ जितने भी मनुष्य बैठे थे, सभी फूट-फूटकर रोने लगे। सबके रुदन से आकाश गूँजने लगा। क्रन्दन की ध्वनि से आकाशमण्डल भर गया। बहुत-से दर्शनार्थी आ-आकर खड़े हो गये। उनकी आँखों से भी अश्रु बहने लगे। इस प्रकार शुक्लाम्बर का घर रुदन के कारण कोलाहलपूर्ण हो गया।
कुछ काल के अनन्तर फिर प्रभु सुस्थिर हुए। उन्हें कुछ-कुछ बाह्यज्ञान होने लगा। स्थिर होने पर प्रभु ने शुक्लाम्बर जी से पूछा- ‘ब्रह्मचारी जी! घर के भीतर कौन है?’
प्रेम के साथ ब्रह्मचारी जी ने कहा- ‘आपका गदाधर है।’ ‘गदाधर’ इतना सुनते ही वे फिर फूट-फूटकर रोने लगे। रोते-रोते कहने लगे- ‘गदाधर! भैया! तुम ही धन्य हो। मनुष्य जन्म का यथार्थ फल तो तुमने ही प्राप्त किया है, हम तो वैसे ही रह गये। हमारी तो आयु वैसे ही बरबाद हुई।’ इतना कहकर फिर वही ‘हा कृष्ण! हा अशरणशरण! हा पतितपावन! कहाँ चले गये।’ फिर अधीर होकर लोगों के पैरों पर अपना सिर रख-रखकर कहने लगे- ‘भैया! मुझ दुखिया के ऊपर दया करो! मेरे दुःख को दूर करो। मुझे श्रीकृष्ण से मिला दो।
मेरे प्राण उन्हीं से मिलने के लिये तड़प रहे हैं।’ प्रभु के इन दीनता भरे वाक्यों को सुनकर सभी का हृदय फटने लगा। सभी प्रेमावेश में आकर रुदन करने लगे। सभी अपने आपे को भूल गये। इस प्रकार रुदन और विलाप करते हुए शाम हो गयी और सभी अपने-अपने घर लौट आये।
दूसरे दिन स्वस्थ होकर महाप्रभु अपने विद्या-गुरु श्रीगंगादास पण्डित के घर गये और उन्हें प्रणाम करके बैठ गये।” गंगादास जी ने इनका आलिंगन किया और यात्रा का सभी वृत्तान्त पूछा। वे कहने लगे- ‘तुमने तो तीन-चार महीने लगा दिये। तुम्हारे सभी विद्यार्थी अत्यन्त दुःखी थे, उन्हें तुम्हारे पाठ के अतिरिक्त किसी पण्डित का पाठ अच्छा ही नहीं लगता है। इसीलिये वे लोग तुम्हारी बहुत प्रतीक्षा कर रहे थे। अच्छा हुआ अब तुम आ गये। अब तो पढ़ाओगे न?’
महाप्रभु ने कहा- ‘हाँ, प्रयत्न करूँगा, श्रीकृष्ण कृपा करेंगे तो सब कुछ होगा। सब उन्हीं के ऊपर निर्भर है।’ इस प्रकार उन्हें आश्वासन देकर फिर आप मुकुन्द संजय के चण्डीमण्डप में, जहाँ आपकी पाठशाला थी, वहाँ आये। संजय महाशय बड़े ही आनन्द के साथ प्रभु से मिले। उनके पुत्र पुरुषोत्तम संजय ने प्रभु के पादपद्मों में श्रद्धाभक्ति के साथ प्रणाम किया। प्रभु ने उसे आलिंगन किया। इस प्रकार दोनों पिता-पुत्र प्रभु के दर्शनों से परम प्रसन्न हुए।
स्त्रियों ने जब प्रभु के आगमन के समाचार सुने तो वे बड़ी ही आनन्दित हुईं और परस्पर में भाँति-भाँति की बातें कहने लगीं। कोई कहती- ‘अब तो निमाई पण्डित एकदम बदल आये।’ कोई कहती- ‘बड़े भाग्य से भगवत-भक्ति प्राप्त होती है। यह सौभाग्य की बात है कि निमाई-जैसे पण्डित परम भागवत वैष्णव बन गये।’ इस प्रकार सभी अपनी-अपनी बुद्धि के अनुरूप भाँति-भाँति की बातें कहने लगीं। सबसे मिल-जुलकर निमाई घर लौट आये।
क्रमशः अगला पोस्ट [38]
••••••••••••••••••••••••••••••••••
[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]
, Sri Hari
[Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram
return to Nadia
Thus vowed by the fame of his beloved name
He became passionate and quick-witted loudly.
laughs and cries and cries cow-
He dances like a madman outside the world.
Those people who get visions of those madly in love, even in their dreams, they are very bad luck in the world, then who can appreciate the good fortune of such devotees who have had the good fortune of continuous satsang. ? That’s why Mahabhagwat Vidur ji has considered himself to be a good deed in becoming a slave of the slaves of Bhagwat-dasas. Truly the company of Bhagwat-songs is very sweet, blissful and ritualistic. Even a moment’s contact with them takes us far away from the world. Happiness starts flowing just by seeing him.
No one came to know till the end where and where Shree Ishwarpuri went after giving Mantra-Diksha to Nimai Pandit. They must have thought that the world-worshipped Premavatar would bow down to us considering them as gurus for the sake of public education, it would be unacceptable for us, so now we should not live openly in this world. That’s why they disappeared at the same time. It is not known exactly where he will go after that. Here Nimai Pandit got up early in the morning. People saw that all the clothes of his body were wet with tears, he did not sleep even for a moment in the night. All night long ‘Ha Krishna! My dear! Oh father! Where have you gone leaving me? Seeing his strange condition, the companions did not think it proper to stay longer in Gaya ji. His disciples took him towards Navadvipa, taking care of his body with great care. He started walking with the help of disciples like some unconscious substance. The body is not aware of anything. Sometimes they regain consciousness, then they shout loudly, ‘Ha Krishna! Where did you go?
Prannath! Protect! Purifier! Save this sinner too.’ In this way, Shri Krishna came to the village named Kumarhatt along with his companions who were insensible in love. The one from whom he had taken the initiation of Shri Krishna-Mantra, who had made him mad from a pundit, the birthplace of Shri Ishwarpuri ji was in this village named Kumarhatt. The Lord prostrated that city from a distance. Then, to tell the importance of Guru Mahima to the common people, he tied the dust of that village in his cloth and said to his companions- ‘Shri Gurudev’s feet must have been lying in this dust.
In childhood, the idol of our Gurudev must have been lying in it. That’s why this rule is very sacred for us. There cannot be anything greater than this in Triloki. Kumarhatt’s dog is also worshipable for us. The place where our Gurudev took birth, the holy land where He played is greater than millions of pilgrimages for us.’ In this way, showing the greatness of Gurudev, he moved ahead and reached Navadweep in a few days. Hearing the news of his return from Gaya, all his friends, relatives and students started coming to see him. Some would come and bow down to him, some would touch his feet, some would meet him with a hug. He also used to respect everyone properly. Calling someone, blessing someone, placing his hand on someone’s head, and those who were elder in status and respected by him, he used to bow down to them himself. He would give them many blessings. There was no limit to the joy of Sachimata and Vishnupriya. She was feeling happy inside herself. In that huge crowd, both of them were sitting quietly on one side. After meeting everyone, he lovingly bid farewell to everyone and himself took bath. His mood was strange, the condition of his body had completely changed. Mother was very surprised to see his condition like this, but she could not ask anything.
In the third hour, when he sat down after recovering, Mr. Pandit Sadashiv Kaviraj, Murari Gupta etc. his close friends came near him and started asking about the details of his journey. Seeing everyone’s curiosity, he started singing – ‘ How should I describe the journey of Puri? I go crazy. The time when the greatness of the lotus fell in my ears, when I heard that the lotus of the Lord makes all kinds of beings pure and loving, even the most sinful of creatures, taking the support of these lotuses, easily floated through the vast world-ocean. It is said, who would not be able to attain supreme peace by seeing those lotuses, from the bleached drink of which the goddess Bhagirathi, the goddess of all the three worlds emerged?’ I fainted on hearing this.
Prabhu could not even say the last words properly that he fainted in the middle and fell down. People were surprised to see his condition like this. Everyone started looking at each other with bewilderment. The Nimai whom he had seen three months ago, today he was surprised to see her in such a state of love. Nimai was taking long breaths. Tears were continuously coming out of his eyes, his body was getting soaked in sweat. In a short while they ‘Ha Krishna! Ha Prannath! Sweetheart! O my dear! Where have you gone leaving me?’ While saying this, he started crying loudly. Everyone tried to pacify, but nothing happened. He said in a choked voice – ‘Today our nature is not healthy. Tomorrow we ourselves will come to the residence of Shuklamber Brahmachari and tell the news of our journey.’ Hearing this, all his companions left for their respective places.
Now this wonderful innovation of his is being discussed at various places in Navadweep. Laughingly, Shriman Pandit said to the devotees like Srivas – ‘Today we want to tell you something very happy, you will be very surprised to hear it. When Nimai Pandit went to Gaya, his body completely changed. They sometimes cry, sometimes sing, sometimes laugh and sometimes dance loudly in the love of Shri Krishna. There has been a great change in his life. Till today no one had such a hope even in their dreams that their life would be turned upside down like this all at once.
Expressing immense happiness, Shrivas Pandit said – ‘Is it really like this? Then again the fortunes of Vaishnavas opened up. Vaishnavas became a major shelter. After Nimai Pandit became a Vaishnav, devotion again became Sanath. You are not laughing are you? Is such a thing in reality?
With emphasis Mr. Pandit said- ‘I swear, what is the use of laughter? You go and see for yourself, they are crying bitterly like children. Tomorrow Sadashiv, Murari etc. have been called to Shuklamber Brahmachari’s place, there they will narrate the whole story of their journey.’ Hearing this, all the devotees like Srivas were extremely satisfied. But Gadadhar Pandita still had some doubts. He decided that he will listen to everything secretly in the house of a celibate, see whether he has really developed love for Shri Krishna or not. Thinking of this, he hid in the house of Shuklamber Brahmachari on the second day before the appointed time.
At the appointed time Sadashiv Pandit, Murari Gupta, Neelambar Chakraborty and Shriman Pandit etc. all the prominent dignitaries reached Gangateer at Shuklamber Brahmachari’s place to hear the news of Prabhu’s visit. In a short while the Lord also reached. As soon as he came, he started singing the same melody. Started saying – ‘Brother! Meet me with Shri Krishna, where has my beloved Krishna gone? Hi Ray! bad luck for me! My Shri Krishna got separated from me! He left me crying.’ Saying this, he fainted and fell down. Seeing his condition, Gadadhar, who was hiding inside the house, fell down on the earth due to fainting in love and started crying loudly. After some time, Lord’s unconsciousness was broken, he became natural for some time, but then due to heavy pain, he started crying loudly. Seeing his cry, all the people sitting there started crying bitterly. The sky started echoing with everyone’s cry. The sky was filled with the sound of crying. Many visitors came and stood. Tears started flowing from his eyes too. Thus Shuklamber’s house became noisy due to crying.
After some time the Lord became stable again. He started getting some extraterrestrial knowledge. On becoming stable, the Lord asked Shuklamber ji – ‘ Brahmachari ji! Who is inside the house?
Brahmachari ji said with love- ‘Your Gadadhar is there.’ On hearing this ‘Gadadhar’, he again started crying bitterly. Started saying while crying – ‘ Gadadhar! Brother Blessed are you You have attained the real fruit of human birth, we remained like that. Our life was wasted just like that.’ After saying this, he said ‘Ha Krishna! Oh refuge! O Purifier! Where have you gone? Then being impatient, placing his head on the feet of the people, he said – ‘Brother! Have mercy on me, the sad one! Take away my sorrow Meet me with Shri Krishna.
My soul is longing to meet Him.’ Hearing these humble words of the Lord, everyone’s heart started breaking. Everyone started crying in love. Everyone forgot themselves. In this way evening came with weeping and lamentation and everyone returned to their respective homes.
On the second day after recovering, Mahaprabhu went to the house of his Vidya-guru Shri Gangadas Pandit and sat down after saluting him.” Gangadas ji embraced him and asked all the details of the journey. All the students were very sad, they don’t like the lesson of any pundit except your lesson. That’s why they were waiting for you a lot. It’s good that you have come now. Will you teach now?’
Mahaprabhu said- ‘Yes, I will try, everything will happen if Shri Krishna blesses. Everything depends on him.’ After assuring them in this way, you then came to Mukund Sanjay’s Chandimandap, where your school was. Sanjay sir met the Lord with great joy. His son Purushottam Sanjay bowed with devotion at the lotus feet of the Lord. Prabhu embraced him. In this way, both the father and the son were extremely pleased with the darshan of the Lord.
When the women heard the news of the arrival of the Lord, they were very happy and started saying different things to each other. Some would say- ‘Now Nimai Pandit has completely changed.’ Some would say- ‘Bhagwat-devotion is attained by great fortune. It is a matter of good fortune that Pandits like Nimai have become Param Bhagwat Vaishnavs.’ In this way everyone started saying different things according to their intellect. Nimai returned home together.
respectively next post [38]
••••••••••••••••••••••••••••••••••
[From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]