।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
श्रीवास के घर संकीर्तनारम्भ
चेतोदर्पणमार्जनं भवमहादावाग्निनिर्वापणं
श्रेयःकैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधूजीवनम्।
आनन्दाम्बुधिवर्द्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनं
सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्णसंकीर्तनम्।।
सम्पूर्ण संसार एक अज्ञात आकर्षण के अधीन होकर ही सब व्यवहार कर रहा है। अग्नि सभी को गरम प्रतीत होती है। जल सभी को शीतल ही जान पड़ता है। सर्दी-गरमी पड़ने पर उसके सुख-दुःख का अनुभव जीवमात्र को होता है। यह बात अवश्य है कि स्थिति-भेद से उसके अनुभव में न्यूनाधिक्य-भाव हो जाय। किसी-न-किसी रूप में अनुभव तो सब करते ही हैं।
इस जीव का आदि उत्पत्ति-स्थान आनन्द ही है। आनन्द का पुत्र होने के कारण वह सदा आनन्द की ही खोज करता रहा है। ‘मैं सदा आनन्द में ही बना रहूँ’ यह इसकी स्वाभाविक इच्छा होती है, होनी भी चाहिये। कारण कि जनक के गुण अन्य में जरूर ही आते हैं। इसलिये आनन्द से ही उत्पन्न होने के कारण यह आनन्द में ही रहना भी चाहता है और अन्त में आनन्द में ही मिल भी जाता है। जल का एक बिन्दु समुद्र से पृथक होता है, पृथक होकर चाहे वह अनेकों स्थान में भ्रमण कर आवे, किंतु अन्त में सर्वत्र घूमकर उसे समुद्र में ही आना पड़ेगा। समुद्र के अतिरिक्त उसकी दूसरी गति ही नहीं। भाप बन के वह बादलों मे जायगा। बादलों से वर्ष बनकर पृथ्वी पर बरसेगा। पृथ्वी से बहकर तालाब में जायगा, तालाब से छोटी नदी में पहुँचेगा, उसमें से फिर बड़ी नदी में, इसी प्रकार महानद के प्रवाह के साथ मिलकर वह समुद्र में ही पहुँच जायगा। कभी-कभी क्षुद्र तालाब के संसर्ग से उसमें दुर्गन्धि-सी भी प्रतीत होने लगेगी, किंतु चौमासे की महाबाढ़ में वह सब दुर्गन्धि साफ हो जायगी और वह भारी वेग के साथ अपने निर्दिष्ट स्थान पर पहुँच जायगा।
मनन करने वाले प्राणियों का मन एक-सा ही होता है। सर्वत्र उसकी गति एक ही भाँति से संचालन करती है। सम्पूर्ण शरीर में चित्त की वृत्तियाँ किसी एक निर्धारित नियम के ही साथ कार्य करती हैं। जीव का मुख्य लक्ष्य है अपने प्रियतम के साथ जाकर योग करना। उसे प्यारे के पास पहुँचे बिना शान्ति नहीं, फिर वहाँ जाकर उसका बनकर रहना या उसी के स्वरूप में अपने को मिला देना, यह तो अपने-अपने भावों के ऊपर निर्भर है। कुछ भी क्यों न हो, पास तो पहुँचना ही होगा। योग तो करना ही पड़ेगा। बिना योग के शान्ति नहीं, योग तभी हो सकता है, जब चित्तवृत्तियों का निरोध हो।
चित्त बड़ा ही चंचल है, एकान्त में यह अधिकाधिक उपद्रव करने लगता है, इसलिये इसके निरोध का एक सरल-सा उपाय यही है कि जिन्होंने पूर्वजन्मों के शुभ संस्कारों से साधन करके या भगवत्कृपा प्राप्त करके अपनी चित्तवृत्तियों का थोड़ा-बहुत या सम्पूर्ण निरोध कर लिया है, उन्हीं के चित्त के साथ अपने चित्त को मिला देना चाहिये। कारण कि सजातीय वस्तु अपनी सजातीय वस्तु के प्रति शीघ्र आकृष्ट हो जाती है। इसीलिये सत्संग और संकीर्तन की इतनी अधिक महिमा गायी गयी है। यदि एक उद्देश्य से एक-मन और एक-चित्त होकर जो भी साधन किया जाय, तो पृथक-पृथक साधन करने की अपेक्षा उसका महत्त्व सहस्रों गुणा अधिक होता है और विशेषकर इस ऐसे घोर कलियुग के समय में जब सभी खाद्य पदार्थ भाव-दोष से दूषित हो गये हैं तथा विचार-दोष से गिरिशिखर, एकान्त स्थान आदि सभी स्थानों का वायुमण्डल दूषित बन गया है, ऐसे घोर समय में सत्पुरुषों के समूह में रहकर निरन्तर प्रेम से श्रीकृष्ण-संकीर्तन करते रहना ही सर्वश्रेष्ठ साधन है। स्मृतियों में भी यही वाक्य मिलता है- ‘संघे शक्तिः कलौ स्मृता’। कलियुग में सभी प्रकार के साधन संघ-शक्ति से ही फलीभूत हो सकते हैं और कलियुग में ‘कलौ केशवकीर्तनात्’ अर्थात केशव-कीर्तन ही सर्वश्रेठ साधन है। इसलिये इन सभी बातों से यही सिद्ध हुआ कि कलिकाल में सब लोग एक-चित्त और एक-मन से एकान्त स्थान में निरन्तर केशव का कीर्तन करें तो प्रत्येक साधक को अपने-अपने साधन में एक-दूसरे से बहुत अधिक मदद मिल सकती है। यही सब समझ-सोचकर तो संकीर्तनावतार श्रीचैतन्यदेव ने संकीर्तन की नींव डाली। वे इतने बड़े भावावेश में आकर भी वनों में नहीं भाग गये। उस प्रेमोन्माद की अवस्था में, जिसमें कि घर-बार, भाई-बन्धु सभी भूल जाते हैं, वे लोगों में ही रहकर श्रीकृष्ण-कीर्तन करते रहे और अपने आचरण से लोक-शिक्षा देते हुए जगदुद्धार करने में संलग्न-से ही बने रहे। यही उनकी अन्य महापुरुषों से विशेषता है।
महाप्रभु की दशा अब कुछ-कुछ गम्भीरता को धारण करती जाती है, अब वे कभी-कभी होश में भी आते हैं और भक्तों से परस्पर में बातें भी करते हैं। चिरकाल से आशा लगाये हुए बैठे कुछ भक्त प्रभु के पास आये और सभी ने मिलकर प्रतिदिन संकीर्तन करने की सलाह की। प्रभु ने सबकी सम्मति सहर्ष स्वीकार की और भक्ताग्रगण्य श्रीवास के घर संकीर्तन का सभी आयोजन होने लगा। रात्रि के समय छँटे-छँटे भगवद्भक्त वहाँ आकर एकत्रित होने लगे। प्रभु ने सबसे पहले संकीर्तन आरम्भ किया। सभी ने प्रभु का साथ दिया।
संकीर्तन करते-करते प्रभु भावावेश में आकर ताण्डव नृत्य करने लगे। शरीर की किंचिन्मात्र भी सुध-बुध नहीं रही। एक प्रकार के महाभाव में मग्न होकर उनका शरीर अलातचक्र की भाँति निरन्तर घूम रहा थ। न तो किसी को उनके पद ही दिखायी देते थे और न उनका घूमना ही प्रतीत होता था। नृत्य करते-करते उन्हें एक प्रकार की उन्मादकारी बेहोशी-सी आ गयी और उसी बेहोशी में वे मुर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। भक्तों ने इन्हें बड़े यत्न से उठाया। थोड़ी देर के अनन्तर इन्होंने रोते-रोते भक्तों से कुछ कहना आरम्भ किया- ‘भाई! मैं क्या करूँ, मेरा मन अब मेरे वश में नहीं है। मैं जो कहना चाहता हूँ, उसे कह नहीं सकता। कितने दिनों से मैं तुमसे एक बात कहने के लिये सोच रहा हूँ, किंतु उसे अभी तक नहीं कह सका हूँ। आज मैं तुम लोगों से उसे कहूँगा। तुम लोग सावधानी के साथ श्रवण करो।’
प्रभु के ऐसा कहने पर सभी भक्त स्थिर-भाव से चुपचाप बैठ गये और एकटक होकर उत्सुकता के साथ प्रभु के मुखचन्द्र की ओर निहारने लगे। प्रभु ने साहस करके गम्भीरता के साथ कहना आरम्भ किया- ‘आप लोग तो अपने परम आत्मीय हैं, आपके सामने गोप्य ही क्या हो सकता है? इसलिये सबके सामने प्रकट न करने योग्य इस बात को मैं आपके समक्ष बताता हूँ। जब मैं गया से लौट रहा था, तब नाटशाला ग्राम में एक श्यामवूर्ण का परम सुन्दर बालक मेरे समीप आया। उसके लाल-लाल कोमल चरणों में सुन्दर नूपुर बँधे हुए थे। पैरों की उँगलियाँ बड़ी ही सुहावनी तथा क्रम से छोटी-बड़ी थीं। कमर में पीताम्बर बँधा हुआ था। पेट त्रिवली से युक्त और नाभि गोल तथा गहरी थी।
वक्षःस्थल उन्नत और मांस से भरा हुआ था। गले की एक भी हड्डी दिखायी नहीं देती थी। गले में वनमाला तथा गुंजों की मालाएँ पड़ी हुई थीं। कानों में सुन्दर कुण्डल झलमल कर रहे थे। वह कमल के समान दोनों मनोहर नेत्रों से तिरछी निगाह से मेरी ओर देख रहा था, उसके सुन्दर गोल कपोलों के ऊपर काली-काली लटें लहरा रही थीं। वह मन्द-मन्द मुस्कान के साथ मुरली बजा रहा था। उस मुरली की मनोहर तान को सुनकर मेरा मन मेरे वश में नहीं रहा। मैं बेहोश हो गया और फिर वह बालक न जाने कहाँ चला गया?’ इतना कहते-कहते प्रभु बेहोश हो गये। उनकी आँखों से अश्रुधारा बहने लगी।
शरीर के सम्पूर्ण रोम बिलकुल खड़े हो गये। वे मूर्च्छित दशा में ही इस श्लोक को पढ़ने लगे-
अमूल्यधन्यानि दिनान्तराणि
हरे! त्वदालोकनमन्तरेण।
अनाथ बन्धे! करूणैकसिन्धो!
हा हन्त! हा हन्त!! कथं नयामि।।[1]
प्रभु इस श्लोक को गद्गद-कण्ठ से बार-बार पढ़ते और फिर बेहोश हो जाते। थोड़ा होश आने पर फिर इसे ही पढ़ने लगते। जैसे-तैसे भक्तों ने प्रभु को श्लोक पढ़ने से रोका और वे थोड़ी देर में प्रकृतिस्थ हो गये। इस प्रकार उनकी ऐसी दशा देखकर सभी उपस्थित भक्त अश्रु-विमोचन करने लगे, यों वह पूरी रात्रि इसी प्रकार संकीर्तन और सत्संग में ही व्यतीत हुई।
इस प्रकार श्रीवास पण्डित के घर नित्य ही कीर्तन का आनन्द होने लगा। रात्रि में जब मुख्य-मुख्य भक्त एकत्रित हो जाते, तब घर के किवाड़ भीतर से बंद कर दिये जाते और फिर कीर्तन आरम्भ होता। कीर्तन में ढोल, करताल, मृदंग, मजीरा आदि सभी वाद्य लय और स्वर के साथ बजाये जाते थे। प्रभु सभी भक्तों के बीच में खड़े होकर नृत्य करते थे। अब इनका नृत् बहुत ही मधुर होने लगा। सभी भक्त आनन्द के आवेश में आकर अपने आपे को भूल जाते और प्रभु के साथ नृत्य करने लगते। प्रभु के शरीर में स्तम्भ, स्वेद, रोमांच, स्वरभंग, कम्प, वैवर्ण्य तथा प्रलय आदि सभी सात्त्विक भावों का उदय होता। भक्त इनके अद्भुत भावों को देखकर मुग्ध हो जाते और भावावेश में आकर खूब जोरों से संकीर्तन करने लगते। सभी सहृदय थे, सभी का चित्त प्रभु से मिलने के लिये सदा छटपटाता रहता था, किसी के भी मन में मान-सम्मान तथा दिखावेपन के भाव नहीं थे। सभी के हृदय शुद्ध थे, ऐसी दशा में आनन्द का पूछना ही क्या है? वे सभी स्वयं आनन्दस्वरूप ही थे। भक्त परस्पर में एक-दूसरे की वन्दना करते, कोई-कोई प्रेम में विह्वल होकर प्रभु के पैरों को ही पकड़ लेते। बहुत-से परस्पर ही पैर पकड़-पकड़ रुदन करते। इस प्रकार सभी प्रेममय कृत्यों से श्रीवास पण्डित का घर प्रेम-पयोधि बन गया थ। उस प्रेमार्णव में प्रवेश करते ही प्रत्येक प्राणी प्रेम में पागल होकर स्वतः ही नृत्य करने लगता था। वहाँ प्रभु के संसर्ग में पहुँचते ही सभी संसारी विषय एकदम भूल जाते थे। भक्तों का हृदय स्वयमेव तड़फड़ाने लगता था।
गदाधर इनके परम अन्तरंग थे। ये सदा प्रभु की ही सेवा में बने रहते। एक दिन ये भोजन के अनन्तर मुखशुद्धि के निमित्त प्रभु को पान दे रहे थे। प्रभु ने प्रेमावेश में आकर अधीर बालक की भाँति पूछा- ‘गदाधर! भैया, तुम ही बताओ, मेरे कृष्ण मुझे छोड़कर कहाँ चले गये? भैया! मैं उनके बिना जीवित नहीं रह सकता। तुम सच-सच मुझे उनका पता दो, वे जहाँ भी होंगे, मैं वहीं जाकर उनकी खोज करूँगा और उनसे लिपटकर खूब पेटभर के रोऊँगा। तुम बता भर दो कि वे गये कहाँ?’
गदाधर ने बात टालने के लिये कहा दिया- ‘आप तो वैसे ही व्यर्थ में अधीर हुआ करते हैं। भला, आपके कृष्ण कभी आपको छोड़कर अन्यत्र जा सकते हैं? वे तो हर समय आपके हृदय में विराजमान रहते हैं।
यह सुनकर आपने उसी अधीरता के साथ पूछा- ‘क्या प्यारे कृष्ण भी मेरे हृदय में बैठे हैं?’
गदाधर ने कुछ देर के बाद कहा- ‘बैठे क्यों नहीं हैं। अब वे आपके हृदय में विराजमान हैं और सदा ही रहते हैं।’
इतना सुनते ही बड़े आनन्द और उल्लास के साथ प्रभु अपने बड़े-बड़े नखों से हृदय को विदारण करने लगे।
वे कहने लगे- ‘मैं हृदय फाड़कर अपने कृष्ण के दर्शन करूँगा। वे मेरे पास ही छिपे बैठे हैं और मुझे दर्शन तक नहीं देते। इस हृदय को चीर डालूँगा। इस प्रकार करते देख गदाधर को बहुत दुःख हुआ और उन्होंने भाँति-भाँति की अनुनय-विनय करके इन्हें इस काम से निवारण किया। तब ये बहुत देर के बाद होश में आये।
एक दिन रात्रि में प्रभु शय्या पर शयन कर रहे थे। गदाधर उनकी चरण-सेवा में संलग्न थे, चरण-सेवा करते-करते गदाधर ने अपना मस्तक प्रभु के पादपद्मों में रखकर गद्गद-कण्ठ से प्रार्थना की- प्रभो! इस अधम को, किन पापों के परिणामस्वरूप श्रीकृष्ण-प्रेम की प्राप्ति नहीं होती? आप तो दीनवत्सल हैं, मुझे साधन का बल नहीं, शुभ कर्म भी मैं नहीं कर सकता। तीर्थयात्रा आदि पुण्य कार्यों से भी मैं वंचित हूँ, मुझे तो एकमात्र श्रीचरणों का ही सहारा है। मेरे ऊपर कब कृपा होगी? प्रभो! कब तक मैं इसी प्रकार प्रेमविहीन शुष्क जीवन बिताता रहूँगा?’
उनकी इस प्रकार कातर वाणी सुनकर प्रभु प्रसन्न हुए और उन्हें आश्वासन देते हुए कहने लगे- ‘गदाधर! तुम अधीर मत हो, तुम तो श्रीकृष्ण के अत्यन्त ही प्यारे हो। दीन ही तो भगवान को सबसे प्रिय हैं। बिना दीन-हीन बने कोई प्रभु को प्राप्त कर नहीं सकता। जिन्हें अपने शुभ कर्मों का अभिमान है या उग्र साधनों का भरोसा है, वे प्रभु की महती कृपा के अधिकारी कभी हो ही नहीं सकते।
प्रभु तो अकिंचनप्रिय हैं, निष्किंचन बनने पर ही उनकी कृपा की उपलब्धि हो सकती है। तुम्हारे भाव पूरे निष्किंचन भक्त के-से हैं। जब तुम सच्चे हृदय से निष्किंचन बन गये तब फिर तुम्हें श्रीकृष्ण-प्रेम की प्राप्ति में देर न होगी। कल गंगा-स्नान के बाद तुम्हें प्रभु की पूर्ण कृपा का अनुभव होने लगेगा।’
प्रभु की ऐसी बात सुनकर गदाधर की प्रसन्नता का पारावार नहीं रहा। वे रात्रि भर प्रेम में मग्न होकर आनन्दाश्रु बहाते रहे, वे एक-एक घड़ी को गिनते रहे कि कब प्रातःकाल हो और कब मुझे प्रेम प्राप्त हो। प्रतीक्षा में उनकी दशा पागलों की-सी हो गयी। वे कभी तो उठकर बैठ जाते, कभी खड़े होकर नृत्य ही करने लगते। कभी फिर लेट जाते और कभी आप-ही-आप कुछ सोचकर जोरों से हँसने लगते। प्रभु उनकी दशा देखकर बड़े ही प्रसन्न हुए। प्रातःकाल गंगा-स्नान करते ही वे आनन्द में विभोर होकर नृत्य करने लगे। वे प्रेमासव को पीकर उन्मत्त-से प्रतीत होते थे, मानो उन्हें उस मधुमय मनोज्ञ-मदिरा का पूर्णरूप से नशा चढ़ गया हो। उन्होंने प्रेमरस में निमग्न हुए अलसाने-से नेत्रों से प्रभु की ओर देखकर उनके पाद-पद्मों में प्रणाम किया और कृतज्ञता प्रकट करते हुए कहने लगे- ‘प्रभो! आपने इस अधम पापी को भी प्रेम-प्रदान करके अपने पतितपावन पुण्य नाम का यथार्थ परिचय करा दिया। आपकी कृपा जीवों पर सदा अहैतु की ही होती है। मुझ साधनहीन को भी दुस्साध्य प्रेम की परिधि तक पहुँचा दिया। आपको सब सामर्थ्य है। आप सब कुछ कर सकते हैं।
प्रभु ने उनकी ऐसी दशा देखकर अधीरता के साथ कहा- ‘गदाधर! कृपालु श्रीकृष्ण ने तुम्हारे ऊपर कृपा कर दी, अब तुम उनसे मेरे लिये भी प्रार्थना करना।’
गदाधर ने अत्यन्त ही दीनता के साथ कहा- ‘प्रभो! मैं तो आपको ही इसका कारण समझता हूँ। इस प्रेम को आपकी ही दया का फल समझता हूँ, आपसे भी भिन्न कोई दूसरे कृष्ण हैं, इसका मुझे पता नहीं। यह कहते-कहते गदाधर प्रेम में विह्वल होकर रुदन करने लगे।
शुक्लाम्बर ब्रह्मचारी ने भी गदाधर की ऐसी दशा देखी। उनके अन्तःकरण में भी प्रेम-प्राप्ति की उत्कट इच्छा उत्पन्न हो गयी। वे भी गदाधर की भाँति अपने-आपको भूलकर प्रेम में उन्मत्त होना चाहते थे। उनका हृदय भी प्रेमासव को पान करने के लिये अधीर हो उठा। दूसरे दिन वे भिक्षा करके आ रहे थे। रास्ते में गंगा जाते हुए प्रभु उन्हें मिल गये। प्रभु को देखते ही वे वयोवृद्ध ब्रह्मचारी उनके पैरों में लिपट गये। प्रभु ने संकोच प्रकट करते हुए कहा- ‘मैं आपके पुत्र के समान हूँ। आपने बाल्यकाल से ही पिता की भाँति मेरा लालन-पालन किया है और गोद में लेकर प्रेमपूर्वक खिलाया है। आप यह क्या अनर्थ कर रहे हैं, क्यों मेरे ऊपर पाप चढ़ा रहे हैं?’
प्रभु की इन बातों को सुनकर कातर भाव से ब्रह्मचारी जी ने कहा- ‘प्रभो! अब हमारी बहुत छलना न कीजिये। इस व्यर्थ के जीवन को बिताते-बिताते वृद्धावस्था समीप आ चुकी। इस शरीर को भाँति-भाँति के कष्ट पहुँचाकर काशी, कांची, अवन्तिका आदि सभी पवित्र पुरियों और पुण्य-तीर्थों की पैदल ही यात्रा की। घर-घर से मुट्ठी-मुट्ठी अन्न माँगकर हमने अपनी जीविका चलायी। अब तो हमें श्रीकृष्ण-प्रेम का अधिकारी बना देना चाहिये। अब हमें किसी भी प्रकार प्रभु-प्रेम प्राप्त हो, यही पूज्य पाद-पद्मों में विनीत प्रार्थना है।’
ब्रह्मचारी जी की बातें सुनकर प्रभु कुछ भी नहीं बोले। वे ब्रह्मचारी जी की ओर देखकर मन्द-मन्द भाव से खड़े मुसकरा रहे थे। ब्रह्मचारी जी प्रभु की मुसकराहट का अर्थ समझ गये। वे अधीर होकर अपने-आप ही कह उठे- ‘प्रभो! हम तीर्थ यात्राओं का कथन करके अपना अधिकार नहीं जता रहे हैं। हम तो दीनभाव से एकमात्र आपकी शरण होकर प्रेम की याचना कर रहे हैं। हमें श्रीकृष्ण-प्रेम प्रदान कीजिये।
भावावेश में प्रभु के मुख से स्वतः ही निकल पड़ा- ‘जाओ दिया, दिया।’
बस, इतना सुनना था कि ब्रह्मचारी सब कुछ भूलकर प्रेमावेश में भरकर पागलों की भाँति नृत्य करने लगे। वे नृत्य करते-करते उन्मत्त की भाँति मुख से कुछ प्रलाप-सा भी करते जाते थे। प्रभु उनकी ऐसी विचित्र दशा देखकर प्रेम में गद्गद हो गये और उनकी झोली में से धानमिश्रित भिक्षा के सूखे चावलों को निकाल-निकालकर चबाने लगे, मानो सुदामा के प्रति प्रेम प्रकट करते हुए कृष्ण उनके घर की चावलों की कनी को चबा रहे हों। इन दोनों के इस प्रकार प्रेममय व्यवहार को देखकर सभी दर्शक चकित-से हो गये और बार-बार प्रभु के प्रेम की प्रशंसा करने लगे। शुक्लाम्बर ब्रह्मचारी भी अपने को कृतकृत्य समझकर प्रेम में विभोर हुए अपनी कुटिया में चले गये।
इस प्रकार भक्तों के हृदय में प्रभु के प्रति अधिकाधिक सम्मान के भाव बढ़ने लगे। प्रभु भी भक्तों पर पहले से अत्यधिक प्रेम प्रदर्शित करने लगे।
श्रीवास पण्डित के घर संकीर्तन का आरम्भ माघमास में हुआ था, परंतु दो-ही-तीन महीने में इसकी चर्चा चारों ओर फैल गयी और बहुत-से दर्शनार्थी संकीर्तन देखने की उत्सुकता से रात्रि में श्रीवास पण्डित के घर पर आने लगे। किंतु संकीर्तन के समय घर का फाटक बंद कर दिया जाता था। इसलिये सभी प्रकार के लोग भीतर नहीं जा सकते थे। बहुत-से लोगों को तो निराश होकर ही द्वार पर से लौटना पड़ता था। संकीर्तन में खास-खास भक्त ही भीतर जा सकते थे। उस समय संकीर्तन का यही नियम निर्धारित किया गया था।
क्रमशः अगला पोस्ट [44]
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]
, Shri Hari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram Sankirtana starts at Srivas’s house
Wiping the mirror of the mind, extinguishing the fire of the great fire of birth Better is the distribution of the Kairava moon and the life of the bride of knowledge. Enhancing the ocean of joy, tasting the full nectar every step The supreme bath of the whole self is the chanting of Lord Krishna.
The whole world is behaving under an unknown attraction. Fire appears hot to everyone. Water seems cool to everyone. When there is cold and heat, its happiness and sorrow are experienced by the living being. It is a matter of course that due to the difference in status, there is a sense of moderation in his experience. Everyone experiences it in one way or the other.
The original origin of this creature is joy. Being the son of Anand, he has always been searching for Anand. ‘May I always remain in bliss’ is its natural desire, it should be there too. The reason is that the qualities of the father definitely come in others. That’s why, being born out of joy, it also wants to remain in joy and in the end it is also found in joy. A point of water is separated from the ocean, it may travel to many places after being separated, but in the end it will have to come to the ocean after roaming everywhere. Apart from the sea, it has no other speed. It will evaporate into the clouds. It will rain on the earth after becoming rain from the clouds. Flowing from the earth, it will go to the pond, from the pond it will reach a small river, from it again to a big river, in the same way it will reach the sea by mixing with the flow of the Mahanad. Sometimes, due to contact with a small pond, foul smell will also appear in it, but in the four-month flood, all that foul smell will be cleared and it will reach its designated place with great speed.
The mind of the meditating beings is the same. Its speed operates in the same way everywhere. The instincts of the mind in the whole body work with only one fixed rule. The main goal of the living being is to go and do yoga with his beloved. He does not have peace without reaching the beloved, then going there and living as him or merging himself in his form, it all depends on the individual’s feelings. No matter what happens, one has to reach near. You have to do yoga. There is no peace without yoga, yoga can happen only when the mind-sets are restrained.
The mind is very fickle, it starts creating more and more trouble in solitude, so a simple way to control it is that those who have controlled their mind’s activities to some extent or completely by doing auspicious rituals of previous births or by receiving God’s grace. Yes, we should merge our mind with his mind. The reason is that homogeneous object gets attracted towards its homogeneous object very quickly. That’s why so much glory has been sung of satsang and sankirtan. If any means is done with one purpose with one mind and one mind, then its importance is thousand times more than doing separate means and especially in this time of severe Kaliyuga when all the food items are contaminated with emotions. have become contaminated and the atmosphere of Girishikhar, secluded places etc. has become contaminated due to thoughts-defects, in such dire times, the best means is to stay in the group of good men and keep doing Shri Krishna-Sankirtan with love. The same sentence is also found in Smritis – ‘Sanghe Shakti: Kalau Smrita’. In Kaliyuga, all kinds of means can be fruitful only with the power of the union and in Kaliyuga ‘Kalau Keshavkirtanat’ means Keshav-Kirtan is the best means. That’s why it has been proved from all these things that in Kalikal, if everyone chants Keshav continuously in a lonely place with one mind and one mind, then every seeker can get a lot of help from each other in their respective means. Understanding all this, Sankirtanavatar Sri Chaitanyadev laid the foundation of Sankirtan. He did not run away in the forests even after coming in such a great emotion. In that state of ecstasy, in which one forgets family and friends, he continued to do Shri Krishna-Kirtan by staying among the people and by his conduct remained engaged in enlightening the world by giving public education. This is his specialty from other great men.
Mahaprabhu’s condition now takes on some seriousness, now he comes to his senses sometimes and talks to the devotees among themselves. Some devotees who had been waiting for a long time came to the Lord and all of them together advised him to do sankirtan daily. The Lord gladly accepted everyone’s consent and all the arrangements for Sankirtan started at the house of Bhaktagraganya Shrivas. At night, the devotees of Bhagwad started gathering there in small numbers. The Lord first started the sankirtan. Everyone supported the Lord.
While doing Sankirtan, the Lord got ecstatic and started dancing Tandav. There was not even the slightest improvement in the body. Being engrossed in a kind of greatness, his body was continuously rotating like the Alatchakra. Neither his position was visible to anyone nor did he seem to be moving around. While dancing, he got a kind of hysterical fainting and in the same fainting, he fainted and fell on the earth. The devotees picked them up with great effort. After some time, he started saying something to the devotees while crying- ‘Brother! What should I do, my mind is not in my control now. I can’t say what I want to say. For how many days I have been thinking to say one thing to you, but I have not been able to say it yet. Today I will tell him to you guys. You guys listen carefully.’
On being told so by the Lord, all the devotees sat quietly and looked at the face of the Lord with curiosity. The Lord took courage and started saying with seriousness – ‘ You people are your most intimate, what can be secret in front of you? That’s why I tell you this thing which should not be disclosed in front of everyone. When I was returning from Gaya, a most beautiful child of Shyamvarna came near me in Natshala village. Beautiful nupurs were tied at her red-red soft feet. The toes of the feet were very beautiful and were small and big in order. Pitambar was tied around the waist. The stomach was full of trivali and the navel was round and deep.
The thorax was advanced and full of flesh. Not a single bone of the neck was visible. Garlands of Vanmala and Gunj were lying around the neck. Beautiful earrings were twinkling in the ears. He was looking at me slantingly with both beautiful eyes like lotus, black-black locks were waving over his beautiful round cheeks. He was playing Murli with a soft smile. After listening to the melodious tone of that murli, my mind was not under my control. I fainted and then don’t know where that child went?’ Saying this, the Lord fainted. Tears started flowing from his eyes.
All the hairs of the body stood completely erect. He started reciting this verse in his unconscious state-
Precious blessed days Hare! Without looking at you. Orphaned brothers! Karunaikasindho! Ha hant! Ha hant!! How do I send it.[1]
Prabhu used to recite this verse again and again with gusto and then fainted. After regaining some consciousness, he started reading it again. Somehow the devotees stopped the Lord from reciting the verses and he became natural in a short while. In this way, seeing his condition, all the present devotees started shedding tears, thus the whole night was spent in sankirtan and satsang.
In this way, the joy of kirtan began to take place daily in Shrivas Pandit’s house. At night, when the main devotees would gather, the doors of the house would be locked from inside and then the kirtan would begin. In Kirtan, all the instruments like Dhol, Kartal, Mridang, Majira etc. were played with rhythm and voice. The Lord used to stand and dance in the midst of all the devotees. Now their dance has started becoming very sweet. All the devotees would forget themselves in a fit of joy and start dancing with the Lord. In the body of the Lord, all the sattvik feelings such as stambh, swed, thrill, swarabhaang, trembling, disharmony and holocaust etc. would have arisen. The devotees would get mesmerized by seeing his wonderful expressions and would start doing sankirtan very loudly in ecstasy. Everyone was kind-hearted, everyone’s mind was always yearning to meet the Lord, no one had feelings of respect and show off. Everyone’s heart was pure, in such a situation what is the point of asking for happiness? They were all bliss themselves. Devotees used to worship each other, some used to hold the feet of the Lord in awe of love. Many cried holding each other’s feet. In this way the house of Srivasa Pandit became a love-bed with all loving acts. As soon as he entered that premaarnava, every living being became mad in love and automatically started dancing. As soon as he came in contact with the Lord there, he used to completely forget all the worldly matters. The heart of the devotees used to start yearning automatically.
Gadadhar was his most intimate. He always remained in the service of the Lord. One day, he was giving paan to the Lord for cleaning his mouth after meals. The Lord came in love and asked like an impatient child – ‘ Gadadhar! Brother, you tell me, where did my Krishna go leaving me? Brother I can’t survive without them. You really give me their address, wherever they are, I will go there in search of them and cry profusely hugging them. Just tell me where did they go?’
Gadadhar said to avoid the matter – ‘ You are impatient in vain like that. Well, can your Krishna ever leave you and go elsewhere? He resides in your heart all the time.
Hearing this, you asked with the same impatience – ‘Is dear Krishna also sitting in my heart?’
Gadadhar said after some time – ‘Why are you not sitting? He is now seated in your heart and will remain forever.
On hearing this, with great joy and glee, the Lord started tearing the heart with His big nails.
They started saying – ‘ I will see my Krishna with tears in my heart. They are sitting hidden near me and do not even give me darshan. I will rip this heart. Gadadhar was very sad to see them doing this and he got rid of them from this work by persuading them in many ways. Then he regained consciousness after a long time.
One day at night the Lord was sleeping on the bed. Gadadhar was engaged in serving his feet, while serving his feet, Gadadhar kept his head in the lotus feet of the Lord and prayed loudly – Lord! As a result of what sins does this wretch not get the love of Shri Krishna? You are poor, I don’t have the power of means, I can’t even do good deeds. I am also deprived of pilgrimage etc. virtuous deeds, I have the only support of Sri Charan. When will I be blessed? Lord! How long shall I live like this arid life without love?’
The Lord was pleased to hear his kind words like this and while assuring him, said – ‘Gadadhar! Don’t be impatient, you are very dear to Shri Krishna. Only the poor are most dear to God. No one can attain God without becoming humble. Those who are proud of their auspicious deeds or have faith in aggressive means, they can never be entitled to the great grace of the Lord.
The Lord is inexhaustible, his grace can be attained only by becoming uninhibited. Your feelings are like those of a complete devotee. When you have become free from true heart, then it will not take long for you to get the love of Shri Krishna. Tomorrow, after bathing in the Ganges, you will start feeling the full grace of the Lord.
Gadadhar’s happiness knew no bounds after hearing such words of the Lord. They kept shedding tears of joy all night being engrossed in love, they kept counting every moment when it would be morning and when I would get love. In waiting, his condition became like that of a madman. Sometimes he would get up and sit, sometimes he would stand and dance. Sometimes you would lie down and sometimes you would start laughing out loud thinking of something. The Lord was very pleased to see his condition. As soon as they bathed in the Ganges in the morning, they started dancing in joy. After drinking Premasav, he appeared to be insane, as if he had become completely intoxicated with that sweet-intoxicating liquor. Looking at the Lord with lazy eyes engrossed in love, he bowed down at His feet and expressed his gratitude and said – ‘Lord! By giving love to even this lowly sinner, you gave the true introduction of your holy name of the Purifier. Your grace is always for no reason on the living beings. He made even me who was without resources reach the periphery of difficult love. You have all the power. You can do everything.
Seeing his condition, the Lord said with impatience – ‘ Gadadhar! Gracious Shri Krishna has blessed you, now you pray to him for me too.
Gadadhar said with utmost humility – ‘ Lord! I consider you the reason for this. I consider this love to be the result of your kindness, I do not know if there is any other Krishna apart from you. While saying this, Gadadhar started crying in love.
Shuklamber Brahmachari also saw such condition of Gadadhar. A burning desire to get love also arose in his heart. Like Gadadhar, they also wanted to be madly in love by forgetting themselves. His heart also became impatient to drink Premasav. The next day they were coming after begging. On the way to the Ganges, the Lord met him. On seeing the Lord, those old brahmacharis fell at his feet. Expressing hesitation, the Lord said – ‘ I am like your son. You have brought me up like a father since childhood and fed me lovingly. What mischief are you doing, why are you blaming me?’
After listening to these words of the Lord, Brahmachari ji said with a keen sense – ‘ Lord! Now don’t cheat us a lot. While living this useless life, old age has come near. By causing various kinds of pain to this body, he traveled on foot to all the holy cities and holy places like Kashi, Kanchi, Avantika etc. We made our living by asking for food hand by hand from house to house. Now we should be made entitled to the love of Shri Krishna. Now we can get God’s love in any way, this is the humble prayer in the sacred feet.
Prabhu did not say anything after listening to the words of Brahmachari ji. Looking at Brahmachari ji, he was standing smiling softly. Brahmachari ji understood the meaning of God’s smile. Being impatient, he said to himself – ‘Lord! We are not asserting our rights by talking about pilgrimages. We are humbly pleading for love by taking refuge in you alone. Give us Shri Krishna-love.
In emotion, it came out of the Lord’s mouth automatically – ‘Go Diya, Diya.’
All I had to hear was that the celibate forgot everything and started dancing madly in love. While dancing, he used to babble like a madman. Prabhu fell in love after seeing such a strange condition of him and took out dry rice mixed with paddy alms from his bag and started chewing it, as if Krishna was chewing the rice kani of his house while expressing his love for Sudama. Seeing the loving behavior of these two, all the onlookers were amazed and started praising the Lord’s love again and again. Shuklamber Brahmachari also went to his cottage thinking himself to be a good deed.
In this way, more and more respect for the Lord started increasing in the hearts of the devotees. The Lord also started showing more love to the devotees than before.
Sankirtan was started at Srivas Pandita’s house in the month of Maghmas, but in two-three months its discussion spread all around and many visitors started coming to Srivas Pandita’s house at night with eagerness to see Sankirtan. But at the time of Sankirtan the gate of the house was closed. That’s why not all kinds of people could enter. Many people had to return from the gate disappointed. Only special devotees could go inside in Sankirtan. At that time this rule of Sankirtan was fixed.
respectively next post [44] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]