[95]”श्रीचैतन्य–चरितावली”

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।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
आचार्य वासुदेव सार्वभौम

वाग्‍वैखरी शब्‍दझरी शास्‍त्रव्‍याख्‍यानकौशलम् ।
वैदुष्‍यं विदुषां तद्वद्भुक्तये न तु मुक्तये।।

शास्‍त्रों में बुद्धि दो प्रकार की बतायी गयी हैं। एक तो लौकिकी बुद्धि और दूसरी परमार्थ-सम्‍बन्धिनी बुद्धि। लौकिकी बुद्धि से परमार्थ के पथ में काम नहीं चलने का। चाहे आप कितने भी बड़े विद्वान क्‍यों न हों और आपको चाहे जितनी ऊँची-ऊँची बातें सूझती हों, पर उस इतनी ऊँची प्रखर बुद्धि का अन्तिम फल सांसारिक सुखों की प्राप्तिमात्र ही है। जब तक उस बुद्धि को आप परमार्थ की ओर नहीं झुकाते, तब तक आप में और लकड़ी बेचकर पेट भरने वाले जड पुरुष में कुछ भी अन्‍तर नहीं। वह दिनभर परिश्रम करके चार पैसे ही रोज पैदा करता है और उसी से जैसे-तैसे अपने परिवार का भरण-पोषण करता है और आप अपनी प्रखर प्रतिभा के प्रभाव से हजारों, लाखों रुपये रोज पैदा करते हैं। उनसे भी आपकी पूर्णरीत्‍या संतुष्टि नहीं होती और अधिकाधिक धन प्राप्‍त करने की इच्‍छा बनी ही रहती है। धन की प्राप्ति में दोनों ही उद्योग करते हैं और दोनों को जो भी प्राप्‍त होता है उसमें अपनी-अपनी स्थिति के अनुसार दोनों ही असंतुष्‍ट बने रहते हैं। तब केवल शास्त्रों की बातें पढ़ाकर पैसा पैदा करने वाले पण्डित में और लकड़ी बेचकर जीवननिर्वाह करने वाले मूर्ख में अन्‍तर ही क्‍या रहा? तभी तो तुलसीदास जी ने कहा है-

काम, क्रोध, मद, लोभ की, जबलग मन में खान।
तबलग पंडित मूरखा दोनों एक समान।।

जिनका उल्‍लेख पहले हो चुका है, वे सर्वविद्याविशारद अपने समय के अद्वितीय नैयायिक पण्डितप्रवर आचार्य वासुदेव सार्वभौम प्रभु के दर्शनों के पूर्व उसी प्रकार के पोथी के पण्डित थे, उनकी बुद्धि जब तक परमार्थ-पथ मे विचरण करने वाली नहीं बनी थी, तब तक उनकी सम्‍पूर्ण शक्ति पुस्‍तक की विद्या की ही पर्यालोचना में नष्‍ट होती थी।

आचार्य वासुदेव सार्वभौम का घर नवद्वीप के ‘विद्यानगर’ नामक स्‍थान में था। इनके पिता का नाम महेश्वर विशारद था। विशारद महाशय शास्‍त्रज्ञ और कर्मनिष्‍ठ ब्राह्मण था। महाप्रभु के मातामह श्रीनीलाम्‍बर चक्रवर्ती के साथ पढ़े थे। सार्वभौम दो भाई थे। इनके दूसरे भाई श्रीमधुसूदन वाचस्‍पति बहुत प्रसिद्ध विद्वान तथा नामी पण्डित थे। उनकी एक बहिन थी जिसका विवाह श्री गोपीनाथाचार्य के साथ हुआ था।

सार्वभौम महाशय की बुद्धि बाल्‍यकाल से ही तीव्र थी। पाठशाला में ये जिस पाठ के एक बार सुन लेते फिर उसे दूसरी बार याद करने की इन्‍हें आवश्‍यकता नही होती थी। पढ़ने में प्रमाद करना तो ये जानते ही नहीं थे। किसी बात को भूलना तो इन्‍होंने सिखा ही नहीं था। एक बार इन्‍हें जो भी सूत्र या श्‍लोक कण्‍ठस्‍थ हो गया मानो वह लोहे की ल‍कीर की भाँति स्‍थायी हो गया।

जिस समय वे नवद्वीप में विधार्थी बनकर विद्याध्‍ययन करते थे उस समय नवद्वीप संस्‍कृत-विद्या का एक प्रधान पीठ बना हुआ था। गौड़, उत्‍कल और बिहार आदि सभी देशों के छात्र वहाँ आ-आकर संस्‍कृत-विद्या का अध्‍ययन करते थे। नवद्वीप में व्‍याकरण, काव्‍य, अलंकार, ज्‍योतिष, दर्शन तथा वेदान्‍तादि शास्त्रों की समुचितरूप से शिक्षा दी जाती थी, किन्‍तु तब तक नव्‍य-न्‍याय का इतना अधिक प्रचार नहीं था या यों कह सकते हैं कि तब तक गौड़-देश में नव्‍य-न्‍याय था ही नहीं। गौड़-देश के सभी छात्र न्‍याय पढ़ने के निमित्त मिथिला जाया करते थे। उन दिनों मिथिला ही न्‍याय का प्रधान केन्‍द्र समझा जाता था। मैथिल पण्डित वैसे तो जो भी उनके पास न्‍याय पढ़ने आता उसे ही प्रेमपूर्वक न्‍याय की शिक्षा देते, किन्‍तु वे न्‍याय की पुस्‍तकों को साथ नहीं ले जाने देते थे। विशेषकर बंगदेशीय छात्रों को तो वे खूब ही देख-रेख रखते। उस समय आज की भाँति छापने के यन्‍त्रालय तो थे ही नहीं। पण्डितों के ही पास हाथ की लिखी हुई पुस्‍तकें होती थीं, वही उनका सर्वस्‍व था। उनकी प्रतिलिपि भी वे सर्वसाधारण को नहीं करने देते थे। जब किसी की वर्षों परीक्षा करके उसे योग्‍य अधिकारी समझते तब बड़ी कठिनता से पुस्‍तक की प्रतिलिपि करने देते। पुस्‍तकों के अभाव से नवद्वीप में कोई न्‍याय की पाठशाला ही स्‍थापित न हो सकी थी। सर्वप्रथम रामभद्र भट्टाचार्य ने न्‍याय की एक छोटी-सी पाठशाला खोली। वे भी मिथिला से न्‍याय पढ़कर आये थे, किन्‍तु पुस्‍तक के अभाव से वे छात्रों की शंकाओं का ठीक-ठीक समाधान नहीं कर सकते थे।

विद्यार्थी वासुदेव भी अपने भाई मधुसुदन के साथ रामभद्र भट्टाचार्य की पाठशाला में न्‍याय पढ़ने लगे। कुशाग्रबुद्धि वासुदेव अपने न्‍याय के अध्‍यापक के सम्‍मुख जो शंका उठाते, उसका यथावत उतर न पाकर वे असन्‍तुष्‍ट होते। इनके अध्‍यापक इनकी प्रत्‍युत्‍पन्‍न प्रखर बुद्धि को समझ गये और इनसे एक दिन एकान्‍त में बोले- ‘भैया ! तुम सचमुच में नैयायिक बनने योग्‍य हो, तुम्‍हारी बुद्धि बड़ी ही कुशाग्र है। मैं तुम्हारी शंकाओं का ठीक-ठीक समाधान करने में असमर्थ हूँ। इसका प्रधान कारण यह है कि हमारे यहाँ तो कोई न्‍याय का पण्डित है नहीं। हम सबको न्‍याय पढ़ने के लिये मिथिला जाना पड़ता है। मिथिला ही आजकल भारतवर्ष में न्‍याय का प्रधान केन्‍द्र माना जाता है। मैथिल पण्डित पढ़ाने के लिये तो किसी को इनकार नहीं करते, जो भी उनके पास पढ़ने की इच्‍छा से जाता है, उसे प्रेमपूर्वक पढ़ाते हैं; किन्‍तु पुस्‍तक वे किसी को साथ नहीं ले जाते देते। ऐसी स्थिति में बिना पुस्‍तक जितना हम पढ़ा सकते उतना पढ़ाते हैं।’

अपने न्‍याय के अध्‍यापक के मुख से ऐसी बात सुनकर आत्‍माभिमानी वासुदेव विद्यार्थी को इससे बहुत ही दु:ख हुआ। उन्‍हें अध्‍यापक की विवशता पर दया आयी। उसी समय उन्‍होंने निश्‍चय कर लिया कि बंगदेश में न्‍याय की पुस्‍तकों के अभाव को मैं दूर करूँगा। उन्‍हें अपनी बुद्धि, स्‍मरणशक्ति और अद्भुत धारणा का विश्‍वास था। उसी दृढ़ विश्‍वास के वशीभूत होकर वे मिथिला पहुँचे और वहाँ जाकर उन्‍होंने विधिवत न्‍याय का पाठ समाप्‍त किया। अपने पुराने अध्‍यापक के मुख से उन्‍होंने जो बात सुनी थी, वह बिलकुल सच निकली। उन्‍हें इस बात का स्‍वयं अनुभव हो गया कि यहाँ से न्‍याय की पुस्‍तकें ले जाना सामान्‍य काम नहीं है। इसलिये उन्‍होंने न्‍याय के एक बड़े प्रामाणिक ग्रन्‍थ को आद्योपान्त कण्‍ठस्‍थ कर लिया। इस प्रकार वे कागज की पुस्‍तक को तो साथ न ला सके; किन्‍तु अपने हृदय के स्‍वच्‍छ पृष्‍ठों पर स्‍मरणशक्ति की सहायता से बुद्धि द्वारा लिखकर वे न्‍याय की पूरी पु‍स्‍तक को अपने साथ ले आये। आते ही इन्‍होंने नवद्वीप में अपनी न्‍याय की पाठशाला स्‍थापित कर दी। भला, जो इतने बड़े भारी प्रामाणिक ग्रन्थ को यथाविधि अक्षरश: कण्ठस्थ करके अपने देश के विद्यार्थियों के कल्‍याण के निमित्त ला सकता है, वह पुरुष कितना भारी बुद्धिमान, कितना बड़ा देशभक्‍त, कितनी उच्‍च श्रेणी का विद्याव्‍यासंगी तथा शास्‍त्रप्रेमी होगा, इसका पाठक स्‍वयं ही अनुमान कर सकते हैं।

सार्वभौम की विद्वत्ता, छात्रप्रियता, गम्‍भीरता तथा पढ़ाने की सुन्‍दर और सरल शैली की थोड़े ही दिनों में दूर-दूर तक ख्‍याति फैल गयी। विभिन्‍न प्रान्‍तों से न्‍याय पढ़ने वाले बहुत-से छात्र इनके पास आ-आकर अपनी न्यायशास्त्र की पिपासा को इनके सुन्दर, सरल और प्रेमपूर्वक पढ़ाये हुए पाठ के द्वारा शांत करने लगे। इनके मित्र विद्यार्थी लोकप्रसिद्ध नैयायिक हुए, जिनके बनाए हुए ग्रन्‍थ नव्यन्‍याय में बहुत ही प्रामाणिक समझे जाते हैं। ‘दीधिति’ के रचयिता रघुनाथ पण्डित इन्‍हीं सार्वभौम महाशय के शिष्‍य थे।

उत्‍कल (उड़ीसा) प्रान्‍त के महाराजा प्रतापरुद्र जी संस्‍कृत-विद्या के बड़े ही प्रेमी थे। उन्‍होंने सार्वभौम भट्टाचार्य की विद्वत्ता की प्रशंसा सुनकर उन्‍हें अपनी पाठशाला में पढ़ाने के लिये बुला लिया।

सार्वभौम आचार्य राजा के सम्‍मानपूर्वक आमन्‍त्रण की अवहेलना नहीं कर सके, वे अपनी छात्रमण्‍डली के सहित जगन्‍नाथपुरी में महाराज की पाठशाला में पहुँच गये और वहीं वे विद्यार्थियों को विविध शास्त्रों शिक्षा देने लगे।

इसी बीच में इन्‍हें एक दिन सहसा महाप्रभु के दर्शन हो गये और उन्‍हें मूर्च्छित दशा में ही उठाकर अपने घर ले आये। पीछे से नित्‍यानन्‍द आदि प्रभु के चारों साथी भी वहाँ आ पहुँचे। तीसरे पहर प्रभु को जब ब्राह्म-ज्ञान हुआ, तब वे समुद्रस्‍नान करने के लिये गये और सार्वभौम के आग्रह से भोजन करने के लिये बैठे। सार्वभौम महाशय महाप्रभु के अद्भुत रुप-लावण्‍ययुक्‍त तेजस्‍वी मुखमण्‍डल को देखकर स्‍वंय ही उनकी ओर खिंचे-से जाते थे। प्रभु के दर्शन से ही वे अपने इतने बड़े शास्‍त्राभिमान को भूल गये और मन-ही-मन उनके चरणों में भक्ति करने लगे। महाप्रभु को संन्‍यासी समझकर ही सार्वभौम महाशय ने पूर्ण भक्तिभाव के साथ उन्‍हें भोजन कराया था। अन्‍त में उन्‍होंने महाप्रभु के चरणों में गृहस्‍थ-धर्म के अनुसार संन्‍यासी को पूज्‍य समझकर प्रणाम किया। संन्‍यासी जगत को नारायण का ही रुप देखता है। उसकी दृष्टि में ‘नारायण’ से पृथक किसी अन्‍य पदार्थ की सत्ता ही नहीं। इसीलिये संसारी लोग संन्‍यासी को ‘ॐ नमो नारायणाय’ कहकर ही प्रणाम करते हैं। संन्‍यासी उसके उत्तर में ‘नारायण’ ऐसा कह देते हैं। अर्थात वह इन्‍हें नारायण समझकर प्रणाम करता है, उनकी दृष्टि में भी प्रणाम करने वाला नारायण से भिन्‍न नहीं है, इसलिये वे भी कह देते हैं ‘नारायण’ अर्थात तुम भी नारायण के स्‍वरुप हो।

भट्टाचार्य सार्वभौम ने भी ‘ॐ नमो नारायण’ ही कहकर प्रभु को प्रणाम किया। प्रभु ने उसके उत्तर में कहा- ‘आपको श्रीकृष्‍ण भगवान के पादपद्मों में प्रगाढ़ प्रीति‍ हो।’

इस आशीर्वाद को सुनकर सार्वभौम महाशय को प्रसन्‍नता हुई और वे मन-ही-मन सोचने लगे कि वे कोई भगवदभक्त वैष्‍णव संन्‍यासी हैं, इसीलिये भट्टाचार्य के हृदय में इनका परिचय प्राप्‍त करने की इच्‍छा उत्‍पन्‍न हुई। प्रभु से तो इस बात को पूछने ही कैसे? शास्‍त्रज्ञ विद्वान होकर वे संन्‍यासी से उसके पूर्वाश्रम का ग्राम-नाम पूछते ही क्‍यों? संन्‍यासी से उसके पूर्वाश्रम की बातें करना निषिद्ध माना गया है, इसलिये प्रभु से न पूछकर अपने बहनोई गोपीनाथाचार्य से पूछा- ‘आचार्य ! आप इन संन्‍यासी के पूर्वाश्रम का कुछ समाचार जानते हैं?’

कुछ हँसकर आचार्य ने कहा- ‘आप इन्‍हें नहीं पहचान सके। नवद्वीप ही तो इनकी जन्‍मभूमि है। ये पं जगन्‍नाथ मिश्र पुरन्‍दर के पुत्र और श्री नीलाम्‍बर चक्रवर्ती के दौहित्र हैं।’

सार्वभौम को प्रभु का परिचय बड़ी प्रसन्‍नता हुई। नीलाम्‍बर चक्रवर्ती इनके पिता के सहाध्‍यायी थे और पुरन्‍दर पण्डित इनके साथ कुछ दिन पढ़े थे। सार्वभौम के पिता में और नीलाम्‍बर चक्रवर्ती में बड़ी प्रगाढ़ता थी। इसी सम्‍बन्‍ध से सार्वभौम के पिता पं. जगन्‍नाथ मिश्र को अपना मान्‍य समझते थे। अब तक सार्वभौम महाशय इन्‍हें एक कृष्‍णप्रेमी वैरागी संन्‍यासी समझकर ही मन-ही-मन भक्ति कर रहे थे। गोपीनाथ जी से प्रभु का परिचय पाते ही इनका भाव-परिवर्तन हो गया। अब तक वे तटस्‍थ भाव से एक सद्गृहस्‍थ की भाँति संन्‍यासी के प्रति जैसा शिष्‍टाचार बर्तना चाहिये वैसा बरत रहे थे। अब उनका प्रभु के प्रति कुछ ममत्‍व-सा हो गया और उनकी वह भक्ति भी वात्‍सल्‍यभाव में परिणत हो गयी। कुछ अपनापन प्रकट करते हुए सार्वभौम कहने लगे- ‘मुझे क्‍या पता था कि ये अपने घर के ही हैं। नीलाम्‍बर चक्रवर्ती के सम्‍बन्‍ध से एक तो ये हमारे वैसे ही मान्‍य तथा पूज्‍य हैं, जिस पर संन्‍यासी। इसलिये हमारे तो वे पूजनीय, सम्‍बन्‍धी और अत्‍यन्‍त ही आदरणीय हैं।’

प्रभु ने अत्‍यन्‍त ही नम्रता प्रकट करते हुए लज्जित भाव से कहा- ‘आप यह कैसी बातें कर रहे हैं, मैं तो आपके लड़के के समान हूँ। आप ज्ञानवृद्ध, वयोवृद्ध, विद्यावृद्ध तथा अधिकारवृद्ध हैं। बड़े-बड़े संन्‍यासियों को आप शास्‍त्रों की शिक्षा देते हैं। आपके सामने मैं कह ही क्‍या सकता हूँ? मैं तो आपके शिष्‍यों के शिष्‍य होने योग्‍य भी नहीं हूँ। अभी मेरी अवस्‍था भी बहुत छोटी है, मुझे संसार का कुछ भी ज्ञान नहीं है।’

सार्वभौम ने कहा- ‘ये वचन तो आपके शील-स्‍वभाव के द्योतक हैं। हमारे लिये तो संन्‍यासी होने के कारण आप पूज्‍य ही हैं।’

प्रभु ने फिर उसी प्रकार लजाते हुए धीरे-धीरे नीची दृष्टि करके कहा- ‘मैं तो अभी बच्‍चा हूँ, संन्‍यास के मर्म को क्‍या जानूँ? वैसे ही भावुकता के वशीभूत होकर मैंने रंगीन कपड़े पहन लिये हैं। संन्‍यासी का क्‍या कर्तव्‍य है, इस बात का मुझे कुछ पता नहीं। आप लोकशिक्षक हैं, अत: गुरु मानकर मैंने आपके ही चरणों का आश्रय लिया है। आप मेरा उद्धार कीजिये और मुझे संन्‍यासी के करने योग्‍य कर्मों की भिक्षा दीजिये। आज ही आपने मुझे इतनी घोर विपत्ति से बचा लिया। इसी प्रकार आगे भी आप मेरी रक्षा करते रहेंगे।’

सार्वभौम ने प्रेम प्रदर्शित करते हुए कहा- ‘देखना, अब कभी अकेले दर्शन करने मत जाना। जब भी दर्शन करने जाना तभी या तो चन्‍दनेश्‍वर को साथ ले जाना या किसी दूसरे मनुष्‍य को। तुम्‍हारा अकेले ही मन्दिर में दर्शन के लिये जाना ठीक नहीं है।’

प्रभु ने विनित भाव से कहा- ‘अब मैं कभी मन्दिर में भीतर दर्शन करने जाया ही न करूँगा। भगवान गरुड़ के ही सामने से दर्शन कर लिया करूँगा !’

‘सार्वभौम ने कहा-‘नहीं, गरुड़ के समीप से क्‍यों दर्शन करोगे? मन्दिर में सब आदमी अपने ही हैं, जहाँ से इच्‍छा हो, दर्शन करो। मैंने तो सावधानी के खयाल से यह बात कही है।’

इतनी बातें करने के अनन्‍तर सार्वभौम ने अपने बहनोई गोपीनाथाचार्य से कहा- ‘आचार्य महाशय ! आपने इनसे हमारा परिचय कराकर बड़ा ही उत्तम कार्य किया। आपकी ही कृपा से हम इन्‍हें पहचान सके। अब इनके ठहरने का कहीं एकान्‍त स्‍थान में प्रबन्‍ध करना चाहिये। हमारी मौसी का वह दूसरा घर ख़ाली भी है और एकान्‍त भी है, वह इनके लिये कैसा रहेगा?’

आचार्य ने कहा- ‘स्‍थान तो बहुत सुन्‍दर है, ये लोग उसे अवश्‍य ही पसंद करेंगे। उसी में सबका आसन लगवा दें।’

सार्वभौम ने कहा- ‘हाँ, हाँ, यही ठीक रहेगा। आप इन सबको वहीं ले जायँ।’

सार्वभौम की सम्‍मति से गोपीनाथाचार्य प्रभु को उनके साथियों के सहित सार्वभौम के मौसा के घर ले गये। प्रभु ने उस एकान्‍त स्‍थान को बहुत पसंद किया और वे अपने साथियों के सहित उसी में रहने लगे।

क्रमशः अगला पोस्ट [96]
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]



, Shri Hari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram Acharya Vasudev Sarvabhaum

The speech is the source of words, the skill of explaining the scriptures. Similarly, knowledge is for the enjoyment of the learned, not for liberation.

There are two types of intelligence mentioned in the scriptures. One is worldly intelligence and the other is spiritual intelligence. With worldly intelligence, no work can be done in the path of God. No matter how great a scholar you are and no matter how high you understand things, but the ultimate result of such a high intense intelligence is only the attainment of worldly pleasures. As long as you don’t bend that intelligence towards charity, there is no difference between you and an inert man who fills his stomach by selling wood. He earns only four paise a day by working hard throughout the day and maintains his family with that and you generate thousands, lakhs of rupees daily with the influence of your brilliant talent. Even they do not satisfy you completely and the desire to get more and more money remains. Both work hard to get money and both remain dissatisfied according to their respective positions in whatever they get. Then what is the difference between a scholar who earns money only by teaching the scriptures and a fool who makes a living by selling wood? That’s why Tulsidas ji has said-

Work, anger, item, greed, when you have a lot of food in your mind. Tablag Pandit fool both are same.

Those who have been mentioned earlier, Sarvavidya Visharad, the unique lawyer of his time, Pandit Pravar Acharya Vasudev, was a scholar of the same type of pothi before the darshan of the universal God, until his intellect did not become the one to wander in the path of God, his whole The power was destroyed in the criticism of the knowledge of the book itself.

The house of Acharya Vasudev Sarvabhaum was in a place called ‘Vidyanagar’ of Navadvipa. His father’s name was Maheshwar Visharad. Visharad Mahasaya was a scholar and a hardworking Brahmin. Mahaprabhu’s maternal uncle had studied with Srinilambar Chakravarti. The sovereigns were two brothers. His second brother Srimadhusudan Vachaspati was a very famous scholar and a renowned scholar. He had a sister who was married to Shri Gopinathacharya.

Universal gentleman’s intelligence was sharp since childhood. He did not need to remember the lesson which he had heard once in the school. They didn’t even know how to make mistakes in studies. He never taught us to forget anything. Once whatever sutra or verse was memorized by him, it was as if it became permanent like an iron line.

At the time when he used to study as a student in Navadweep, at that time Navadweep was a major center of Sanskrit learning. Students from all the countries like Gaur, Utkal and Bihar used to come there and study Sanskrit. In Navadvipa, grammar, poetry, ornamentation, astrology, philosophy and Vedantadi scriptures were properly taught, but till then there was not much publicity of Navya-Nyay or it can be said that till then there was Navya-Nyay in Gaud-Desh. Not only All the students of Gaur-Desh used to go to Mithila to study justice. In those days Mithila was considered to be the main center of justice. Maithil Pandit used to teach justice lovingly to whoever came to him to study justice, but he did not allow the books of justice to be taken with him. He used to take special care of the Bangladeshi students in particular. At that time there were no printing machines like today. Only the pundits had hand written books, that was their everything. He did not even let the general public copy them. When after examining someone for years and considering him a worthy officer, then with great difficulty he would allow the book to be copied. Due to lack of books, no school of justice could be established in Navadvipa. First of all, Rambhadra Bhattacharya opened a small school of justice. He had also come from Mithila after reading Nyay, but due to lack of the book, he could not solve the doubts of the students properly.

Student Vasudev also started studying justice in Rambhadra Bhattacharya’s school with his brother Madhusudan. Kushagrabuddhi Vasudev used to raise the doubts in front of his teacher of justice, he would have been dissatisfied if he could not get it resolved. His teacher understood his intense intelligence and one day said to him in solitude – ‘Brother! You are really capable of becoming a hero, your intelligence is very sharp. I am unable to solve your doubts exactly. The main reason for this is that there is no scholar of justice in our country. We all have to go to Mithila to study justice. Mithila itself is considered to be the main center of justice in India nowadays. Maithil Pandit does not deny anyone to teach, whoever goes to him with the desire to study, teaches him with love; But they don’t let anyone take the book with them. In such a situation, we teach as much as we can without books.

Self-respecting Vasudev Vidyarthi was deeply saddened to hear such a statement from his teacher of justice. He felt pity on the helplessness of the teacher. At the same time he decided that he would remove the lack of books of justice in Bangladesh. He believed in his intelligence, memory and amazing perception. He reached Mithila under the control of the same strong faith and by going there he finished the lesson of legal justice. What he had heard from his old teacher turned out to be absolutely true. He himself experienced that taking away the books of justice from here is not an ordinary task. That’s why he memorized a big authentic book of justice. Thus they could not bring the paper book with them; But he brought with him the whole book of justice, writing on the clean pages of his heart by his intellect with the help of memory. As soon as he arrived, he established his school of justice in Navadvipa. Well, the one who can memorize such a big and heavy authentic book literally and literally for the welfare of the students of his country, how highly intelligent, how great a patriot, how high class scholar and lover of scriptures that man would be, the reader himself can estimate it. can do.

In a few days, the fame of Sarvabhram’s scholarship, student-friendliness, seriousness and beautiful and simple style of teaching spread far and wide. Many students studying justice from different provinces came to him and satiated their thirst for jurisprudence through his beautiful, simple and loving lessons. His friends became famous Naiyayikas, whose books are considered very authentic in Navyanyaya. Raghunath Pandit, the author of ‘Didhiti’, was the disciple of this universal gentleman.

Maharaja Prataparudra of Utkal (Orissa) province was a great lover of Sanskrit learning. Hearing the praise of Sarvabhaum Bhattacharya’s scholarship, he called him to teach in his school.

Sarvabhaum Acharya could not ignore the king’s respectful invitation, he along with his student body reached Maharaja’s school at Jagannathpuri and there he started teaching various scriptures to the students.

In the meantime, one day he suddenly had a vision of Mahaprabhu and picked him up in an unconscious state and brought him to his home. The four companions of Nityanand Adi Prabhu also reached there from behind. At the third o’clock, when the Lord got the knowledge of Brahman, then he went to bathe in the sea and sat down to eat at the request of the universal. Seeing the wondrous face of Sarvabhaum Mahashay Mahaprabhu, he himself used to get pulled towards him. Seeing the Lord, he forgot his great pride in the scriptures and started doing devotion at his feet. Considering Mahaprabhu to be a monk, Sarvabhaum Mahasaya fed him with full devotion. In the end, he bowed down at the feet of Mahaprabhu, according to Grihastha-Dharma considering the Sannyasin to be worshipable. A sannyasin sees the world only as Narayan. In his view, there is no existence of any other substance apart from ‘Narayan’. That’s why worldly people bow down to a monk by saying ‘Om Namo Narayana’. Sannyasis say ‘Narayan’ in his answer. That is, he salutes him considering him as Narayan, in his eyes also the one who salutes is no different from Narayan, that’s why he also says ‘Narayan’ means you are also the form of Narayan.

Bhattacharya Sarvabhaum also bowed down to the Lord by saying ‘Om Namo Narayan’. The Lord said in his answer- ‘May you have deep love for the lotus feet of Lord Krishna.’

Hearing this blessing, Sarvabhaum Mahasaya was very happy and started thinking in his mind that he is a Vaishnava sanyasi, a devotee of God, that is why Bhattacharya’s heart had a desire to get his introduction. How to ask the Lord about this? Being a learned scholar, why does he ask the Sannyasin the name of the village of his former ashram? It is considered prohibited to talk to a monk about his former ashram, so instead of asking the Lord, he asked his brother-in-law Gopinathacharya – ‘Acharya! Do you know any news of this sannyasin’s former ashram?’

Acharya said laughing a bit – ‘ You could not recognize them. Navadweep is his birthplace. He is the son of Pt. Jagannath Mishra Purandar and the son-in-law of Shri Nilambar Chakraborty.

It was a great pleasure to introduce the Lord to the sovereign. Nilambar Chakraborty was a colleague of his father and Purandar Pandit studied with him for a few days. There was a lot of intensity between Sarvabhaum’s father and Nilambar Chakraborty. Due to this relation, the father of Universal considered Pt. Jagannath Mishra as his own. Till now Sarvabhaum Mahasaya was doing bhakti in his heart considering him as a Krishna-loving recluse. As soon as he got the introduction of God from Gopinath ji, his attitude changed. Till now, he was neutrally behaving like a good householder, according to the manners that should be shown towards the monk. Now he has developed some attachment towards the Lord and that devotion of his has also turned into affection. Expressing some affinity, Sarvabhaum started saying – ‘ How did I know that he belongs to his own house. With respect to Nilambar Chakraborty, he is respected and revered by us in the same way as a monk. That’s why they are worshipable, related and highly respected by us.

Expressing utmost humility, the Lord said with a feeling of shame – ‘ What kind of things are you talking about, I am like your son. You are knowledgeable, elderly, knowledgeable and empowered. You give the teachings of the scriptures to great sannyasins. What can I say in front of you? I am not even eligible to be your disciple. Right now my stage is also very young, I do not have any knowledge of the world.

Sarvabhaum said- ‘These words are indicative of your modesty. For us you are worthy of worship because of being a sannyasin.

Prabhu again in the same way shyly looking down slowly said – ‘ I am still a child, how can I know the meaning of sannyas? Similarly, being influenced by sentimentality, I have worn colorful clothes. I have no idea what is the duty of a monk. You are a public teacher, so I have taken shelter of your feet considering me as a Guru. You save me and give me alms to do the deeds worthy of a monk. Today itself you have saved me from such a grave calamity. Similarly, you will continue to protect me in future also.

Expressing love, the universal said- ‘Look, now never go alone for darshan. Whenever you go for darshan, either take Chandaneshwar with you or some other person. It is not right for you to visit the temple alone.’

The Lord humbly said – ‘ Now I will never go inside the temple to have darshan. I will have a darshan of Lord Garuda in front of me!’

‘ The sovereign said-‘ No, why would you have darshan from near Garuda? Everyone in the temple is his own, visit wherever you want. I have said this with a view of caution.

After talking so much, Sarvabhaum said to his brother-in-law Gopinathacharya – ‘Acharya sir! You did a great job by introducing them to us. It is only by your grace that we can recognize them. Now arrangements should be made for their stay in some secluded place. That second house of our aunt is empty as well as lonely, how will it be for them?’

Acharya said- ‘The place is very beautiful, these people will definitely like it. Get everyone’s seat installed in that.

The universal said – ‘ Yes, yes, this will be fine. You take them all there.’

With the consent of Sarvabhauma, Gopinathacharya took Prabhu along with his companions to the house of Sarvabhauma’s uncle. The Lord liked that secluded place very much and he along with his companions started living there.

respectively next post [96] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]

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