[96]”श्रीचैतन्य–चरितावली”

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।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
सार्वभौम और गोपीनाथाचार्य

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्‍णुर्गुरुर्देवो महेश्‍वर:।
गुरु: साक्षात् परब्रह्म तस्‍मै श्रीगुरवे नम:।।

इसी संसार-सागर में डूबते हुए निराश्रित जीवों के गुरुदेव ही एकमात्र आश्रय हैं। गुरुदेव ही बहते हुए, डूबते हुए, बिलखते हुए, अकुलाते हुए, बिलबिलाते हुए, अचेतन हुए जीवों को भव-वारिधि से बाँह पकड़कर बाहर निकाल सकने में समर्थ हो सकते हैं। त्रैलोक्‍यपावन गुरुदेव की कृपा के बिना जीव इस अपार दुर्गम पयोधि के पार जा ही नहीं सकता। वे अखिल विश्‍व-ब्रह्माण्‍डों के विधाता विश्‍वम्‍भर ही भाँति-भाँति के रूप धारण करके गुरुरूप से जीवों को प्राप्‍त होते हैं और उन्‍हीं के पादपद्मों का आश्रय ग्रहण करके मुमुक्षु जीव बात-की-बात में इस अपार उदधि को तर जाते हैं। किसी मनुष्‍य की सामर्थ्‍य ही क्‍या है जो एक भी जीव का वह विस्‍तार कर सके? जीवों का कल्‍याण तो वे ही परमगुरु श्रीहरि ही कर सकते हैं। इसीलिये मनुष्‍य गुरु हो ही नहीं सकता। जगद्गुरु तो वे ही श्रीमन्‍नारायण हैं, वे ही जिस जीव को संसार-बन्‍धन से छुड़ाना चाहते हैं, उसे गुरुरूप से प्राप्‍त होते हैं। अन्‍य साधारण बद्ध जीवों की दृष्टि में तो वह रुप साधारण जीवों की ही भाँति प्रतीत होता है; किन्‍तु जो अनुग्रह-सृष्टि के जीव हैं, जिन्‍हें वे श्री‍हरि स्‍वंय ही कृपापूर्वक वरण करना चाहते हैं उन्‍हें उस रूप में साक्षात श्रीसनातन पूर्णब्रह्म के दर्शन होते हैं। इसीलिये गुरु, भक्‍त और भगवान -ये मूल में एक ही पदार्थ के लोकभावना के अनुसार तीन नाम रख दिये गये हैं। वास्‍तव में इन तीनों में कोई अन्‍तर नहीं। इस भाव को अनुग्रह-सृष्टि के ही जीव समझ सकते हैं। अन्‍य जीवों के वश की यह बात नहीं है।

गोपीनाथाचार्य हृदय प्रधान पुरुष थे। उनके ऊपर भगवान की यथेच्‍छ कृपा थी। उनका हृदय अत्‍यधिक कोमल था। भावुकता की मात्रा उनमें कुछ अधिक थी, महाप्रभु के पादपद्मों में उनकी अहैतु की प्रीति थी। वे महाप्रभु के श्रीविग्रह में अपने श्रीमन्‍नारायण के दर्शन करते थे। उनके लिये प्रभु का पांचभौतिक नश्‍वर शरीर नहीं के बराबर था। वे उसमें सनातन, सत्य, सगुण, परब्रह्म का अविनाशी आलोक देखते थे और उसी भाव उनकी पूजा-अर्चा करते थे। वे अनुग्रह-सृष्टि के जीव थे, भगवान के अपने जन थे, उनके नित्‍य पार्षद थे।

एक दिन गोपीनाथाचार्य प्रभु को जगन्‍नाथ जी के शयनोत्‍थान के दर्शन कराकर लौटे। लौटते समय वे मुकुन्‍ददतत्त के साथ सार्वभौम महाशय के घर चले गये। सार्वभौम भट्टाचार्य ने अपने बहनोई का यथोचित सत्‍कार किया और मुकुन्‍ददत्त के सहित उन्‍हें बैठने के लिये आसन दिया। आचार्य के बैठ जाने पर इधर-उधर की बातें होती रहीं। अन्‍त में महाप्रभु जी का प्रसंग छिड़ गया।

सार्वभौम ने पूछा- ‘इन निमाई पण्डित ने किन से सन्‍यांस लिया है और इनके संन्‍यासाश्रम का क्‍या नाम है?’

गोपीनाथाचार्य ने कहा- ‘श्रीकृष्‍ण चैतन्‍य।’ कटवा के समीप जो केशव भारती महाराज रहते हैं, वे ही महाभाग संन्‍यासीप्रवर न्‍यासी चूड़ामणि महापुरुष इनके संन्‍यासाश्रम के गुरु हैं।’ सार्वभौम समझ गये कि केशव भारती कोई विद्वान और नामी संन्‍यासी तो हैं नहीं। ऐसे ही साधारण संन्‍यासी होंगे। फिर दण्‍डी संन्‍यासियों में भारतीयों को कुछ हेय समझते हैं। आश्रम, तीर्थ और सरस्‍वती- इन तीन दण्‍डी संन्‍यासियों में भारतीयों की गणना नहीं। उनके लिये दण्‍ड धारण करने का विधान तो है, किन्‍तु उनका दण्‍ड आधा समझा जाता है। यही सब विचारकर वे आचार्य से कुछ मुँह सिकोड़कर कहने लगे- ‘नाम तो बड़ा सुन्‍दर है, रूप-लावण्‍य भी इनका अ‍द्वि‍तीय है। कुछ शास्‍त्रज्ञ भी मालूम पड़ते हैं। उच्‍च ब्राह्मण-कुल में इनका जन्‍म हुआ है, फिर इन्‍होंने इस प्रकार हेय-सम्‍प्रदाय वाले संन्‍यासी से दीक्षा क्‍यों ली? मालूम होता है, बिना सोचे-समझे आवेश में आकर इन्‍होंने मूंड़ मुंड़ा लिया। यदि आप सब लोगों की इच्‍छा हो, तो हम किसी योग्‍य प्रतिष्ठित दण्‍डी स्‍वामी को बुलाकर फिर से इनका संस्‍कार करा दें।’

इस बात को सुनकर कुछ दु:ख प्रकट करते हुए आचार्य ने कहा- ‘आपकी बुद्धि तो निरन्‍तर शास्‍त्रों में शंका करते-करते शंकित सी बन गयी है। आपकी दृष्टि में घट-पट आदि बाह्म वस्‍तुओं के अतिरिक्त कोई दूसरी वस्‍तु है ही नहीं। ये साक्षात भगवान हैं, इन्‍हें बाह्य उपकरणों की क्‍या अपेक्षा? ये तो स्‍वयंसिद्ध त्‍यागी, संन्‍यासी, वैरागी और प्रेमी हैं; इन्‍हें आपकी सिफारिश की आवश्‍यकता न पड़ेगी।’

सार्वभौम ने कहा- ‘आपकी ये ही भावुकता की बातें तो अच्‍छी नहीं लगतीं। हम तो उन बेचारों के हित की बातें कह रहे हैं। अभी उनकी नयी अवस्‍था है। संसारी सुखों से अभी एकदम वंचित- से ही रहे हैं। ऐसी अवस्‍था में ये संन्‍यास-धर्म के कठोर नियमों का पालन कैसे कर सकेंगे?’ आचार्य ने कहा- ‘ये नियमों के भी नियामक हैं। इनका संन्‍यास ही क्‍या? यह तो लोक-शिक्षा के निमित्त इन्‍होंने ऐसा किया है।’ हंसते हुए सार्वभौम ने कहा- ‘यह खूब रही, युवावस्‍था में इन्‍हें यह लोक-शिक्षा की खूब सूझी। महाराज ! आप कहीं लोक-शिक्षा के निमित्त ऐसा मत कर डालना।’

आचार्य ने कहा- ‘लोक-शिक्षा मनुष्‍य कर ही क्‍या सकता है, वह तो भगवान का ही कार्य है और वे विविध वेष धारण करके लोक-शिक्षण का कार्य किया करते हैं।’

जोरों से हंसते हुए सार्वभौम ने कहा- ‘बाबा! दया करो, उस बेचारे संन्‍यासी को आकाश पर चढ़ाकर उसके सर्वनाश की बातें क्‍यों सोच रहे हो? पुराने लोगों ने ठीक ही कहा है- ‘आचार्य ने उड़ने की शक्ति नहीं होती, पीछे से शिष्‍यगण ही उसके पंख लगाकर उन्‍हें आकाश में उड़ा देते हैं, मालूम पड़ता है आप इस युवक संन्‍यासी के अभी से पर लगाना चाहते हैं। आपकी दृष्टि में ये ईश्‍वर हैं?’ आवेश के साथ आचार्य ने कहा- ‘हाँ ईश्‍वर हैं, ईश्‍वर हैं, ईश्‍वर हैं। मैं प्रतिज्ञा करके कहता हूँ ये साधारण जीव नहीं हैं।’

आचार्य की आवेशपूर्ण बातों को सुनकर सार्वभौम के आसपास में बैठे हुए स‍भी शिष्‍य एकदम चौंक-से पड़े। सार्वभौम भी कुछ विस्मित-से होकर आचार्य के मुख की ओर देखने लगे। थोड़ी देर के पश्‍चात हंसते हुए सार्वभौम ने कहा- ‘मुँह आपके घर का है, जीभ उधार लेने किसी के पास जाना नहीं पड़ता, जो आपके मन में आवे वह अनाप-शनाप बकते रहें। किन्‍तु आपने तो शास्‍त्रों का अध्‍ययन किया है, भगवान के अवतार तीनों ही युगों में होते हैं। कलिकाल में इस प्रकार के अवतारों की बात कहीं भी नहीं सुनी जाती। फिर अवतार तो सब गिने-गिनाये हैं। उनमें तो हमने ऐसा अवतार कहीं नहीं सुना। वैसे तो जीवमात्र को ही भगवान का अंश होने से अवतार कहा जा सकता है। अथवा-

अवतारा ह्यसंख्‍येया हरे: सत्त्वनिधेर्द्विजा:।
यथाविदासिन: कुल्‍या: सरस: स्‍यु: सहस्‍त्रश:।।

श्रीमदभागवत के इस श्‍लोक के अनुसार असंख्‍य अवतार भी माने जा सकते हैं और वे आवश्‍यकता पड़ने पर सब युगों में उत्‍पन्‍न हो सकते हैं, किन्‍तु उनकी गणना अंशाश-अवतारों में भी की गयी है जैसा कि श्रीमद्भगवदगीता में कहा हैं-

यद्यद्विभूतिमत्‍सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा।
तत्तदेवावगच्‍छ त्‍वं मम तेजोंऽशसम्‍भवम्।।[2]

इस दृष्टि से आप इन संन्‍यासी को अवतार कहते हैं, तो हमें भी कोई आपत्ति नहीं, किन्‍तु ये ही साक्षात सनातन परब्रह्म हैं, सो कैसे हो सकता है? भगवान श्रीकृष्‍ण ही सनातन पूर्ण ब्रह्म हैं, उनका अवतार युगों में नहीं होता, कल्‍पों में भी नहीं होता, कभी सैकड़ों-हजारों युगों के पश्‍चात वे अवतीर्ण होते हैं। इसलिये आप कोरी भावुकता की बातें कर रहे हैं।’

आचार्य ने कहा- ‘मालूम पड़ता है, बहुत शास्‍त्रों की आलोचना करने से शास्त्रों के वाक्‍यों को भी आप भूल गये हैं। आप जानते हैं, नित्‍य-अवतार के लिये कोई नियम नहीं। उनका रहस्‍य शास्‍त्र क्‍या समझ सकें? यह तो शास्‍त्रा‍तीत विषय है, नित्‍य-अवतार का कभी तिरोभाव नहीं होता, वह तो एकरस होकर सदा संसार में व्‍याप्‍त रहता है। किसी भाग्‍यवान को ही वह गुरुरूप से प्राप्‍त होते हैं और जिस पर उनका अनुग्रह होता है, वही उनका कृपापात्र बन सकता है।’ हंसते हुए सार्वभौम ने कहा- ‘यह नित्‍यावतार कौन-सी नयी वस्‍तु निकल आयी?’

आचार्य ने कुछ क्षोभ के स्‍वर में कहा- ‘आपको तो समझाना इसी प्रकार है जैसे ऊसर भूमि में बीज बोना। परिश्रम तो व्‍यर्थ जाता ही है, साथ ही बीज का नाश होता है।’

कुछ विनोद के स्‍वर में सार्वभौम ने कहा- ‘उपजाऊ भू‍मि के चरणों में मैं प्रणाम करता हूँ और इससे प्रार्थना करता हूँ कि हमारे ऊपर भी कृपा करे। आप आपे से बाहर क्‍यों हुए जाते हैं, हमें समझाइये, आप किस प्रकार इन्‍हें साक्षात ईश्‍वर कहते हैं।’

आचार्य ने कहा- ‘सोते को तो जगाया भी जा सकता है, किन्‍तु जो जागता हुआ भी सोने का बहाना करता है, उसे भला कौन जगा सकता है? आप जान-बूझकर भी अनजानों की-सी बातें कर रहे हैं, अब आपकी बुद्धि को क्‍या कहूँ? आप जानते नहीं- ‘गुरु: साक्षात परब्रह्म तस्‍मै श्रीगुरवे नम:।’ इसमें गुरु को साक्षात परब्रह्म बताया गया है। क्‍या गुरु साक्षात परब्रह्म नहीं हैं ? जिनकी संगति से श्रीकृष्‍णपदारविन्‍दों में अनुराग हो, उनमें और श्रीकृष्‍ण में मैं कुछ भी भेद नहीं समझता। जो भी कुछ भेद प्रतीत होता है, वह व्‍यवहार चलाने के लिये है। वास्‍तव में तो गुरु और श्रीकृष्‍ण एक ही हैं। वे अपने-आप ही कृपा करके अपने चरणों में प्रीति प्रदान करते हैं। वे जब तक किसी रूप से कृपा नहीं करते तब तक उनके चरणों में प्रेम होना असम्‍भव है।’

वासुदेव सार्वभौम ने कहा- ‘आचार्य महाशय ! यह तो कुछ भी बात नहीं हुई। इसका तो सम्‍बन्‍ध भावना से है और अपनी-अपनी भावना पृथक-पृथक होती है। यह बात तो सचमुच शास्‍त्रों से परे की है। दृढ़ और शुद्ध भावना के अनुसार मानने के लिये मजबूर नहीं कर सकते। आपकी उन संन्‍यासी युवक में गुरु-भावना या परब्रह्म की भावना है, तो ठीक है। किन्‍तु हम भी आपकी बातों से सहमत हों, इस बात का आग्रह करना आपकी अनधिकार चेष्‍टा है। हम उन्‍हें एक साधारण संन्‍यासी ही समझते हैं। वैसे वे बेचारे बड़े सरल हैं, भगवान की उनके ऊपर कृपा है, इस अल्‍पावस्‍था में भगवान के पादपद्मों में इतना अनुराग, ऐसा अलौकिक त्‍याग, इतना अद्भुत वैराग्‍य सब साधुओं में नहीं मिलने का। बहुत खोजने पर लाखों, करोड़ों में ऐसा अनुराग मिलेगा। हम उनके त्‍याग, वैराग्‍य और भगवत-प्रेम के कायल हैं, किन्‍तु उन्‍हें आपकी तरह ईश्‍वर मानकर लोगों में अवतारपने का प्रचार करें, यह हमारी शक्ति के बाहर की बात है।’

आचार्य ने कुछ दृढ़ता के स्‍वर में कहा- ‘अच्‍छी बात है, देख लिया जायगा। कब तक आपके ये भाव रहते हैं।’

इस प्रसंग को समाप्‍त करने की इच्‍छा से बात के प्रवाह को बदलते हुए सार्वभौम ने कहा- ‘आप तो हमारे जो कुछ हो सो हो ही, हमारी किसी बात को बुरा न मानना। हमारा-आपका तो सम्‍बन्‍ध ही ऐसा हैं, कोई अनुचित बात मुंह से निकल गयी हो तो क्षमा कीजियेगा।’

आचार्य ने कुछ उपेक्षा-सी करते हुए कहा- ‘क्षमा की इसमें कौन-सी बात है! मैं भगवान से प्रार्थना करूँगा कि आपके इन नास्तिकों के–से विचारों में वे परिवर्तन करें और आपको अपना कृपापात्र बना लें।’

हंसते हुए सार्वभौम ने कहा- ‘आप पर ही भगवान की अनन्‍त कृपा बहुत है। उसी में से थोड़ा हिस्‍सा हमें भी दे देना। हां, उन संन्‍यासी महाराज को कल हमारी ओर से भोजन का निमन्‍त्रण दे देना। कल हमारी इच्‍छा उन्‍हें यहीं अपने घर में भिक्षा कराने की है।’

इसके अनन्‍तर कुछ और इधर-उधर की दो-चार बातें हुई और अन्‍त में मुकुन्‍ददत्त के साथ गोपीनाथाचार्य प्रभु के स्‍थान के लिये चले। सार्वभौम की शुष्‍क तर्कों से मुकुन्‍ददत्त को मन-ही-मन बहुत दुख हो रहा था। आचार्य भी कुछ उदास थे।

प्रभु के समीप पहुँचकर गोपीनाथाचार्य ने सार्वभौम से जो-जो बातें हुई थीं, उन्‍हें संक्षेप में सुनाते हुए कहा- ‘प्रभो ! मुझे और किसी बात से दु:ख नहीं है। दु:ख का प्रधान कारण यह है कि सार्वभौम अपने आदमी होकर भी इस प्रकार के विचार रखते हैं। प्रभो ! उनके ऊपर कृपा होनी चाहिये। उनके जीवन में से नीरसता को निकालकर सरसता का संचार कीजिये। यही मेरी श्रीचरणों में विनीत प्रार्थना है।’

प्रभु ने कुछ संकोच के साथ अपनी दीनता दिखाते हुए कहा- ‘आचार्य महाशय ! यह आप कैसी भूली भूली-सी बातें कह रहे हैं। सार्वभौम तो हमारे पूज्‍य हैं- मान्‍य हैं, वे मुझपर पुत्र की भाँति स्‍नेह करते हैं, उनसे बढ़कर पुरी में मेरा दूसरा शुभचिन्‍तक कौन होगा? उन्‍हीं के पादपद्मों की छाया लेकर तो मैं यहाँ पड़ा हुआ हूँ। वे मेरे लिये जो भी कुछ सोचें, उसी में मेरा कल्‍याण होगा। जिस बात से उन्‍हें मेरे अमंगल की सम्‍भावना होगी उसे वे अवश्‍य ही बता देंगे। इसी बात में तो मेरी भलाई है। यदि गुरुजन होकर वे भी मेरी प्रशंसा ही करते रहेंगे, तो मैं इस कच्‍ची अवस्‍था में संन्‍यास-धर्म का पालन कैसे कर सकूँगा? आप उनकी किसी भी बात को बुरा न मानें और सदा उनके प्रति पूज्‍यभाव रखें, वे मेरे, आपके-सबके पूज्‍य हैं। वे शिक्षक, उपदेष्‍टा, आचार्य तथा हमारे हितचिन्‍तक हैं।’ इस प्रकार नम्रतापूर्वक आचार्य को समझाकर प्रभु ने उन्‍हें बिदा किया और आप भक्‍तों के सहित श्रीकृष्‍ण-कीर्तन करने लगे।

क्रमशः अगला पोस्ट [97]
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]



, Shri Hari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram Universal and Gopinathacharya

The spiritual master is Brahma, the spiritual master is Vishnu, the spiritual master is God and the spiritual master is Maheshwara. The spiritual master is directly the Supreme Brahman.

Gurudev is the only refuge of the destitute creatures drowning in this world-ocean. Only Gurudev can be able to take out the floating, drowning, wailing, writhing, wailing, unconscious creatures by holding their arms out of the clutches of material existence. Without the grace of the Trilokyapavan Gurudev, a living being cannot cross this immense inaccessible path. He, the creator of all the worlds and universes, taking different forms in the universe, is received by the living beings in the form of Guru and by taking shelter of his lotus feet, the living beings cross this immense distance in every matter. What is the power of a human being that he can expand even a single living being? Only the Supreme Guru Sri Hari can do the welfare of the living beings. That’s why a man cannot be a guru. The Jagadguru is that Srimannarayan, the soul who wants to be freed from the bondage of the world, gets it in the form of a guru. In the eyes of other ordinary conditioned souls, that form appears like that of ordinary souls; But those who are the creatures of the grace-creation, whom Sri Hari himself wants to bless with grace, they get the darshan of Shri Sanatan Purna Brahm in that form. That’s why Guru, Bhakt and Bhagwan – these three names have been given to the same substance according to the public sentiment. Actually there is no difference between these three. Only creatures of grace-creation can understand this feeling. This is not in the control of other living beings.

Gopinathacharya was a man of heart. God’s grace was upon him as much as he wanted. His heart was very soft. The amount of sentimentality was a bit high in him, he had love for no reason in Mahaprabhu’s lotus feet. He used to have darshan of his Srimannarayana in the Deity of Mahaprabhu. For them the five physical mortal body of the Lord was of no value. They used to see in him the eternal, true, virtuous, imperishable light of Parabrahma and worshiped him in the same spirit. They were creatures of gracious creation, God’s own people, his constant councillors.

One day Gopinathacharya returned after showing Lord Jagannath ji’s darshan. On his return, he accompanied Mukundadatta to the house of Sarvabhauma Mahasaya. Sarvabhauma Bhattacharya felicitated his brother-in-law and offered him a seat along with Mukundadatta. After the Acharya sat down, things went on here and there. In the end the incident of Mahaprabhu ji broke out.

Sarvabhaum asked – ‘From whom did this Nimai Pandit take sanyas and what is the name of his sanyasashram?’

Gopinathacharya said – ‘Sri Krishna Chaitanya.’ Keshav Bharti Maharaj, who lives near Katwa, the same Mahabhag Sannyasipravar Nyasi Chudamani Mahapurush is the teacher of his sannyasashram.’ Sarvabhaum understood that Keshav Bharti is not a scholar and a renowned sannyasin. Such would be the ordinary sannyasins. Then, among the Dandi Sannyasins, Indians are considered to be some disgrace. Ashram, Tirtha and Saraswati – Indians are not counted in these three dandi sannyasins. There is a law for them to be punished, but their punishment is considered half. Thinking all this, he started saying to the Acharya with a shrinking face – ‘ His name is very beautiful, his beauty is also unique. Some scholars are also known. He was born in a high Brahmin-clan, then why did he take initiation from a monk of the Hay-community like this? It seems that he shaved his head in a fit of rage without any thought. If all of you wish, then we can call a worthy respected Dandi Swami and get him cremated again.’

Expressing some sorrow after listening to this, Acharya said- ‘Your intellect has become suspicious by constantly doubting the scriptures. In your vision, there is no other thing except external things etc. He is a real God, what does he expect from external devices? He is self-acclaimed renunciate, sannyasin, recluse and lover; They will not need your recommendation.

Sarvabhaum said- ‘I don’t like these sentimental things of yours. We are talking about the welfare of those poor people. His stage is now new. Right now we have been completely deprived of worldly pleasures. In such a situation, how will they be able to follow the strict rules of sannyas-religion?’ Acharya said- ‘He is the regulator of the rules as well. What is his sannyas? He has done this for the sake of public education. Laughingly, Sarvabhaum said- ‘It was good, in his youth he understood a lot about public education. King ! Don’t do this for the sake of public education.’

Acharya said- ‘Public education is what a human being can do, it is the work of God and He does the work of public education by wearing various costumes.’

Laughing out loud, Sarvabhaum said – ‘ Baba! Have mercy, why are you thinking of the annihilation of that poor sannyasin by raising him to the sky? The old people have rightly said- ‘Acharya does not have the power to fly, the disciples attach his wings from behind and make him fly in the sky, it seems that you want to put on the wing of this young monk. Is this God according to you?’ Acharya said with enthusiasm- ‘Yes there is God, there is God, there is God. I promise that these are not ordinary creatures.

Hearing the passionate words of the Acharya, all the disciples sitting in the vicinity of the universal were completely shocked. Sarvabhaum also started looking at Acharya’s face with some amazement. Laughing after a while, Sarvabhaum said – ‘The mouth belongs to your house, you don’t have to go to anyone to borrow your tongue, whatever comes to your mind, keep talking nonsense. But you have studied the scriptures, God’s incarnations happen in all the three ages. In Kalikal, the talk of such incarnations is not heard anywhere. Then all the incarnations are numbered. We have not heard such an incarnation in him anywhere. By the way, only a living being can be called an avatar because of being a part of God. Or-

O brahmins there are innumerable incarnations of Hari the treasure of Sattva There are thousands of lakes in the countryside

According to this verse of Shrimad Bhagwat, innumerable incarnations can also be considered and they can be born in all yugas if required, but they are also counted in Anshash-Avatars as it is said in Shrimad Bhagwad Gita-

Whatever being is glorious, prosperous or powerful. Know that to be a part of My splendour.

From this point of view, you call these sannyasis as avatars, then we also have no objection, but they are the eternal Parabrahma, so how can it be? Lord Shri Krishna is the eternal complete Brahma, his incarnation does not happen in ages, not even in imaginations, sometimes he incarnates after hundreds of thousands of ages. That’s why you are talking of pure sentimentality.

Acharya said- ‘It seems that by criticizing many scriptures, you have forgotten even the sentences of the scriptures. You know, there is no rule for eternal incarnation. How can one understand their mystery? This is a matter beyond the scriptures, the Nitya-Avatar never vanishes, it always remains constant in the world. Only a fortunate person receives them from the Guru’s form and the one who is blessed by him can become the recipient of his blessings. Laughing, Sarvabhaum said- ‘What new thing has come out of this daily incarnation?’

Acharya said in a tone of anger – ‘ To explain to you is like sowing a seed in a barren land. Effort goes in vain, along with it the seed is destroyed.

In the tone of some humor, the universal said- ‘I bow down at the feet of the fertile land and pray to it to bless us too. Why do you lose your temper, explain to us, how do you call him a real God.’

Acharya said- ‘The sleeping person can be woken up, but who can wake up the one who pretends to be sleeping while awake? You are deliberately talking like strangers, now what can I say about your intelligence? You don’t know- ‘Guru: Sakshat Parabrahma Tasmai Shrigurve Namah’. In this, the Guru has been described as Sakshat Parabrahma. Is the Guru not the real Parabrahma? I don’t see any difference between the devotees of Shri Krishna, for whose association there is affection, between them and Shri Krishna. Whatever difference seems to be there, it is for conducting business. In fact, Guru and Shri Krishna are one and the same. By His grace, He automatically bestows love at His feet. It is impossible to have love at His feet until He shows mercy in some form.

Vasudev Sarvabhaum said – ‘ Acharya sir! It didn’t matter at all. It is related to feeling and each feeling is different. This thing is really beyond the scriptures. Can’t force to believe according to strong and pure feelings. If you have the feeling of Guru-Bhavana or Parabrahma in those sannyasin youth, then it is okay. But insisting that we also agree with you is an unauthorized attempt on your part. We think of him as an ordinary monk. By the way, those poor people are very simple, God has mercy on them, in this short period, so much affection for God’s lotus feet, such supernatural sacrifice, such wonderful disinterest is not found in all the saints. If you search a lot, you will get such affection in lakhs, crores. We are convinced of his sacrifice, quietness and God-love, but considering him as God like you, propagate the incarnation among the people, it is beyond our power.

Acharya said in a tone of firmness – ‘Good thing, will see. How long do you have these feelings?

Changing the flow of the talk with the desire to end this episode, Sarvabhaum said- ‘You are ours whatever you are, don’t mind anything of ours. Our-yours relationship is like this, if any inappropriate thing has come out of your mouth, please forgive me.

Acharya said with some neglect – ‘ What is the point of forgiveness in this! I will pray to God that he may change the thoughts of these atheists of yours and make you his favorite.

Laughing, the sovereign said – ‘ God’s infinite grace is on you. Give a little part of that to us too. Yes, invite that Sanyasi Maharaj for a meal tomorrow. Tomorrow we wish to make him do alms right here in our house.

After this some other things happened here and there and finally Gopinathacharya went to the place of Prabhu with Mukundatta. Mukundadatta was deeply saddened by the dry arguments of Sarvabhauma. Acharya was also somewhat sad.

After reaching near the Lord, Gopinathacharya narrated in brief the things that had happened to the Universal and said- ‘Lord! I am not sad about anything else. The main reason for sorrow is that the universal, being his own man, has such thoughts. Lord! He should be blessed. Take out the monotony from their life and communicate the sweetness. This is my humble prayer at your feet.

The Lord showed his humility with some hesitation and said – ‘ Acharya sir! What kind of nonsense you are saying. Sarvabhaum is our worshipper, he is respected, he loves me like a son, who will be my second well wisher in Puri than him? I am lying here under the shade of his lotus feet. Whatever they think for me, my welfare will be in that only. They will definitely tell the thing which will cause me bad luck. I am good in this matter. If, being a teacher, they also continue to praise me, then how will I be able to follow the sannyas-religion in this raw state? You should not mind any of his words and always have respect for him, he is worshiped by me and everyone. He is our teacher, preceptor, master and our well-wisher.’ After humbly persuading the teacher, the Lord sent him away and you along with the devotees started chanting Shri Krishna.

respectively next post [97] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]

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