[97]”श्रीचैतन्य–चरितावली”

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।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
सार्वभौम भक्‍त बन गये

भवापवर्गो भ्रमतो यदा भवे-
ज्‍जनस्‍य तर्ह्मच्‍युत सत्‍समागम:।
सत्‍संगमो यर्हि तदैव सद्गतौ
परावरेशे त्‍वयि जायते मति:।।

पूर्वजन्‍मों के पापों का संचय विशेष न हो, भगवत्‍कृपा हो और किसी प्रकार से सही, हृदय में श्रद्धा के भाव हों, तो पुरुष के उद्धार में देर नहीं लगती। साधु-समागम होते ही बड़े-बड़े दुराचारी दुष्‍कर्मों का परित्‍याग करके परम भागवत बन गये हैं। सत्‍संग की महिमा ही ऐसी अपार है। तभी तो भर्तृहरिजी ने कहा है-

‘सत्‍संगति: कथय किं न करोति पुंसाम्?’

अर्थात ‘सत्‍संगति से मनुष्‍य की कौन-सी भलाई नहीं हो सकती ?’ सारांश यही है, कि सत्‍संगति से सभी प्रकार के बन्‍धन छिन्‍न-भि‍न्‍न हो जाते हैं, किंतु सबको सत्‍संगति प्राप्‍त करने का सौभाग्‍य नहीं होता। जिसके संसारी बन्‍धनों के छूटने का समय समीप आ चुका है, जिसके ऊपर आदिपुरुष अच्‍युत का पूर्ण अनुग्रह है, उसे ही साधु पुरुषों की संत्‍सगति प्राप्‍त हो सकती है।

सार्वभौम भट्टाचार्य विद्वान थे, पण्डित थे, शास्‍त्रज्ञ थे और वर्णाश्रमधर्म में श्रद्धा रखते थे। शास्‍त्रोक्त वैदिक कर्मों को भी वे यथाशक्ति करते थे और घर पर आते हुए साधु-अभ्‍यागतों का प्रेमपूर्वक सत्‍कार करते थे तथा अंदर-ही-अंदर प्रभु प्राप्ति के लिये छटपटाते भी थे। ऐसी दशा में वे भगवत्‍कृपा के सर्वथा योग्‍य थे। उन्‍हें साधु-समागम मिलना ही चाहि‍ये। इसीलिये मानो सार्वभौम का ही उद्धार करने के निमित्त प्रभु वृन्‍दावन न जाकर पुरी पधारे और सबसे पहले सार्वभौम के घर को ही अपनी पद-धूलि से परम पावन बनाया। उन भक्ताग्रगण्‍य सार्वभौम महाशय के चरणों में हमारे कोटि-कोटि नमस्‍कार हैं।

सार्वभौम के निमन्‍त्रण को स्‍वीकार करके प्रभु उनके घर भिक्षा करने के लिये पधारे। सार्वभौम ने उन्‍हें श्रद्धापूर्वक भिक्षा करवायी और उनका संन्‍यासी के योग्‍य सत्‍कार किया। अन्‍त में वात्‍सल्‍यभाव प्रकट करते हुए उन्‍होंने अत्‍यन्‍त ही स्‍नेह के साथ कहा- ‘स्‍वामी जी ! हमारी एक प्रार्थना है, अभी आपकी अवस्‍था बहुत कम है, इस अवस्‍था का वैराग्‍य प्राय: स्‍थायी नहीं होता। अधिकतर इस अवस्‍था वाले त्‍यागियों का कुछ काल में वैराग्‍य मन्‍द ही पड़ जाता है और वैराग्‍य के बिना त्‍याग टिक नहीं सकता। इसीलिये थोड़ी अवस्‍था के अधिकांश साधु अपने धर्म से पतित हो जाते हैं। अतएव आपको निरन्‍तर ऐसे कार्यों में लगे रहना चाहिये, जिनसे संसारी विषयों के प्रति अधिकाधिक वैराग्‍य के भाव उत्‍पन्‍न होते रहें। हमारे वहाँ वेदान्‍तदर्शन के कई पाठ होते हैं, आपकी इच्‍छा हो, तो यहाँ आकर सुना करें। बेकार रहने से मन में बुरे-बुरे विचार उत्‍पन्‍न होते हैं। जो निरन्‍तर शुभ-कर्मों में आत्‍मशुद्धि की इच्‍छा से लगा रहता है, उसके मन में बुरे विचार उठ ही नहीं सकते। इसलिये आप पाठशाला में आकर वेदान्‍तसूत्रों की व्‍याख्‍या सुना करें। यही साधक संन्‍यासियों का परम धर्म हैं।’

हाथ जोड़े हुए विनीतभाव से महाप्रभु ने कहा- ‘यह मेरा सौभाग्‍य है, जो आप-जैसे गुरुजन स्‍वयं ही मेरे कल्‍याण की बातें सोचा करते हैं। जिसके भले के लिये गुरुजनों के हृदय में चिन्‍ता है, वह कभी पतित हो ही नहीं सकता। मेरी भी इच्‍छा थी कि आपके चरणों में कुछ उपदेश सुनने की प्रार्थना करूँ, किन्‍तु संकोचवश मैं अपने मनोभाव को व्‍यक्‍त नहीं कर सका। आपने मेरे मन की बात बिना कहे ही समझ ली। मैं अवश्‍य ही कल से वेदान्‍तसूत्रों की व्‍याख्‍या सुना करूँगा।

प्रभु की इस बात से सार्वभौम महाशय को बड़ी भारी प्रसन्‍नता हुई। योग्‍य अध्‍यापक को यदि समझदार और अधिकारी छात्र पढ़ने के लिये मिल जाय, तो इससे अधिक प्रसन्‍नता उसे दूसरी किसी भी वस्‍तु से नहीं हो सकती। गुरु का हृदय योग्‍य शिष्‍य की निरन्‍तर खोज करता रहता है और अपने योग्‍य शिष्‍य पाकर वह उसे सर्वस्‍व समर्पण करने के लिये लालायित बना रहता है।

दूसरे दिन से महाप्रभु वेदान्‍तसूत्रों का शारीरकभाष्‍य सुनने लगे। सार्वभौम महाशय बड़े ही उत्‍साह से उल्‍लास के सहित शारिरकभाष्‍य का प्रवचन करने लगे। पाठ पढ़ाते-पढ़ाते आनन्‍द के कारण उनका चेहरा दमकने लगता और वे अपने सम्‍पूर्ण पाण्डित्‍य को प्रदर्शित करते हुए विस्‍तार के सहित पाठ को सुनाते। महाप्रभु चुपचाप एकाग्र दृष्टि से अधोमुख किये हुए पाठ सुनते रहते। बीच में वे एक भी शब्‍द नहीं बोलते। इस प्रकार लगातार सात दिनों तक बराबर वे पाठ सुनते रहे। जब भट्टाचार्य ने देखा, ये तो बोलते ही नहीं, पता नहीं इनकी समझ में यह व्‍याख्‍या आती भी है या नहीं। विषय बहुत ही गूढ़ है, बहुत सम्‍भव है ये उसे न समझ सकते हों। इसीलिये उन्‍होंने पूछा- ‘स्‍वामी जी ! आप तो चुपचाप बैठकर सुनते ही रहते हैं। पाठ अच्‍छा हुआ या बुरा- यह सब आप कुछ नहीं बताते।’

महाप्रभु ने विनीतभाव से कहा- ‘आपने मुझे पाठ सुनने की ही आज्ञा तो दी थी, इसीलिये आपकी आज्ञा को शिरोधार्य करके पाठ सुना करता हूँ।’

कुछ हंसकर प्रेमपूर्वक सार्वभौम भट्टाचार्य ने कहा- ‘सुनने के यह मानी थोड़े ही है कि पत्‍थर की मूर्ति की भाँति मूक बनकर सुनते ही रहना। जहाँ जो बात समझ में न आये, उसे फिर से पूछना चाहिये। कोई शंका उत्‍पन्‍न हो तो उसे पूछकर उसका समाधान करा लेना चाहिये। पाठ सुनने के मानी हैं उस विषय में नि:शंक हो जाना। पाठ का विषय इस प्रकार हृदयंगम हो जाय कि फिर कोई शंका उठा ही न सके। कहिये, आपकी समझ में तो सब कुछ आता है न ?’

कुछ लज्जितभाव से प्रभु ने कहा- ‘भला, मैं मूर्ख इस गहन विषय को समझ ही क्‍या सकता हूँ और थोड़ा-बहूत समझ भी लूं तो आपके सामने शंका करने का साहस ही कैसे कर सकता हूँ।’

सरलता के साथ भट्टाचार्य ने कहा- ‘यह बात नहीं, जो समझ में न आवे उसे पूछना चाहिये। संकोच करने से कैसे काम चलेगा?’

प्रभु ने कुछ लज्‍जा के कारण सिकुड़ते हुए धीरे से कहा- ‘भगवान व्‍यासदेव का सरल सूत्रों का शब्‍दार्थ तो बड़ी सुगमता से मेरी समझ में आ जाता है, किन्‍तु भाष्‍य सुनते ही सारा मामला गड़बड़ हो जाता है। मुझे ऐसा प्रतीत होने लगता है कि भगवान भाष्‍यकारों ने अपने एकदेशीय अर्थ के लिये शब्‍दों की खूब खींचतान की है और जो अर्थ सूत्र में लक्षित हो नहीं होता, उसकी जबरदस्‍ती ऊपर से आवृत्ति की है।’

महाप्रभु की इस बात को सुनते ही भट्टाचार्य तथा पाठ सुनने वाले सभी विद्यार्थियों के कान खड़े हो गये। वे आश्‍चर्य की दृष्टि से प्रभु के मुख की ओर निहारने लगे। भट्टाचार्य ने कुछ आश्‍चर्य करते हुए कहा- ‘आप यह कैसी बात कह रहे हैं। श्रुति का मुख्‍य प्रतिपाद्य विषय निर्गुण-निराकार अद्वितीय ब्रह्म की सिद्धि करना ही है। शारीरकभाष्‍य में उसी नाम-रुप से रहित अद्वितीय ब्रह्म का प्रतिपादन किया गया है।’ प्रभु ने धीरे से कहा- ‘मुझे निराकार-निर्गुण रुप का वर्णन स्‍वीकार है। मैं यह कब कहता हूँ कि श्रुतियों में निराकार ब्रह्म का वर्णन है ही नहीं; किन्‍तु भाष्‍यकार ने सगुण-साकार रुप को जो एकदम गौण और उपेक्षणीय ठहरा दिया है इसे मैं नहीं मानता। यह तो एकपक्षीय सिद्धान्‍त हो गया। भगवान के सगुण-निर्गुण, साकार निराकार दोनों ही रुप मुख्‍य और आदरणीय हैं। श्रुति जहाँ ‘एकमेवाद्वितीयम’[1] ‘नेह नानास्ति किंचन’[2] ‘सर्व खल्विदं ब्रह्म’[3] आदि कह-कहकर सर्वव्‍यापी निर्गुण निराकार रुप का वर्णन करती है वहां-

अपाणिपादो जवनो ग्रहीता
पश्‍यत्‍यचक्षु: स श्रृणोत्‍यकर्ण:
स वेत्ति वेद्यं न च तस्‍यास्ति वेत्ता
तमाहुरग्रयं पुरुषं महान्‍तम्।।[4]

‘बहु स्‍याम्'[5] ‘स ईक्षत’[6] इत्‍यादि श्रुतियों में प्रत्‍यक्ष रीति से भगवान के सगुण-साकार रूप का वर्णन है तथा उनकी दिव्‍यलीला और कर्मों का भी वर्णन है। उन्‍हें गौण कहकर छोड़ देना केवल बुद्धि-वैलक्षण्‍य का ही द्योतक है। मेरी समझ में तो भगवान भाष्‍यकार ने केवल बुद्धि को तीक्ष्‍ण करने के अभिप्राय से ही ऐसी व्‍याख्‍या की होगी। जो केवल मस्तिष्‍क-प्रधान है, उनके लिये विचार की पराकाष्‍ठा की गयी होगी। सचमुच भाष्‍यकार ने अपनी प्रत्‍युत्‍पन्‍न मति का बड़ा ही अद्भुत परिचय दिया है। जो विचार को ही प्रधान मानते हैं वे इससे अधिक और विचार कर ही नहीं सकते, किन्‍तु हृदय-प्रधान सरस भावुक भक्तों को इस खींचतानी की व्‍याख्‍या से सन्‍तोष नहीं होने का।’

सार्वभौम भट्टाचार्य ने कहा- ‘भाई ! यह अपने घर की बात थोड़े ही है। भगवान व्‍यासदेव जी के अभिप्राय को ही भाष्‍यकार ने स्‍पष्‍ट किया हैं, उन्‍होंने अपनी तरफ से कुछ थोड़े ही कहा है?’

कुछ मुसकराते प्रभु ने कहा- ‘आपके सामने अधिक बोलना ही धृष्‍टता होगी, किन्‍तु प्रसंगवश कहना ही पड़ता है। भगवान व्‍यासदेव के अभिप्राय को ठीक-ठीक इन्‍होंने ही व्‍यक्त किया है, इसे हम कैसे कह सकते हैं। इन्‍हीं सूत्रों का भाष्य भगवान रामानुज ने विशिष्टा द्वैतपरक किया है और भगवान मध्वाचार्य ने शारीरक भाष्य के ठीक प्रतिकुल इन्ही सूत्रों से द्वैतमत का प्रतिपादन किया है। ये सभी-के-सभी पूज्‍य, मान्‍य और आदरणीय महापुरुष हैं। इनमें से किसकी बात को झूठ समझें। इसलिये यही कहना पड़ता है कि इन तीनों ने ही अपने-अपने दृष्टिकोण से ठीक ही व्‍याख्‍या की है। इन सभी ने किसी एक विषय का प्रतिपादन किया है। इनमें से यही व्‍याख्‍या सर्वमान्‍य हो सकती है, इसे मैं नहीं मानता। ये सभी व्‍याख्‍याएँ एकदेशीय हैं। आप ही सोचिये, जिन्‍होंने छ: शास्‍त्र और अठारह पुराण तथा पंचम वेद महाभारत को बनाकर भी शान्ति प्राप्‍त नहीं की और पूर्ण शान्ति लाभ करने के ही निमित्त जिन्‍होंने सभी वेद-शास्‍त्रों का सार संग्रह करके श्रीमद्भागवत की रचना की और उसे रचकर ही अनन्‍त शान्ति प्राप्‍त की। वे ही भगवान व्‍यासदेव श्रीमद्भागवत में क्‍या कहते हैं-

अहो भाग्‍यमहो भाग्‍यं नन्‍दगोपव्रजौकसाम्।
यन्मित्रं परमानन्‍दं पूर्णं ब्रह्म सनातनम्।।[1]

अर्थात ‘व्रज में रहने वाले नन्‍द आदि ग्‍वालबालों के भाग्‍य की सराहना कौन कर सकता है, जिनके मित्र परम आनन्‍दस्‍वरूप साक्षात सनातन पूर्ण ब्रह्म हैं।’ इस प्रकार के उद्गारों को व्‍यक्‍त करने वाले व्‍यासदेव इस बात का आग्रह करें कि ‘नहीं, ब्रह्म का निर्गुण-निराकार रूप ही यर्थाथ है, शेष सभी कल्पित और मिथ्‍या हैं!’ तो यह बात कुछ समझ में नहीं आती। जो श्रीकृष्‍ण को सनातन पूर्ण ब्रह्म बताकर गाँव के गँवार गोप-ग्‍वालों के भाग्‍य की भूरि-भूरि प्रशंसा कर रहे हैं, वे इस प्रकार का हठ करेंगे, यह कुछ विचारणीय विषय है।

कुछ निरुत्तर-से होकर सार्वभौम ने क्षणभर सोचकर कहा- ‘तब तो भगवान शंकर के सारे सिद्धान्‍त का खण्‍डन हो जाता है। उन्‍होंने तो अपने सभी ग्रन्‍थों में निर्विशेष ब्रह्म का ही भाँति-भाँति से प्रतिपादन किया है और इस नाम-रूपात्‍मक दृश्‍य जगत को मिथ्‍या बताकर अपने-आपको ही ब्रह्म मानने के लिये कहा है।’

प्रभु ने कुछ जल्‍दी से कहा- ‘इसमें खण्‍डन-मण्‍डन की कौन-सी बात है? बुद्धि भी तो भगवद्दत्त ही है। ये सब बुद्धि के चमत्‍कार हैं। भगवान शंकर ने अद्वैत-सिद्धान्‍त का प्रतिपादन करके सचमुच विचारों का अन्‍त ही करके दिखा दिया है! तर्कशक्ति और विचारशक्ति को पराकाष्‍ठा पर पहुँचा दिया है। जीव ही ब्रह्म है, यह उनके मस्तिष्क सर्वोच्च विचारों का सर्वोत्कृष्ट एक भाव ही है। उसने हृदय से तो पूछिये यथार्थ बात क्या है? जो आयुभर ‘अहं ब्रह्मास्मि’ ‘मैं ब्रह्म हूँ, मैं बह्म हूँ’ इसी सिद्धान्त का प्रचार करते हुए अभेदभाव का प्रचार करते रहे, उन्हीं के मुख से एकान्त में सुरसरि के तीर पर अश्रु बहाते हुए जो उदगार आप-से-आप ही निकल पड़े है, उनकी ओर भी तो ध्यान दीजिये। देखिये, वे कितने करुणस्वर से अश्रु बहाते हुए गदगदकण्ठ से प्रभु के सम्मुख प्रार्थना कर रहे हैं- हैं, उनकी ओर भी तो ध्‍यान दीजिये।

सत्‍यपि भेदापगमे नाथ! तदाहं न मामकीनस्‍त्‍वम्।
सामुद्रो हि तरग: क्‍वचन समुद्रो न तारंग:।।[1]

हे नाथ! चाहे तुममें और जगत में भेद न हो, तो भी मेरे स्‍वामी! मैं तुम्‍हारा हूँ, तुम मेरे नहीं हो। यद्यपि समुद्र तथा तरंग में भेद न हो तो लोग ‘समुद्र की तरंग’ ऐसा ही कहते है, ‘तरंग का समुद्र’ ऐसा कोई नहीं कहता।’ यह उन महापुरुष का वाक्‍य हैं, जो जगत को त्रिकाल में भी कुछ नहीं मानते। जिनकी दृष्टि में मैं मेरा तथा जन्‍म-मृत्‍यु सब कोरी कल्‍पना ही हैं, किन्‍तु ये बातें उनके मस्तिष्‍क की थीं। यह उनके सरस और निष्‍कपट शुद्ध हृदय के उदगार हैं। तभी तो भगवान व्‍यासदेव ने कहा है-

आत्‍मारामाश्‍च मुनयो निर्ग्रन्‍था अप्‍युरुक्रमे।
कुर्वन्‍त्‍यहैतुकीं भक्तिमित्‍थम्‍भूतगुणो हरि:।।[2]

प्रभु के मुख से इस बात को सुनकर और अपनी झेंप मिटाने के निमित्त सार्वभौम ने कहा-‘हाँ हाँ, इस श्‍लोक का आप क्‍या अर्थ करते हैं, हमें भी तो सुनाइये?’

प्रभु ने अत्‍यन्‍त ही दीनता के साथ कहा- ‘भला, मैं आपके सामने श्‍लोक की व्‍याख्‍या करने योग्‍य हूँ? यह काम तो आपका ही है। आप मुझे ही इसकी व्‍याख्‍या करके सुनाइये, जहाँ मेरी समझ में न आवेगी वहाँ पूछ लूंगा।’

अब तक तो सार्वभौम कुछ उत्तर देने में असमर्थ थे, इसलिये वे एकटक- भाव से प्रभु के मुख की ओर देखते हुए उनकी बातें सुन रहे थे। अब उन्‍हें अपने पाण्डित्‍य प्रदर्शन करने का कुछ अवसर प्राप्‍त हुआ। इसलिये बड़े हर्ष के साथ नाना भाँति की शंकाओं को उठाते हुए और शास्‍त्रीय प्रमाण देते हुए उन्‍होंने इस एक ही छोटे-से श्‍लोक की नौ प्रकार से व्‍याख्‍या की और पृथक-पृथक नौ भाँति के अर्थ करके बताये। अपनी व्‍याख्‍या को समाप्‍त करते हुए अपने पाण्डित्‍य की प्रशंसा सुनने के उत्‍सुकता से वे प्रभु के मुख की ओर निहारने लगे।

प्रभु ने उनकी भूरि-भुरि प्रशंसा करते हुए कहा- ‘धन्‍य है, आपके पाण्डित्‍य को। मैंने जैसी प्रशंसा सुनी थी, उसका परिचय मैंने यहाँ आकर प्रत्‍यक्ष ही पा लिया। इतनी पाण्डित्‍यपूर्ण व्‍याख्‍या आप ही कर सकते हैं, दूसरे पण्डित का काम नहीं कि इतनी सरलता से नौ प्रकार के अर्थों को बिना खींचातानी के सरलतापूर्वक कह सके, किन्‍तु इन नौ अर्थों के अतिरिक्‍त और भी तो कई प्रकार के इस श्‍लोक के अर्थ हो सकते हैं।’

अत्‍यन्‍त ही आश्‍चर्य प्रकट करते हुए सम्‍भ्रम के साथ भट्टाचार्य सार्वभौम कहने लगे- ‘क्‍या कहा, मेरे अर्थों के सिवा और भी इसके अर्थ हो सकते हैं? यदि आप कर सकते हों तो सुनाइये।’

प्रभु ने बड़ी ही सरलता के साथ विनीत स्‍वर में कहा- ‘मैं क्‍या कर सकता हूँ। ऐसे ही आप गुरुजनों के मुख से मैंने इसकी कुछ थोड़ी-बहुत व्‍याख्‍या सुनी है, उसमें से जो कुछ थोड़ी-बहुत याद हैं, उसे आपकी आज्ञा से सुनाता हूँ।’ यह कहकर महाप्रभु ने अठारह प्रकार से इस श्‍लोक की व्‍याख्‍या की।

महाप्रभु के मुख से इस प्रकारकी पाण्डित्‍यपूर्ण व्‍याख्‍या सुनकर सार्वभौम भट्टाचार्य के आश्‍चर्य का ठिकाना नहीं रहा। वे अपने आपे को भूल गये और जिस प्रकार स्‍वप्‍न में कोई अद्भुत घटना को देखकर आश्‍चर्य के सहित उसकी ओर देखता रहता है, उसी प्रकार वे प्रभु की ओर देखते रहे! अब उन्‍हें प्रभु की महिमा का पता चला, अब उनके हृदय में छिपी हुई भक्ति जाग्रत हुई। मानो इस श्‍लोक की व्‍याख्‍या ने ही इनकी अव्‍यक्‍त भक्ति को व्‍य‍क्‍त बना दिया। वे अपने पद, मान, प्रतिष्‍ठा और सम्‍मान आदि के अभिमान को भुलाकर एक छोटे बालक की भाँति सरलतापूर्वक प्रभु के पादपह्यों में गिर पड़े। उन्‍होंने अपने हाथों की लाल रंगवाली मोटी-मोटी उंगलियों से प्रभु के दोनों अरुण चरण पकड़ लिये और रोते-रोते ‘पाहि माम्’ ‘रक्ष माम्’ कहकर स्‍तुति करने लगे-

संसारकूपे पतितो ह्यगाधे
मोहान्‍धपूर्णे विषयातिसक्त:।
करावलम्‍बं मम देहि नाथ
गोविन्‍द दामोदर माधवेति।।

इस संसाररूपी अगाध समुद्र में डूबते हुए विषयासक्‍त मुझ अधम को अपने हाथों का सहारा देकर हे नाथ! आप उबार लीजिये। हे गोविन्‍द! हे माधव!!! मैं आपकी शरण हूँ।
इस प्रकार वे प्रभु की भाँति-भाँति से स्‍तुति करने लगे। उसी समय उन्‍हें प्रभु के शरीर में अद्भुत षडभुजी मूर्ति के दर्शन हुए। उन दर्शनों से उनके सभी पुराने पाप क्षय हो गये और वे घोर तार्किक पण्डित से आज परम भावगत वैष्‍णव बन गये।
प्रभु ने उन्‍हें प्रेमपूर्वक उठाकर आलिंगन किया। प्रभु का आलिंगन पाते ही वे फिर मूर्च्छित होकर गिर पड़े। बहुत देर तक यह करुणापूर्ण दृश्‍य ज्‍यों-का-त्‍यों बना रहा। सभी विद्यार्थी महान आश्‍चर्य और कुतूहल के सहित इस दृश्‍य को देखते रहे!

क्रमशः अगला पोस्ट [98]
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]



, Shri Hari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram became a universal devotee

When the liberation of life is wandering- The meeting of the tarhmchyuta sattva of the j jana. When there is a union of the true, then there is a good path My mind is born in You, O Lord of the highest and the lowest.

If there is no special accumulation of sins of previous births, if there is God’s grace and in some way, there are feelings of faith in the heart, then it does not take long for a man’s salvation. As soon as there is a gathering of sages, the big bad people have become Param Bhagwat by renouncing their misdeeds. Such is the glory of satsang. That’s why Bhartrihariji has said-

‘Tell me what good association does not do to men?’

Means ‘What good cannot be done to a man by good company?’ The summary is that all kinds of bondages get destroyed by good company, but not everyone has the good fortune to get good company. Whose time has come to get rid of worldly bonds, on whom Adipurush Achyut has full grace, only he can get the association of sages.

Sarvabhaum Bhattacharya was a scholar, a scholar, a scholar and had faith in Varnashramadharma. He also used to do Vedic rituals according to the scriptures as much as he could, and while coming home, used to lovingly welcome the saints and visitors and used to yearn inside to attain God. In such a condition, he was absolutely worthy of the grace of God. They must get the company of saints. That’s why it is as if the Lord did not go to Vrindavan and came to Puri for the salvation of the universal and first of all made the house of the universal pure with the dust of his feet. We offer our obeisances at the feet of that devoted universal gentleman.

Accepting the invitation of the sovereign, the Lord came to his house to beg. The sovereign made him do alms with devotion and treated him worthy of a monk. In the end, expressing affection, he said with utmost affection – ‘Swamiji! We have a prayer, your stage is very short right now, the disinterest in this stage is usually not permanent. Most of the renunciates in this stage lose their disinterest over a period of time and renunciation cannot last without disinterest. That’s why most of the sages in a short stage fall from their religion. That’s why you should be constantly engaged in such works, which generate more and more feelings of disinterest towards worldly subjects. We have many lessons of Vedanta Darshan there, if you wish, then come here and listen. Being idle creates bad thoughts in the mind. One who is constantly engaged in good deeds with the desire of self-purification, bad thoughts cannot arise in his mind. That’s why you should come to the school and listen to the explanation of the Vedanta Sutras. This is the supreme religion of the ascetics.

With folded hands, Mahaprabhu said humbly – ‘ It is my good fortune that teachers like you themselves think about my welfare. For whose good the teachers have concern in their hearts, he can never fall. I also wanted to pray at your feet to hear some sermons, but due to hesitation I could not express my feelings. You understood my mind without saying anything. I will definitely listen to the explanation of Vedanta Sutras from tomorrow.

Sovereign gentleman was very happy with this talk of the Lord. If a capable teacher gets an intelligent and authoritative student to study, then nothing can give him more happiness than this. The Guru’s heart constantly searches for a worthy disciple and after finding his worthy disciple, he remains eager to surrender everything to him.

From the second day, Mahaprabhu started listening to the commentary on the Vedanta Sutras. Sarvabhaum Mahasaya started preaching body language with great enthusiasm and gaiety. While teaching the lesson, his face used to glow due to the joy and he would recite the lesson in detail, displaying his complete erudition. Mahaprabhu used to listen silently to the lesson with his eyes focused. He doesn’t utter a single word in between. In this way, for seven days continuously, he kept listening to the lessons. When Bhattacharya saw it, he did not speak at all, I don’t know whether he understands this explanation or not. The subject is very deep, it is quite possible that they may not understand it. That’s why he asked – ‘Swamiji! You keep on listening silently. Whether the lesson was good or bad – you do not tell all this.

Mahaprabhu humbly said- ‘You had only ordered me to listen to the lesson, that’s why I listen to your order and recite the lesson.’

Sarvabhaum Bhattacharya said lovingly with some laughter – ‘ It is not enough to listen, that you keep listening by being mute like a stone statue. Where something is not understood, it should be asked again. If any doubt arises, it should be resolved by asking. To listen to the lesson means to have no doubts about it. The topic of the lesson should become so heartwarming that no one can raise doubts. Tell me, you understand everything, don’t you?’

With some shame, the Lord said- ‘Well, how can I, a fool, understand this deep subject and even if I understand a little bit, how can I have the courage to doubt in front of you.’

With simplicity Bhattacharya said- ‘It is not a matter, one who does not understand should ask. How will it work if hesitating?

Shrinking because of some shame, the Lord said slowly – ‘I understand the meaning of Lord Vyasdev’s simple sutras very easily, but the whole matter gets messed up after listening to the commentary. It seems to me that Bhagavan Bhashyakars have stretched words a lot for their one-country meaning and have forced repetition from above which is not intended in the Sutra.

On hearing these words of Mahaprabhu, the ears of Bhattacharya and all the students listening to the lesson were perked up. They started gazing at the face of the Lord with wonder. Bhattacharya was somewhat surprised and said- ‘What kind of thing are you saying. The main theme of Shruti is to achieve the nirguna-formless unique Brahman. The unique Brahma without name and form has been rendered in the body language. ‘ The Lord said softly – ‘ I accept the description of the formless-nirgun form. When do I say that there is no description of the formless Brahman in the Shrutis; But I do not accept the Saguna-Sakar form which has been declared completely secondary and neglectable by the commentator. This has become a one sided theory. Sagun-Nirgun, corporeal formless, both forms of God are main and respectable. Where Shruti describes the all-pervasive nirgun formless form by saying ‘ekmevadwitiyam’ [1] ‘neh nanasti kinchan’ [2] ‘sarva khalvidam brahma’ [3] etc.

Apanipado javano grahita The eye that sees, the ear that hears: He knows what is knowable, and He has no knower That is called the foremost Purusha, the great.

‘Bahu Syaam'[5] ‘Sa Eekshat'[6] etc. Shrutis directly describe the Saguna-Sakar form of God and also describe His divine pastimes and deeds. Leaving them as secondary is only a sign of intelligence. In my understanding, Bhagwan Bhashyakar must have made such an explanation only with the intention of sharpening the intellect. For those who are only head-oriented, the culmination of thought would have been done. Truly the commentator has given a very wonderful introduction of his generated mind. Those who consider the idea as the main, they cannot think more than this, but the heart-oriented Saras emotional devotees are not satisfied with the explanation of this pulling.

Universal Bhattacharya said – ‘Brother! It is not just about your home. The commentator has clarified the intention of Lord Vyasdev ji, has he said little from his side?

Some smiling Lord said- ‘It would be presumptuous to speak more in front of you, but it has to be said in context. How can we say that he has correctly expressed the intention of Lord Vyasdev. Bhagwan Ramanuja has specifically explained these sutras as dualistic and Lord Madhvacharya has propounded dualism with these sutras just opposite to the physical commentary. All of them are worshipable, valid and respected great men. Which of these things should be taken as a lie? That’s why it has to be said that all these three have explained correctly from their respective point of view. All of them have rendered a single theme. Out of these, this interpretation can be universal, I do not believe in it. All these interpretations are uninational. Think for yourself, who did not attain peace even after writing the six Shastras, eighteen Puranas and the fifth Veda, the Mahabharata, and only for the sake of attaining complete peace, who compiled the essence of all the Vedas and composed the Shrimad Bhagwat and achieved eternal peace by composing it. Of. What does Lord Vyasdev say in Shrimad Bhagwat-

Oh how fortunate are the inhabitants of Nanda Gopa Vraja That friend, the supreme bliss, the perfect, the eternal Brahman.

That is, ‘Who can appreciate the fate of Nanda etc. cowherd boys living in Vraj, whose friend is eternal complete Brahma in the form of ultimate bliss.’ The formless form is the real, all the rest are imaginary and false!’ So this thing does not make any sense. Those who are praising the fate of the illiterate cow-herders of the village by calling Shri Krishna as Sanatan Purna Brahma, they will be stubborn like this, this is something to consider.

Being somewhat speechless, Sarvabhaum thought for a moment and said – ‘Then the whole principle of Lord Shankar is refuted. In all their scriptures, they have rendered the impersonal Brahman in different ways and calling this name-form visible world as false, they have asked themselves to consider themselves as Brahman.

The Lord said in a hurry – ‘ What is the point of denying in this? Wisdom is also God’s data. These are all miracles of the intellect. Lord Shankar has really shown the end of thoughts by propounding the principle of Advaita! Logical power and thinking power have been taken to the pinnacle. The Jiva is Brahman, it is the supreme one of the supreme thoughts in his mind. He should ask from the heart what is the real thing? The one who propagated the doctrine of ‘Aham Brahmasmi’ ‘I am Brahma, I am Brahma’ throughout his life and propagated non-discrimination, the words that came out from his mouth in solitude while shedding tears on the arrow of Surasari. Yes, pay attention to them too. See, how compassionately they are praying in front of the Lord with tears in their eyes, pay attention to them too.

Truly, in the distinction, O Lord! Then I am not yours. The ocean is a wave, sometimes the ocean is not a wave.

Hey Nath! Even if there is no difference between you and the world, my lord! I am yours, you are not mine. Although there is no difference between sea and waves, people say ‘waves of the sea’ like this, no one says ‘sea of ​​waves’. This is the sentence of that great man, who does not consider the world as nothing even in trikal. In whose eyes I, mine and birth and death are all mere imagination, but these things were in his mind. These are the words of his sweet and sincere pure heart. That’s why Lord Vyasdev has said-

The sages of Atmarama and Nirgrantha were also in the Urukrama. The Supreme Personality of Godhead, the Supreme Personality of Godhead, performs this unreasonable devotion.[2]

Hearing this from the mouth of the Lord and in order to remove his shyness, the sovereign said – ‘Yes yes, what do you mean by this verse, tell us too?’

The Lord said with utmost humility- ‘Well, am I capable of explaining the verse in front of you? This work is yours only. You explain it to me, I will ask where I don’t understand.’

So far the sovereign was unable to give any answer, so he was listening to the words of the Lord looking at the face of the Lord with a ecstasy. Now he got some opportunity to display his erudition. That’s why raising various doubts with great joy and giving scriptural evidence, he interpreted this one small verse in nine ways and explained it in nine different ways. At the end of his explanation, he started gazing at the face of the Lord, eager to hear the praise of his scholarship.

Prabhu praised him profusely and said- ‘Blessed are you for your erudition. The kind of praise I had heard, I got to know him directly after coming here. Only you can give such a scholarly explanation, it is not the work of other pundits to say the nine types of meanings easily without any dragging, but apart from these nine meanings, there can be many other types of meanings of this verse. ‘

Expressing extreme surprise, Bhattacharya Sarvabhaum started saying with confusion – ‘What did you say, apart from my meanings, it can have other meanings? Tell me if you can.’

The Lord very simply said in a humble voice – ‘ What can I do? In the same way, I have heard some explanation of this from the mouth of your teachers, whatever little I remember, I narrate it with your permission. Saying this, Mahaprabhu explained this verse in eighteen ways.

Sarvabhaum Bhattacharya’s astonishment knew no bounds after hearing such a scholarly explanation from the mouth of Mahaprabhu. They forgot themselves and looked at the Lord in the same way as one looks at a wonderful event in a dream with astonishment! Now he came to know the glory of the Lord, now the hidden devotion in his heart awakened. It is as if the interpretation of this verse has made their unmanifest devotion visible. Forgetting the pride of his position, honor, prestige and honor etc., he easily fell at the feet of the Lord like a small child. He took hold of both the lotus feet of the Lord with his red-colored thick fingers and started praising the Lord by saying ‘Pahi mam’, ‘Raksha mam’ while crying-

He has fallen into the well of the world Attached to objects full of delusion and blindness. Give me the support of your hand, O Lord Govinda Damodar Madhaveti.

O Nath, give me the help of your hands to me who is addicted to sensuality while drowning in the deep ocean of this world! You save Hey Govind! Hey Madhav!!! I am your refuge In this way they started praising the Lord in many ways. At the same time he saw a wonderful six-armed idol in the body of the Lord. All his past sins were destroyed by those darshans and he became the ultimate spiritual Vaishnava today from a very logical scholar. The Lord lovingly lifted him up and hugged him. As soon as he got the embrace of the Lord, he again fell unconscious. For a long time this compassionate scene remained as it was. All the students watched this scene with great wonder and curiosity!

respectively next post [98] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]

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