।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
सार्वभौम का भगवत-प्रसाद में विश्वास
महाप्रसादे गोविन्दे नाम्नि ब्रह्मणि वैष्णवे।
स्वल्पपुण्यवतां राजन विश्वासो नैव जायते।।
अविश्वास का मुख्य कारण है अप्रेम। जहाँ प्रेम नहीं वहाँ विश्वास भी नहीं और जहाँ प्रेम है वहीं विश्वास भी है। अद्वैतवेदान्त के अनुसार इस सम्पूर्ण दृश्य जगत का अस्तित्व हमारे मन के विश्वास पर ही है। जिस समय हमारे मन से इस जगत की सत्यता पर से विश्वास उठ जायगा, उस दिन यह जगत रहेगा ही नहीं। इसीलिये वेदान्ती कहते हैं,’तुम इस बात का विश्वास करो कि ‘सोऽहम्’ ‘चिदानन्दरुप शिवोऽहं शिवोऽहम्’ अर्थात ‘मैं वही हूं’ मैं चिदानन्दरूपी शिव ही हूँ।’
हमारी वृत्ति बहिर्मुखी है, क्योंकि हमारी इन्द्रियों के द्वार बाहर की ओर हैं, इसलिये हम बाहरी वस्तुओं पर तो विश्वास करते हैं, किन्तु उनमें जो भीतर छिपा हुआ रहस्य है, उसे हम नहीं समझ सकते। जिसने उस भीतर छिपे हुए रहस्य को समझ लिया वह सचमुच में सब बन्धनों से मुक्त हो गया। भगवान के प्रसाद के बहाने से कितने लोग अपनी विषय-वासनाओं को पूर्ण करते हैं। नामका आश्रय ग्रहण करके लोग इस प्रकार के पापकर्मों में प्रवृत्त होते हैं। वास्तव में उन्हें प्रसाद का और भगवन्नाम का माहात्म्य नहीं मालूम है, तभी तो वे चमकते हुए काँच के बदले में हीरा दे देते हैं। जो भगवन्नाम सभी प्रकार के पापों को नष्ट करने में समर्थ है, उसे सोने-चांदी कके ठिकराओं के ऊपर बेचने वालों के हाथ में वे ठिकरा ही रह जाते हैं। भगवन्नाम के असली सुस्वादु मधुरातिमधुर फल से वे लोग वंचित रह जाते हैं। विश्वास ने जिसने एक बार महाप्रसाद पा लिया, फिर उसकी जिह्वा खट्टे-मीठे के भेदभाव को भूल जायगी।
जिसने श्रद्धा-विश्वास के सहित एक बार भगवन्नाम का उच्चारण कर लिया, फिर उसे संसारी किसी पदार्थ की वांछा नहीं रह सकती। एक बड़े भारी महात्मा ने हमें एक कहानी सुनायी थी- एक सरलहृदया स्त्री थी। उसने कभी भी भगवान का नाम नहीं लिया; किन्तु जीवन में कभी कोई खोटा काम भी नहीं किया। उसके द्वारा किसी भी प्राणी को कष्ट नहीं होता था। एक दिन उसने एक बड़े भारी भक्त के मुख से यह श्लोक को सुना-
एकोऽपि कृष्णस्य कृत: प्रणामो
दशाश्वमेधावभृथेन तुल्य:।
दशाश्वमेधी पुनरेति जन्म
कृष्णप्रणामी न पुनर्भवाय।।
अर्थात जिसने एक बार भी कृष्ण के पादपह्यों में श्रद्धा-भक्ति के सहित प्रणाम कर लिया उसे उतना ही फल हो जाता है जितना कि दस अश्वमेधादि यज्ञ करने वाले पुरुष को होता है। किन्तु इन दोनों के फल में एक बड़ा भारी वेद होता है।
अश्वमेध-यज्ञ करने वाला तो लौटकर फिर संसार में आता है, किन्तु श्रीकृष्ण को श्रद्धासहित प्रणाम करने वाला फिर संसार-चक्र में नहीं घूमता। वह तो इस चक्र से मुक्त होकर निरन्तर प्रभु के पादपद्मों में लोट लगाता रहता है। इस श्लोक के भाव को सुनते ही वह सरल हृदया नारी विकल हो उठी। उसके सम्पूर्ण शरीर में रोमांच हो गया। आँखों से अश्रुओं की धारा बहने लगी। गद्गद कण्ठ से लड़खड़ाती हुई वाणी में उसने बड़े ही पश्चात्ताप के स्वर में कहा- ‘हाय ! मैंने अभी तक एक दिन भी भगवान के चरण-कमलों में प्रणाम नहीं किया।’ इतना कहकर ज्यों-ही वह प्रणाम करने को बढ़ी त्यों ही इस नश्वर शरीर को परित्याग करके श्रीहरि के अनन्त धाम के लिये चली गयी। इसका नाम श्रद्धा या विश्वास है। ऐसे ही विश्वास से प्रभु के पादपह्यों की प्राप्ति हो सकती है। इसीलिये कबीरदास जी कहा है-
गाया तिन पाया नहीं, अनगाये ते दूर।
जिन गाया बिस्वास गहि, तिनके सदा हुजूर।।
सार्वभौम भट्टाचार्य को प्रभु के पादपद्मों में पूर्ण श्रद्धा हो गयी थी। शास्त्र का वचन है कि हृदय में भगवान की भक्ति उत्पन्न होने से सभी सद्गुण अपने-आप ही बिना बुलाये हृदय में आकर निवास करने लगते हैं। सद्गुण तो भगवत-भक्ति की छाया है। छाया शरीर को छोड़कर दूसरी जगह रह नहीं सकती। किसी एक में विश्वास होने पर सभी सत्कर्मों में स्वत: ही श्रद्धा हो सकती है।
एक दिन महाप्रभु अरुणोदय के समय श्रीजगन्नाथ जी के शयनोत्थान के दर्शन के लिये गये। प्रभु के दर्शन कर लेने पर पुजारी ने उन्हें प्रसादी माला और प्रसादी अन्न दिया। प्रभु ने बड़े आदर के सहित उस महाप्रसाद को दोनों हाथ फैलाकर ग्रहण किया और अपने वस्त्र में बाँधकर वे सार्वभौम भट्टाचार्य के घर की ओर चले।प्रभु बिना सूचना दिये ही भीतर चले गये। सार्वभौम उसी समय निद्रा से जगकर भगवन्नामों का उच्चारण करते हुए शय्यापर से उठने ही वाले थे कि तब तक महाप्रभु पहुँच गये। प्रभु को देखते ही सार्वभौम अस्त-व्यस्त भाव से जल्दी-जल्दी शय्या पर से उठे और प्रभु के चरण-कमलों में साष्टांग प्रणाम किया तथा उन्हें बैठने के लिये सुन्दर आसन दिया। आसन पर बैठते ही प्रभु ने अपने वस्त्रों में से भगवान का प्रसाद खोलकर सार्वभौम को दिया। महाप्रभु आज कृपा करके अपने हाथ से महाप्रसाद दे रहे हैं, यह सोचकर सार्वभौम की प्रसन्नता का ठिकाना नहीं रहा। उन्होंने दीन-हीन अभ्यागत की भाँति उस महाप्रसाद को ग्रहण किया और हाथ पर आते ही बिना शौचादि से निवृत होकर वैसे ही बासी मुख से वे प्रसाद को पाने लगे। प्रसाद को पाते जाते थे और आनन्द के सहित पद्मपुराण के इन श्लोकों को पढ़ते जाते थे-
शुष्कं पर्युषितं वापि नीतं वा दूरदेशत: ।
प्राप्तिमात्रेण भोक्तव्यं नात्र कालविचारण।।
न देशनियमस्तत्र न कालनियमस्तथा।
प्राप्तमन्नं द्रुतं शिष्टैर्भोक्तव्यं हरिरब्रवीत्।।
इस प्रकार सार्वभौम को विश्वास के साथ आनन्दपूर्वक प्रसाद पाते देखकर महाप्रभु के आनन्द की सीमा नहीं रही। वे भट्टाचार्य सार्वभौम का हाथ पकड़ कर नृत्य करने लगे। भट्टाचार्य महाशय भी बेसुध होकर प्रभु के साथ पागल की भाँति नाच रहे थे। सार्वभौम की स्त्री तथा उनके शिष्य और पुत्र इस अपूर्व दृश्य को देखकर इसका कुछ भी कारण न समझ सके। महाप्रभु बार-बार सार्वभौम का आलिंगन करते और गदगदकण्ठ से बार-बार कहते- ‘आज सार्वभौम कृतार्थ हो गये, आज वासुदेव सार्वभौम को भगवान वासुदेव ने अपनी शरण में ले लिया। आज भट्टाचार्य महाशय के सभी संसारी बन्धन छिन्न-भिन्न हो गये। आज मुझे सार्वभौम ने खरीद लिया। इतने भारी शास्त्रज्ञ और शौचाचार को जानने वाले सार्वभौम महाशय का जब महाप्रसाद के प्रति इतना अधिक दृढ़ विश्वास हो गया, तो मैं समझता हूँ, इनसे बढ़कर संसार में कोई दूसरा भक्त होगा ही नहीं।
भट्टाचार्य महोदय ने आज मुझे कृतकृत्य कर दिया। आज मेरा पुरी में आना सफल हो गया।’ प्रभु के मुख से ऐसी बातें सुनकर भट्टाचार्य सार्वभौम कुछ लज्जित-से हुए और बार-बार प्रभु के चरणों की धूलि को अपने सम्पूर्ण शरीर पर मलते हुए कहने लगे- ‘यह सब प्रभु के चरणों की कृपा है। मुझ अधम के ऊपर कृपा करके ही आपने संसार-सागर में डूबते हुए को हाथ पकड़कर उबारा हैं। अब तो मैं आपका दासानुदास हूँ, जब जैसी भी आज्ञा होगी, उसी का पालन करूँगा।’ भट्टाचार्य के मुख से ऐसी बात सुनकर प्रभु कुछ लज्जा का भाव प्रदर्शित करते हुए वहाँ से चले गये। जब गोपीनाथाचार्य ने यह समाचार सुना तब तो वे बड़े प्रसन्न हुए।
शाम को भट्टाचार्य सार्वभौम प्रभु के दर्शन के लिये आये। उसी समय गोपीनाथाचार्य भी वहाँ आ पहुँचे।
प्रभु को प्रणाम करके मुसकराते हुए गोपीनाथाचार्य ने कहा- ‘कहो भट्टाचार्य महाशय! हमारी बात ठीक निकली न? अब बोलो, भागकर कहाँ जाओगे?’
पृथ्वी में सिर टेककर और गोपीनाथाचार्य को प्रणाम करते हुए सार्वभौम ने कहा- ‘यह सब आपके चरणों की कृपा है, नहीं तो मुझ-जैसे संसारी मनुष्य के ऊपर प्रभु कृपा कब कर सकते हैं? आपके ही अनुग्रह से मुझे प्रभु के चरण-कमलों की प्राप्ति हो सकी है।’ इस प्रकार शिष्टाचार की बहुत-सी बातें होने पर सार्वभौम अपने घर को चले आये।
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]
, Shri Hari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram Universal faith in Bhagwat-Prasad
O greatly gracious, in the name of Govinda, O Brahman, O Vaishnava. O king faith is not born of those who have little merit
The main reason for unbelief is love. Where there is no love, there is no faith and where there is love, there is faith. According to Advaita Vedanta, the existence of this entire visible world is based on the belief of our mind. The time when our mind will lose faith in the reality of this world, then this world will cease to exist. That’s why Vedanti says, ‘You believe that ‘so’ham’ ‘chidanandarup shivo’ham shivo’ham’ means ‘I am the same’, I am Shiva in the form of Chidanand.
Our attitude is extroverted, because the doors of our senses are towards the outside, so we believe in external things, but we cannot understand the secret hidden inside them. The one who understood the secret hidden within him was really freed from all bondages. How many people fulfill their sensual desires on the pretext of God’s offerings. By taking shelter of the name, people tend to commit such sins. In fact, they do not know the greatness of Prasad and the name of the Lord, that’s why they give a diamond instead of a shining glass. The name of the Lord, which is capable of destroying all kinds of sins, remains empty in the hands of those who sell it for heaps of gold and silver. Those people remain deprived of the real delicious, sweet and sweet fruit of the Lord’s name. One who has got Mahaprasad once by faith, then his tongue will forget the discrimination between sweet and sour.
The one who has chanted the name of God once with devotion and faith, then he cannot have any desire for any worldly thing. A very heavy Mahatma told us a story – there was a simple-hearted woman. He never took the name of God; But he never did any wrong thing in his life. No creature was hurt by him. One day he heard this verse from the mouth of a very heavy devotee-
Not a single bow was made to Krishna It is equivalent to the ten horse sacrifices and the avabhrithas. Dashashwamedhi is born again He who worships Krishna is not for rebirth.
That is, one who has bowed down at the feet of Krishna with devotion and devotion even once, he gets the same fruit as a man who performs ten Ashwamedhadi Yagya. But the fruit of these two contains a very heavy Veda.
The person who performs Ashvamedha-yajna comes back to the world again, but the one who bows down to Shri Krishna with devotion does not roam again in the world-cycle. Being freed from this cycle, he constantly keeps on rolling in the lotus feet of the Lord. That simple-hearted woman was distraught on hearing the meaning of this verse. His whole body was thrilled. Tears started flowing from the eyes. In a voice stuttering from Gadgad’s voice, he said in a voice of great remorse – ‘ Alas! I have not bowed down at the lotus feet of the Lord even for a single day. Saying this, as soon as she started to bow down, leaving this mortal body, she left for the eternal abode of Sri Hari. Its name is faith or faith. With such faith only the feet of the Lord can be attained. That is why Kabirdas ji has said-
Didn’t get sung three, far away from unsung. The one who sang Biswas Gahi, his straws are always present.
Sarvabhaum Bhattacharya had full faith in the lotus feet of the Lord. It is the promise of the scriptures that when the devotion of God arises in the heart, all the virtues automatically come and reside in the heart without calling. Virtue is the shadow of devotion to God. A shadow cannot live anywhere other than the body. Having faith in any one automatically leads to faith in all good deeds.
One day Mahaprabhu went to see Shri Jagannath ji’s Shayanotthan at the time of Arunodaya. After seeing the Lord, the priest gave him Prasadi Mala and Prasadi Anna. Prabhu accepted that Mahaprasad with both hands with great respect and tied it in his clothes, he went towards Sarvabhaum Bhattacharya’s house. Prabhu went inside without informing. At the same time, Sarvabhaum woke up from sleep and was about to get up from his bed chanting the names of the Lord, when Mahaprabhu arrived. As soon as he saw the Lord, Sarvabhaum got up from the bed in a chaotic manner and prostrated at the lotus feet of the Lord and gave him a beautiful seat to sit on. As soon as he sat on the seat, the Lord opened the Prasad of God from his clothes and gave it to the universal. Thinking that Mahaprabhu is giving Mahaprasad with his own hand today, there is no place for the happiness of the universe. He accepted that Mahaprasad like a humble guest and as soon as it came to his hand, without going to the toilet, he started receiving the Prasad with the same stale mouth. Used to get Prasad and used to read these verses of Padmapuran along with Anand-
Whether it is dry or parched, it may be brought from a distant place. It should be enjoyed only by attainment there is no consideration of time. There is no law of country and no law of time. Having obtained the food the monkeys said that the disciples should eat it quickly
In this way, there was no limit to the joy of Mahaprabhu seeing the sovereign happily receiving the prasad with faith. They started dancing holding the hand of Bhattacharya Sarvabhaum. Bhattacharya Mahasaya was also dancing like a madman with the Lord. Seeing this unique scene, the wife of the universal and his disciples and sons could not understand any reason for this. Mahaprabhu used to hug Sarvabhaum again and again and again and again and again and again and again with Gadgadkanth – ‘ Today Sarvabhaum has become Kritarth, today Vasudev Lord Vasudev has taken Sarvabhaum in his shelter. Today all the worldly bonds of Bhattacharya sir were shattered. Today I was bought by the sovereign. When Sarvabhaum Mahasaya, who knows such great science and etiquette, has such a strong faith in Mahaprasad, then I understand that there will be no other devotee more than him in the world.
Mr. Bhattacharya has done me a favor today. Today my coming to Puri has been successful.’ Hearing such words from the mouth of the Lord, Bhattacharya Sarvabhaum felt a bit ashamed and repeatedly rubbing the dust of the feet of the Lord on his whole body said – ‘All this is due to the feet of the Lord. Please By showing mercy on me, the wretched, you have saved me from drowning in the world-ocean by holding hands. Now I am your slave, I will follow whatever is ordered.’ After hearing such words from Bhattacharya’s mouth, the Lord went away showing some sense of shame. When Gopinathacharya heard this news, he was very happy.
In the evening Bhattacharya came to see the Universal Lord. At the same time Gopinathacharya also reached there.
Smiling after saluting the Lord, Gopinathacharya said – ‘Say Bhattacharya sir! Our talk turned out right, didn’t it? Now tell me, where will you go by running away?’
Bowing his head to the earth and bowing down to Gopinathacharya, Sarvabhaum said- ‘All this is the grace of your feet, otherwise when can God bless a worldly man like me? It is only by your grace that I have attained the lotus feet of the Lord.’ In this way, after many talks of courtesy, the sovereign returned to his home.
respectively next post [99] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]