।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
सार्वभौम का भक्तिभाव
नौमि तं गौरचन्द्रं य: कुतर्ककर्कशाशयम्।
सार्वभौमं सर्वभूमा भक्तिभूमानमाचरत्।।
एक दिन भट्टाचार्य महाशय महाप्रभु के वासस्थान पर प्रभु के दर्शन के निमित्त गये। प्रभु ने बड़े ही प्रेम से उन्हें बैठने के लिये आसन दिया। महाप्रभु की आज्ञा से आसन पर बैठने के अनन्तर हाथ जोड़े हुए सार्वभौम ने कहा- ‘प्रभो ! एक बात का स्मरण करके मुझे अपने ऊपर बड़ी भारी ग्लानि हो रही है। मैंने अपने शास्त्रीय ज्ञान के अभिमान में आपको साधारण संन्यासी समझकर उपदेश देने का मिथ्या अभिमान किया था, इससे मुझे बड़ा दु:ख हो रहा है, आचार्य गोपीनाथ जी के साथ आपकी कड़ी आलोचना भी की थी, इसलिये अब अपने उन पुराने कृत्यों पर बड़ी लज्जा आ रही है।’
महाप्रभु ने अत्यन्त ही स्नेह प्रदर्शित करतेहुए कहा- ‘आचार्य ! यह आप कैसी भूली-भूली-सी बातें कर रहे हैं? हाल तो जहाँ तक मैं समझता हूँ, आपने मेरे सम्बन्ध न तो कोई अनुचित बात ही कही और न कभी अशिष्ट व्यवहार ही किया। आप -जैसे श्रद्धालु, शास्त्रज्ञ विद्वान से कोई भी इस प्रकार के व्यवहार की आशा नहीं कर सकता। थोड़ी देर के लिये मान भी लें कि आपने कोई अनुचित बर्ताव किया भी तो वह तभी तक था, जब तक कि मेरा-आपका प्रगाढ़ प्रेम-सम्बन्ध नहीं हुआ था। प्रेम-सम्बन्ध हो जाने पर तो पुरानी सभी बातें भुला दी जाती हैं। प्रेम होने पर तो एक प्रकार के नूतन जीवन का आरम्भ होता है, जिस प्रकार जन्म होने पर पिछले सभी जन्मों की बातें भूल जाती हैं, उसी प्रकार प्रेम हो जाने पर तो पिछली बातों का ध्यान ही नहीं रहता। प्रेम में लज्जा, भय, संकोच, शिष्टाचार, क्षमा, अपराध आदि द्वैधी भाव को प्रकट करने वाली वृत्तियाँ रहती ही नहीं। वहाँ तो नित्य नूतन रस का आस्वादन करते रहना ही शेष रह जाता है। क्यों ठीक है न ?’ सार्वभौम ने इसका कुछ भी उत्तर नहीं दिया। वे क्षणभर चुपचाप ही बैठे रहे। थोड़ी देर के अनन्तर उन्होंने पूछा- ‘प्रभो ! भगवान के चरण-कमलों में अहैतु की अनन्यभक्ति उत्पन्न हो सके, ऐसा सर्वोत्तम साधन कौन सा है?’
महाप्रभु ने कहा- ‘सबके लिये एक ही रोग में एक ही ओषधि नहीं दी जाती। बुद्धिमान वैद्य प्रकृति देखकर औषधि तथा अनुपान में आवश्यकतानुसार परिवर्तन कर देता है। भोजन से शरीर को पुष्टि, चित्त की तुष्टि और क्षुधा की निवृत्ति- ये तीनों काम होते हैं, किंतु पुष्टि और क्षुधा-निवृत्ति के लिये एक-सा ही भोजन सबको नहीं दिया जाता। जिसे जो अनुकूल पड़े उसी का सेवन करना उसके लिये लाभप्रद है। शास्त्रों में भगवत-प्राप्ति के अनेक साधन तथा उपाय बताये हैं, किंतु इस कलिकाल में तो हरि-नाम स्मरण के अतिरिक्त कोई भी दूसरा साधन सुगमतापूर्वक नहीं हो सकता। वर्तमान समय में तो भगवन्नाम ही सर्वोत्तम साधन है।’
सार्वभौम ने पूछा- ‘प्रभो! भगवन्नाम स्मरण की प्रक्रिया क्या है?’
प्रभु ने कहा- ‘प्रक्रिया क्या! भगवन्नाम की कुछ ऐसी प्रक्रिया नहीं। जब भी समय मिले, जहाँ भी हो, जिस दशा में भी हो, भगवन्नामों का मुख से उच्चारण करते रहना चाहिये। भगवन्नाम का नियत संख्या में जप करो, जो भी अपने को अत्यन्त प्रिय हो ऐसे भगवान के रुप का ध्यान करो, भगवन्नामों का संकीर्तन करो, भगवान के गुणानुवादों का गायन करो, भगवान की परस्पर में कथन और श्रवण करो, सारांश यह है कि जिस-किसी भाँति भी हो सके अपने शरीर, प्राण, मन तथा इन्द्रियों को भगवत्परायण ही बनाये रखने की चेष्टा करो।
सार्वभौम ने पूछा-‘प्रभो ! ध्यान कैसे किया जाय?’
प्रभु ने कहा- ‘अपनी वृत्ति को बाहरी विषयों की ओर मत जाने दो। काम करते-करते जब भी भगवान का रूप हमारी दृष्टि से ओझल हो जाय तो ऊर्ध्व दृष्टि करके (आँखों की पुतलियों को ऊपर चढ़ाकर) उस मनमोहिनी मूर्ति का ध्यान कर लेना चाहिये।’
इस प्रकार भगवन्नाम के सम्बन्ध में और भी बहुत-सी बातें होती रहीं। अन्त में जगदानन्द और दामोदर पण्डित को साथ लेकर सार्वभौम अपने घर चले गये। घर जाकर उन्होंने जगन्नाथ जी के प्रसाद के भाँति-भाँति के बहुत-से सुन्दर-सुन्दर पदार्थ सजाकर इन दोनों पण्डितों के हाथों प्रभु के लिये भेजे और साथ ही अपनी श्रद्धांजलिस्वरूप नीचे के दो श्लोक भी बनाकर प्रभु की सेवा में समर्पित करने के लिये दिये। वे श्लोक ये हैं-
वैराग्यविद्यानिजभक्तियोग
शिक्षार्थमेक: पुरुष: पुराण:
श्रीकृष्णचैतन्यशरीरधारी
कृपाम्बुधिर्यस्तमहं प्रपद्ये।
कालान्नष्टं भक्तियोगं निजं य:
प्रादुष्कर्तुं कृष्णचैतन्यनामा
आविर्भतस्तस्य पादारविन्दे
गाढं गाढं लीयतां चित्तभृंग:।।
जगदानन्द और दामोदर पण्डित प्रभु के स्वभाव से पूर्णरीत्या परिचित थे। वे जानते थे कि महाप्रभु अपनी प्रशंसा सुन ही नहीं सकते। प्रशंसा सुनकर प्रसन्नता प्रकट करना तो दूर रहा उलटे वे प्रशंसा करने वाले पर नाराज होते हैं, इसलिये उन्होंने इन दोनों सुन्दर श्लोकों को बाहर दीवाल पर पहले लिख लिया। तब जाकर भोजन सामग्री के सहित वह पत्र प्रभु के हाथ में दिया। प्रभु ने उसे पढ़ते ही एकदम टुकड़े-टुकड़े करके बाहर फेंक दिया। किंतु भक्तों ने तो पहले से ही उन्हें लिख रखा था। उसी समय मुकुन्द उन्हें कण्ठस्थ करके बड़े ही सुन्दर स्वर से गाने लगे। सभी भक्तों को बड़ा आनन्द रहा। थोड़े ही दिनों में ये श्लोक सभी गौरभक्तों की वाणी के बहुमूल्य भूषण बन गये।
एक दिन सार्वभौम प्रभु के समीप बैठकर कुछ भक्तिविषयक बातें कर रहे थे। बातों-ही-बातों में सार्वभौम श्रीमद्भागवत के इस श्लोक को पढ़ने लगे-
तत्तेऽनुकम्पां सुसमीक्षमाणो
भुंजान एवात्मकृतं विपाकम्।
ह्रद्वाग्वपुर्भिर्विदधन्नमस्ते
जीवेत यो मुक्तिपदे स दायभाक्।।
सार्वभौम भट्टाचार्य ने इस श्लोक के अन्तिम चरण में मुक्ति स्थान में ‘भक्ति’ पाठ पढ़कर यह अर्थ किया कि वह भक्ति का अधिकारी होता है।
महाप्रभु ने हंसते हुए कहा- ‘भट्टाचार्य महाशय ! आपको अपने मनोऽनुकूल अर्थ करने में भगवान व्यासदेव के इस श्लोक में पाठ-परिवर्तन करने की आवश्यकता न पड़ेगी। आप समझते होंगे, इस श्लोक से मुक्ति को ही सर्वश्रेष्ठता प्राप्त हो जाती है।’ यह बात नहीं है। भगवान व्यासदेव स्वयं ही भगवत-पादसेवन को मुक्ति भी बढ़कर बताते हैं। जैसा कि इस श्लोक में कहा है-
सालोक्यसार्ष्टिसामीप्यसारूप्यैकत्वमप्युत
दीयमानं न गृह्णन्ति विना मत्सेवनं जना:।।
यानि भक्त तो भगवत-सेवा के सामने मुक्ति तक की उपेक्षा कर देते हैं। इस सिद्धान्त का प्रतिपादन करने वाले भगवान व्यासदेव समस्त साधकों को स्थिति का नाम ‘मुक्ति’ कैसे कथन कर सकते हैं।
इस श्लोक में ‘मुक्तिपद’ ऐसा पाठ है। इसका अर्थ हुआ ‘मुक्ति पदे यस्य स मुक्तिपद:’ अर्थात मुक्ति है पैर में श्रीकृष्ण भगवान को प्राप्त होता है। अर्थात मुक्ति है पूर्वपद में जिनके ऐसे नवें पदार्थ से आगे दसवें पदार्थ अर्थात श्रीकृष्ण को प्राप्त होता है।
श्रीमद्भागवत में दस पदार्थों का वर्णन है जैसा कि निम्न श्लोकों में वर्णन है-
अत्र सर्गो विसर्गश्च स्थानं पोषणमूतय:।
मन्वन्तरेशानुकथा निरोधो मुक्तिराश्रय:।।
दशमस्य विशुद्ध्यर्थं नवानामिह लक्षणम्।
वर्णयन्ति महात्मान: श्रुतेनार्थेन चांजसा।।
अर्थात श्रीमद्भागवत में सर्ग-विसर्ग, स्थिति, पोषण, ऊति, मन्वन्तर, ईश-कथा, निरोध, मुक्ति और आश्रय- इन दसों का वर्णन हैं। इनमें दसवां विषय जो सबके आश्रयस्वरूप श्रीकृष्ण हैं उन्हीं के तत्त्वज्ञान के निमित्त महात्मा पुरुष यहाँ इन सर्गादि नौ लक्षणों का स्वरूप वर्णन करते हैं। जिनमें श्रुति के द्वारा स्तुति आदि से प्रत्यक्ष वर्णन करते हैं और भाँति-भाँति के आख्यान कहकर अन्त में तात्पर्यरूप से भी उसी का वर्णन करते हैं। सारांश यही कि चाहे तो देवता आदि के द्वारा तू ही सबका आश्रय है, यह कहकर उनका वर्णन किया हो या अम्बरीष आदि की कथा कहकर अन्त में यह तात्पर्य निकालो कि बिना भगवत-शरण प्राप्त किये कल्याण नहीं। कैसे भी कहा जाय। सर्वत्र उसी दसवें ‘आश्रयभूत’ श्रीकृष्ण के चरणों में प्रीति होने के ही निमित्त श्रीमद्भागवत की रचना हुई है। इसलिये ‘मुक्तिपद’ वे ही श्रीकृष्णभगवान हो सकते हैं। यहाँ सार्ष्टि, सामीप्यादि मुक्ति से तात्पर्य नहीं है।’
सार्वभौम ने कहा- ‘प्रभो ! मुझे तो आपकी इस व्याख्या से सन्तोष हो गया और यही यहाँ मुक्तिपद शब्द का भाव होगा। किंतु सब लोग तो प्रचलित अर्थ में ही मुक्तिपद का अर्थ करेंगे। इसलिये मुझे भक्ति पाठ ही सुन्दर प्रतीत होता है।’
प्रभु ने हंसकर कहा- ‘यह तो मैंने वैसे ही वाग्विनोद के निमित्त पदों की खींचा-तानी करके ऐसा अर्थ किया है। वास्तव में तो मुक्तिपद का अर्थ संसारी सभी बन्धनों से मुक्त होना ही है। संसार के बन्धनों से मुक्त होने पर प्रभुपद के अतिरिक्त उसे दूसरा कोई आश्रय ही नहीं। बन्धन छूटना चाहिये फिर चाहे उसी के बनकर उसकेपादपह्रों में लोट लगाते रहो या उसी में घुल-मिल जाओ। सब एक ही बात है। उनके चरणों का आश्रय पकड़ना ही मुख्य है। इस प्रकार की शब्दों की खींचा-तानी में क्या रखा है? ऐसी खींचा तानी तो पक्षपाती पुरुष अपने पक्ष को सिद्ध करने के निमित्त किया करते हैं। जिसे श्रीकृष्ण के चरणों से ही प्रेम करना है उसे पक्षपात से क्या प्रयोजन?’
प्रभु के ऐसे उपदेश को सुनकर सार्वभौमभट्टाचार्य को बड़ी शान्ति हुई और वे प्रभु को प्रणाम करके अपने घर को चले गये।
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]
, Shri Hari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram universal devotion
I bow to that Gaurachandra who is the source of irrational cancer The sovereign, the all-pervading, worshiped the sovereign, the sovereign, the sovereign.
One day Bhattacharya Mahasaya went to Mahaprabhu’s abode to have a glimpse of the Lord. The Lord very lovingly gave him a seat to sit on. By the command of Mahaprabhu, while sitting on the seat, the universal said with folded hands – ‘Lord! Remembering one thing, I am feeling very heavy on myself. In the pride of my classical knowledge, I had taken false pride of preaching you as an ordinary monk, I am very sad because of this, along with Acharya Gopinath ji, I had strongly criticized you, so now I am very ashamed of my old deeds. Is coming.
Mahaprabhu showing extreme affection said – ‘ Acharya! What kind of nonsense are you talking about? Well, as far as I understand, you have neither said anything inappropriate nor behaved rudely towards me. No one can expect this type of behavior from a devotee, scientist and scholar like you. Suppose for a while that even if you had behaved inappropriately, it was only until you and I had developed a strong love relationship. When there is a love relationship, all the old things are forgotten. On falling in love, a kind of new life begins, just as on being born one forgets all the things of previous births, in the same way, on falling in love, one does not remember the past. In love, there are no instincts that reveal the dual feelings of shame, fear, hesitation, courtesy, forgiveness, guilt etc. There, the only thing left to do is to keep on relishing the new juice everyday. Why isn’t it right?’ The sovereign did not answer anything to this. They sat silently for a moment. After a while he asked – ‘Lord! What is the best way to develop causeless devotion to the lotus feet of the Lord?’
Mahaprabhu said- ‘The same medicine is not given for the same disease for everyone. A wise doctor, seeing nature, makes changes in medicine and proportion according to need. Food nourishes the body, satisfies the mind and suppresses appetite – all these three things are done, but the same food is not given to everyone for nourishment and appetite. It is beneficial for him to consume whatever suits him. In the scriptures, many means and methods of God-attainment have been told, but in this Kalikal, apart from remembering Hari-Naam, no other means can be done easily. At present, the name of the Lord is the best means.
The sovereign asked – ‘Lord! What is the process of chanting the name of God?
The Lord said – ‘What is the process! There is no such process of God’s name. Whenever you get time, wherever you are, in whatever condition you are, you should keep chanting the names of God. Chant the name of the Lord a fixed number of times, meditate on the form of the Lord who is very dear to you, chant the names of the Lord, sing the praises of the Lord, talk about and listen to the Lord, the summary is that- In any way possible, try to keep your body, soul, mind and senses devoted to God.
The sovereign asked – ‘Lord! How to meditate?
The Lord said- ‘Don’t let your instinct go towards external subjects. Whenever the form of God disappears from our vision while working, then by looking upwards (by elevating the pupils of the eyes), one should meditate on that charming idol.
In this way many other things happened in relation to the name of the Lord. Finally, Sarvabhauma went to his home, taking Jagadananda and Damodar Pandit with him. After going home, he decorated many beautiful things of Jagannath ji’s Prasad and sent them to the Lord in the hands of these two pundits and also made the following two verses as his tribute and gave them to be dedicated to the service of the Lord. Those verses are:
Vairagyavidyanijabhaktiyoga One: man: Purana: for education Sri Krishna consciousness body-bearer I seek refuge in Him who is merciful and intelligent. He who has lost his devotional yoga in time: To produce the name of Krishna consciousness At the feet of the one who appeared Let the bee of the mind merge deeply and deeply.
Jagadananda and Damodar Pandit were fully aware of the nature of the Lord. They knew that Mahaprabhu cannot listen to his own praise. Far from expressing happiness on hearing praise, on the contrary, he gets angry with the praiser, so he wrote these two beautiful verses on the wall outside first. Then went and gave that letter along with the food items in the hands of the Lord. Prabhu tore it into pieces as soon as he read it and threw it out. But the devotees had already written them down. At the same time Mukund started singing them in a very beautiful voice after learning them by heart. All the devotees were very happy. Within a few days, these verses became a valuable ornament of the speech of all the devotees of God.
One day, sitting near the Universal Lord, he was talking about some devotional matters. While talking, he started reciting this verse of the universal Shrimad Bhagwat-
That’s what I’m sorry for, carefully considering Enjoying the consequences of his own actions. O lake-like body, I offer my obeisances to you He who lives at the stage of liberation is the recipient of the gift.
Sarvabhaum Bhattacharya, by reciting the text ‘bhakti’ in the place of salvation in the last phase of this verse, means that he is entitled to devotion.
Mahaprabhu laughed and said – ‘ Mr. Bhattacharya! You will not need to change the text in this verse of Lord Vyasdev to make the meaning according to your wish. You must have understood, from this verse only liberation attains the best.’ This is not the case. Lord Vyasdev himself describes Bhagwat-Padsevan as more than liberation. As it is said in this verse-
Even the unity of the form of the nearness of the universe People do not accept what is given without serving Me
Means the devotees neglect even salvation in front of Bhagwat-seva. How can Lord Vyasdev, who propounds this theory, describe the name of the situation as ‘Mukti’ to all the sadhaks. In this verse ‘Muktipada’ is such a text. It means ‘Mukti Pade Yasya Sa Muktipada:’ which means liberation is attained in the feet of Lord Krishna. That is, there is liberation in the preposition, from whose ninth substance the tenth substance i.e. Shri Krishna is attained.
There is a description of ten substances in Shrimad Bhagwat as described in the following verses-
Here creation and dissolution are the places of nourishment and urine. The story of the Lord of the Manvantaras Nirodha is the refuge of liberation. The tenth is the characteristic of the new here for the purpose of purity. The great souls describe it with ease and with the meaning of what they have heard
That is, in the Shrimad Bhagwat, there is a description of these ten – canto-dissolution, condition, nutrition, Uti, Manvantar, Ish-Katha, detention, liberation and shelter. Among these, the tenth subject, who is the refuge of all, Shri Krishna, for the sake of philosophy, Mahatma Purush here describes the form of these eternal nine symptoms. In which they describe directly from praise etc. through Shruti and in the end they also describe the same in meaning after telling different stories. The summary is that whether you have described them by saying that you are everyone’s shelter through the deities etc. or by telling the story of Ambarish etc., in the end draw the meaning that there is no welfare without taking refuge in God. How can it be said? Shrimad Bhagwat has been composed for the sake of having love at the feet of the same tenth ‘Ashrayabhoot’ Shri Krishna everywhere. That’s why ‘Muktipada’ only he can be Lord Krishna. Here there is no meaning of creation, near liberation.
The sovereign said – ‘ Lord! I am satisfied with this explanation of yours and this will be the meaning of the word Muktipada here. But everyone will mean Muktipada in the prevalent sense only. That’s why I find devotional lessons beautiful.’
Prabhu said with a smile – ‘I have interpreted the same way by pulling the posts for the sake of Vagvinod. In fact, the meaning of Muktipada is to be free from all worldly bondages. When he is free from the bonds of the world, he has no other shelter other than the Lordship. The bondage should be released, even if you become his and keep rolling in his footsteps or get mixed in him. It’s all the same thing. The main thing is to take shelter of his feet. What is there in such charade of words? Such taunting is done by biased men to prove their side. What is the use of favoritism to the one who has to love only at the feet of Shri Krishna?
Sarvabhaumabhattacharya was greatly relieved after hearing such advice from the Lord and he went to his home after saluting the Lord.
respectively next post [100] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]