भगवान कृष्ण अर्जुन को कर्मयोग में ज्ञानयोग भक्तीयोग को समझा रहे हैं। कर्म जब भगवान को भजते हुए समर्पित भाव से किया जाता है तब भक्त के मन में कोई विचार नहीं रहता है। कर्म कर रहा है। कर्म करते हुए आनद की उत्पत्ति हो रही है। तब भक्त के अन्दर जगत नहीं है क्योंकि पुरण ब्रह्म परमात्मा के गहरे चिन्तन में भाव प्रधान प्रार्थनाएं है। प्रार्थना के दो रूप हैं एक प्रार्थना वह है जो लिखी हुई है और हम करते हैं दुसरी प्रार्थना भगवान के प्रेम भाव में डूबे हुए भगवान को अन्तर्मन से जैसे भाव अन्तर्मन में प्रकट होते हैं उसी भाव में भरकर भगवान को पुकारना है। भगवान अर्जुन को कहते हैं कि तु मुझ परमात्मा के भाव में सराबोर हो जा फिर तु युद्ध करते हुए तु तु रहेगा ही नहीं तेरा कर्म भक्ती योग और ज्ञानयोग होगा क्योंकि उस समय भी तु अन्तर्मन से भगवान के भाव से खेल रहा होगा। जय श्री राम
अनीता गर्ग
