‘ज्ञान के द्वारा जिनकी चिज्जन्ग्रंथी कट गयी है, ऐसे आत्माराम मुनिगण भी भगवान् की निष्काम भक्ति किया करते हैं, क्योंकि भगवान् के गुण ही ऐसे हैं कि वे प्राणियों को अपनी ओर खिंच लेते हैं |’
कोई कमी भी न हो और प्रेम की भूख भी हो – यह प्रेम की अनिर्वचनीयता है | सत्संग में लगे हुए साधकों को यह अनुभव भी है कि प्रतिदिन सत्संग सुनते हुए, भगवान् की लीलाएँ सुनते हुए, भजन कीर्तन करते और सुनते हुए भी न तो उनसे तृप्ति होती है और न उनको छोड़ने का मन ही करता है | उसमे प्रतिदिन नया-नया रस मिलता है, जिसमे भूतकाल का रस फीका दीखता है और वर्तमान का रस विलक्षण दीखता है (मानस. उतर. ५३/१) | इस प्रकार प्रेम में पूर्णता भी है और अभाव भी है – यह प्रेम की अनिर्वचनीयता है |
ज्ञान में तो स्वरूप में स्थिति होती है, जिससे ज्ञानी को संतोष हो जाता है (गीता ३/१७); परन्तु प्रेम में न स्थिति होती है और न सन्तोष होता है, प्रत्युत नित्य-निरन्तर वृध्दि होती रहती है |
वास्तव में प्रेम का निर्वचन (वर्णन) किया ही नहीं जा सकता | अगर उसका निर्वचन कर दें तो फिर वह अनिर्वचनीय कैसा रहेगा ?
डूबै सो बोले नहीं, बोलै सो अनजान |
गहरो प्रेम-समुद्र कोउ डूबै चतुर सुजान ||
इसलिये भगवान् प्रेम-लीला के लिये श्रीजी और कृष्णरूप से दो हो जाते हैं
वास्तव में श्रीजी कृष्ण से अलग नहीं होतीं, प्रत्युत कृष्ण ही प्रेम की वृध्दि के लिये श्रीजी को अलग करते हैं | तात्पर्य है कि प्रेम की प्राप्ति होने पर भक्त भगवान् से अलग नहीं होता, प्रत्युत भगवान् ही प्रतिक्षण वर्धमान प्रेम के लिये भक्त को अलग करते हैं (राधातापनियोपनिषद) | इसलिये प्रेम प्राप्त होने पर भक्त और भगवान् – दोनों में कोई छोटा-बड़ा नहीं होता | दोनों ही एक-दूसरे के भक्त और दोनों ही एक-दूसरे के इष्ट होते हैं | तत्वज्ञान से पहले का भेद (दवैत) तो अज्ञान से होता है, पर तत्वज्ञान के बाद का (प्रेम का) भेद भगवान् की इच्छा से होता है |
‘Those soulmates who have been cut off by knowledge, do selfless devotion to the Lord, because the qualities of the Lord are such that they attract living beings to themselves.’
There should be no shortage and there should be no hunger for love – this is the indescribableness of love. Seekers engaged in satsang also have the experience that while listening to satsang daily, listening to the pastimes of the Lord, chanting and listening to bhajans, neither do they feel satisfied nor do they feel like leaving them. New juice is found in it every day, in which the juice of the past looks pale and the juice of the present looks strange (Manas. Ut. 53/1). Thus love has perfection as well as lack – this is the inefficiency of love. In knowledge there is a position in the form, due to which the knowledgeable gets satisfaction (Gita 3/17); But there is neither status nor satisfaction in love, but there is a continuous increase in it. In fact, love cannot be explained (described). If it is interpreted, then how will it be indescribable? Don’t say so drowned, said so unknown. Deep love – the sea is drowned, clever Sujan || Therefore the Lord becomes two for the sake of love-play, as Sriji and Krishna. Actually Shreeji does not separate from Krishna, rather it is Krishna who separates Shreeji for the growth of love. It means that the devotee does not separate from the Lord on the attainment of love, rather it is the Lord who separates the devotee for ever-increasing love (Radhatapanio Upanishad). Therefore, when love is received, there is no small or big difference between the devotee and the Lord. Both are devotees of each other and both are favored by each other. The distinction (Dvaita) before philosophy is from ignorance, but after philosophy (of love) differs from the will of the Lord.