जब जब वृन्दावन सुधि आवत ।
हृदयाकाश विरहघन उमड़त असुवन धार नैन-भरि लावत ॥
फड़क उठत प्रति रोम रोम तन, मति बौरात जिया अकुलावत ।
श्रीब्रजरज पावन परसन हित, कल न पड़त पल युग सम जावत ॥
पड़ो रहत तन रहत जहां पर, प्राण-पखेरू कुञ्जन धावत ।
‘ललितविहारिणि’ जात न बस कछु, अपनेहि भाग्य धुनत पछितावत ॥
जब भी मेरा मन वृंदावन का स्मरण करता है तो मेरे हृदय के आकाश में वियोग की वेदना उत्पन्न हो जाती है और मेरी आंखों से अश्रुधार प्रवाहित होने लगते हैं ।
मेरे शरीर के हर अंग में कंपन होने लगता है, मेरी मति अस्थिर हो जाती है, और मेरा हृदय व्याकुल हो जाता है । ब्रज की पवित्र रज के स्पर्श के बिना एक क्षण भी एक एक युग के समान प्रतीत होने लगता है ।
मेरा शरीर जहां भी पड़ा हो, लेकिन मेरे प्राण तुरंत वृंदावन की कुंजों की ओर दौड़ने लगते हैं । श्री ललित विहारिणि जी कहते हैं, “मेरे बस में कुछ भी नहीं है, मैं तो केवल अपने दुर्भाग्य पर पछता रहा हूँ कि मैं श्री वृन्दावन में नहीं हूँ”।
Whenever Vrindavan Sudhi comes. Hridayakash Virahanghan Umat Asuvan Dhar Nain-Bhari Lawat॥ Phadak rise per rom rom body, matti baurat jiya akulawat. Shri Brajraj holy person’s interest, tomorrow does not fall from the moment of age. Padho Rahat Tan Rahat Jahan Jahan, Prana-Pakheru Kunjan Run. ‘Lalitviharini’ caste is not just a turtle, regrets its own fate.
Whenever my mind remembers Vrindavan, the pain of separation arises in the sky of my heart and tears start flowing from my eyes.
Every part of my body begins to vibrate, my mind becomes unsteady, and my heart becomes restless. Without the touch of the holy Raj of Braj, even a single moment seems like an era.
Wherever my body is lying, but my life immediately starts running towards the keys of Vrindavan. Shri Lalit Viharini ji says, “There is nothing in my control, I am only regretting my misfortune that I am not in Sri Vrindavan”.