|| श्री हरि: ||
गत पोस्ट से आगे…………
आनन्दरूप से वह परमात्मा हमारे बाहर-भीतर परिपूर्ण है | आनन्द के सिवाय कोई वस्तु नहीं है | वही आनन्द आमोद-प्रमोद सुख के रूप में आते हैं | आनन्द अत्यन्त सुखरूप है | उस सुख की कोई सीमा नहीं है |
आनन्द-ही-आनन्द है | आनन्द को ब्रह्म समझ कर उपासना करनी चाहिये | बुध्दि से निश्चय करना चाहिये, मन से मनन करना चाहिये | उस आनन्द का नाम ही नारायण है | नारायण, नारायण, नारायण; आनन्दमय, आनन्दमय का उच्चारण करने से मालूम होता है जैसे कोई आनन्द का समुद्र उमड़ आया है | वह आनन्द अपार है,
उसमे कोई दूसरी वस्तु नहीं है, अत: वह पूर्ण आनन्द है | वह शान्त आनन्द है, सम है, वह इतना गहरा है कि उसके सिवाय दूसरी वस्तु है ही नहीं, वह जड नहीं है, चेतन स्वरूप है, वह अनन्त है उसकी सीमा नहीं है | सब जगह समभाव से परिपूर्ण है | वह नित्य है, अचल है, अव्यक्त है, शुध्द है, निर्विकार है |
ऐसा आनन्द शरीर के बाहर-भीतर सब जगह परिपूर्ण है | शरीर चलता है तो आनन्द ही चलता है, आकाश की तरह आनन्द सब जगह है | साधनकाल में ही आनन्द है, सिध्दावस्था में भी आनन्द है | शब्द, अर्थ, ज्ञान सब आनन्द ही है, आनन्द के सिवाय कोई वस्तु है ही नहीं | ह्रदय में आनन्द का ही अनुभव करे, आनन्द का ही उच्चारण करे, प्रत्यक्ष में भी आनन्द, साधन में भी आनन्द और फल में भी आनन्द है | सारे भूत् शरीर अन्त में आनन्द में ही विलीन होकर एक आनन्द ही रह जाता है, वैसे ही एक आनन्द ही रह जाता है | ऐसे ही ध्यान में मस्त होकर चलें |
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शेष आगामी पोस्ट में |
गीताप्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित जयदयाल गोयन्दका की पुस्तक भगवान् कैसे मिलें ? (१६३१) से |
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