सनेही एक विहारी-विहारिनि।
एक प्रेम रुचि रचे परस्पर, अद्भुत भाँति निहारिनि॥
तन सौं तन, मन सौं मन, अरुझ्यौ, अरुझनि वारनि-हारनि।
यह छबि देखत ही ‘ध्रुव’ चित कौं, भूली देह-सँभारनि॥
अखिल विश्व-ब्रह्माण्ड में यदि कोई प्रेमी है, तो वह केवल श्री वृन्दावन निकुञ्ज-विलासी विहारी-विहारिणी श्री लाड़िली-लाल ही हैं, जो केवल अनन्य प्रेम की रंग-रुचि में अद्भुत रूप से अनुरञ्जित हुए देखे जाते हैं।
जिनके परस्पर में तन से तन, मन से मन तथा केश कुन्तल एवं हारावली भी उलझी रहती है। युगल की ऐसी उलझी हुई छवि को देखकर ध्रुवदास को अपने चित्त एवं देह की सँभाल एवं सावधानी भी भूल गयी है।