प्रेम – साधन
( पोस्ट 1 )

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|| श्री हरि: ||

व्रजराज भगवान् श्रीकृष्ण के प्रति अनन्य प्रेम होने में ही इस जीवन की सार्थकता है | जिस बडभागी ने इस दिव्य, अनन्य एवं विशुद्ध प्रेम-पीयूष का पान कर लिया, उसका जन्म सफल हो जाता है | उसकी युग-युग की, जन्म-जन्मों की विषय-पिपासा बूझ जाती, शान्त हो जाती है | भवताप से संतप्त प्राणी भगवत्प्रेम की पावन गंगा में निमज्जन करके ही पूर्ण शान्ति प्राप्त कर सकता है | यही वह परम रस है, जिसे पीकर मनुष्य सिद्ध, अमर और तृप्त हो जाता है (नारदभक्ति सूत्र ४) | जिस प्रेम के प्राप्त होने पर मनुष्य न तो किसी भी वस्तु की इच्छा करता है, न शोक करता है, न द्वेष करता है, न किसी भी वस्तु आसक्त होता है और न (विषयभोगों की प्राप्ति में) उसे उत्साह होता है (नारदभक्तिसूत्र ५) |
प्रेम साधन भी है और साधनों का फल (साध्य) भी (नारदभक्तिसूत्र ५१) | परमात्मा की ही भाँति प्रेम का स्वरूप भी अनिर्वचनीय है, गूँगे की स्वाद की तरह यह वाणी का विषय नहीं होता (नारदभक्तिसूत्र ५२) | इसलिये प्रेम का स्वरूप अलौकिक बतलाया गया है; क्योंकि वह लोक से सर्वथा विलक्षण है | लौकिक प्रेम भोग-कामनाओं और दुर्वासनाओं से वासित होने के कारण शुद्ध नहीं होता | जहाँ वासना का आधिपत्य है वह प्रेम नहीं, आसक्तिमूलक मोह है | इसके अतिरिक्त लौकिक प्रेम का आलम्बन क्षणिक एवं नाशवान होते हैं; अत: वह भगवत्प्रेम के सामने हे ही है | भगवत्प्रेम भी यदि किसी कामना से किया जाय तो वह सकाम कहलाता है | सकाम प्रेम में दिव्यता, अनन्यता एवं विशुद्धता का अभाव होता है | कामना लौकिक वस्तु के लिये ही होती है, अत: लौकिकता का सम्मिश्रण हो जाने से उसकी दिव्यता नष्ट हो जाती है तथा उक्त कामना में वह प्रेम बँट जाता है, इसलिये उसमे एकनिष्ठा एवं अनन्यता नहीं रह जाती | इसी प्रकार कामना से मिश्रित या दूषित हो जाने से वह प्रेम विशुद्ध नहीं रह पाता | दिव्य, अनन्य एवं विशुद्ध प्रेम तो तीनों गुणों से अतीत और कामनाओं से रहित होता है, वह प्रतिक्षण बढ़ता है, कभी घटता नहीं, वह सूक्षम-से-सूक्षम होता है, उसे वाणी द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता, वह तो अनुभव की वस्तु है (नारदभक्तिसूत्र ५४) |
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शेष आगामी पोस्ट में |
श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका जी की पुस्तक प्रेमयोग का तत्व पुस्तक कोड ५२७, द्वारा प्रकाशित गीताप्रेस, गोरखपुर से |
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, Sri Hari: ||
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The meaning of this life is only in having exclusive love for Vrajraj Lord Shri Krishna. The fortunate one who drinks this divine, unique and pure love-Piyush, his birth becomes successful. His thirst for the subject of ages, births and births gets extinguished, becomes calm. A person afflicted with heat can attain complete peace only by immersing himself in the holy Ganges of God’s love. This is the ultimate juice, by drinking which man becomes perfect, immortal and satisfied (Narad Bhakti Sutra 4). Having attained that love, one neither desires, grieves, hates, nor becomes attached to anything, nor is he excited (in the attainment of sensual pleasures) (Narad Bhakti Sutra 5). |
Love is a means as well as the result of the means (Sadhya) (Narad Bhaktisutra 51). Like God, the form of love is also indescribable, like the taste of the dumb, it is not the subject of speech (Narad Bhakti Sutra 52). That’s why the form of love has been described as supernatural; Because he is completely unique from the world. Cosmic love does not become pure because it is inhabited by pleasures and desires. Where there is dominance of lust, it is not love, it is attachment based attachment. Apart from this, the support of worldly love is momentary and perishable; Therefore, he is only in front of Bhagavatprem. If God’s love is also done with any desire, then it is called successful. Fruitful love lacks divinity, exclusivity and purity. The desire is only for the worldly thing, so due to the mixing of worldly things, its divinity is destroyed and that love gets divided in the said desire, hence there is no unity and exclusivity in it. Similarly, love cannot remain pure if it is mixed or contaminated with desire. Divine, unique and pure love is free from all three qualities of past and desires, it increases every moment, never decreases, it is subtle to subtle, it cannot be expressed by speech, it is a matter of experience. is (Narad Bhaktisutra 54).
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Rest in upcoming post.
Premyog ka tattva book code 527 by Shraddheya Jaidayal Goyandka ji, published by Geetapress, Gorakhpur.
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