भक्त नरसी मेहता चरित (01)

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(एक भक्त ऐसा भी जिनके कार्य हेतु स्वयं भगवान् को 52 बार प्रकट होकर कार्य पूर्ण हेतु आना पड़ा )

कदा वृन्दारण्ये विमलयमुनातीरपुलिने
चरन्तं गोविन्दं हलधरसुदामादिसहितम्।
अये कृष्ण स्वामिन् मधुरमुरलीवादनविभो
प्रसीदेत्याक्रोशन् निमिषमिव नेष्यामि दिवसान्।।

प्यारे! तुमसे किस मुख से कहूँ, कि मुझे ऐसा जीवन प्रदान करो। चिरकाल से महात्माओं के मुख से सुनता चला आ रहा हूँ, कि तुम निष्कि‌चनों के प्रिय हो, जिन्होंने आभ्यन्तर और ब्राह्य दोनों प्रकार के परिग्रह का परित्याग कर दिया है, जिनके तुम ही एकमात्र आश्रय हो, जो तुमको ही अपना सर्वस्व समझते हों,

उन्हीं एकनिष्ठ भक्तों के हृदय में आकर तुम विराजमान होते हो, उन्हीं के जीवन को असली जीवन बना देते हो। उन्हीं के तुम प्यारे हो और वे तुम्हें प्यारे हैं। प्यारे! इस पामर प्राणी से तुम कैसे प्यार कर सकोगे? वंचना नहीं, अत्युक्ति नहीं, नाथ! यह कैसे कहूँ कि बनावट नहीं, किन्तु तुम तो अन्तर्यामी हो, तुमसे कोई बात छिपी थोडे़ ही है, इस अधम का तो तुम्हारे प्रति तनिक भी आकर्षण नहीं।

रोज सुनता हूँ अमुक के ऊपर तुमने कृपा की, अमुक को तुमने दर्शन दिये, इन प्रसंगों को सुनकर मुझे अधीर होना चाहिये, किन्तु कृपालो! अधीर होना तो अलग रहा, मुझे तो विश्वास तक नहीं होता, कि ऐसा हुआ भी होगा या नहीं। बहुत चाहता हूँ, तुम्हारा स्मरण करूँ, मन में तुम्हें छोड़कर दूसरा विचार ही न उठे, कान तुम्हारे गुण-कीर्तनों के अतिरिक्त दूसरी सांसारिक बातें सुनें ही नहीं। जिह्वा निरन्तर तुम्हारे ही नामामृत का पान करती रहे।

नेत्रों के सम्मुख तुम्हारी वही ललित त्रिभंगीयुक्त बाँकी चितवन नृत्य करती रहे। पैरों से तुम्हारी प्रदक्षिणा करूँ। करों से तुम्हारी पूजा-अर्चा करता रहूँ और हृदय में तुम्हारी मनोहर मूर्ति को धारण किये रहूँ, किन्तु नटनागर! ऐसा एक क्षण भी तो होने नहीं पाता। मन न जाने क्या ऊल-तमूल सोचता रहता है जब कभी स्मरण आता है, तो मन को बार-बार धिक्कारता हूँ, ‘अरे नीच! न जाने तू क्या व्यर्थ की बातें सोचता रहता है! अरे, उन मनमोहन की छवि का चिन्तन कर जिसके बाद फिर कोई चिन्तनीय चीज ही शेष नहीं रह जाती,

किन्तु नाथ! वह मेरी सीख को सुनता ही नहीं। न जाने कितने दिन से यह इन घटपटादिकों को सोचता आ रहा है। विषयों के चिन्तन से यह ऐसा विषयमय बन गया है, कि तुम्हारी ओर आते ही काँपने लगता है और आगे बढ़ना तो अलग रहा, चार कदम और पीछे हट जाता है। कैसे करूँ नाथ! अनेक उपाय किये, अपने करने योग्य साधन जहाँ तक कर सका सब किये, किन्तु इस पर कुछ भी असर नहीं हुआ। हो भी तो कैसे? इसकी डोरी तो तुम्हारे हाथ में है।

तुमने तो इसकी डोरी ढीली छोड़ दी है, यदि तुम्हारा जरा भी इशारा हो जाता तो फिर इसकी क्या मजाल जो इधर-से-उधर तनिक भी जा सकता। मेरे साधनों से यह वश में हो सकेगा, ऐसी मुझे आशा नहीं। तुम्हीं जब बरजो तब काम चले।



मोहे आन मिलो श्याम,
बहुत दिन बीत गए राह तकत के हारी अँखिआ,
फिर भी आस लगाए अँखियाँ
जीवन की हो गयी शाम

दादी की महात्मा से याचना

गोविंद भक्त नरसी मेहता कि सम्पूर्ण भक्ति मय कथा सभी श्रवन करें

पुण्यभूमि आर्यावर्त के सौराष्ट्र -प्रांत में जीर्णोदुर्ग नामक एक अत्यंत प्राचीन ऐतिहासिक नगर है , जिसे आजकल जूनागढ कहते है ।

भक्त प्रवर श्री नरसी मेहता का जन्म लगभग संमवत चौदह सौ सतर में इसी जूनागढ में एक प्रतिष्ठित नागर ब्रह्ममण -परिवार में हुआ था । उनके पिता का नाम था कृष्ण दामोदर दास तथा माता का नाम लक्ष्मीगौरी था,

उनके एक और बड़े भाई थे , जिनका नाम था वणसीधर या वंशीधर । अभी वंशीधर की उम्र बाईस वर्ष और नरसी राम की पाँच वर्ष लगभग थी कि उनके माता -पिता का देहांत हो गया और उसके बाद नरसिंह राम का लालन -पालन बड़े भाई तथा दादी ने किया । दादी का नाम था जयकुँवरी।

नरसिंह राम बचपन से गूँगे थे ; प्रायः आठ वर्ष की उम्र तक उनका कण्ठ नहीं खुला ।इस कारण लोग उन्हें “गूँगा ‘ कहकर पुकारने लगे ।

इस बात से उनकी दादी जयकुवँरी को बड़ा कलेश ( दुःख ) होता था । वह बराबर इस चिन्ता में रहती थी कि मेरे पौत्र की जबान कैसे खुले । परंतु मूक को वाचाल कौन बनावे, पंगु को गिरिवर लाँघने की शक्ति कौन दे ?

जयकुँवरी को पूरा विश्वास था , ऐसी शक्ति केवल एक परम पिता परमेश्वर ही है ; उनकी दया होने पर मेरा पौत्र भी तत्काल वाणी प्राप्त कर सकता है और साथ ही यह भी उसे विश्वास था कि उन दयामय जगन्नाथ की कृपासाधारण मनुष्यों को उनके प्रिय भक्तों के द्वारा ही प्राप्त हुआ करती है ।

अतएव स्वाभावतः ही उसमें साधु -महात्माओं के प्रति श्रद्धा और आदर का भाव था । जब और जहाँ उसे कोई साधु-महात्मा मिलते , वह उनके दर्शन करती और यथाशक्ति श्रद्धा पूर्वक सेवा भी करती ।

कहते है श्रद्धा उत्कट होने पर एक -न एक दिन फलवती होती ही है । आखिर जयकुँवरी की श्रद्धा भी पूरी होने का सुअवसर आया । फाल्गुन शुक्ल पंचमी का दिन था ।ऋतुराज का सुखद साम्राज्य जगत भर में छा रहा था । मन्द-मन्द वसन्त वायु सारे जगत के प्राणियों में नव जीवन का संचार कर रहा था ।

नगर के नर -नारी प्रायः नित्य ही सायंकाल हाटकेशवर महादेव के दर्शन के लिए एकत्र हुआ करते; स्त्रियाँ मंदिर में एकत्र होकर मनोहर भजन तथा रास के गीत गाया करती । नित्य की तरह उस दिन भी अत्याधिक भीड़ थी । जयकुँवरी भी नाती को साथ लेकर हाटकेशवर महादेव के दर्शन को गयी ।

दर्शन करके लौटते समय उसकी दृष्टि एक महात्मा पर पड़ी , जो मंदिर के एक कोने में व्याघ्राम्बर पर पध्मासन लगाये बैठे थे ।

उनके मुख से निरन्तर ‘नारायण -नारायण शब्द का प्रवाह चल रहा था । उनका चेहरा एक अपूर्व ज्योति से जगमगा रहा था । देखने से ही ऐसा मालूम होता था जैसे कोई परम सिद्ध योगी हों ।

उनकी दिव्य तपो पलब्ध प्रतिभा से आकृष्ट होकर जयकुँवरी भी अपने साथ की महिलाओं के संग उनके दर्शन करने के लिए गयी । उसने दूर से बड़े आदर और भक्ति के साथ महात्मा जी को प्रणाम किया और हाथ जोड़कर विनती की —

महात्मन ! यह बालक मेरा पौत्र है ; इसके माता -पिता का देहांत हो चूका है । प्रायः आठ वर्ष का यह होने चला , पर कुछ भी बोल नहीं सकता । इसका नाम नरसिंह राम है; परंतु सब लोग इसे गूँगा कहकर ही पुकारते है । इससे मुझे बड़ा कलेश होता है । महाराज ! ऐसी कृपा किजीये कि इस बालक की वाणी खुल जाय ।

क्रमशः ………………!
जय जय
–प्रस्तुति
🌼 #श्रीकृष्णभक्तपरिवार 🌼



(There was such a devotee for whose work God himself had to appear 52 times to complete the work)

When in the forest of Vrindavan on the banks of the clear river Yamuna Govinda walking with the plowman Sudama and others. O Krishna, master, master of the sweet murali I will take my days like a blink of an eye crying out ‘Please be pleased’

Sweetheart! With what mouth should I ask you to give me such a life. From time immemorial I have been hearing from the mouths of sages that you are the beloved of those who have renounced both internal and external attachment, whose only refuge is you, who consider you their everything,

Coming in the hearts of those dedicated devotees, you reside, you make their life a real life. You are dear to them and they are dear to you. Sweetheart! How can you love this Palmer creature? No deprivation, no exaggeration, Nath! How can I say that it is not a fabrication, but you are an introvert, something is hidden from you, this Adham has no attraction towards you at all.

Everyday I hear that you have blessed so and so, you have given darshan to so and so, I should be impatient listening to these incidents, but be kind! Being impatient is different, I don’t even believe whether this would have happened or not. I want to remember you very much, no other thoughts arise in my mind except you, my ears do not listen to worldly things other than your praises. Let the tongue continuously drink your name.

Your same beautiful Tribhangiyukt rest of Chitwan danced in front of the eyes. Let me circumambulate you with my feet. I should keep on worshiping you with taxes and keep your beautiful idol in my heart, but Natnagar! This cannot happen even for a single moment. Don’t know what the mind keeps on thinking, whenever it comes to memory, I curse the mind again and again, ‘Oh wretch! Don’t know what useless things you keep thinking! Arey, think about the image of that Manmohan, after whom there is nothing left to worry about.

But Nath! He doesn’t even listen to my teachings. Don’t know for how many days he has been thinking about these Ghatpatadiks. It has become so subjective due to the contemplation of subjects, that it starts trembling as soon as it comes towards you and moving forward is different, it takes four more steps back. How can I do it Nath! Took many measures, tried all possible means as far as he could, but nothing affected him. If yes then how? Its rope is in your hands.

You have left its rope loose, if you had given even a hint, then what would it dare to go here and there even a little bit. I do not hope that it will be possible to control it with my means. When you barge, then it will work.

Mohe aan milo shyam, Many days have passed, lost eyes of patience, still hopeful eyes evening of life

Grandmother’s request to Mahatma

Everyone should listen to the complete devotional story of Govind Bhakta Narsi Mehta.

In the Saurashtra-province of Punya Bhoomi Aryavarta, there is a very ancient historical city named Jirnodurg, which is nowadays called Junagadh.

Bhakta Pravar Shri Narsi Mehta was born in a prestigious Nagar Brahmin-family in Junagadh in about 1477. His father’s name was Krishna Damodar Das and mother’s name was Lakshmi Gauri.

He had another elder brother, whose name was Vansidhar or Vanshidhar. Now Vanshidhar was twenty-two years old and Narsi Ram was about five years old when his parents died and after that Narasimha Ram was brought up by his elder brother and grandmother. Grandma’s name was Jaykunwari.

Narasimha Ram was dumb since childhood; Almost until the age of eight, his throat did not open. Because of this, people started calling him “dumb”.

Due to this, his grandmother Jayakuvri used to feel very sad. She was always worried about how my grandson would open his mouth. But who will make the mute eloquent, who will give the power to the cripple to cross the girivar?

Jaykunwari had full faith, such power is only in one Supreme Father God; Due to his mercy, my grandson can also get speech immediately and at the same time he had faith that the grace of that merciful Jagannath is received by ordinary people only through his dear devotees.

Therefore, naturally, he had a sense of reverence and respect for sages and sages. Whenever and wherever she would meet any sage-mahatma, she would visit them and serve with devotion as per her capacity.

It is said that if the faith is strong, one day it will be fruitful. After all, the opportunity has come to fulfill the faith of Jaykunwari. It was the day of Phalgun Shukla Panchami. The auspicious kingdom of Rituraj was spreading all over the world. Slowly spring wind was infusing new life in all the creatures of the world.

The men and women of the city used to gather every evening for the darshan of Hatkeshwar Mahadev; Women used to gather in the temple and sing beautiful bhajans and rasa songs. Like usual, there was a lot of crowd that day too. Jaykunwari also went to visit Hatkeshwar Mahadev with her grandson.

While returning after having darshan, his eyes fell on a Mahatma, who was sitting in a padmasan on the Vyaghrambar in a corner of the temple.

The word ‘Narayan-Narayan’ was continuously flowing from his mouth. His face was shining with a unique light. Just by looking at it, it seemed as if he was a supremely perfect yogi.

Attracted by his divine penance and talent, Jaykunwari also went to visit him along with the women accompanying her. He bowed down to Mahatma ji from a distance with great respect and devotion and requested with folded hands — Mahatman! This child is my grandson; His parents have passed away. It started happening almost at the age of eight, but could not speak anything. Its name is Narasimha Ram; But everyone calls him dumb. This hurts me a lot. King ! Please do such a favor that this child’s speech opens.

Respectively…! Jai Jai –presentation 🌼 #Shrikrishnabhaktafamily 🌼

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