।। जय श्रीहरि
भक्ति कोई शास्त्र नहीं है- यात्रा है। भक्ति कोई सिद्धांत नहीं है- जीवन-रस है।
भक्त का अर्थ है- जो रोना जानता है। भक्त का अर्थ है जो असहाय होना जानता है। भक्त का अर्थ है- जो अपने ना-कुछ होने को अनुभव करता है।
अहंकार से भक्ति बिलकुल विपरीत है। इसलिए जो अहंकार की खोज पर चले हैं, वे कभी भक्ति को उपलब्ध न हो सकेंगे। परमात्मा को पाना हो तो स्वयं को खोना ही पड़ेगा।
यह खोने की यात्रा है। यह राह बड़ी मधुभरी है, बड़े फूल खिले हैं! क्योंकि भक्ति के मार्ग पर कोई मरुस्थल नहीं है। तुम पैर भर रखो, पहला कदम ही आखिरी कदम बन जाता है। तुम पैर भर बढ़ाओ कि सौंदर्य अपने अनंत रूपों को खोलने लगता है।
परमात्मा को खोजना नहीं, अपने को खोलना है, ताकि परमात्मा तुम्हें खोज सके। इस भ्रांति में तो तुम रहना ही मत कि तुम परमात्मा को खोज लोगे।
भक्ति का मूल आधार यही है कि परमात्मा तुम्हें खोज रहा है, तुम छुप क्यों रहे हो, तुम बचाए क्यों फिरते हो अपने को ? तुम उसे न खोज सकोगे, क्योंकि तुम्हें न उसका पता मालूम, न ठिकाना मालूम। तुम्हारे हाथ कितने छोटे हैं और आकाश कितना बड़ा है! तुम मुट्ठियों में आकाश को बांध पाओगे..??
।। श्रीहरि सब का मङ्गल करें ।।