भक्ति मार्ग में प्रमुख है संयम, शास्त्र, संतो व गुरु के वचनों एवं भगवान श्रीहरि में विश्वास और सेवा। तुलसीदास जी लिखते हैं संयम यह न विषय के आशा। सद्गुरु वैद्य वचन विश्वासा।। सद्गुरु के वचनों में विश्वास हो क्योंकि सदगुरु और संतों के वचन वैद्य की तरह काम इलाज करते हैं और संयम यह है कि संसार उसके विषयों की न आशा हो न आस हो। भक्ति कैसी होनी चाहिए, तुलसीदास जी लिखते हैं एक भरोसो एक बल एक आस विश्वास। एक राम घनश्याम हित चातक तुलसीदास।। अर्थात भक्त चातक पक्षी की तरह हो जिसकी आस केवल स्वाति नक्षत्र की बूंद की तरफ ही रहती है अगल-बगल जल होने पर भी उसकी ओर नहीं ताकती। कलियुग में सेवा एक ही है श्रीहरि के स्वरूप स्वभाव व चरित्र का चिंतन व नाम गुणों का कीर्तन या गुणगान और इससे भी बढ़कर सेवा है भगवान के अनन्य प्रेमी संतों, गुरुजनों व भक्तों की सेवा व उनके चरित्र का चिंतन। इनकी सेवा से भगवान जल्दी प्रसन्न होते हैं क्योंकि यह उन्हीं के स्वरूप है
मोते संत अधिक कर लेगा नवधा भक्ति। सेवा परोपकार में भी होती क्योंकि संतों का सहज स्वभाव है परोपकार परंतु सेवा वास्तव में प्रेम की कसौटी जहां प्रेम होगा वहां सेवा सहज होगी जैसे श्रीराधा जी और उनकी सखियों, सहचरियो व गोपियों की सेवा और संसार में भी अपने नियत कर्तव्य कर्मों को चराचर जगत व समस्त प्राणियों को भगवान का रूप व अपना स्वामी तथा अपने आप को उनका नित्य सेवक समझ कर ही उनकी सेवा में स्वयं को निमित्त मानकर, निरंतर स्मरण करते हुए रत रहें जिससे भक्त कर्म फल के बंधन व पाप पुण्यों सहित जन्म-मरण के चक्रसे मुक्त रहता है सेवा का स्वरूप है स्वयं का सुख सपने में भी न होना एवं दूसरों को सुखी करने की लालसा एवं हित का भाव, यही गोपी भाव है क्योंकि दूसरा कोई नहीं है परमात्मा ही सर्वत्र, सब रूपों में है जिसमें शुद्ध भाव एवं निर्मल मन की ही प्रधानता है जय सीताराम जय श्रीहित हरिवंश