.
महानगर के उस अंतिम बस स्टॉप पर जैसे ही कंडक्टर ने बस रोक दरवाज़ा खोला, नीचे खड़े एक देहाती बुज़ुुर्ग ने चढ़ने के लिए हाथ बढ़ाया। एक ही हाथ से सहारा ले डगमगाते क़दमों से वे बस में चढ़े, क्योंकि दूसरे हाथ में थी भगवान गणेश की एक अत्यंत मनोहर बालमूर्ति थी।
गांव जाने वाली उस आख़िरी बस में पांच-छह सवारों के चढ़ने के बाद पैर रखने की जगह भी जगह नहीं थी।
बस चलने पर हाथ की मूर्ति को संभाल, उन्हें संतुलन बनाने की असफल कोशिश करते देख जब कंडक्टर ने अपनी सीट ख़ाली करते हुए कहा कि दद्दा आप यहां बैठ जाइए, तो वे उस मूर्ति को पेट से सटा आराम से उस सीट पर बैठ गए।
कुछ ही मिनटों में बाल गणेश की वह प्यारी-सी मूर्ति सबके कौतूहल और आकर्षण का केन्द्र बन गई। अनायास कुछ जोड़ी हाथ श्रद्धा से उस ओर जुड़ गए।
कंडक्टर पीछे के सवारियों से पैसे लेता दद्दा के सामने आ खड़ा हुआ और पूछा, ‘कहां जाओगे दद्दा’
जवाब देते हुए मूर्ति को थोड़ा इधर-उधर कर उन्होंने धोती की अंटी से पैसे निकालने की असफल कोशिश की।
उन्हें परेशान होता देखकर कंडक्टर ने कहा, ‘अभी रहने दीजिए। उतरते वक़्त दे दीजिएगा।’
एक बार फिर दद्दा गणपति की मूर्ति को पेट से सटाकर आश्वस्त होकर बैठ गए।
बस अब रफ़्तार पकड़ चुकी थी। सबका टिकट काटकर कंडक्टर एक सीट का सहारा लेकर खड़ा हो गया और अनायास उनसे पूछ बैठा, ‘दद्दा, आपके गांव में भी तो गणेश की मूर्ति मिलती होगी न, फिर इस उम्र में दो घंटे का सफ़र और इतनी दौड़-धूप करके शहर से यह गणेश की मूर्ति क्यूं ले जा रहे हैं?’
प्रश्न सुनकर दद्दा मुस्कराते हुए बोले, ‘हां, आजकल तो त्यौहार आते ही सब तरफ़ दुकानें सज जाती हैं, गांव में भी मिलती हैं मूर्तियां, पर ऐसी नहीं। देखो यह कितनी प्यारी और जीवंत है।’
फिर संजीदगी से कहने लगे, ‘यहां से मूर्ति ले जाने की भी एक कहानी है बेटा। दरअसल हम पति-पत्नी को भगवान ने संतान सुख से वंचित रखा। सारे उपचार, तन्त्र-मन्त्र सब किए, फिर नसीब मानकर स्वीकार भी कर लिया और काम-धंधे में मन लगा लिया।..पन्द्रह साल पहले काम के सिलसिले में हम दोनों इसी शहर में आए थे। गणेश पूजा का त्यौहार नज़दीक था तो मूर्ति और पूजा का सामान ख़रीदने यहां बाज़ार गए। अचानक पत्नी की नज़र एकदम ऐसी ही एक मूर्ति पर पड़ी और उसका मातृत्व जाग उठा। ‘मेरा बच्चा’ कहते हुए उसने उस मूर्ति को सीने से लगा लिया। सालों का दर्द आंखों से बह निकला, मूर्तिकार भी यह देखकर भावविह्वल हो गया और मैंने उससे हर साल इसी सांचे की हूबहू ऐसी ही मूर्ति देने का वादा ले लिया। बस! तभी से यह सिलसिला शुरू है। दो साल पहले तक वह भी साथ आती रही अपने बाल गणेश को लेने, पर अब घुटनों के दर्द से लाचार है। मेरी भी उम्र हो रही है, फिर भी सिर्फ़ दस दिन के लिए ही क्यूं न हो, उसका यह सुख नहीं छीनना चाहता, इसलिए अपने बाल गणेश को बड़े जतन से घर ले जाता हूँ।’
अब तक आसपास के लोगों में अच्छा-ख़ासा कौतूहल जाग चुका था। कुछ लोग अपनी सीट से झांककर तो कुछ उचककर मूर्ति को देख मुस्करा के हाथ जोड़ने लगे।
तभी पिछली सीट पर बैठी महिला ने चेहरा आगे की ओर कर पूछा, ‘दद्दा, फिर विसर्जित नहीं करते क्या मूर्ति?’
एक दर्द भरी मुस्कान के साथ दद्दा ने कहा, ‘अब भगवान स्वरूप स्थापित कर विधि-विधान से पूजा करते हैं तो विसर्जन तो करते ही हैं, पर इस वियोग के कारण ही इन दस दिनों में उसके हृदय से मानो वात्सल्य का सोता फूट पड़ता है, जिससे हमारा जीवन बदल जाता है। अभी भी रंगोली डाल, आम के तोरण से द्वार सजाकर, वहीं पर राह देखते बैठी होगी। पहुंचने पर राई और मिर्च से कड़क नज़र उतारती है। पूछो मत, छोटा-सा लोटा, गिलास, थाली, चम्मच सब हैं हमारे बाल गणेश के पास। यही नहीं रंगबिरंगे छोटे कपड़ों का एक बैग भी बना रखा है उसने, इसलिए जब तक संभव होगा, उसे यह सुख देता रहूंगा,’ कहते-कहते दद्दा का गला रुंध गया।
यह सुनकर किसी की आंखें नम हुईं तो किसी का हृदय करुणा से भर गया। बस निर्बाध गति से आगे बढ़ रही थी और दद्दा का गांव आने ही वाला था, इसलिए उन्हें मूर्ति संभालकर खड़े होते देख पास खड़े व्यक्ति ने कहा, ‘लाइए, मूर्ति मुझे दीजिए’ तो उसके हाथों में मूर्ति को धीरे से थमाकर, धोती की अंटी से पैसे निकालकर कंडक्टर को देते हुए दद्दा ने कहा, ‘लो बेटा, डेढ़ टिकट काटना।’
यह सुनकर कंडक्टर ने आश्चर्य से कहा, ‘अरे आप तो अकेले आए हैं न, फिर ये डेढ़ टिकट?’
दद्दा ने मुस्कराते हुए कहा, ‘दोनों नहीं आए क्या? एक मैं और एक यह हमारा बाल गणेश।’
यह सुनते ही सब उनकी और आश्चर्य से देखने लगे। लोगों के असमंजस को दूर करते हुए उन्होंने फिर कहा, ‘अरे उलझन में क्यूं पड़े हो सब! जिसे देखकर सभी का भाव जागा वह क्या केवल मूर्ति है? जिसे भगवान मनाते हैं, प्राण-प्रतिष्ठा करते हैं वह क्या केवल मिट्टी है? अरे हमसे ज्यादा जीवंत है वह। हम भले ही उसे भगवान मान उससे हर चीज़ मांग लेते हैं, पर उसे तो हमारा प्यार और आलिंगन ही चाहिए।’ यह कहते हुए दद्दा का कंठ भावा तिरेक से अवरुद्ध हो गया।
उनकी बातों को मंत्रमुग्ध होकर सुनते कंडक्टर सहित सहयात्री करुणा और वात्सल्य के इस अनोखे सागर में गोते लगा रहे थे कि उनका गांव आ गया और एक झटके से बस रुक गई। कंडक्टर ने डेढ़ टिकट के पैसे काटकर बचे पैसे और टिकट उन्हें थमाकर आदर से दरवाज़ा खोला।
नीचे उतरकर दद्दा ने जब अपने बाल गणेश को थामने उस यात्री की ओर हाथ बढ़ाए तो कंडक्टर सहित सबके मुंह से अनायास निकला, ‘देखिए दद्दा संभाल के’ और दद्दा किसी नन्हे शिशु की तरह उस मूर्ति को दोनों बांहों में थाम तेज़ क़दमों से पगडंडी पर उतर गए।
शब्द नहीं मन का भाव सर्वश्रेष्ठ है..!!🙏🏻🙏🏻🙏🏻
, one and a half ticket
At that last bus stop in the metropolis, as soon as the conductor opened the bus stop door, a rustic old man standing below extended his hand to get on. Taking support with only one hand, he climbed into the bus with staggering steps, because in the other hand was a very beautiful child idol of Lord Ganesha.
In that last bus going to the village, after five-six passengers boarded, there was no place even to put feet. Holding the hand statue while the bus was walking, seeing them trying unsuccessfully to balance, when the conductor vacated his seat and said, ‘Dadda, you sit here,’ he sat comfortably on that seat, hugging the statue.
Within minutes, that lovely idol of Bal Ganesha became the center of everyone’s curiosity and attraction. Spontaneously some pair of hands joined towards that side with reverence.
The conductor stood in front of Dadda taking money from the passengers behind and asked, ‘Where will you go Dadda’
While answering, by moving the idol a little here and there, he unsuccessfully tried to get the money out of the dhoti.
Seeing him upset, the conductor said, ‘Let it be now. Will give you time to get down.
Once again Dadda sat down assuredly hugging the idol of Ganapati.
The bus had picked up speed now. After cutting everyone’s tickets, the conductor stood up with the support of a seat and casually asked him, ‘Dadda, there must be a Ganesh idol in your village, isn’t it? Why are you taking the idol of Ganesha?’
Hearing the question, Dadda said with a smile, ‘Yes, nowadays, as soon as festivals come, shops are decorated everywhere, idols are also found in villages, but not like this. Look how lovely and alive it is.’
Then he started saying seriously, ‘ Son, there is a story of taking the idol from here. In fact, we husband and wife were deprived of the happiness of children by God. Did all the treatments, tantra-mantras, then accepted it considering it as luck and got busy in business… Fifteen years ago, both of us had come to this city in connection with work. The festival of Ganesha Puja was near, so he went to the market here to buy idols and worship items. Suddenly the wife’s eyes fell on just such an idol and her motherhood awoke. Saying ‘my child’, he hugged that idol. The pain of years flowed out of the eyes, the sculptor also got emotional seeing this and I took a promise from him to give exactly the same idol of the same mold every year. Bus! Since then this cycle has started. Till two years ago, she also used to come along to take her child Ganesh, but now she is helpless due to knee pain. I am also getting old, but even if it is only for ten days, I do not want to take away his happiness, so I take my child Ganesha home with great care.
Till now a lot of curiosity had awakened in the people around. Some people peeped from their seats and some started looking at the statue with a smile and folded hands.
Then the woman sitting on the back seat turned her face forward and asked, ‘Dad, don’t you immerse the idol again?’
With a painful smile, Dadda said, ‘Now, after establishing the form of God, he worships according to the rules and regulations, so he immerses himself, but due to this disconnection, in these ten days, his heart seems to have a fountain of affection. , which changes our life. Even now, decorating the door with rangoli, mango toran, she must be sitting there waiting for the way. On reaching, mustard and chillies give a harsh look. Don’t ask, our Bal Ganesh has a small pot, glass, plate, spoon. Not only this, he has also made a bag of colorful small clothes, so I will continue to give him this pleasure as long as possible,’ Dadda’s throat got choked while saying this.
Hearing this someone’s eyes became moist and someone’s heart was filled with compassion. The bus was moving smoothly and was about to reach Dadda’s village, so seeing him standing holding the idol, the person standing nearby said, ‘Bring it, give the idol to me’. Taking out the money and giving it to the conductor, Dadda said, ‘Take it son, cut one and a half tickets.’
Hearing this, the conductor said with surprise, ‘Hey, you have come alone, haven’t you, then this one and a half ticket?’
Dadda smiled and said, ‘Haven’t both come? One me and one this our child Ganesh.
On hearing this, everyone started looking at him with astonishment. Removing the confusion of the people, he again said, ‘ Hey, why are you all confused! The one who aroused everyone’s feelings, is it just an idol? What God celebrates, respects, is it only soil? Hey, he is more alive than us. We may ask him for everything considering him as God, but he only needs our love and hugs.’ Dadda’s voice choked with emotion while saying this.
The co-travellers along with the conductor listening mesmerized to his words were diving in this unique ocean of compassion and affection that their village came and the bus stopped with a jolt. The conductor opened the door respectfully after deducting one and a half ticket money and handing over the remaining money and ticket to them.
After getting down, when Dadda extended his hand towards the passenger holding his Bal Ganesha, everyone including the conductor said, ‘Look Dadda Sambhal Ke’ and Dadda holding that idol in both arms like a small child walked on the footpath with fast steps. Got down
Not words, but the feeling of mind is the best..!!