देह अभिमान से ऊपर उठ कर साधना

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जब तक देहाभिमान है तब तक आत्मज्ञान नही हो सकता है और भगवान की भक्ति के विना देहाभिमान नष्ट नही हो सकता है, इसलिए देहाभिमानी पुरुषों को भगवान के श्रीचरणों का आश्रय लेकर ही साधना करनी चाहिए। चाहे सगुण-साकार ब्रह्म की साधना हो या निर्गुण निराकार ब्रह्म की, भगवान की भक्ति के विना असम्भव है इसलिए भगवान की भक्ति ज्ञानयोग से श्रेष्ठ है ।

क्योंकि भक्ति से ही साधक का अन्त:करण शुध्द होता है और शुध्द अन्त:करण मे ही ज्ञान का प्राकट्य होता है इसीलिए शास्त्रों का कथन है कि ज्ञान, भक्ति से ही प्रकट होता है । ज्ञान को भक्ति का पुत्र कहा गया है, अगर आप निर्गुण-निराकार ब्रह्म जो सभी प्राणियों मे आत्मा के रूप मे स्थित है की साधना करना चाहते हैं तो भगवान के चरणों का आश्रय लेकर अपने अन्दर व बाहर तथा स्वयम् के शरीर द्वारा किए गये सभी कार्य प्रकृति द्वारा ही किए जा रहे हैं ऐसा मानने का सतत् अभ्यास करना चाहिए ।

जैसे किसी साधक के द्वारा बहुत समय तक साधना करने के बाद भी अपेक्षित सफलता नही मिलती तो उसके अन्दर हताशा उत्पन्न हो जाती है और बहुत सम्भव है कि वह साधना का परित्याग कर सकता है, याद रखिये कि उक्त हताशा प्रकृति से ही उत्पन्न होती है इसलिए साधक को सभी प्रकार की हताशा, निराशा व कामनाओं को प्रकृति से उत्पन्न हुयी जानकर उनसे अपने को अलग रख कर विचलित नही होना चाहिए ।

ऐसा अभ्यास लगातार करते रहने से साधक का कर्तापन का भाव नष्ट हो जाता है, कर्तापन का भाव नष्ट होने से उसका देहाभिमान भी नष्ट हो जाता है,देहाभिमान नष्ट होने से साधक अपने स्वरूप ( आत्मा) मे स्थित हो जाता है। || जय श्री महाकाल ||



Self-knowledge cannot happen as long as there is body consciousness and body consciousness cannot be destroyed without devotion to God, so body conscious men should do spiritual practice only by taking shelter of God’s feet. Whether it is worship of Sagun-corporeal Brahman or Nirguna formless Brahman, it is impossible without devotion to God, therefore devotion to God is superior to Jnana Yoga.

Because the conscience of a seeker becomes pure through devotion and knowledge manifests itself in a pure conscience, that is why it is said in the scriptures that knowledge manifests only through devotion. Knowledge is said to be the son of devotion, if you want to worship the Nirguna-formless Brahman which is situated in the form of soul in all beings, then by taking shelter of the Lord’s feet, all the work done inside and outside and by your own body One should constantly practice to believe that nature is doing it.

For example, if a seeker does not get the expected success even after doing sadhna for a long time, then frustration arises in him and it is quite possible that he may give up the sadhna, remember that this frustration arises from nature itself. The seeker should not get distracted by keeping himself separate from all kinds of frustration, disappointment and desires knowing that they are born from nature.

By doing this practice continuously, the sense of doership of the seeker is destroyed, when the sense of doership is destroyed, his body consciousness is also destroyed, when the sense of body consciousness is destroyed, the seeker becomes stable in his own form (soul). , Jai Shri Mahakal ||

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