जीवन का आनंद देने में है, लेने में नही।मनुष्य तो मनुष्य सभी जीव जंतु यहां तक कि पेड़ पौधे भी देने में ही विश्वास करते हैं। तरुवर फल नही खात है सरोवर पिये न नीर।कहि रहीम पर काज हित ,सम्पति सँचहि सुजान,।
जिस प्रकार व्रक्ष फल नही खाते धूप और वर्षा सहकर हमे फल देते हैं,सरोवर पानी नही पीता।उसी प्रकार सज्जन लोग सम्पत्ति का संचय स्वयं के लिए नही अपितु दुसरो के हित के लिए करते हैं।
त्याग की महिमा अनन्त है जो भी व्यक्ति संपदा को,धन् को जोड़कर रखता है,वह संपत्ति के वास्तविक आनन्द से हमेशा दूर रहता है।क्योंकि जिसे जोड़कर रखने की आदत होती है वह उसे स्वयं की जरूरत होने पर भी खर्च नही करता।और सारा जीवन परेशानियों में व्यतीत करता है।
बहुत से लोगों के पास अनन्त धन संपदा होती है, किन्तु वे उसे कभी भी दूसरों के हित मे नही लगाते। सच्चा आनन्द तो उस संपदा के दान मे छुपा हुआ है।हम जो हमारे पास है, उसे कम समझ कर दुसरो को देने में हिचकिचाते है।जबकि यह नही सोचते कि यदि जो हैं वो भी न होता तब????????।
हम अपनी इच्छाओं का त्याग करके किसी दूसरे जरूरतमंद को अपार खुशी दे सकते हैं।भारतीय संस्कृति में दान को सर्वश्रेष्ठ व्यवहार माना गया है।
किन्तु आधुनिक युग मे लोगों में दान की प्रवृत्ति बदली और संग्रह की प्रवृत्ति ने अपने पाँव फैला लिए।फिर व्यक्ति को धन के,सम्पत्ति के,मकान खेती-बाड़ी के संग्रह में आनन्द आने लगा। और सारा जीवन ही संग्रह में बीत जाता है।किंतु न तो स्वयं ही धन का उपयोग कर पाता और न ही वह दूसरों के कल्याण में उसे लगा पाता।
अंततःकभी कभी वह धन गलत हाथों में चला जाता है। दान की महिमा से मनुष्य इसलिए दूर हो गया क्योंकि
व्यक्ति शास्त्रों की सीख से दूर होता गया।इस दूरी ने असली आनन्द छीन लिया।यदि आप इस आनन्द को पाना चाहते है तो आप संग्रह के बजाय दान प्रवृत्ति को अपनाए।हमारे कही
बात का विश्वास करने का सबसे अच्छा तरीका है उस पर अमल करके देखना। आप आज ही किसी के लिए कुछ करके देखिए, सफर के दौरान किसी बूढ़े को अपनी सीट देकर,किसी जरूरतमंद को एक समय भोजन करवाकर ,आपको अनन्त आनंद की अनुभूति होगी। संग्रह और दान से मिलने वाले संतोष में कितना अंतर है।इसे जीवन मे अनुभव कीजिए और साथ मे इसे अपनाने का प्रयास करे।
जय जय श्री राधेकृष्ण जी।श्री हरि आपका कल्याण करें।