प्रेम ही जीवन की पूर्णता है। प्रेम हृदय का अनुराग और करुणा है। प्रेम हृदय को सरल बनाने की विधि है। जीवन के ऊबड़-खाबड़ पथ का अंतिम किनारा प्रेम है। प्रेम परमात्मा को पाने की भक्ति है। प्रेम को शब्दों में समझना मुश्किल है।
प्रेम की कोई परिभाषा नहीं होती। परिभाषा तो वस्तु या पदार्थ की होती है। जिस प्रकार मां के हृदय के वात्सल्य को समझाया नहीं जा सकता, पति-पत्नी की दांपत्य मैत्री को समझाया नहीं जा सकता, उसी तरह प्रेम को समझाया नहीं जा सकता है।
प्रेम किया जा सकता है, प्रेम में बहा जा सकता है, प्रेम बना जा सकता है, समझाया नहीं जा सकता। दरअसल, प्रेम ही जीवन है, प्रेम ही प्रकृति है, नदी-झरनों का संगीत है, भंवरों का गुंजन है, हृदय की धड़कन है, कोयल की पुकार है, वनों में नाचते मोर-मोरनी का आकर्षण है।
वासंती बयार में दो पत्तों का आलिंगन है और नायक-नायिका के हृदयों में स्पंदन पैदा करने वाली मीठी बयार है, इसलिए यह अनुभव और बोध का विषय है।
प्रेम की गहराई में जितना उतरा जाए, प्रेमी उतना ऊपर उठ जाता है। उसका आकार बढ़ जाता है, क्योंकि प्रेम करने वाले मात्रा में प्रेम नहीं करते, वे प्रेम में आपादमस्तक डूब जाते हैं। प्रेम करने वाले को स्वयं का विस्मरण हो जाता है। उसे कुछ पता नहीं होता कि उसने कितनी मात्रा में प्रेम किया है, क्योंकि प्रेम का कोई अंश नहीं होता, प्रेम आधा नहीं होता, प्रेम पूरा होता है।
प्रेम करने वाले तो यह भी भूल जाते हैं कि वह कौन हैं और किससे प्रेम कर रहे हैं क्योंकि प्रेम में द्वैत, दो का भाव नहीं होता। प्रेम में चेतन मस्तिष्क काम करना बंद कर देता है, क्योंकि चेतन मन से प्रेम किया ही नहीं जा सकता, वह तो पूर्ण समर्पण है।
जहां कुछ नहीं बचता, वहीं प्रेम रहता है। प्रेम बेहोशी है, वहां कोई चेतन मन नहीं है, चेतन मन तो तर्क करता है। वह प्रेम को खोदकर पहचानना चाहता है। वह प्रेम को टुकड़ों में देखना चाहता है। उसका चेतन मस्तिष्क सब कुछ खोलकर देख लेना चाहता है। इसीलिए ज्ञानी प्रेम नहीं करते, केवल प्रेमी ही प्रेम कर सकता है।
ज्ञानी गुलाब की पंखुड़ी को खोलकर देखना चाहता है, लेकिन प्रेमी संपूर्ण गुलाब को देखना चाहता है। इसलिए ज्ञानी हमेशा अपूर्ण रहता है, उसे और जानना है, ऐसी लालसा बनी रहती है, लेकिन प्रेमी को कुछ नहीं जानना, वह प्रेम में विसर्जित हो जाना चाहता है।
।। जय जय श्री सीताराम ।।
Love is the perfection of life. Love is the affection and compassion of the heart. Love is the method of making the heart simple. Love is the last edge of the bumpy road of life. Love is devotion to attain God. It is difficult to explain love in words.
There is no definition of love. The definition is of an object or substance. Just as the affection of a mother’s heart cannot be explained, the conjugal friendship between husband and wife cannot be explained, similarly love cannot be explained.
Love can be done, love can be flown, love can be made, cannot be explained. Indeed, love is life, love is nature, music of rivers and springs, hum of whirlpools, heartbeat, call of cuckoo, attraction of peacocks and peahens dancing in the forests.
Vasanti Bayar has the embrace of two leaves and the sweet breeze that creates vibrations in the hearts of hero and heroine, so it is a matter of experience and perception.
The more one goes into the depth of love, the more the lover rises. Its size increases, because those who love do not love in quantity, they drown headlong in love. One who loves forgets himself. He doesn’t know to what extent he has loved, because there is no part of love, love is not half, love is complete.
Those who love even forget who they are and whom they are loving because there is no duality in love. In love the conscious mind stops working, because the conscious mind cannot be loved at all, that is complete surrender.
Where nothing remains, there love remains. Love is unconscious, there is no conscious mind, the conscious mind argues. He wants to dig out love and recognize it. He wants to see love in pieces. His conscious mind wants to open everything and see. That’s why the wise do not love, only the lover can love.
The wise wants to open the petal of the rose, but the lover wants to see the whole rose. That’s why the knower is always incomplete, he has to know more, such a longing remains, but the lover does not know anything, he wants to be immersed in love.
, Jai Jai Shri Sitaram.