साधना जगत में हम किसी की प्रशंसा में उन्हें साधक, भक्त, योगी या योगिनी आदि से संबोधित कर देते हैं लेकिन तंत्र साहित्य इस सम्बन्ध में क्या कहता है वो भी जानना आवश्यक है । कुलार्णव तंत्र के सत्रहवें उल्लास के श्लोक संख्या 28 से 31 में इनकी परिभाषा दी गयी है—
साधक :- वो व्यक्ति जो सार संग्रह करता हो, आध्यात्मिक मार्ग का प्रवर्तन करता हो एवं अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण करने तथा संकल्पित सुविचारो को निखिल ब्रह्माण्ड मे प्रेषित करने व सजातिय विचारो को अवशोषित करने या हम कह सकते है कि ब्रह्माण्डिय ऊर्जा जिसे हम ईश्वरीय शक्ति कह सकते उससे संपर्क स्थापित कर सकने में समर्थ हो वो साधक कहलाता है ।
अब इसको थोड़ा विस्तार से समझने की कोशिश करते हैं पहला शब्द सार संग्रह आया है इसको ध्यान से देखें तो पाएंगे कि ज्ञान की कोई सीमा नहीं है लेकिन एक कुशल साधक वो है जो सद् गुरु द्वारा बताये मार्ग पर चलकर अर्थात अनावश्यक ज्ञान रूपी बाधा ना जमा करके उसकी सफलता के लिए जो आवश्यक है उतने पर केंद्रित करते हुये अपने संकल्पित उद्देश्यो लक्ष्यो की प्राप्ति के लिये ब्रह्माण्डिय ऊर्जा व ईश्वरीय शक्ति से संपर्क स्थापित कर सकने मे सिद्धता प्राप्त करना है ।
भक्त — कुलार्णव तंत्र के सप्तदश उल्लास के श्लोक संख्या 29 में कहा गया है कि अत्यन्त लगन के साथ ईश्वर का ऐसा भजन करने वाला व्यक्ति जो मन वाणी एवं कर्म तीनों से ईश्वर में एकाकार हो जाता है और इस अवस्था के कारण वह समस्त दुखों को अतिक्रांत कर जाता है उन्हें ही भक्त कहते हैं
योगिनी :—- योनिमुद्रा का निरंतर अनुसंधान करने वाली,भगवती पार्वती (आदिशक्ति) की आराधना में तल्लीन रहने वाली तथा उपाधि आदि से मुक्त भाव दशा वाली कोई योगिनी कहलाती है ।
“साधना – उपासना की सफलता के तीन मुख्य आधार” : जिस प्रकार अच्छी फसल पकाने के लिए बीज, भूमि और खाद्य-पानी, निशाना लगाने के लिए बंदूक, कारतूस और अभ्यास- इन तीनों की जरूरत होती है, उसी प्रकार गायत्री मंत्र या किसी भी आध्यात्मिक उपासना के साथ भी अटूट श्रद्धा, परिष्कृत व्यक्तित्व और उच्च दृष्टिकोण, ये तीनों चीजें मिला दी जाएं, तो उसके उत्कृष्ट परिणाम मिलने संभव हैं।
अटूट श्रद्धा:- जैसे बिजली, आग, भाप आदि अनेक प्रकार की शक्तियां हैं, उसी तरह से श्रद्धा भी एक बलवान शक्ति है। मंत्र की सफलता या उपासना से लाभ के लिए आवश्यकता- श्रद्धा के समन्वय की है। यह समावेश जितना अधिक और जितना प्रखर होगा, सत्परिणाम उतनी ही बडी मात्रा में और उतना ही शीघ्र दृष्टिगोचर होगा।
परिष्कृत व्यक्तित्व:- परिष्कृत व्यक्तित्व का मतलब यह है कि आदमी चरित्रवान हो, लोकसेवी हो, सदाचारी हो, संयमी हो। अध्यात्म का लाभ स्वयं पाने और दूसरों को दे सकने में केवल वही साधक सफल होते हैं, जिन्होंने जप, उपासना के कर्मकांडों के साथ अपने व्यक्तिगत जीवन को शालीन, समुन्नत, श्रेष्ठ और परिष्कृत बनाने का प्रयत्न किया हो।
उच्च दृष्टिकोण:- उच्चस्तरीय जप और उपासनाएं तब सफल होती हैं, जब आदमी का दृष्टिकोण एवं महत्वाकांक्षाएं भी ऊंची हों। किसी अच्छे काम के लिए, ऊंचे उद्देश्यों के लिए, जनहित के लिए साधना की जाए, तो दैवी शक्तियां भरपूर सहायता किया करती हैं।