संतोंके लक्षण।।

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संतों, भक्तों और विप्रों की पहचान किसी प्रकारके वेषादि से नहीं की जा सकती है।
संतों, भक्तों और विप्रों की पहचान केवल इनके लक्षणों अथवा आचरणोंसे ही की जा सकती है और इनके लक्षण अथवा आचरण एक समान ही कहे गये हैं अर्थात् इनके केवल नाम ही अलग-अलग हैं वास्तवमें तो आचरण और लक्षणोंसे ये तीनों एक ही हैं।
हनुमानजी के संकेत से भरतजी भगवान् श्रीरामचन्द्रजी के मुखसे संतोंके लक्षण सुनने की इच्छा व्यक्त करते हैं और भगवान् श्रीरामचन्द्रजी अपने मुखसे संतों और असंतोंके लक्षणोंको अथवा आचरणोंका वर्णन करते हुए कहते हैं –
संत असंतन्हि कै असि करनी। जिमि कुठार चंदन आचरनी।।
काटइ परसु मलय सुनु भाई। निज गुन देइ सुगंध बसाई।।
ताते सुर  सीसन्ह  चढ़त, जग बल्लभ श्रीखंड।
अनल दाहि पीटत घनहिं, परसु बदन यह दंड।।
बिषय अलंपट सील गुनाकर। पर दुख दुख सुख सुख देखे पर।।
सम अभूतिरिपु बिमद बिरागी। लोभामरष हरष भय त्यागी।।
कोमलचित दीनन्ह पर दाया। मन बच क्रम मम भगति अमाया।।
सबहि मानप्रद आपु अमानी। भरत प्रान सम मम ते प्रानी।।
बिगत काम मम नाम परायन। सांति बिरति बिनती मुदितायन।।
सीतलता सरलता मयत्री। द्विज पद प्रीति धर्म जनयत्री।।
ए सब लच्छन बसहिं जासु उर। जानेहु तात संत संतत फुर।।
सम दम नियम नीति नहिं डोलहिं। परुष बचन कबहूँ नहिं बोलहिं।।
निंदा अस्तुति उभय सम, ममता मम पद कंज।
ते सज्जन मम प्रानप्रिय, गुन मंदिर सुख पुंज।।
                ।।आचार्य डॉ0 विजय शंकर मिश्र:।।

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