श्रीहितकिशोरीशरण बाबाजी (सूरदास बाबा)

meditating woman buddhism

. श्रीहितकिशोरीशरण बाबाजी (सूरदास बाबा)
(वृन्दावन) 'भैया ! मेरे मन में ऐसी आवे कि विश्व को कुत्ता हू दुःखी न होय, भले ही श्रीजी सबन कौ दुःख मोकें दे दें। मेरौ बस चले तो सबरे जगत् को दु:ख अपनी छाती पर धर लऊ।' श्रीकिशोरीशरण बाबा अपने भक्तों से अकसर कहते। दृष्टिविहीन, पर अन्तर्दृष्टि सम्पन्न, मझले कद के, छरहरे बदन के, बाहर से कमजोर दीखने वाले, पर भीतर से अपनो अलौकिक शक्तियों के कारण असाधारण बल रखने वाले बाबा किशोरीशरणजी वृन्दावन में दुसायत मुहल्ले में, श्यामाकुञ्ज नामक आश्रम में संसार के दीन-दुःखी और अभावग्रस्त जीवों के लिए कल्पतरु के समान और कलिकाल के मोहान्ध, पथ-भ्रान्त पथिकों के लिए अन्धकार में दिव्य आलोक-पुञ्ज के समान विराजा करते। आबाल-वृद्ध-वनिता, अमीर-गरीब, साधु-संन्यासी सभी के लिए उनका दरवाजा सब समय खुला रहता। वे अपने दुःख-सुख, भाव-अभाव की बात उनसे कहते। बाबा उनकी सुनते, उनका दुःख दूर करने और अपने अमृतमय उपदेशों से उन्हें सांत्वना देने की चेष्टा करते। जाड़े का दिन है, बाबा कुछ भक्तों के साथ श्यामाकुञ्ज के बरामदे में बैठे अँगीठी ताप रहे हैं। एक भक्त ने उन्हें ऊनी कपड़े की एक बंड़ी लाकर भेंट की। बाबा ने प्रेम से उसे धारण किया। थोड़ी देर बाद बोले-'बंडी बड़ी मलूक (सुन्दर) है। जामें नेकऊ ठण्ड नायेँ लगे।' उसी समय एक गरीब व्रजवासी ठण्ड से काँपता हुआ आया और बोला-'बाबा, बड़ी ठण्ड है। मेरे पास कुछ पहनने को नहीं है।' बाबाने बंडी उतारकर उसे दे दी। देते हुए बोले-'ले भैया, तेरे ताई आजई बनके आयी है।: एक ग्वाले की तीन भैंसेंं चली गयीं बहुत खोज करने पर भी न मिली। वह भागा आया बाबा के पास। उनके चरणों में कुछ भेंटकर उन्हें दण्डवत् की। वह कुछ कहे उसके पूर्व ही भेंट वापस देते हुए बाबा बोले- 'जाको अपने पास रख। भैंस मिल जायें तो अखण्ड कीर्तन करवाय दीजौ।' उसे आश्चर्य हुआ कि बाबा को इतनी दूर की बात का बिना उसके कहे कैसे पता चल गया। वह उनके चरण पकड़कर अश्रु पूर्ण नेत्रों से उनकी ओर देखते हुए बोला-'बाबा, आप कृपा करेंगे तभी न भैंसें मिलेंगी। मेरी तो सारी सम्पत्ति ही हैं वे। यदि न मिलीं तो मेरे बच्चे भूखे मर जायेंगे।' बाबा का हृदय पसीज गया। वे बोले- 'चिन्ता न कर। तेरी भैंसें पूर्व दिशा में यमुना के पल्ली पार उतर गयी हैं। एक पेड़ के नीचे बैठी मिलिंगी। दोपहर पीछे जायकें ले अइयों।' बाबा के वचन सत्य सिद्ध हुए। उसे यमुनापार निर्दिष्ट स्थान पर भैंसें मिल गयीं। उसने कीर्तन का आयोजन तो किया ही, वह और उसका सारा परिवार बाबा से दीक्षा लेकर उनका शिष्य बन गया। एक सज्जन और उनकी पत्नी बाबा का नाम सुनकर मिर्जापुर से आये। बाबा के चरणों में दण्डवत् कर बोले- 'महाराज, हमारा लड़का खो गया है। हम बड़े दुःखी हैं। आपकी अहैतुकी कृपा का भरोसा लेकर आपकी शरण में आये हैं।' कुछ देर मौन रहकर बाबा बोले-'भैया, तोकूँ अपने छोरा को खोजबे कहूँ जानौ नाय पडेगौ। आज हियाँ भण्डारा है। तेरौ छोरा पंगत में प्रसाद पामतौ मिल जायगौ। पति-पत्नी बड़ी उत्सुकता और व्याकुलता के साथ पंगत की प्रतीक्षा करने लगे। पंगत के समय उन्होंने चारों ओर घूमकर देखा, तो सचमुच उन्हें. अपना लड़का पंगत में बैठा मिल गया। उन्होंने झट जाकर उसे छाती से लगा लिया। बाबा के पास लाकर उन्हें दण्डवत् करने को कहा। बाबा ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए माता-पिता के साथ घर जाने को कहा। बाबा के सिर पर हाथ फेरते ही उसके हृदय में वांछित परिवर्तन हुआ और वह प्रसन्न मन से उनके साथ घर जाने को राजी हुआ। जाते समय दम्पति ने बाबा को दो सौ रुपये भेंट किये। बाबा ने उन्हें लौटाते हुए कहा- 'इसमें तीन सौ रुपये और मिलाना और तुम्हारे गाँव में जो हनुमानजी का मन्दिर है, उसकी मरम्मत करवा देना। सूरदास बाबा के कृपापात्र पण्डित मंगतराम वशिष्ठ के सुपुत्र श्रीभूपिन्द्रकुमार शर्मा डॉक्टरी पढ़ने जर्मनी गये थे। बहुत दिनों से उनका पत्र न आने के कारण मंगतरामजी चिन्तित थे। बाबा ने अपनी दिव्य दृष्टि से उनका सब हाल जान लिया। मंगतरामजी से कहा -'भूपिन्द्र के पेट में फोड़ा हो गया था। उसका आपरेशन जरूरी था। आपरेशन खतरनाक था। जर्मनी के कई बड़े डॉक्टरों ने मिलकर आपरेशन किया। आपरेशन सफल हुआ। अब वह ठीक है। कमजोर अधिक हो गया है। आठ दिन के भीतर उसके हाथ का पत्र आ जायगा, आप चिन्ता न करें।' आठवें दिन पत्र आ गया। उसमें वही सब लिखा था, जो बाबा ने बताया था। निठारी ग्राम में चूहों का आतंक था। चूहे खेतों में खड़ी फसलों को काट-काट कर गिरा देते थे। कृषक बहुत परेशान थे। उन्होंने चूहों को भगाने के लिए दवाइयों आदि का प्रयोग किया। पर कोई परिणाम न निकला। अन्त में उन्होंने बाबा की शरण ली। बाबा ने 'गणेश-पूजा के वृहत् अनुष्ठान की आज्ञा दी। अनुष्ठान आरम्भ हुआ। कई दिन तक जाप और पाठादि चलता रहा। बाबा भी उतने दिन ग्राम में ही रहे और मौन रहकर कुछ जाप और चिन्तन करते रहे। अनुष्टान के समाप्त होने तक सब चूहे न जाने कहाँ चले गये। बाबा एक सिद्ध योगी भी थे। वे यौगिक क्रियाओं द्वारा अपने रोगों का उपचार आप कर लिया करते थे। एक बार वे ऋषिकेश में बीमार पड़े। डॉक्टरों ने कहा-'आपका फेफड़ा गल गया है। इसे आपरेशन करके निकालना होगा।' दूसरे दिन प्रातः वे आसन पर बैठ गये और यौगिक क्रिया के पश्चात् खाँसकर मुँह से गला हुआ पेफड़ा निकाल दिया। पास में बैठे स्वतन्त्रता सैनानी श्रीमती चन्द्रवती के पति श्रीललिताप्रसादजी को उसे खींच कर दिखाते हुए बोले-'देखो बाबूजी, कैसा रबड़ की तरह हो गया है। इसी को निकालने के लिए डॉक्टर आपरेशन करने कह रहे थे।' उनका योग का एक चमत्कार देखकर तिलपत और भोगल के लोग आश्चर्य चकित रह गये थे, जब उन्होंने एक ही दिन एक ही समय इन दोनों जगहों के कीर्तन में भाग लिया था। बाबा की बहुमुखी प्रतिभा में उनकी विद्वता का स्थान भी कम महत्व का न था। यह कहना कठिन है कि उन्होंने विद्या का उपाजन कब और कैसे किया। पर वे वेद, उपनिषद् और पुराणादि के बड़े मर्मज्ञ थे। धर्म-ग्रन्थों के प्रकाशन में भी उनकी बड़ी रुचि थी। श्रीहरिलाल द्वारा लिखित राधासुधानिधि की रसकुल्या टीका का प्रकाशन कर उन्होंने उसका निःशुल्क वितरण किया। श्रीहित स्फुट-बाणी' और 'श्रीनागरी-दासजी की वाणी' का भी उन्होंने प्रकाशन किया। बाबा किशोरीशरणजी का जन्म गढ़वाल के एक कुलीन ब्राह्मण परिवार में हुआ। शैशव में ही माता-पिता परलोक सिधार गये। संसार क्षण भंगुर है, इसके सम्बन्ध झूठे हैं, इससे शाश्वत सुख और शान्ति प्राप्त करने की आशा मृगमरीचिका है - इसका अहसास उन्हें होश सम्हालते ही होने लगा। ते शाश्वत सुख की खोज में घर से निकलकर हिमालय की ओर चल पड़े। गंगोत्री के निकट आनन्दगिरि नाम के एक संन्यासी से उनकी भेंट हुई। उनसे संन्यास लेकर वहीं एक गुफा में ध्यान-धारणा करने लगे। पर उनके रसलोलुप हृदय को यह मार्ग रस के लोभ से ओखली में शुष्क तृण-समूह को कूटते रहने जैसा लगा। उन्हें ज्ञान के गह्वर में अपने बाहर और भीतर का अकेलापन खलने लगा। भाग्य से उसी समय उन्हें परसरामदास नाम के एक वैष्णव महात्मा का संग प्राप्त हुआ। उनके संग से उनका मन वृन्दाविपिन और उसके सहजसलौने ठाकुर मोर-पिच्छ-वंशीधारी, रासबिहारी श्रीकृष्ण और उनकी प्राण प्रिया, परमाराध्या राधा ठाकुरानी के प्रति आकर्षित हुआ। वे उनका स्मरण करते-करते वृन्दावन की ओर अग्रसर हुए। वृन्दावन पहुँचकर उन्होंने भजन-सिद्ध श्रीपरमानन्ददासजी से वैष्णवी दीक्षा ली और उनके दोसायत- स्थित स्थान में रहकर श्रीठाकुर श्यामावल्लभजी की अष्टयाम-सेवा का सुख लेने लगे। परमानन्दजी की निकुञ्ज-प्राप्ति के पश्चात् उन्होंने इस स्थान का विस्तार कर इसे वर्तमान श्रीश्यामाकुञ्ज के नाम से प्रसिद्ध किया। वे एक नाम-निष्ठ सन्त थे। पर श्रीचैतन्य महाप्रभु के 'जीवे दया, नामे रुचि' सिद्धान्त के अनुसार भीतर से नाम-स्मरण की साधना में लगे रहते हुए भी बाहर से सदा घूम-फिरकर लोकोपकारी कार्य करने में व्यस्त रहते थे। वे जहाँ भी जाते उनके प्रेमीजन जी खोलकर उन्हें भेंट देते। वे भेंट की राशि को मुस्कराते हुए बगलबन्दी में रखते जाते। जब वह पर्याप्त हो जाती, उसे उसी स्थानपर किसी परमार्थ कार्य के लिए वहाँ के लोगों को सौंप देते। वृन्दावन, तिलपत, पल्ला, मवई, महावतपुर, वल्लभगढ़, भोगल, निठर्रा, रायपुर, ब्रजघाट, सूगरपुर, ऋषीकेश आदि अनेकों स्थानों में उनके द्वारा इस प्रकार बनवाये गये मन्दिर, धर्मशाला, अन्नक्षेत्र और प्याऊ आदि उनकी उदारता और पारमार्थिक कार्यों में अभिरुचि की आज भी याद दिलाते हैं। बाबा इतने सामर्थ्यवान और ऐश्वर्यशाली होते हुए भी स्वयं बड़े वैराग्य से रहते। उनके पास जो कुछ भी आता उसे वे प्रभु और उनके प्रियजनों की सेवा की सामग्री जानकर तदनुरूप ही उसका व्यय करते। एक बार बिहार के एक महन्त, जो कभी बड़े प्रभावशाली थे, पर अब प्रभावहीन और श्रीहीन हो चुके थे, उनके पास आये इसका कारण जानने। उन्हें देखते ही बाबा ने कहा- 'भइया भले आये। तुमने श्रीजी की सम्पत्ति का अपने सुख के साधन जुटाने में प्रयोग किया। इसीलिए तुम्हारा प्रभाव कम हो गया। साधु का तो केवल सेवा का अधिकार है और जितने में प्रभु और उनके जनों की सेवा के लिए प्राप्त यह शरीर चल जाय, उतना ही इसके प्रयोग में ले आने का। बाबा तो अपने शरीर को भी अपना न मानते। वे उसे दूसरों का दुःख दूर करने का एक उपकरण मात्र समझते। वे अकसर दयापरवश हो दूसरों का रोग स्वयं ले लिया करते। एक बार कोसी में उनके कृपापात्र श्रीभार्गव महोदय को अकस्मात् आँख का भयंकर कष्ट हुआ। परिवार में उदासी छा गयी। रसोई भी उस दिन नहीं बनी। अन्तर्यामी बाबा को वृन्दावन में इसका पता चला। वे कोसी जा पहुँचे। बाबा को अकस्मात् आया देख सब लोग परमानन्दित हुए। उन्होंने समझ लिया कि मंगलमूर्ति बाबा के आ जाने पर अब अमंगल अधिक नहीं टिकने का। बाबा ने वहाँ पहुँचते ही पहले रसोई बनाने का आदेश दिया। रसोई बनते-बनते भार्गव साहब का कष्ट जाता रहा और बाबा की आँखों में उसी प्रकार के कष्ट के लक्षण उभरने लगे। बाबा बिना किसी को कुछ बताये भोगल ग्राम जाने को उठ खड़े हुए। सबने रसोई बनने के पश्चात् प्रसाद पाकर जाने का आग्रह किया। पर बाबा बोले-'रसोई तो मैंने तुम्हारे लिए बनवायी। मुझे अभी कुछ नहीं लेना है।' इतना कह वे भोगल के लिए चल पड़े। भोगल पहुँचकर उनकी आँखों का बिलकुल वही हाल हुआ, जो भार्गव साहब की आँखों का हुआ था। भार्गव साहब को जब इसका पता चला तो वे भोगल गये। बाबा के चरण पकड़कर बोले- 'मेरा दुःख मुझे वापस कर दे। मुझसे आपका दुःख देखा नहीं जाता।' बाबा ने कहा-मेरा इससे कुछ नहीं बिगड़ता। तुम सद्गृहस्थ हो। परिवार का तुम्हारे ऊपर दायित्व है। तुम्हारे दुःखी होने से सारे परिवार को दुःखी होना पड़ता है। तुम जाओ, अपना काम करो। मेरा कष्ट अधिक नहीं रहेगा।' फिर भी भार्गव साहब दिल्ली गये और दो नेत्र-चिकित्सा के विशेषज्ञ डॉक्टरों को साथ लेकर आये। डॉक्टरों को देख बाबा ने कहा- 'इन्हें इनकी फीस देकर वापस कर दो। मुझे नेत्र इन्हें नहीं दिखाने। श्रीराधावल्लभ स्वयं मेरे नेत्र ठीक कर देंगे।' दूसरे दिन श्रीराधावल्लभ की कृपा से उनके नेत्र भी ठीक हो गये। मेरठ के एक वकील साहब का लड़का महीने भर से सख्त बीमार था। उसके बचने की कोई आशा न थी। उन्होंने बाबा के पास वृन्दावन जाकर अपना रोना रोया और उनसे उसी समय अपनी गाड़ी में मेरठ चलने का आग्रह किया। बाबा उनका आग्रह न टाल सके। मेरठ जाकर वकील साहब के मकान की दूसरी मंजिल में उन्होंने लड़के को देखा। वह शायद अन्तिम सांसें लेने की स्थिति में था। उसे देख वे बाहर आ गये और सीढ़ियों से नीचे उतरते हुए बोले-'मैं इसी समय वृन्दावन लौटूँगा।' सीढ़ियों से उतरते-उतरते उन्हें खून की उल्टी हुई। यह देख वकील साहब और भी घबरा गये। उन्होंने बाबा से उस रात उनके घर पर ही विश्राम करने का आग्रह किया। पर बाबाने एक न सुनी। उन्हें उसी समय वृन्दावन पहुँचाना पड़ा। दूसरे दिन जब वकील साहब घर वापस पहुँचे तो उनका लड़का चारपाई से उठकर टहल रहा था। कुछ ही दिनों में वह पूर्ण स्वस्थ हो गया। बाबा ने उसे देखते ही उसका रोग ले लिया था। तभी उन्हें खून की उल्टी हुई थी। वे कुछ दिन बीमार रहकर ठीक हो गये। बाबा की परदुःख कातरता की कोई सीमा न थी। उन्होंने न जाने कितने लोगों को इसी प्रकार रोग मुक्तकर स्वयं कष्ट भोगा। वे कहा करते- 'मेरौ बस चलै तौ सबरे जगत् को दु:ख अपनी छाती पर धर लऊँ।' दूसरों के दुःख अपनी छाती पर लेते-लेते ही उन्होंने अन्त में प्राण त्याग दिये। अन्त समय, जब दिल्ली के होली फेमली अस्पताल में उनका इलाज हो रहा था, उन्होंने पण्डित मंगतरामजी से कहा था-'इस बार मैंने एक ऐसे अपराधी का अपराध मोल ले लिया है, जिससे मैं मौत से लड़ने की अपनी सारी शक्ति ही खो बैठा हूँ।' पर, जैसा हम ऊपर संकेत कर चुके हैं, यह बाबा का बाह्य स्वरूप ही था। अन्तर में वे नाम-साधना में सदा लगे रहते। इस प्रकार के लोको-पकारी कार्यों में लगे रहने का भी उनका मूल उद्देश्य इनके द्वारा अन्य लोगों में नाम और नामी के प्रति श्रद्धा और भक्ति का बीज वपन करना था। वे इनके बदले लोगों से उनके अपने ही कल्याणके हेतु नाम-जप की भिक्षा माँगते। नाम की महिमा का वर्णन करते हुए उन्हें विश्वास दिलाते कि नाम ही उनका सच्चा हितैषी, रक्षक, पालक और उद्धारक है। एक बार नाम की महिमा का वर्णन करते हुए उन्होंने अपने अनुभव की एक बात इस प्रकार कही थी - मैंने और मेरे दो साथियों ने एक बार काबुल की यात्रा की। एक दिन प्रातः चार बजे हम लोग कीर्तन करते हुए काबुल से कुछ दूर एक दर्शनीय स्थान की ओर जा रहे थे। हममें-से एक के पास चाँदी के रुपयों की थैली थी, जो रास्ते में फट गयी। रुपये जमीन पर बिखर गये। हम लोग जल्दी-जल्दी उन्हें समेटने लगे। इतने में चार बन्दूकधारी जंगल में से निकलकर बन्दूकें हमारी ओर तानते हुए बोले- 'जो कुछ तुम्हारे पास है रख जाओ, नहीं तो मार डाले जाओगे।' मुझे विश्वास था कि हम श्रीराधावल्लभलाल के नाम का कीर्तन करते आ रहे हैं। नाम भगवान् हमारे साथ हैं। वे अवश्य डाकुओं से हमारी रक्षा करेंगे। इस विश्वास के साथ मैंने फिर राधावल्लभ नाम लेना शुरु किया। उसी समय पुलिस के छः धुड़सवार उन डाकुओं को खोजते हुए उधर आ निकले और उन्हें पकड़कर ले गये। बाबा कहा करते-सदा प्रसन्न रहो। मुस्काते हुए श्यामा-श्याम का चिन्तन करते रहो और नाम-जप करते रहो। नामजप से प्रसन्नता में स्थायित्व आता है, नहीं तो प्रसन्नता आती है और चली जाती है।' राधा-नाम में बाबा की अनन्य निष्ठा थी। वे कहा कहते कि स्वयं श्रीकृष्ण भी यमुना-तटपर कुञ्ज-मन्दिर में योगिराज के समान बैठकर श्रीराधा के चरणकमलों की ज्योति का ध्यान करते हुए और नेत्रों से प्रेमाश्रु विसर्जन करते हुए उनके नाम का जप किया करते हैं- कालिंदीतटकुञ्ज मन्दिरगतो योगीन्द्रवद्यत्पद। ज्योतिर्ध्यानपरः सवा जपति यां प्रेमश्रुपूर्णो हरिः॥ (रा० सु० ९५) बाबा राधा-नाम रटते हुए श्यामा-श्याम की अष्टकालीन लीलाओं के चिन्तन में निमग्न रहते। अन्त में उन्होंने लीला में प्रवेश करने का निश्चय किया। एक दिन अपने भक्तों से यह कहकर इसका संकेत किया कि 'रक्षाबंधन के दिन बारात निकलेगी।' पर कोई इस संकेत को समझ न सका। अपने निश्चय के अनुसार रक्षाबन्धन के दिन ही श्रावण पूर्णिमा, सम्वत् २०३६ को उन्होंने नित्य-लीला में प्रवेश किया। इससे लगता है कि किसी बड़े अपराधी का अपराध अपने ऊपर लेकर शरीर छोड़ने की बात शरीर छोड़ने का एक बहाना मात्र था। बाबा में जो अलौकिक शक्ति थी वह उन्होंने नाम-जप और कीर्तन से प्राप्त की थी। इसलिए वे जहाँ भी जाते नाम-जप और कीर्तन का प्रचार करते। अष्टप्रहर नाम-कीर्तन और भण्डारे तो उनके साथ नित्य लगे हीरहते। कभी-कभी मुसलमान भक्त भी उनके कीर्तनों में सम्मिलित होते देखे जाते। राधाष्टमी का उत्सव वे बड़ी धूमधाम से मनाते। उस दिन उनके स्थान पर साधु-वैष्णव-सेवा का विराट् आयोजन होता। सहस्रों की संख्या में साधु-महात्मा और गृहस्थ, सेठ-साहूकार और दरिद्र-भिखमंगे भरपेट प्रसाद पाते। सभी के लिए उनका दरवाजा खुला रहता। यदि भण्डारे में कमी पड़ जाती और सेवकगण उनके पास जाकर चिन्ता व्यक्त करते, तो वे स्वयं भण्डारे में जाते। लड्डू-पूरी आदि पर हाथ फेरते हुए कहते, 'सामान तो बहुत है। तुम लोग व्यर्थ चिन्ता करते हो। देखो, भण्डारे की जिम्मेदारी मेरी है, पंगत की तुम्हारी। तुम निःसंकोच खुले हाथ से परसते जाओ।' सेवकगण ऐसा ही करते और भण्डारे में कभी किसी प्रकार की कमी न पड़ती। सन्ध्या समय वे अपने स्थान से गाजे-वाजे और तरह-तरह की आकर्षक चौकियों के साथ एक विशाल शोभा-यात्रा निकालते। शोभा-यात्रा में सम्मिलित उनके सहस्रों भक्तों की कीर्तन-ध्वनि से वृन्दावन का आकाश गूँज उठता। आज भी उनके भक्त उसी उत्साह से राधाष्टमी का उत्सव मनाकर वृन्दावन के जनमानस में उनकी पुण्य स्मृति जगाते रहते हैं। लेखक: बी. एल कपूर पुस्तक: व्रज के भक्त "जय जय श्री राधे"


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