सर्वत्र आनन्द का अनुभव करें
( पोस्ट 6 )

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|| श्री हरि: ||

गत पोस्ट से आगे…………
चुम्बक होता है, जमीन पर लगाने से लोहे के परमाणु उसके साथ आ जाते हैं, पर उसका मसाला घिस कर साफ़ कर दें तो वह लोहे को नहीं पकड़ सकता | हमारे ह्रदय में मैल है तभी यह विषयों की ओर जाता है | उसको घिस कर साफ कर दें तो फिर उनकी तरफ नहीं जा सकता |
प्रेम या ज्ञान की साबुन से घिस कर साफ कर दें तो फिर मैले को छूता ही नहीं | छोटा बच्चा जब तक ज्ञान नहीं होता तभी तक मैले की ओर जाता है, जब घृणा हो जाती है तो फिर नहीं जाता | बार-बार घृणा कराने से ऐसी घृणा हो गयी कि घृणा कराने वालों से ज्यादा घृणा हो गयी | इसी तरह जब विषयों में घृणा हो जाती है तो उनमे दुर्गन्ध आती है, पास में भी नहीं जा सकता |

वैराग्य का नशा चढ़ जाता है तो फिर इतर, फुलेल मूत्र के समान हो जाते हैं जितने भी स्त्री आदि के विषय हैं, विष्ठा-मूत्र में और उनमे अन्तर ही क्या है | विष्ठा के समान हैं | साक्षात आनन्द को छोड़कर घृणित पदार्थ की तरफ दृष्टि करना मूर्खता है | थोडा भी ज्ञान हो जाय तो फिर पास में भी नहीं जाता |


जब प्रभु में प्रेम होता है तो वह उसे छोड़कर कहीं जा ही नहीं सकता | आनन्द का ही प्रेम के रूप में प्रादुर्भाव होता है, आनन्द, प्रेम उसके ही मोटे रूप हैं | आकाश में बादल की बूंद, ओले, बर्फ के रूप में होते हैं, वैसे ही वह आनन्दमय परमात्मा ही रस, आनन्द, सुख के रूप में परिणत होता है, उस आनन्द में डूब जाने पर फिर उसको छोड़ ही कैसे सकता है | उस भगवान् का वियोग उसे तड़पाता है | मछली का जब जल से वियोग होता है, फिर उसे जल में डालें तो उसके प्राण आ जाते हैं |
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शेष आगामी पोस्ट में |
गीताप्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित जयदयाल गोयन्दका की पुस्तक भगवान् कैसे मिलें ? (१६३१) से |

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