गोपियाँ कृष्ण से पूछती हैं कि बता- तू जिसके ऊपर प्रसन्न होता है उसे क्या प्रदान करता है – जब रास लीला चल रही है ,
महारास नहीं – तो श्यामसुंदर कहते हैं कि हे मेरी प्यारी गोपियों ! मैं जिनपर सबसे ज्यादा प्रसन्न होता हूँ न उसे अपना विरह देता हूँ ।
गोपियों ने कहा – अच्छा – मिलन ? कृष्ण कहते हैं – मिलन तो सबसे छोटी वस्तु है – मिलता तो मैं रावण से भी हूँ ,
मिलता तो मैं कुम्भकर्ण के साथ भी हूँ , मिलता तो मैं मेघनाथ के साथ , कंस के साथ , जरासंध के साथ , विदूरथ , दंतवक्र , रुक्मी , शाल्व , पौण्ड्रक , दुर्योधन , दुःशासन – इनके साथ भी मिलता हूँ –
मिलन कोई बहुत बड़ी चीज नहीं है मेरे साथ – सबसे मिलता हूँ – फिर मेरे प्रेम में जो रुदन करता है – हे कृष्ण – हे कृष्ण , उस विरह में जो आनंद है वह विराहानंद केवल मैं अपने रसिक भक्तों को देता हूँ ,
मिलनानंद तो मैंने सबको दिया है , सहज ही प्राप्त हूँ – सबके हृदय में हूँ , रोम रोम में हूँ , कण कण में हूँ ,
आत्मा स्वरूप में मैं ही विराजित हूँ , धड़कन मैं ही हूँ , हड्डी में मैं ही हूँ , रोम रोम में मैं ही हूँ ” रोम रोम प्रति वेद कहे ” -लेकिन हे गौड़पादाचार्य आज आपनें रसिक संतों के सिद्धांत को बता दिया ।
इसलिए मैं तुमसे कहता हूँ कि मिलन की आकांक्षा बड़ी छोटी आकांक्षा है , प्रियतम मिल गए लेकिन अब प्रियतम के विरह का आनंद – क्योंकि जब मिलन होता है
तो आँखों के सामने होता है – मैं तुम्हारे सामने बैठा हूँ तुम पीछे न देखोगे , जब मिलन होता है तो आँखों के सामने होता है पर जब विरह होता है तो चारो तरफ वही वही होता है – ‘जित देखूँ तित श्याममयी है’ –
जब श्यामसुंदर वृन्दावन में हैं तो गोपियाँ सामने सामने देख लेती हैं , किसी दिन नहीं श्याम नही आता तो रोती हैं कि आज नहीं आया मेरे घर पर और जब श्यामसुंदर मथुरा चले जाते हैं
तो थोड़ी सी बिजली भी कड़कती है , थोडा मेघ भी छाता है , थोड़ा पत्ते भी खड़खड़ाते हैं तो श्याम आया , श्यामसुंदर आ गए ,
श्यामसुंदर आ गए – मेघ में भी श्यामसुंदर , जल में भी श्यामसुंदर ,पत्तों में भी श्यामसुंदर , तुलसी में भी श्यामसुंदर , गैय्या में भी श्यामसुंदर –
अरे हर जगह उनको श्यामसुंदर का ही दर्शन – मिलन में भी श्यामसुंदर और विरह में चारो तरफ प्रियतम ही प्रियतम ।
इसलिए ब्रज वृन्दावन की जो साधना है मिलन की नहीं विरह की है । जिन्होंने विरह का रस चखा नहीं , जिन्होंने विरहानंद प्राप्त किया नहीं –
न तो वे कृष्ण के योग्य हैं न तो वे गुरु के योग्य हैं ।
इस संसार की नहीं इस ब्रह्माण्ड की श्रेष्ठ वस्तु अगर कोई है तो श्रीकृष्ण के विरह में होकर रुदन करना है –
रोओ । लोग कहते हैं हँसो – मैं कहती हूँ तुमसे – रोओ कि तुम्हारे जगत की हँसी उतनी कामयाब नहीं है –
आज है कल गायब हो जाएगी पर श्री कृष्ण के विरह में यदि तुमको रोना आ गया तुम्हारे प्रियतम के विरह में तुमको अगर रोना आ गया तो तुम्हारे जीवन में चरमानंद और परमानंद की अब कभी आवश्यकता नहीं पड़ेगी
क्योंकि इससे बड़ा परमानंद श्रीकृष्ण किसी और को मानते नहीं – ‘रासो वै सः’
जो वेद पुरुष हैं ,
जो रस के घनस्वरूप हैं वो कहते हैं कि विरहानंद श्रेष्ठ है और फिर आज प्रिया और प्रियतम दोनों चले जाते हैं
और गौड़पादाचार्य दोनों हाथ उठा कर वृन्दावन की गलियों में घूम घूम कर – हा प्रिया – हा प्रियतम कब दर्शन दोगे और फिर उस रुदन में उस विरह में जो आनंद उनको मिलता है वह उनको मिलन में न था ।
इसलिए श्रीकृष्ण की साधना सहज नहीं , श्रीकृष्ण की साधना बड़ी टेढ़ी है और यहाँ का रस एक बार जिसने चख लिया उसको फिर और कोई रस जगत का भाता नहीं –
ये नवरस , षडरस , ये भोजन के रस , मैथुन रस , शयन रस , प्रतिष्ठा रस , ये मान रस – ये जितनें भी रस है
सौंदर्य रस, वीर रस , रौद्र रस ,वीभत्स रस – ये जितने भी रस हैं न वे सब रस नाली के पानी की तरह हैं , नाली के गंदले जल की तरह हैं –
एक बार जिसने प्रिया और प्रियतम के विरहानंद का रस आस्वादन कर लिया – पर यह बिना किसी रसिक संत के सानिध्य में आए संभव नहीं ,
बिना उनकी अहैतुकी कृपा – अहैतुकी — जरा ध्यान देना – वो किसी हेतु से तुम्हारे ऊपर कृपा नहीं करते ,
तुम्हारी योग्यता कृपा करनें के लिए उनको बाध्य नहीं कर सकती , उनकी कृपा सदैव अहैतुकी होती है – बिना किसी हेतु के , बिना किसी कारण के ।
अकारणकरुणावरुणालय नाम है परमात्मा का । जो कारण से करुणा करे वह तो संसारी है पर जो अकारण करुणा बरसाए वही तो सद्गुरु है ,
वही तो तुम्हारा साँवरा है , वही तो तुम्हारा प्रियतम है इसलिए यहां तुमारी योग्यता महत्वपूर्ण नहीं है , यहाँ तुम्हारी तपस्या महत्वपूर्ण नहीं है
गोपी और महारास के भावों का वर्णन करना तो इस लेख की सीमाओं से परे है और ये तुच्छ बुद्धि भी इस लायक नहीं है की निकुंज लीला के एक कण की भी चर्चा कर सके
वृन्दावन की गोपियों से लेकर दर्द दीवानी मीरा तक, इस सांवरी सलोनी सूरत के अनेक दीवाने और आशिक हुए हैं और हर प्रेमी का भाव इतना विलक्षण होता है कि चर्चा करते करते ज़िन्दगी छोटी लगने लगती है। हर प्रेमी अपने अलग ढंग से अपने ठाकुर को रिझाता है और अपने अनोखे भाव ठाकुर के चरणों में समर्पित करता है।
जयजय श्रीराधे श्रीहितहरिवंश
गोपियाँ कृष्ण से पूछती हैं कि बता- तू जिसके ऊपर प्रसन्न होता है उसे क्या प्रदान करता है – जब रास लीला चल रही है , महारास नहीं – तो श्यामसुंदर कहते हैं कि हे मेरी प्यारी गोपियों ! मैं जिनपर सबसे ज्यादा प्रसन्न होता हूँ न उसे अपना विरह देता हूँ । गोपियों ने कहा – अच्छा – मिलन ? कृष्ण कहते हैं – मिलन तो सबसे छोटी वस्तु है – मिलता तो मैं रावण से भी हूँ , मिलता तो मैं कुम्भकर्ण के साथ भी हूँ , मिलता तो मैं मेघनाथ के साथ , कंस के साथ , जरासंध के साथ , विदूरथ , दंतवक्र , रुक्मी , शाल्व , पौण्ड्रक , दुर्योधन , दुःशासन – इनके साथ भी मिलता हूँ – मिलन कोई बहुत बड़ी चीज नहीं है मेरे साथ – सबसे मिलता हूँ – फिर मेरे प्रेम में जो रुदन करता है – हे कृष्ण – हे कृष्ण , उस विरह में जो आनंद है वह विराहानंद केवल मैं अपने रसिक भक्तों को देता हूँ , मिलनानंद तो मैंने सबको दिया है , सहज ही प्राप्त हूँ – सबके हृदय में हूँ , रोम रोम में हूँ , कण कण में हूँ , आत्मा स्वरूप में मैं ही विराजित हूँ , धड़कन मैं ही हूँ , हड्डी में मैं ही हूँ , रोम रोम में मैं ही हूँ ” रोम रोम प्रति वेद कहे ” -लेकिन हे गौड़पादाचार्य आज आपनें रसिक संतों के सिद्धांत को बता दिया । इसलिए मैं तुमसे कहता हूँ कि मिलन की आकांक्षा बड़ी छोटी आकांक्षा है , प्रियतम मिल गए लेकिन अब प्रियतम के विरह का आनंद – क्योंकि जब मिलन होता है तो आँखों के सामने होता है – मैं तुम्हारे सामने बैठा हूँ तुम पीछे न देखोगे , जब मिलन होता है तो आँखों के सामने होता है पर जब विरह होता है तो चारो तरफ वही वही होता है – ‘जित देखूँ तित श्याममयी है’ – जब श्यामसुंदर वृन्दावन में हैं तो गोपियाँ सामने सामने देख लेती हैं , किसी दिन नहीं श्याम नही आता तो रोती हैं कि आज नहीं आया मेरे घर पर और जब श्यामसुंदर मथुरा चले जाते हैं तो थोड़ी सी बिजली भी कड़कती है , थोडा मेघ भी छाता है , थोड़ा पत्ते भी खड़खड़ाते हैं तो श्याम आया , श्यामसुंदर आ गए , श्यामसुंदर आ गए – मेघ में भी श्यामसुंदर , जल में भी श्यामसुंदर ,पत्तों में भी श्यामसुंदर , तुलसी में भी श्यामसुंदर , गैय्या में भी श्यामसुंदर – अरे हर जगह उनको श्यामसुंदर का ही दर्शन – मिलन में भी श्यामसुंदर और विरह में चारो तरफ प्रियतम ही प्रियतम । इसलिए ब्रज वृन्दावन की जो साधना है मिलन की नहीं विरह की है । जिन्होंने विरह का रस चखा नहीं , जिन्होंने विरहानंद प्राप्त किया नहीं – न तो वे कृष्ण के योग्य हैं न तो वे गुरु के योग्य हैं । इस संसार की नहीं इस ब्रह्माण्ड की श्रेष्ठ वस्तु अगर कोई है तो श्रीकृष्ण के विरह में होकर रुदन करना है – रोओ । लोग कहते हैं हँसो – मैं कहती हूँ तुमसे – रोओ कि तुम्हारे जगत की हँसी उतनी कामयाब नहीं है – आज है कल गायब हो जाएगी पर श्री कृष्ण के विरह में यदि तुमको रोना आ गया तुम्हारे प्रियतम के विरह में तुमको अगर रोना आ गया तो तुम्हारे जीवन में चरमानंद और परमानंद की अब कभी आवश्यकता नहीं पड़ेगी क्योंकि इससे बड़ा परमानंद श्रीकृष्ण किसी और को मानते नहीं – ‘रासो वै सः’ जो वेद पुरुष हैं , जो रस के घनस्वरूप हैं वो कहते हैं कि विरहानंद श्रेष्ठ है और फिर आज प्रिया और प्रियतम दोनों चले जाते हैं और गौड़पादाचार्य दोनों हाथ उठा कर वृन्दावन की गलियों में घूम घूम कर – हा प्रिया – हा प्रियतम कब दर्शन दोगे और फिर उस रुदन में उस विरह में जो आनंद उनको मिलता है वह उनको मिलन में न था । इसलिए श्रीकृष्ण की साधना सहज नहीं , श्रीकृष्ण की साधना बड़ी टेढ़ी है और यहाँ का रस एक बार जिसने चख लिया उसको फिर और कोई रस जगत का भाता नहीं – ये नवरस , षडरस , ये भोजन के रस , मैथुन रस , शयन रस , प्रतिष्ठा रस , ये मान रस – ये जितनें भी रस है सौंदर्य रस, वीर रस , रौद्र रस ,वीभत्स रस – ये जितने भी रस हैं न वे सब रस नाली के पानी की तरह हैं , नाली के गंदले जल की तरह हैं – एक बार जिसने प्रिया और प्रियतम के विरहानंद का रस आस्वादन कर लिया – पर यह बिना किसी रसिक संत के सानिध्य में आए संभव नहीं , बिना उनकी अहैतुकी कृपा – अहैतुकी — जरा ध्यान देना – वो किसी हेतु से तुम्हारे ऊपर कृपा नहीं करते , तुम्हारी योग्यता कृपा करनें के लिए उनको बाध्य नहीं कर सकती , उनकी कृपा सदैव अहैतुकी होती है – बिना किसी हेतु के , बिना किसी कारण के । अकारणकरुणावरुणालय नाम है परमात्मा का । जो कारण से करुणा करे वह तो संसारी है पर जो अकारण करुणा बरसाए वही तो सद्गुरु है , वही तो तुम्हारा साँवरा है , वही तो तुम्हारा प्रियतम है इसलिए यहां तुमारी योग्यता महत्वपूर्ण नहीं है , यहाँ तुम्हारी तपस्या महत्वपूर्ण नहीं है गोपी और महारास के भावों का वर्णन करना तो इस लेख की सीमाओं से परे है और ये तुच्छ बुद्धि भी इस लायक नहीं है की निकुंज लीला के एक कण की भी चर्चा कर सके वृन्दावन की गोपियों से लेकर दर्द दीवानी मीरा तक, इस सांवरी सलोनी सूरत के अनेक दीवाने और आशिक हुए हैं और हर प्रेमी का भाव इतना विलक्षण होता है कि चर्चा करते करते ज़िन्दगी छोटी लगने लगती है। हर प्रेमी अपने अलग ढंग से अपने ठाकुर को रिझाता है और अपने अनोखे भाव ठाकुर के चरणों में समर्पित करता है। जयजय श्रीराधे श्रीहितहरिवंश