शुद्ध भाव

buddha 199462 640

पुराने समय की बात है। उस समय संत महापुरुष घूमते फिरते किसी किसी स्थान पर महीने दो महीने के लिए रुक जाया करते थे। ऐसे ही एक गाँव में एक संत आए हुए थे।
उस समय गाँव के लोग बिजाई के लिए अपना अपना खेत तैयार कर रहे थे। एक लड़का उन संत का शिष्य हो गया और बड़े भाव से गुरू जी की सेवा करने लगा। वह अपने गुरू जी की सेवा में इतना तल्लीन हो गया कि उसे अपना खेत तैयार करने की सुध ही न रही, बीज बोने की बात तो दूर रही।
विदाई का समय आया तो सब गाँव वाले इक्कट्ठे हुए। उनकी आपस की चर्चा से गुरू जी ने जान लिया कि यह लड़का तो इस वर्ष खेती से वंचित ही रह जाएगा।
उनके झोले में और तो कुछ था नहीं। बस वे संत रास्ते के लिए अपने साथ कुछ पेठे के बीज रखा करते थे, जब भूख लगती थी तो खा लेते थे। तो झोले से पेठे के बीज ही निकाल कर उस लड़के को दे दिए।
गुरू जी का प्रसाद समझकर, उस लड़के ने वे बीज अपने घर के आँगन में ही बो दिए। समय पाकर उसके आँगन में पेठे पैदा हो गए।
शिष्य ने विचार किया कि यह तो मेरे गुरू जी की कृपा का फल है, इन पेठों को बेचना नहीं चाहिए, इन्हें तो घर में ही प्रयोग करना चाहिए। उसने एक पेठा काटा। पर उसकी हैरानी की कोई सीमा न रही जब उसने देखा कि उस पेठे के भीतर कोई बीज नहीं थे, बल्कि वह तो हीरों से भरा था।
धीरे धीरे यह खबर सारे गाँव में फैल गई। अब तो सभी गाँव वाले, उन संत की ही प्रतीक्षा करने लगे।
अगले वर्ष वे संत उसी गाँव में दोबारा आए तो सारा गाँव ही उनका शिष्य हो गया और उनकी सेवा में जुट गया। वे संत की सेवा करते और हीरे पाने की कल्पना कर, दिन रात अपने सुखद भविष्य के सपने बुना करते।
इस प्रकार जानबूझ कर किसी ने भी खेत नहीं बोया। जब गुरू जी जाने लगे तो सब गाँव वाले गुरू जी को ले जा कर, अपना अपना खाली खेत दिखाने लगे और बीज माँगने लगे। गुरू जी भी झोले में से पेठे के बीज निकाल निकाल सबको देते चले।
गुरू जी के जाते ही, गाँव वाले गुरू जी को भूल कर, उन बीजों को बोने में लग गए। फसल आने पर गाँव भर में पेठे ही पेठे हो गए, पर जब पेठे काटे तो वहाँ हीरा नाम की चीज नहीं थी, बीज ही बीज निकलने लगे।
बेचारों ने वर्ष भर पेठे ही खाकर गुजारा किया।
लोकेशानन्द कहता है कि कर्म ही पेठा है। आत्मा, परमात्मा ही हीरा है। कर्म तो सभी ने किया। एक जैसा किया। पेठे के बीज भी सभी को मिले। पेठे भी सभी के लगे। पर सभी को एक जैसा फल नहीं मिला। क्योंकि भाव में अंतर था।
जिसने कर्म को सच्चे भाव से किया वो आत्मा रुपी हीरा पा गया। कर्म सही भाव से हो तो ही अर्थ है, वरना कर्म व्यर्थ है।



It’s old time. At that time, the saints used to roam around and stay at some place for two months. A saint had come to one such village. At that time the people of the village were preparing their own fields for sowing. A boy became a disciple of those saints and started serving Guru ji with great devotion. He became so engrossed in the service of his Guru that he did not care to prepare his own field, let alone sowing seeds. When the time of farewell came, all the villagers gathered. Guru ji learned from their mutual discussion that this boy would be deprived of farming this year. There was nothing else in his bag. Just those saints used to keep some petha seeds with them for the way, they used to eat when they felt hungry. So taking out the seeds of petha from the bag and giving it to that boy. Taking it as Guru ji’s prasad, the boy sowed those seeds in the courtyard of his house. In due course of time pethas were born in his courtyard. The disciple thought that this is the fruit of the grace of my Guru ji, these leaves should not be sold, they should be used at home. He cut a petha. But his surprise knew no bounds when he saw that there were no seeds inside the petha, but it was full of diamonds. Slowly this news spread in the whole village. Now all the villagers started waiting for that saint only. The next year, when those saints came again in the same village, the whole village became his disciple and got engaged in his service. They would weave dreams of their happy future day and night, dreaming of serving the saint and getting diamonds. No one sowed the field intentionally in this way. When Guru ji started leaving, all the villagers started taking Guru ji, showing their empty fields and asking for seeds. Guru ji also took out the seeds of petha from the bag and kept giving it to everyone. As soon as Guru ji left, the villagers started sowing those seeds, forgetting Guru ji. On the arrival of the crop, pethas were grown all over the village, but when the pethas were cut, there was no such thing as a diamond, only the seeds started sprouting. The poor people made a living by eating petha for the whole year. Lokeshanand says that Karma is Petha. The soul, the Supreme Soul, is the diamond. Everyone did the work. did the same. Petha seeds were also available to everyone. Petha was also liked by everyone. But not everyone got the same result. Because there was a difference in price. The one who did the work in true spirit, got the diamond of the soul. Only if the action is done in the right spirit, there is meaning, otherwise the action is meaningless.

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